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Writer's pictureGuru Spakes

The concept of Triloki. Kartapurush ep44

Updated: Mar 25

  • Kartapurush ep44 compares the concept of three worlds or Triloki in different religious traditions such as Adi Granth, Vedas, Kashmiri Shaivism, Shakta and Tantra sects, Puranas and Chaitanya Sampradaya1.

  • It mentions the names of the three qualities or three forms of the God or the Divine Consciousness or the Supreme Soul in each tradition, such as Saramkhand, Gyankhand and Dharmakhand in Adi Granth; Sat, Chit and Anand in Vedas; Will, Knowledge and Action in Kashmiri Shaivism; Saraswati, Lakshmi and Kali in Shakta and Tantra sects; Brahma, Vishnu and Rudra in Puranas; and so on.

  • The question is whether any consistency can be made in these details so that only one rule of religious philosophy can be made? For a detailed study in this context read Karta Purush 44.

 

Read the previous article▶️Kartapurush ep43

 

हमने जाना कि सरमखंड, ज्ञानखंड और धर्मखंड -इन तीनों खंडों में शक्ति की अभिव्यक्ति क्रमशः मानसिक, प्राणिक और जड़ रूप में होती है। किन्तु यह निष्कर्ष तो शक्ति के अपरा रूप के संदर्भ में लागू होता है, शक्ति के परा रूप के संदर्भ में क्या कहेंगे? हमने लिखा है कि जगत्-लीला परमात्मा और उसकी पराशक्ति की क्रीड़ा है। आदिग्रंथ की बाणी में परमात्मा की इस पराशक्ति को शब्द कहा गया है। शब्द ब्रह्मांड का विधाता (architect) है। वह ब्रह्मांड की रूप-रेखा बनाता है। वह इस विराट भवन का अभियंता है। वह इस विराट जगत् का नियमन और शासन करता है। इस सभी कृत्यों के निर्वहन के लिये कर्ता में सर्व-ज्ञान, सर्व-शक्ति और सर्व-समक्षता की अपेक्षा होती है। पराशक्ति/शब्द में ये सभी गुण उपस्थित हैं। सर्व-समक्षता (All-Presence) का गुण बताता है कि वह प्रत्येक सृजित सत्ता के भीतर और बाहर उपस्थित है; सर्व-ज्ञान (All-Knowledge) का गुण बताता है कि वह सब कुछ जानता है; सर्व-शक्ति (All-Power) का गुण बताता है कि वह जो चाहता है वही होता है। पराशक्ति/शब्द ब्रह्मांडीय चेतना है और वह ‘एक’ है। वह अनंत शक्तियों, जिन्हें गुरबाणी में ‘गुण’ कहा गया है, का भंडार है और ये गुण (शक्तियाँ) तीन प्रकार के हैं, नामतः आनंद, चित् व सत् जिसके कारण यह ‘एक’ शक्ति तीन सक्षमताओं (potencies) में विभाजित होती है जिनसे त्रिलोकी के तीन प्रधान खंडों का निर्माण होता है जिन्हें गुरू नानक देव ने ‘जपु’ वाणी में क्रमशः सरमखंड, ज्ञानखंड और धर्मखंड कहा है। श्वेताश्वतर की श्रुति परमात्मा की इस पराशक्ति को ‘विविधा’ (of various kinds) कहते हुए मुख्यतः इसके तीन रूप बतलाती है - ज्ञान, बल और क्रिया।(6.8) पराशक्ति के ये तीन रूप ही वे तीन सक्षमताएं हैं जो आनंद, चित् व सत् -इन तीन प्रकार के गुणों से प्रकाश पाती हैं।


