Vedanta goes beyond scientific understanding by recognizing the presence of not only an insentient but also a Conscious Nature.
The Vedic cosmology outlines three phases of creation:
Sarga, the creation of matter from mind;
The formation of the material world (formation of atoms, elements, planets, stars and galaxies); and
Visarga, the production of minerals, plants, and organisms.
Modern science completely ignores the first phase, i.e. Sarga but it aligns with the Vedic cosmology in acknowledging the gradual nature of creation and the existence of an insentient nature undergoing evolution.
Vedanta, however, goes beyond scientific understanding by recognizing the presence of not only an insentient but also a Conscious Nature.
The text aims to inform readers about the similarities and differences between the Vedic and scientific perspectives on the universe's creation. It emphasizes the Vedic cosmology's recognition of a conscious nature beyond the material realm, which complements the scientific understanding of an insentient, evolving nature.
This knowledge can help readers in the following ways:
Bridging the gap between science and spirituality: By understanding the Vedic cosmology and its alignment with modern science, readers can appreciate the interconnectedness of spiritual and scientific approaches to understanding the universe.
Expanding their understanding of consciousness: The text's emphasis on the Vedic concept of Conscious Nature can broaden readers' perspectives on consciousness beyond the physical realm, potentially leading to deeper insights into their own consciousness.
Appreciating the Vedic worldview: The text provides a concise introduction to the Vedic cosmology and its implications, allowing readers to gain a deeper understanding of this ancient Indian worldview.
Engaging in meaningful discussions: Understanding the similarities and differences between Vedic and scientific cosmology can equip readers to engage in informed discussions about the nature of the universe and the role of consciousness.
Read the previous article▶️Kartapurush ep33
हमने कहा कि परमात्मा की प्रकृति के दोनों रूप - परा और अपरा - जगत् के दो उपादान हैं। सृष्टि के स्वरूप प्रकाश की प्रक्रिया में उपादान कारण परिणाम में परिवर्तित होता है जैसे मिट्टी घड़े में परिवर्तित होती है अथवा सोना आभूषण आदि में परिवर्तित होता है। परमात्मा की पराप्रकृति ज्ञानमयी अर्थात चैतन्य है, स्वाभाविक रूप से इसके परिणाम भी चैतन्य ही होंगे। परमात्मा की अपराप्रकृति गुणमयी है। ये गुण तीन हैं - सत्व, रजस् और तमस्। स्वाभाविक रूप से अपराप्रकृति के परिणाम भी तीन प्रकार के अर्थात सात्विक, राजसिक और तामसिक होंगे। अपराप्रकृति के इन्हीं तीन प्रकार के परिणामों से मन, प्राण और जड़ की उत्पत्ति होती है जो त्रिभुवन के तीन मंडलों की उपादान सामग्री बनते हैं। परमात्मा की पराप्रकृति सर्वत्र है, गुरु नानक लिखते हैं : कुदरति पाताली आकासी कुदरति सरब आकारु ॥(1-462) ‘आकाशों में, पातालों में सर्वत्र प्रभु की कुदरत/पराप्रकृति है; समस्त रूपों के मूल में प्रभु की कुदरत है।’ यदि प्रभु की कुदरत सर्वत्र है तो उस कुदरत का अपर रूप भी सर्वत्र होगा क्योंकि यह कुदरत की ही परछाई है। साथ ही, कुदरत के परिणाम मन, प्राण और जड़ भी सर्वत्र होंगे।
