If you like this post, please subscribe us. This motivates us to keep creating quality content 😊🕉️
शिव, शक्ति, काशी, शिवलिंग आजकल बहुत अधिक चर्चा में हैं। शिव-शक्ति का दर्शन अत्यंत प्राचीन, व्यापक, बहुआयामी, गूढ व मर्मस्पर्शी है और इसे समग्र रूप से जानने के लिये एक से अधिक ग्रंथ का लेखन करना पड़ सकता है। अतः इस लेख में हमें शिव-शक्ति से संबंधित कुछेक महत्वपूर्ण व लोकप्रिय पहलुओं पर चर्चा करके ही संतोष करना होगा। सर्वप्रथम हम जान लें कि जगत् के संदर्भ में हिन्दू धर्मग्रंथों में परमात्मा के तीन स्वरूपों की चर्चा की गई है। भगवद्गीता में श्री भगवान् ने बताया, “इस संसार में क्षर और अक्षर -ये दो प्रकार के पुरुष हैं। सभी भूत क्षर हैं और अक्षर को कूटस्थ कहते हैं।” (15.16) “उत्तम पुरुष तो अन्य ही है जिसे परमात्मा कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।” (15.17) इन दो श्लोकों में जिन्हें क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और उत्तम पुरुष अथवा पुरुषोतम कहा गया है उन्हें ही श्वेताश्वतर उपनिषद में क्रमशः भोग्य, भोक्ता और इन दोनों के जनक अथवा प्रेरक कहा गया है। इन तीनों को ही कश्मीरी शैव दर्शन में क्रमशः शक्ति, शिव और परमशिव कहा गया है। इन तीनों में से शक्ति इस समस्त संसार का दिव्य मूल है और यही भोग्य (to be enjoyed) है; शिव भोक्ता (enjoyer) हैं; जबकि परमशिव इन दोनों के प्रेरक हैं। परमशिव जगत् से अतीत (transcendent) हैं। शिव-शक्ति जगत् में अंतःस्थ (immanent) हैं। शिव परमशिव की सत्ता (essence) हैं जबकि शक्ति परमशिव की दिव्य ऊर्जा हैं। परमशिव ही शिव-शक्ति के युग्म के रूप में उत्पन्न होते और जगत् में परिणत होते हैं। सारा संसार शिव-शक्ति रूप इस दिव्य युगल की क्रीडा मात्र है : जह देखा तह रव रहे सिव सकती का मेलु ।। (आदिग्रंथ, 1-21) शिव जी के बारे में यह सामान्य धारणा है कि शिव हिमालय पर्वत की ऊंची चोटियों, विशेषकर कैलाश पर्वत, पर नित्य समाधिस्थ रहते हैं; वह शरीर पर राख लगाते हैं; उनके गले में सर्पों की माला रहती है; उनके मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित होता है; उनकी जटाओं से गंगा का उद्गम होता है; उनके हाथ में त्रिशूल रहता है; वह डमरू बजाते और नंदी बैल की सवारी करते हैं; और उनकी पूजा शिवलिंग के रूप में होती है। इस बिम्ब में प्रभु की सत्ता अर्थात शिव, प्रभु की शक्ति और इन दोनों के तीन गुणों वाली माया रूप इस जगत् से संबंधों को स्पष्ट कर दिया गया है। हम जानते हैं कि शिव प्रभु की सत्ता (essence) हैं और वह अक्षर, अव्यय और कूटस्थ हैं : :………कूटस्थोsक्षर उच्यते॥(भगवद्गीता 15.16) ‘कूटस्थ’ पद के दो अर्थ हैं – कूटवत् स्थित और कूट पर स्थित। लोहार जिस लोहखंड पर गरम लोहे को पीटता है उसको कूट कहते हैं। पिटने वाला लोहा मुड़ता और टूटता है लेकिन नीचे वाला लोहखंड स्थिर रहता है, अतः ‘कूटवत् स्थित’ का अर्थ कूट की तरह स्थिर, अचल है। पिटने वाला लोहा जो मुड़ता, टूटता और नये-नये रूपों में गढ़ा जाता है, उसे ही भगवद्गीता के शब्दों में ‘क्षर पुरुष’ अथवा शैव दर्शन के अनुसार ‘शक्ति’ कहा