सरमखंड में पराशक्ति का ‘ज्ञान’ पक्ष सक्रिय होता है जो जगत् और इसकी विविध वस्तुओं के अस्तित्व के बीज को धारण करती है। शक्ति प्रत्येक वस्तु को जानती है और शक्ति का ज्ञान ही वस्तु के अस्तित्व का बीज बन जाता है। शक्ति जिस रूप में वस्तु को जानती है, वस्तु में उसी रूप को धारण करने की संभावना तैयार हो जाती है। सरमखंड जगत् की और इसके प्रत्येक रूप की मानों शैशवावस्था है जिससे यहाँ मिलने वाला प्रत्येक रूप उसी प्रकार निर्दोष, निरूपद्रवी, सरल, सुंदर और स्वच्छ होता है जैसे हमारे लोक में प्रत्येक रूप अपने बालापन में होता है। ज्ञानखंड में पराशक्ति का ‘बल’ पक्ष सक्रिय होता है। हम इसे बीजभूत अतिप्राकृतिक ऊर्जा के विस्फोट के रूप में देख सकते हैं जिससे ज्ञानखंड में सुलभ प्रत्येक वस्तु में वैसी ही भव्यता, अल्हड़ता, गौरव और चारुता का विलास प्रकट होता है जैसी हमारे जगत् में किसी भी जीवन-रूप की युवावस्था में मिलता है। ज्ञानखंड में दीखने वाली इसी पर्याप्ति और प्राचुर्य को गुरू नानक देव ने ज्ञानखंड के अपने वर्णन में ‘केते’ पद की पुनरावृति द्वारा दर्शाया है। इससे आगे धर्मखंड संज्ञिक रचना के अंतिम खंड में पराशक्ति का ‘क्रिया’ पक्ष सक्रिय होता है। जगत् का प्रत्येक रूप सरमखंड में विचार के रूप में है जो ज्ञानखंड में विराट ऊर्जा में फलीभूत होता है और धर्मखंड में क्लांति व क्षय की ओर अभिमुख होता है। सरमखंड जगत् का आदि है, ज्ञानखंड मध्य है जबकि धर्मखंड अंत है। यहाँ ध्यान रहे कि ये तीनों खंड परमात्मा की शक्ति के आदि, मध्य और अंत नहीं कहे जा सकते। परमात्मा की शक्ति परमात्मा के समान ही सभी अवस्थाओं में पूर्ण है : आदि पूरन मधि पूरन अंति पूरन परमेसुरह ॥(5-705) यह केवल परमात्मा के हुक्म को लागू करने और उसके संकल्प के अनुसार परिणामों को उत्पन्न करने के लिए आंशिक होती है। शक्ति की सक्रियता से उत्पन्न परिणाम ही आदि, मध्य व अंत की तीन अवस्थाओं से निकलते हैं।


पराशक्ति की इन तीन अभिव्यक्तियों को श्रुति ने ज्ञान, बल और क्रिया कहा है। दूसरी ओर कश्मीरी शैवदर्शन में इन्हें इच्छा, ज्ञान और क्रिया कहा गया है। लेकिन दोनों में भेद केवल नाम का ही है। सरमखंड जगत् का आदि या बीज या कारण खंड है, ऐसा हमने जाना है। इसका कारण यह है कि सरमखंड प्रभूशक्ति द्वारा जगत् की रचना करने की ‘इच्छा’ (Will) का परिणाम है। इस चरण में प्रभूशक्ति में स्वयं को जगत् की विविधता में जानने का संकल्प या इच्छा प्रधान होती है। रचना के अगले चरण में प्रभूशक्ति स्वयं को जगत् की विविधता के रूप में जान लेती है। इस चरण में विविधता का ‘ज्ञान’ प्रधान होता है, इसलिए इसे ज्ञानखंड कहना उचित है। रचना के अंतिम चरण धर्मखंड में ये समस्त रूप मृत्यु के अटल नियम के अधीन ह्रास की प्रक्रिया के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते समाप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। अतएव धर्मखंड ‘क्रिया’ प्रधान है और यह पौराणिकों द्वारा कथित मृत्युलोक है।