पश्चिमी जगत् में प्राचीन काल से ही मन और शरीर को दो भिन्न-भिन्न सत्ताओं के रूप में जाना जाता रहा है। इस विचार की जड़ें बाइबल में हैं, वहाँ मन और आत्मा को समान माना गया है। बाइबल के अनुसार परमात्मा ने माँ के गर्भ धारण करने के समय शून्य में से आत्मा का निर्माण किया। इस तरह आत्मा अनादि नहीं है, हाँ, यह अनंत अवश्य है। किन्तु आधुनिक दर्शन, विज्ञान व मनोविज्ञान के अनुसार शरीर व मन एक ही पदार्थ हैं। इस विचार के अनुसार संरचनात्मक मस्तिष्क की संज्ञा शरीर है जबकि चिंतन हेतु क्रियात्मक मस्तिष्क की संज्ञा मन है। वेदान्त के अनुसार मस्तिष्क और मन भिन्न-भिन्न हैं। मस्तिष्क मन का उपकरण है। प्रत्येक अनुभव का भोक्ता मन है और मन इस प्रयोजन हेतु मस्तिष्क का प्रयोग करता है। वेदान्त के अनुसार मन प्रत्येक निर्जीव और सजीव अनुभवसिद्ध सत्ता में विद्यमान है। ब्रह्मांडीय पुरुष में ब्रह्मांडीय मन है, जबकि प्रत्येक अनुभवसिद्ध सत्ता में एक व्यक्तिगत मन है। प्रत्येक सूक्ष्म कण जैसे प्रकाशाणु, इलेक्ट्रान, प्रोटॉन, नूट्रान में, प्रत्येक खगोलीय पिंड जैसे तारे, ग्रह, उपग्रह में, प्रत्येक सूक्ष्मजीवी जैसे विषाणु, बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ में, प्रत्येक पौधे, पशु और मनुष्य में मन विद्यमान है। थॉमस यंग द्वारा वर्ष 1801 में किये गये ‘दुहरा-छेद प्रयोग’ (double slit experiment) ने यह सिद्ध किया है कि तंत्रिका-तंत्र और मस्तिष्क के अभाव के बावजूद इलेक्ट्रान या प्रकाशाणु चेतन सत्ता के समान व्यवहार करते हैं। इसी प्रकार एच. एस. जेनिंगस द्वारा तंत्रिका-कोशिका और मस्तिष्क विहीन एक-कोशिकीय प्राणी ऐमीबा पर किये गये प्रयोग से भी यह प्रमाणित हुआ कि ऐमीबा बुद्धिमान प्राणी के समान व्यवहार करता है। पुनः मस्तिष्क के निर्माण से पहले भ्रूणोद्भव (embryogenesis) के प्रारम्भिक चरण में निषेचन (fertilisation), कोरकखंड (blastomere) के निर्माण, गासट्रूलेशन और न्यूरुलेशन के दौरान जिस बुद्धिमता का परिचय होता है वह आश्चर्यजनक है। इस सब से यही निष्कर्ष निकलता है कि ‘मन’ और ‘मस्तिष्क’ एक ही नहीं हैं और मन तंत्रिका-तंत्र के बिना भी कार्य कर सकता है। मन सर्वत्र है। यह ठीक है कि मन की रूप-रचना और प्रकार्य सर्वत्र एकसमान नहीं हैं, यह धारणा गलत होगी कि इलेक्ट्रान, विषाणु, बैक्टीरिआ, प्रोटोज़ोआ, बरगद का वृक्ष, बंदर और मानव प्राणी के मन एकसमान हैं। रूप की यह भिन्नता मन को उपलब्ध सूक्ष्म और बृहत् उपकरणों पर निर्भर करती है। किन्तु इस भिन्नता के बावजूद वे सभी रूप मन की श्रेणी से संबंध रखते हैं। यदि हम ‘शरीर’ की वेदांतिक धारणा को लें और उसमें से ‘स्थूल शरीर’ - जो जड़ परमाणुओं का संघात मात्र है - और ‘कारण शरीर’ - जो जीव और ईश्वर का निवास-स्थान है - को निकाल दें तो हमारे पास जो शेष रह जाता है उसे ‘मन’ कहा जायेगा। हम जानते हैं कि उस परिस्थिति में हमारे पास केवल ‘लिंग शरीर’ शेष रह जाता है, इसे ही मन कहा जाना चाहिये।