जाएगा। शक्ति (divine energy) सदैव क्षरण व परिवर्तन को अनुभव करती और जगत् में नित्य नवीन रूपों में प्रकट होती है। इसके विपरीत शिव इस समस्त परिवर्तन के मध्य किन्तु कूटवत् स्थिर रहते हैं। इसके साथ ही कूट का दूसरा अर्थ पर्वत या उसकी चोटी भी होता है। अतः कूटस्थ का दूसरा अर्थ कूट अर्थात ऊंचे स्थान पर स्थित होगा। प्रभु की अक्षर सत्ता कल्याण स्वरूप अर्थात शिव है और शिव कूटस्थ हैं, ऐसा कहने का अभिप्राय है कि प्रभुसत्ता अर्थात शिव यद्यपि सर्वत्र हैं तथापि जड़, प्राण व मन से निर्मित हमारे आनुभविक जगत से ऊपर हैं और इसकी समस्त गति से अछूते व स्थिर हैं। अब एक भारतीय के लिए हिमालय पर्वत से ऊंचा स्थान कोई नहीं है ऐसे में यदि हमें यही बात सरल शब्दों में समझानी हो तो यही कहा जाएगा कि शिव हिमालय पर्वत की किसी ऊंची चोटी जैसे कैलाश पर्वत पर विराजमान हैं और शरीर पर राख लगाए हुए वैरागी अवस्था में व नित्य समाधिस्थ हैं क्योंकि समाधिस्थ होने का अर्थ स्थिर, अचल होना ही होता है। पुनः शिव के गले में सर्पों की माला उनके अनंत ऐश्वर्य को दर्शाती है क्योंकि भारत के जनसामान्य में यह धारणा प्रचलित है कि सर्प खजाने पर रहते हैं। शिव द्वारा शरीर पर शमशान की राख मलने का अर्थ है कि अनंत ऐश्वर्य के होते हुए भी शिव नित्य वैरागी हैं। शिव के समीपस्थ नंदी बैल धर्म का प्रतिनिधि है। जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य ‘कामायनी’ में लिखा है : वृषभ धवल धर्म का प्रतिनिधि ॥ शिव के हाथ में त्रिशूल यह दर्शाता है कि सत्त्व, रजस् व तमस् -इन तीन गुणों वाली माया प्रभु के हाथों का एक उपकरण मात्र है। शिव जी के ललाट पर सदा सुशोभित रहने वाला चंद्रमा उनकी स्वरूपभूत अचिंत्य शक्ति का प्रतीक है। चंद्रमा स्वरूपतः क्षर है, यह सदा क्षयण/वर्द्धन (waxing/waning) को प्राप्त होता है, प्रभु की शक्ति भी क्षर है, यह सृष्टि रचना के निमित्त आंशिक होती है और रचना का खेल समाप्त होने के उपरांत पुनः पूर्ण स्वरूप को ग्रहण कर लेती है। इस तरह शिव अनंत शक्ति, अनंत ऐश्वर्य, धर्म और वैराग्य से नित्ययुक्त भगवान हैं। शिव के जटाजूट से गंगा उत्पन्न होती है। गंगा शब्द का अर्थ है – गगन में गमन करने वाली। यह प्रभु की शक्ति है जो प्रभु के परमधाम से नीचे तीन गुणों वाली माया से निर्मित त्रिलोकी में उतरती है और माया के पंक से पंकिल जीवों को निर्मलता प्रदान करती और माया की तृष्णा से तृषित जीवों को सुख-शांति प्रदान करती है। हमने गंगा को ‘गगन में गमन करने वाली’ बताया है, इसका अभिप्राय है कि शिव की सनातन पावनता से युक्त यह शक्ति हम जीवों के भ्रू-मध्य में रहती है। हमें अपनी चेतना को भ्रू-मध्य में स्थित इस दिव्य शक्ति से संयुक्त करना होगा, तभी हमारा गंगा में स्नान करना और उसकी सनातन पवित्रता से पावन होना संभव हो सकता है। गंगा का जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर अवतरित होना इस सत्य को दर्शाता है कि प्रभु की शक्ति केवल सदा उनके संग उनके परमधाम में ही नहीं रहती अपितु यह जीवों के कल्याण के लिए नीचे के तीन मंडलों में भी अवतरित होती है।