शाक्त और तंत्र संप्रदायों में इसी भूमिका का निर्वहन करने वाले शक्ति के तीन रूपों को क्रमशः सरस्वती, लक्ष्मी और काली कहा गया है। कई स्थान पर शक्ति के परा रूप की अपरा रूप से भिन्नता दर्शाने के लिये इन तीन रूपों को महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली भी कहा गया है। ‘स+रस+वती’ से बने शब्द ‘सरस्वती’ में मूल शब्द ‘रस’ अर्थात आनंद है। शक्ति के आनंद पक्ष को ‘सरस्वती’ कहा गया है जिससे आनंद के धाम ‘सरमखंड का निर्माण होता है। सरस्वती को ‘वीणा वादिनी’ कहा गया है। इस वीणा में तीन तंत्रियाँ होती हैं जिनके स्पंदन से हमारी त्रिलोकी के तीन लोकों का निर्माण होता है। इस मिथक की तुलना पिछली सदी के नौवें दशक में विकसित हुए आधुनिक भौतिकी के सुपरस्ट्रिंग सिद्धांत से की जा सकती है। सरस्वती का वाहन हंस है, इससे इस सत्य की व्यंजना होती है कि जो जीव प्रभू शक्ति शब्द का अभ्यास करते हुए सरमखंड में प्रवेश कर जाते हैं वे हंस के समान माया में रहते हुए भी माया के पंक से निर्लेप व अक्षुब्ध रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। ‘हंस’ के विपरीत ‘परम हंस’ उन मुक्त आत्माओं को कहा गया है जो शक्ति अथवा शब्द का अभ्यास करते हुए शक्ति के स्रोत नाम अथवा शिव में लीन हो जाते हैं। ‘परम हंस’ और ‘हंस’ के विपरीत वह विशाल जीव-सृष्टि है जो माया के पंक से पंकिल होकर सदैव ऊंची-निचली योनियों में घूमती रहती है, बाणी में उन्हें ‘गधा’, ‘श्वान’, ‘शूकर’, ‘कौआ’ आदि कहा गया है।