मन प्रभु-शक्ति की प्रथम अभिव्यक्ति है। इसकी उत्पत्ति प्रभु की पराप्रकृति/चेतन शक्ति के आनंद वाले पक्ष से और प्रभु की अपरा प्रकृति/जड़ शक्ति के सत्व गुण से होती है। अपने उपादान के समान यह सदैव आनंद, रस, सुख की खोज में तल्लीन रहता है। मन सर्वव्यापी सत्ता है। प्रत्येक निर्मित सत्ता सर्वव्यापी मन के लिये एक उपाधि (limiting adjunct) के रूप में कार्य करती है जिससे सर्वव्यापी (universal) मन उस निर्मित सत्ता में व्यक्तिगत (individual) मन बन जाता है। ब्रह्मांड में कोई भी सत्ता हो - चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, स्थूल हो या सूक्ष्म - मन के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकती। कारण, मन के कारण ही वह सत्ता माया के पदार्थों व अनुभवों में सुख की खोज करती है जिससे वह निरंतर अपनी कामनाओं के अनुकूल समुचित रूपों को धारण करने की विवशता से बंधी रहती है।
मन के पश्चात अपराप्रकृति की दूसरी अभिव्यक्ति प्राण है। इसकी उत्पत्ति प्रभु की पराप्रकृति/चेतन शक्ति के बल वाले पक्ष से और प्रभु की अपरा प्रकृति/जड़ शक्ति के रजोगुण से होती है। अपने उपादान के समान यह भी सदैव ऊर्जावान व गतिशील रहता है। प्रभु की शक्ति के समान ही यह भी सर्वव्यापी है। प्रत्येक निर्मित सत्ता सर्वव्यापी प्राण के लिये एक उपाधि (limiting adjunct) के रूप में कार्य करती है जिससे सर्वव्यापी (universal) प्राण उस निर्मित सत्ता में व्यक्तिगत (individual) प्राण बन जाता है। ब्रह्मांड में कोई भी सत्ता हो - चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, स्थूल हो या सूक्ष्म - प्राण के बिना क्रियाशील नहीं हो सकती। अतः प्राण सर्वव्यापी भी है और व्यक्तिगत भी है। प्राण के संबंध में दूसरा तथ्य यह है कि सामान्य धारणा के विपरीत प्राण जीवन (life) नहीं है। प्राण वह है जिसका उपयोग करके सजीव प्राणी और निर्जीव वस्तुएं कार्य करती हैं। ब्रह्मांड में समस्त गतिविधि प्राण का प्रकटन है। “प्राण की परिकल्पित अनुपस्थिति में कोई क्रिया संभव नहीं है। इलेक्ट्रान, प्रोटॉन, नूट्रान, परमाणु, अणु, ऐमीबा, पौधे, पशु, मानव प्राणी और अन्य सभी केवल प्राण के कारण ही क्रिया करते हैं।”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe, पृ -535) प्राण सदैव सक्रिय, गतिशील रहता है। वेद में इसकी तुलना अश्व से की गई है। ‘अश्’ धातु का अर्थ ‘खाना’ (to eat) है। जगत् रूपी यंत्र के प्रयोजन हेतु ‘अश्’ का अर्थ ‘कार्य करने के लिये ऊर्जा का उपभोग करना’ है। प्राण ‘अश्व’ है, यह निरंतर कार्यशील रहने वाला बल (energy) है और इस प्रक्रिया में ऊर्जा का निरंतर उपभोग करने वाला तत्त्व है। ब्रह्मांड में चार मूलभूत बलों और ऊर्जा के सभी रूपों का स्रोत मन है, ऐसा हम जान चुके हैं। किन्तु इन सभी का उत्प्रेरण (activation) प्राण के कारण होता है। श्री एन. सी. पंडा इसे ‘वैश्विक उत्प्रेरण नियम’ (Cosmic Activating Principle) कहते हैं और वे इसके लिये VITON शब्द का सुझाव देते हैं।
पंडित मधुसूदन ओझा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रह्मविज्ञान’ में प्राण की विशेषताओं पर चर्चा करते हुए कुछ दिलचस्प तथ्यों का वर्णन किया है। आपके द्वारा बताई गईं प्राण की अधिकांश विशेषताओं पर ऊपर अलग से लिखा जा चुका है, अतः उन्हें दुहराने की आवश्यकता नहीं है लेकिन उसमें से कुछ वर्णन प्राण के स्वरूप को बेहतर तरीके से समझने के लिये आवश्यक है। आप लिखते हैं कि समस्त क्रिया प्राण का विकार है, सभी क्रियाओं का उपादान