शिवलिंग इस शक्ति के गतिशील स्वरूप का प्रतीक है। शिव अनंत सत्ता हैं और अनंत होने के कारण निराकार हैं। उनके परमधाम में उनकी शक्ति उन्हीं में अंतर्लीन, उन्हीं के समान स्थिर, निष्क्रिय, अनंत व निराकार होती है। जब परमशिव जगत् की रचना का संकल्प करते हैं तो उनकी सारवान सत्ता शिव की समाधि भंग हो जाती है और वे दृष्टा के रूप में प्रकट होते हैं। ‘स्वामी देख रहे हैं’ -ऐसा ज्ञान शक्ति की निष्क्रियता को भंग कर देता है और प्रभु की इच्छा के अनुरूप यह ऊर्जा स्वयं में निहित अनंत संभावनाओं को मूर्त व संभव कर देती है अर्थात जगत् की समस्त विविधता जो अभी तक शक्ति में एक संभावना (potential) के रूप में निहित थी वह गतिशील (kinetic) होती व मूर्त रूपों (concrete forms) में प्रकट हो जाती है। ध्यान रहे कि ऊर्जा जब भी निष्क्रिय होगी तो उसके परिणाम भी अमूर्त व निराकार होंगे किन्तु जब वह सक्रिय होगी तो वह सदैव आकार को धारण करेगी। शिवलिंग दीर्घवृताभ (spheroid) होता है। यह शिव की आकारयुक्त शक्ति का प्रतीक है। शिवलिंग प्रभुशक्ति द्वारा धारण किये गये आद्य (primordial), मूलभूत (fundamental), मौलिक (original) और सार्वभौम (universal) आकार का प्रतीक है। जगत् में प्रत्येक नैसर्गिक आकृति अपने मौलिक रूप में दीर्घवृताभ (spheroid) ही होती है। उदाहरण के लिये, प्रत्येक अंडा दीर्घवृताभ (spheroid) होता है; आकाशगंगाओं का मौलिक रूप दीर्घवृताभ (spheroid) होता है; मनुष्य का आकार भी, मूलचक्र से ब्रह्मचक्र तक अथवा जननेन्द्रिय से लेकर सिर की चोटी तक, दीर्घवृताभ (spheroid) ही होता है, हाथ व पैर तो इस मूल आकृति के अंग (limb) मात्र होते हैं; यहाँ तक कि प्रत्येक प्राकृतिक आकार चाहे वह क्षैतिज (horizontal) हो या अधोलंभ (vertical), दीर्घवृताभ ही होता है। शिवलिंग पर जल चड़ाया जाता है। जल रस का आधान है। शिवलिंग को जल अर्पित करने का अर्थ है कि हमें जीवन के प्रत्येक रस को शिव को अर्पित करना चाहिये क्योंकि परमशिव द्वारा रचे गये जगत् की मूल योजना के अनुसार परमशिव की अनंत सत्ता शिव ही जगत् में सभी रसों व तपों के भोक्ता हैं। भगवद्गीता के अनुसार ‘जो मनुष्य प्रभु को अर्पण नहीं करता और केवल अपने लिये ही भोजन करता है वह तो मानों पाप का ही भोजन करता है।’
शिव का काशी से बड़ा गूढ संबंध बताया जाता है। यह कहा गया कि काशी शिव का प्रिय स्थान है, काशी शिव के त्रिशूल के ऊपर स्थित है, शिव काशी में नित्य रूप से विराजमान होते हैं, जो जीव काशी में प्राणों का त्याग करता है वह परमगति को प्राप्त करता है। काशी वस्तुतः भ्रू-मध्य का प्रतीक है। मनुष्य की दोनों आँखों के मध्य भाग को प्राचीन काल से ही परमार्थी साहित्य में बहुत महत्त्व का स्थान मिलता रहा है। भगवद्गीता में दो स्थानों पर साधक को दोनों भौहों के मध्य ध्यान लगाने की सलाह दी गई है। एक स्थान पर मोक्षपरायण मुनि को कहा गया है कि 'वह बाहर के विषयभोगों का चिन्तन न करके अपनी दृष्टि को भृकुटी के बीच में स्थिर करे।'(5.27) पुनः छठे अध्याय में, जहाँ ध्यान योग का विस्तृत वर्णन है, कहा गया कि साधक अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर रखे : सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्र।