प्रभू-शक्ति के दूसरे रूप को लक्ष्मी कहा गया है। सनातन धर्म में लक्ष्मी धन, संपत्ति, शक्ति, शांति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। लक्ष्मी को गायत्री की एक किरण कहा गया है, इनकी प्राप्ति गायत्री के प्रसाद से होती बताई जाती है। इसका अभिप्राय यह है कि लक्ष्मी प्रभू-शक्ति का एक पहलू है और लक्ष्मी की प्राप्ति प्रभू-शक्ति/शब्द के अभ्यास से होती है। इनका निवास समुद्र में बताया जाता है। समुद्र जल का आगार है। जल महान बुद्धि का प्रतीक है। अतः लक्ष्मी का समुद्र में निवास बताये जाने का अर्थ है कि प्रभू-शक्ति महान बुद्धि रूपी जल में मग्न है, श्रुति में भी देवात्मशक्तिम् स्वगुणै:निगूढ़ाम् कहा गया है। प्रभू-शक्ति स्वयं से उत्पन्न गुणमयी शक्ति से आच्छादित होती है। प्रभू की ज्ञानमयी शक्ति गुणमयी शक्ति को व्याप्त किए हुए उसमें वैसे ही निवास करती है जैसे लवण सागर के जल में निवास करता है, जैसे मक्खन दूध में रहता है, जैसे अग्नि जल में या लकड़ी में रहती है। ज्ञानमयी शक्ति का स्वरूप गुणमयी शक्ति के स्वरूप से दब जाने के कारण ज्ञानमयी शक्ति अपने स्वरूप से उपलब्ध होने योग्य नहीं रहती। इनकी उपलब्धि कैसे होती है? यह कहा गया है कि माता श्री लक्ष्मी समुद्र मंथन के समय समुद्र से प्रकट होती हैं। ‘समुद्र-मंथन’ करने का अर्थ है कि साधक अपनी अपरा प्रकृति का अवगाहन करे, मन-बुद्धि की गहराइयों में डूब-डूबकर सद्वस्तु की खोज करे, इसी से उसके भीतर प्रभू-शक्ति का प्रकाश होगा। लक्ष्मी के आठ रूप हैं - आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, सन्तानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, भाग्यलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी और विद्यालक्ष्मी। इसका अभिप्राय है कि जब साधक के भीतर प्रभू-शक्ति का उदय होता है तो उसे बल, बुद्धि, विद्या, धन आदि किसी भी पदार्थ का अभाव नहीं रहता। माता लक्ष्मी के साथ आठ प्रतीक सम्बद्ध है - कमल, चक्र, शंख, गदा, अक्षय पात्र, वर मुद्रा, अभय मुद्रा और धनुष-बाण। कमल त्रिगुण की मैल से रहित पवित्रता का प्रतीक है; चक्र साधक की उत्तरोत्तर प्रगति का प्रतीक है; अभय मुद्रा साधक को कभी भी अधोगति न होने देने के आश्वासन का प्रतीक है; शंख दिव्य नाद है जो साधक के अंतःकरण में शक्ति के आगमन का सूचक है; अक्षय पात्र और वर मुद्रा इस तथ्य की द्योतक हैं कि साधक की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होंगी और वह जो चाहेगा, उसे प्रदान किया जायेगा; गदा और धनुष-बाण क्रमशः शस्त्र व अस्त्र हैं जो प्रभू-शक्ति द्वारा साधक की समस्त विपदाओं से रक्षा के आश्वासन का प्रतीक हैं। यहाँ यह स्मरण रहे कि यजुर्वेद (10/215) में कहा गया है कि भगवान की दो शक्तियां हैं – श्री व लक्ष्मी। वहाँ कहा गया कि श्री व लक्ष्मी परमात्मा की दो पत्नियाँ हैं – श्रीः च लक्ष्मीः च पत्नयौ। इनका रूप दिन और रात्रि के समान है। एक प्रकाशमय शक्ति है जिसका नाम श्री है और दूसरी रात्रिमय शक्ति है जिसका नाम लक्ष्मी है और जिसको उलूकवाहिनी कहते हैं। इस प्रकार यजुर्वेद में प्रयुक्त तर्क के अनुसार श्री व लक्ष्मी दोनों क्रमश: परमात्मा की परा और अपरा प्रकृति हैं जबकि पौराणिकों ने या तो श्री व लक्ष्मी को एकाकार करके परमात्मा की पराप्रकृति को ही लक्ष्मी कहा है या फिर लक्ष्मी संज्ञा के साथ उपसर्ग ‘महा’ लगाकर ‘महालक्ष्मी’ शब्द को घड़कर परा व अपरा के अंतर को स्पष्ट किया है। इससे पता चलता है कि सनातन धर्म की लंबी यात्रा के दौरान भिन्न-भिन्न युगों में उत्पन्न हुए भिन्न-भिन्न मनीषियों ने किस प्रकार एक ही प्रतीक के भिन्न-भिन्न अंगों के वर्णन में स्वतंत्रता ली है जिससे अनेक बार लोगों में मतिभ्रम भी उत्पन्न हुआ है।