प्राण है अतएव क्रिया में सदैव ही प्राण की हानि होती है भले ही उस हानि का बोध हमें कभी तो होता है और कभी नहीं होता है। थकान का अनुभव प्राण की कमी के कारण होता है। जब हम वायुमंडल से प्राण की पुनःपूर्ति कर लेते हैं तो थकान मिट जाती है। पदार्थ के समान प्राण भी हमारे चारों ओर समस्त वातावरण में है किन्तु जिस प्रकार पदार्थ का प्रमाण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के रूप में होता है उस प्रकार प्राण की उपस्थिति का कोई प्रमाण हमें नहीं मिलता। इससे पता चलता है कि प्राण जड़ से सूक्ष्म है और अन्य सूक्ष्म तत्त्वों जैसे मन, आत्मा के समान प्राण भी अपने से स्थूल तत्त्व को धारण किये रहता है। उदाहरण के लिये बिखरी हुई मिट्टी में जल मिलाकर उसे गूँथ कर एक ढेला बनाएं तो जल के सूखने पर भी वह ढेले के रूप में बनी रहती है, मिट्टी को बिखरने न देने और उसे एक ढेले के रूप में कायम रखने में सहायक कारण प्राण है। प्राण का एक लक्षण यह भी है कि यद्यपि यह पदार्थ से श्रेष्ठ है तथापि यह पदार्थ के साथ मिलकर ही कार्य करता है। पदार्थ के बिना इसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। यही कारण है कि प्राण जिस पदार्थ से संयुक्त होता है उससे दृढ़तापूर्वक चिपक जाता है। इस प्रकार मन व प्राण दोनों चंचल हैं किन्तु मन किसी से जुड़ कर नहीं रहता जबकि प्राण एक बार जुड़ कर जुदा नहीं होना चाहता। प्राणियों में जिजीविषा का कारण प्राण का यही गुण है।
ब्रह्मांड में मन और प्राण के पश्चात प्रभु-शक्ति की तीसरी व अंतिम अभिव्यक्ति जड़ (matter) है। जड़ की उत्पत्ति प्रभु की पराप्रकृति/चेतन शक्ति के क्रिया वाले पक्ष और अपरा प्रकृति/जड़ शक्ति के तमोगुण के सम्मिलित रूप से होती है। हम जान चुके हैं कि जिसे हम ‘जड़’ कहते हैं वह माया/प्रकृति के तमोगुण का वह रूप है जो उसने आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी संज्ञिक एक के बाद एक पाँच छलाँगों के द्वारा धारण किया है। इस प्रक्रिया के अंतिम चरण में माया एक ऐसा ठोस, पार्थिव रूप ग्रहण कर लेती है जिसे सांख्य दर्शन में ‘पृथ्वी’ कहा जाता है और भौतिक विज्ञान में इलेक्ट्रान और क्वारक कहा जाता है। इस बिन्दु से आगे इसमें और अधिक संघनन का अवकाश नहीं रह जाता है। पदार्थ के इसी रूप से अणुओं, तत्त्वों, ग्रहों, तारों और आकाशगंगाओं का निर्माण होता है। इस चरण में जगत् में केवल अनात्मीय पिंड ही होते हैं। इसके पश्चात धीरे-धीरे इस अनात्मिक पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति होनी शुरू होती है। हमने कहा कि जड़ पदार्थ माया के तमोगुण के संघनित रूप की संज्ञा है। जहां तक प्रभु की चेतन शक्ति की क्रिया वाले पक्ष का प्रश्न है, यह क्रिया ही जड़ पदार्थ के अस्तित्व को सुनिश्चित करती है। जड़ का जो भी रूप सक्रिय नहीं रहता वह समाप्त हो जाता है। जड़ के संदर्भ में सक्रियता ही जीवन है और यह अनंत क्रिया प्रभु की चेतन शक्ति के कारण संभव होती है।