पुराणों में व तंत्र में प्रभू-शक्ति के तीसरे रूप को काली कहा गया है। ‘काली’ शब्द की व्युत्पत्ति काल अथवा समय से हुई है जो सबको अपना ग्रास बना लेता है। काली प्रभू-शक्ति के उस पक्ष को सूचित करती है जिसके कारण मृत्यु व परिवर्तन सुनिश्चित होता है। शक्ति के इस रूप का संबंध धर्मखंड से है जो प्रभू की पराशक्ति के ‘क्रिया’ रूप और अपरा शक्ति के तमस् पक्ष से निर्मित हुआ है। हमने पहले लिखा है कि धर्मखंड पौराणिकों द्वारा कथित मृत्युलोक है। इस कथन का आधार यह है कि प्रत्येक रूप अथवा शरीर के तीन पक्ष होते हैं, नामतः कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर। इनमें से कारण शरीर चैतन्य तत्त्व का निवास स्थान है जिसकी समाप्ति प्रभू के प्रसाद से जीव द्वारा नाम/ब्रह्म के ज्ञान से होती है जिसके उपरांत उसका भवबंधन सदा-सदा के लिये छूट जाता है। सूक्ष्म शरीर की समाप्ति प्रभूशक्ति/शब्द के निरंतर अभ्यास के कारण कर्मों के नाश से होती है। जब तक जीव के कर्मों का नाश नहीं होता है वह कर्मों से बंधा हुआ एक के पश्चात दूसरे स्थूल शरीर को धारण करने के लिये विवश रहता है। कारण शरीर का संबंध कारण मंडल सरमखंड से है; सूक्ष्म शरीर का संबंध सूक्ष्म मंडल ज्ञानखंड से है; स्थूल शरीर का संबंध स्थूल मंडल धर्मखंड से है। स्थूल शरीर मरणधर्मा है, इसकी मृत्यु निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। बाणी में इसकी तुलना कल्लर की दीवार से की गई है। जैसे कल्लर की दीवार धीरे-धीरे झर-झर के नष्ट होती है, वैसे ही यह स्थूल शरीर भी दिन रात धीरे-धीरे क्षय होता रहता है : कलर केरी कंध जिउ अहिनिसि किरि ढहि पाइ ॥(1-18) प्रत्येक रूप, चाहे वह कहीं भी हो, कोई भी हो, सदैव मृत्यु की ओर अग्रसर रहता है और यह परमात्मा की पराशक्ति है जो इस सर्वनाश के लिये उद्यत रहती हैं। किन्तु विकराल और भयप्रद होने के बावजूद शक्ति कभी भी शिव/नाम/ब्रह्म से वियुक्त नहीं होती। जगत् में सर्वत्र और सदैव शक्ति का तांडव जारी रहता है और जहां भी शक्ति के चरण पड़ते हैं वहाँ-वहाँ निश्चेष्ट व निष्पंद प्रभू-सत्ता शिव/नाम/ब्रह्म भी उपस्थित होते हैं।


ईश्वर/पराशक्ति/शब्द की इन तीन सक्षमताओं को ही पौराणिकों ने क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कहा है। पराशक्ति/ईश्वर/शब्द को उसके सृजनात्मक कार्यकलाप के संदर्भ में ब्रह्मा; पोषणात्मक प्रक्रियाओं के संदर्भ में विष्णु; और संहारक प्रक्रियाओं के संदर्भ में रुद्र कहा जाता है। पराशक्ति की ये तीनों सक्षमताएं क्रमशः सरमखंड, ज्ञानखंड और धर्मखंड में सक्रिय होती हैं। यही कारण है कि पौराणिक साहित्य में सरस्वती को ब्रह्मा, लक्ष्मी को विष्णु और काली को शिव से संयुक्त करके इन्हें दिव्य युगल के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। चैतन्य संप्रदाय में परमात्मा की शक्ति के इन तीन पक्षों को क्रमशः आह्लादिनी शक्ति, संवित् शक्ति और संधिनी शक्ति कहा गया है। डॉ एस. एन. दासगुप्त लिखते हैं, “तीन शक्तियों में से संवित् संधिनी से श्रेष्ठ होती है और आह्लादिनी संवित् से श्रेष्ठ होती है। ………..संधिनी वह शक्ति है जिसके द्वारा भगवान सबको सत् प्रदान करता है। ………..संवित् वह शक्ति है जिसके द्वारा उसकी ज्ञानात्मक क्रिया सम्पन्न होती है, जिसके द्वारा वह अन्य व्यक्तियों के लिये ज्ञान प्राप्ति संभव बनाता है। यद्यपि वह आनंद-स्वरूप है, वह आह्लाद का अनुभव करता है तथा अन्य व्यक्तियों के लिये आह्लादमय अनुभवों की प्राप्ति संभव बनाता है, जिस शक्ति के द्वारा वह ऐसा करता है उसे ‘आह्लादिनी’ कहते हैं।”(भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग - 4 एवं 5, पृ -431)


अब इस अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों को भी देख लें। हमने देखा है कि ब्रह्मांड की रचना में प्रभू की चेतन शक्ति/शब्द और जड़ शक्ति/माया -दोनों दो उपादान हैं। चेतन शक्ति सत्, चित, आनंद है; जड़ शक्ति सत्व, रजस् और तमस् -तीन गुणों वाली है। जगत् रचना में न तो चेतन शक्ति के अवयव परिवर्तित होते हैं, न ही जड़ शक्ति के अवयव परिवर्तित होते हैं। परमात्मा मानों एक बाजीगर, मायावी, (Magician) है; माया के दोनों रूप उसकी जादुई शक्ति (magical Power/power) हैं; और जगत् परमात्मा की माया का खेल है जिसके द्वारा एक परमात्मा अनेक रूपों (Forms/forms) में प्रकट होता है। ज्यों ही वह इस खेल को समेटता है और धारण किये गये कृत्रिम रूपों को उतारता है तब केवल एक ही सत्ता, एकंकार, शेष रह जाता है। चूंकि माया दो प्रकार की है, एक श्रेष्ठ प्रकृति वाली और एक निम्न प्रकृति वाली, अतः माया का खेल भी दो प्रकार का है -श्रेष्ठ और अवर। माया का अवर रूप माया के श्रेष्ठ रूप का वैसे ही अनुगमन करता है जैसे किसी वस्तु का दर्पण में निर्मित होने वाला प्रतिबिंब वस्तु का करता है या फिर गुरू नानक देव जी द्वारा दी गई उदाहरण को प्रयुक्त करें तो जैसे शिष्य गुरू का करता है। माया का श्रेष्ठ सच्चिदानंद रूप त्रिलोकी की रचना के लिये आनंद, चित् व सत् -तीन में विभक्त होता है तो माया का अवर त्रैगुणात्मक रूप भी तीनों मंडलों में सत्व, रजस् और तमस् -तीन भिन्न-भिन्न रूपों में विभक्त होता है। चूँकि माया का अवर रूप श्रेष्ठ रूप की परछाई है अतः तीन में विभाजित होने पर माया का अवर रूप वैसे ही परिणामों को उत्पन्न करता है जैसे माया के श्रेष्ठ रूप द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं। सरमखंड में प्रभू की पराशक्ति का आनंद पक्ष रचना के अनंत रूपों को निर्मित करने की इच्छा अथवा संकल्प का बीज बनता है तो इसी मंडल में प्रभू की अपराशक्ति का सत्व गुण मन में रूपांतरित होता है जो जीवों में इच्छा, कामना अथवा संकल्प-विकल्प का बीज है। ज्ञानखंड में माया के श्रेष्ठ रूप का चैतन्यता वाला गुण सक्रिय होता है। चैतन्यता ज्ञान है और ज्ञान बल है अतः यहाँ वे अनंत रूप इस शक्ति के बल से सबल होकर मूर्त होते हैं। दूसरी ओर यहाँ माया के अवर रूप का रजोगुण सक्रिय होता है। रजोगुण सक्रियता का मूल है और सक्रियता बल है। किन्तु जहां बल का श्रेष्ठ रूप चित् तत्त्व के कारण है वहीं बल का अवर रूप प्राण तत्त्व के कारण है। अतः माया के अवर रूप की दृष्टि से देखें तो ज्ञानखंड प्राणिक सृष्टि है जबकि माया के श्रेष्ठ रूप की दृष्टि से देखें तो ज्ञानखंड चैतन्यता व ज्ञान से भरपूर सृष्टि है। त्रिलोकी के अंतिम मंडल धर्मखंड में शक्ति के श्रेष्ठ रूप में निहित अस्तित्व का गुण सक्रिय होता है जबकि शक्ति के कनिष्ठ रूप में निहित तमस् का गुण सक्रिय होता है। इसी कारण धर्मखंड में चारों ओर जड़त्व, अज्ञानता, क्लांति आदि के दर्शन होते हैं।