इस तरह वेदान्त, जिसमें आदिग्रंथ का सृष्टि रचना सिद्धांत भी सम्मिलित है, के आधार पर रचना के तीन चरण सिद्ध होते हैं। पहले चरण में ‘मन’ से ‘पृथ्वी’ तक की रचना होती है, इसे ‘सर्ग’ कहा जाता है। दूसरे चरण में भौतिक जगत् जैसे अणुओं, तत्त्वों, ग्रहों, तारों और आकाशगंगाओं आदि का निर्माण होता है। तीसरे चरण में खनिजों, पादपों, जीवों व मनुष्यों की क्रमिक उत्पत्ति होती है, इसे ‘विसर्ग’ कहा जाता है। ‘सर्ग’ में रचना का रुख ‘मन’ से ‘पृथ्वी’ की ओर होता है जबकि ‘विसर्ग’ में यह रुख ‘पृथ्वी’ से ‘मन’ की ओर होता है। ‘सर्ग’ में रचना का क्रम मन-प्राण-जड़ होता है; ‘विसर्ग’ में रचना का क्रम जड़-प्राण-मन होता है। इस संदर्भ में यह पूछा जा सकता है कि वेदान्त में तो रचना के दो चरणों की ही चर्चा की गई है - सर्ग और विसर्ग। जबकि हमने रचना के तीन चरण बताए हैं। इन दोनों में से उचित दृष्टिकोण क्या है? इसका उत्तर यही है कि वेदान्त में जो रचना के दो चरण - सर्ग और विसर्ग - बताए गये हैं वह अपने आप में युक्तिसंगत हैं। भौतिक जगत् जैसे अणुओं, तत्त्वों, ग्रहों, तारों और आकाशगंगाओं आदि के निर्माण को सर्ग की प्रक्रिया में ही परिगणित करना चाहिये। हमने इन्हें स्वतंत्र केवल इसलिये बताया है ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि वेदान्त का दृष्टिकोण वैसा सरलीकृत (oversimplified) नहीं है जैसा कुछ लोग मान लेते हैं।
अतः वेदान्त के अनुसार सृष्टि रचना के तीन चरण हैं। आधुनिक विज्ञान सृष्टि रचना के इन तीन में से प्रथम चरण की पूरी तरह उपेक्षा करता है। हालांकि वेदान्त और आधुनिक विज्ञान के सृष्टि रचना सिद्धांत में कई महत्वपूर्ण समानताएं भी है। दोनों में सृष्टि की रचना क्रमिक रूप से हुई स्वीकार की गई है। दोनों में जड़ (insentient) प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है जिसके कारण जगत् का क्रमविकास स्वतःकारी और स्व-नियोजित रूप से होता है। किन्तु अंतर यह है कि वेदान्त के अनुसार सृष्टि में जड़ प्रकृति ही नहीं, एक चेतन प्रकृति भी है। भगवद्गीता में प्रकृति के इन दोनों रूपों को क्रमशः अपरा प्रकृति और परा प्रकृति कहा गया है; आदिग्रंथ में गुरु अर्जुन देव इन्हें क्रमशः ‘खाक’ और ‘नूर’ कहते हैं। सृष्टि का क्रमविकास जड़ प्रकृति में होता है किन्तु चेतन प्रकृति ईश्वर है जो इस क्रमविकास की अध्यक्षता करती है, वह सृष्टि की विराट रूप-रेखा तैयार करती है। ये दोनों प्रकृतियाँ भगवान् की प्रकृतियाँ हैं। इनमें से परा प्रकृति ‘ऋत’ (Order) है तो अपरा प्रकृति ‘अनृत’ (disorder) है। जगत् ऋत और अनृत का मिश्रण है। अपरा प्रकृति के कारण जगत् में संयोग (chance), संभाव्यता (probability) और यादृच्छिकता (randomness) की प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती है; वहीं परा प्रकृति के कारण जगत् में सामंजस्य, समन्वयन, व्यवस्था, सार्थकता और प्रयोजन की प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। विज्ञान जगत् में सामंजस्य, समन्वयन आदि को स्वीकार करता है किन्तु इसके स्रोत की व्याख्या नहीं कर पाता। इस विषय के संबंध में श्री एन. सी. पंडा लिखते हैं, ““विज्ञान कुछेक प्रत्ययों से जान छुड़ाने के लिये अगले दरवाजे से निकल जाता है और पुनः पिछले दरवाजे से भीतर घुस आता है। इस प्रयोजन हेतु यह कुछेक नवीन पदों को घड़ता है या फिर पुराने पदों में नवीन अर्थ भर देता है। विज्ञान ‘परमात्मा’ के स्थान पर ‘प्रकृति’ शब्द का प्रयोग करता है। ‘यह प्रबंध प्रकृति ने ही किया है’; ‘प्रकृति यह कार्य इस प्रयोजन से करती है’। इस तरह ‘प्रकृति’ को अनुप्राणित करके उसका मानवीकरण कर दिया जाता है और उसे सर्वज्ञता व सर्व-सामर्थ्य प्रदान कर दिया जाता है। किन्तु ‘प्रकृति’ जैसी कोई एकल सत्ता नहीं है। ब्रह्मांड की सभी विविध सत्ताओं जैसे तरंगाणु, कणों, परमाणुओं, अणुओं, तारों, उपग्रहों, ऐमीबा, बंदर, मानव प्राणियों को संयुक्त रूप से ‘प्रकृति’ कहा जाता है। परंपरागत भौतिकवाद के अनुसार पदार्थ जड़ है। क्रमविकास की परवर्ती अवस्था में अत्यंत संगठित और जटिल पदार्थ में चेतना का उद्भव होता है। ऐसे में हम ‘प्रकृति’ को ब्रह्मांड की प्रत्येक सत्ता के लिये और समग्र रूप से ब्रह्मांड के लिये अग्रदर्शी बनने वाले ईश्वर का दर्जा कैसे दे सकते?”(Cyclic Universe, पृ -732)