इस चर्चा में हमने बार-बार शक्ति के तीन रूपों की बात कही है। इससे यह नहीं समझना है कि परमात्मा की शक्तियां एक से अधिक हैं। शक्ति एक ही है, उस एक शक्ति की अभिव्यक्तियाँ अनंत हैं, यद्यपि यहाँ उस शक्ति की हमने तीन अभिव्यक्तियों की मुख्यतः चर्चा की है। जगत् में जो कुछ भी हम देखते, सुनते, अनुभव करते हैं वह सब कुछ शक्ति की ही अभिव्यक्ति है। भगवद्गीता में इसे परमात्मा की विभूति कहकर इन विभूतियों को अनंत बताया गया है। लेकिन अध्ययन को सुगम करने के दृष्टिकोण से हम यही कहेंगे कि त्रिलोकी के तीनों मंडलों - धर्मखंड, ज्ञानखंड और सरमखंड - में एक शक्ति ही पसर रही है, यहाँ यह शक्ति अविद्या - परमात्मा से भिन्नता - रूप में है; यही शक्ति त्रिलोकी से परे चौथे लोक करमखंड में भी है, यहाँ यह विद्या - परमात्मा से अनुभवसिद्ध एकता - रूप में है। त्रिलोकी के तीनों मंडलों में भी शक्ति तीन भिन्न-भिन्न रूपों में है। धर्मखंड में यह शक्ति गुप्त है जिससे जीव बल, बुद्धि, विद्या से वंचित और पाँच प्रकार के विकारों और पाँच प्रकार के क्लेशों का अहेर बना रहता है; जो अभ्यासी गुरू की कृपा से अपनी चेतना को भ्रूमध्य में एकाग्र करके ज्ञानखंड में प्रवेश करता है, उसके अंदर शक्ति का बल पक्ष प्रकट होता है, वह नौ निधियों और अष्ट सिद्धियों का स्वामी बन जाता है; जब वह और उन्नति करके सरमखंड में प्रवेश करता है तो उसमें शक्ति का बुद्धि पक्ष प्रकट होता है जिससे उसकी गणना सुरों और सिद्धों में होने लगती है, उसकी दृष्टि मात्र से जीवों पर कृपा और शांति की वर्षा होती है; जब प्रभू के प्रसाद से वह चौथी अवस्था करमखंड में प्रवेश करता है तो उसमें शक्ति का विद्या पक्ष प्रकट होता है जिससे उसे परमात्मा से अपनी एकता (identity) का ज्ञान हो जाता है, वह न केवल स्वयं पूर्ण हो जाता है अपितु वह शरणागत जीवों को भी पूर्णत्व प्रदान कर सकने में सक्षम होता है।


इस लंबी चर्चा से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि जो लोग सनातन धर्म को बहुदेववाद के प्रतिपादक धर्म के रूप में देखते हैं वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। हजारों वर्ष पहले ऋग्वेद के ऋषि ने उद्घोषणा की थी कि ‘सत्य एक ही है जिसका विद्वान लोग भिन्न-भिन्न नामों से वर्णन करते हैं।’(1.164.46) मनुष्य जाति की धार्मिक विरासत के संबंध में इससे महानतर व गंभीर वक्तव्य देना असंभव है। वर्णन की अनेकता और सत्य की एकता का यह सिद्धांत केवल सनातन धर्म की रंगारंगी शाखाओं व उपशाखाओं के संदर्भ में ही नहीं अन्य धार्मिक परंपराओं जैसे सामी धर्मों के संदर्भ में भी सच है।


(शेष आगे)

 

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RK25
RK25
Jun 20, 2023
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Beautiful ❤️.

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