इसकी तुलना में वेदान्त का सिद्धांत अधिक युक्तियुक्त है। उसके अनुसार जगत् ब्रह्म की चेतन प्रकृति का विलास है। यह चेतन प्रकृति जड़ प्रकृति को उत्पन्न करती, उसमें चेतना को अनुप्रेरित करती और उसमें परिव्याप्त होकर उसकी अग्रदर्शी बनती है। ब्रह्म इस जगत् का निमित्त कारण है जबकि चेतन और जड़ -ये दो प्रकार की प्रकृतियाँ जगत् के दो उपादान कारण हैं। यदि ‘क’ ‘ख’ में परिवर्तित या रूपांतरित होता है तो हम कहेंगे कि ‘क’ ‘ख’ का उपादान कारण है और ‘ख’ ‘क’ का परिणाम है। जब हम कहते हैं कि ‘क’ ‘ख’ में रूपांतरित हो गया है तो इसका यह आशय होता है कि ‘ख’ की एक पूर्ववर्ती अवस्था थी जो उत्तरवर्ती या परिणामी अवस्था में परिवर्तित हो गई। ब्रह्मांड का समग्र रूप से और, साथ ही, ब्रह्मांड की प्रत्येक सत्ता का भी एक चेतन रूप है जिसका उपादान परमात्मा की चेतन शक्ति बनती है; इसी प्रकार ब्रह्मांड का समग्र रूप से और, साथ ही, ब्रह्मांड की प्रत्येक सत्ता का भी मानसिक, प्राणिक और भौतिक रूप भी है जिसका उपादान परमात्मा की जड़ शक्ति बनती है। इस तरह समग्र रूप से ब्रह्मांड का और व्यष्टिगत रूप से इसकी प्रत्येक सत्ता का निवास कई सतहों पर अनेक ब्रह्मांडों में होता है जिनमें मुख्य रूप से दो सतहें हैं - चेतन (sentient) और जड़ (insentient)। ब्रह्मांड के ये विविध स्तर समानांतर रूप से विद्यमान होते हैं।
दूसरी ओर निमित्त कारण की धारणा इस तथ्य में निहित होती है कि प्रत्येक कार्य का एक कर्ता होता है। जब किसी कार्य का कोई कर्ता ‘क’ होता है तो हम उस कर्ता ‘क’ को उस कार्य का निमित्त कारण कहते हैं। शंकराचार्य का कथन है कि जहां भी कोई कार्य है, वहाँ उस कार्य का कोई न कोई कर्ता है, और वह कर्ता निमित्त कारण है।(ब्रह्मसूत्र भाष्य 1.1.2) यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि जड़ प्रकृति चेतन प्रकृति का कार्य नहीं है, चेतन प्रकृति के उत्पन्न होते ही जड़ प्रकृति भी उत्पन्न हो जाती है, और इन दोनों का कर्ता परमात्मा है :
खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥
असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥1॥(5-723)
‘हे भाई! नूर अर्थात चेतन ज्योति (पराशक्ति/शब्द) और खाक अर्थात अचेतन मिट्टी (त्रिगुणात्मिका शक्ति) मिला के परमात्मा ने यह जगत् बना दिया है। आसमान, धरती, वृक्ष, पानी (आदि ये सब कुछ) परमात्मा की ही रचना है।’ यदि विज्ञान यह पूछे कि ‘परमात्मा किसका कार्य है?’ तो यह प्रश्न अनुचित होगा। सत्य स्वरूप परमात्मा सति सक्रिय है तो निष्क्रिय भी है; सगुण है तो निर्गुण भी है; विकारी है तो अविकारी भी है; परमेश्वर है तो परब्रह्म भी है। उसमें निहित सक्रियता, सगुणता, विकार्यता बताती है कि उसका कोई कारण भी है; किन्तु उसमें निहित निष्क्रियता, निर्गुणता, अविकार्यता बताती है कि वह कारण-कार्य संबंधों से अतीत है।
(शेष आगे)
Continue reading▶️Kartapurush ep35
Excellent