(6.13) शंकर, माध्व, केश्व कश्मीरी प्रभृति विद्वानों ने 'नासिकाग्रं' शब्द की व्याख्या 'दोनों भौहों के मध्य' -ऐसे की है। जिस तरह घास के उपरी सिरे को कुशाग्र कहते हैं उसी प्रकार नाक के उपरी सिरे को, जहाँ नाक व मस्तक का मिलनस्थल है, नासिकाग्र कहेंगे, यहाँ नासिका समाप्त होती व मस्तक का प्रारम्भ होता है। इससे पता चलता है कि भ्रू-मध्य, और नासिकाग्रं पद पर्यायवाची हैं। प्राचीन काल के अनेक अन्य ग्रंथकारों को भी इस स्थान पर ध्यान लगाने की महिमा का ज्ञान था। ऐतरेय उपनिषद में कहा गया कि परमात्मा मानव शरीर की सीमा (मूर्धा) को अर्थात् ब्रह्मरंध्र को चीरकर उसमें प्रविष्ट हो गये। यही द्वार आनंदस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला है।(1.3.12) योगराज उपनिषद में इस बिन्दु को भ्रू-चक्र कहा गया है। जाबाल उपनिषद में आता है कि भौहों और नाक के मिलने का स्थान ही लोक और परलोक के मिलने का स्थान है। ब्रह्मज्ञानी इसी स्थान पर ध्यान एकाग्र करके उपासना करते हैं। योग चूड़ामणि उपनिषद के अनुसार, 'जब तक ध्यान दोनों भौहों के मध्य एकाग्र है, तब तक काल का क्या डर है?' श्रीरामोत्तरतापनीयोपनिषद में महर्षि अत्री द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'अनन्त एवं अव्यक्त परमात्मा को मैं कैसे जानूं?' याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं कि भौहों और नासिका की जो सन्धि है, वह द्युलोक तथा ज्योतिर्मय परमधाम की सन्धि का स्थान है। ब्रह्मवेत्ता पुरुष इस सन्धि की ही संध्या के रूप में उपासना करते हैं। फिर कहा गया कि अव्यक्त परमात्मा की उपासना का आध्यात्मिक स्थान भौहों एवं नासिका के मध्य का भाग है यहीं ध्यान द्वारा उस अव्यक्त तत्त्व का चिन्तन करना चाहिए।’ इसी उपनिषद में अन्यत्र बृहस्पति याज्ञवल्क्य जी से पूछते हैं कि ‘जिस तीर्थ के सामने कुरुक्षेत्र भी छोटा लगे, वह कौन है?’ याज्ञवल्क्य जी उत्तर देते हैं कि ‘निश्चय ही अविमुक्त (काशी) तीर्थ ही प्रधान कुरुक्षेत्र है।’ तदनंतर भरद्वाज जी को संबोधित करते हुए आप कहते हैं कि ‘रां रामाय नमः’ यह तारने वाला मंत्र है, जो इसका जप करता है वह संसार से तर जाता है, वह जहां कहीं भी रहता हुआ अविमुक्त क्षेत्र (काशी) में ही रहता है।’ काशी भ्रू-मध्य का ही पर्याय है, जो सदैव गुरु-मंत्र का जप करता है उसका निवास अविमुक्त क्षेत्र काशी में हो जाता है। यह स्थान माया के तीन आयामों से परे है और यही स्थान प्रभु शिव की प्राप्ति का स्थान है।
इस प्रकार शिव और शक्ति का दर्शन पुरुष और प्रकृति का ही प्रतीकात्मक दर्शन है। उत्तरकालीन हिंदू धर्म में प्रचलित होने वाले अनेक विचारों में से एक अर्धनारीश्वर का है। यह जान लेना चाहिये कि अर्धनारीश्वर का विचार न तो अकेला है और न ही विलक्षण। हिंदू धर्म के विविध संप्रदायों मे सृष्टि के दो मूल तत्त्व बताये गये हैं जिन्हें वेदान्त में माया और ब्रह्म, भगवद्गीता में क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष, रामभक्ति संप्रदाय में सीता और राम, कृष्णभक्ति संप्रदाय में राधा और कृष्ण अथवा रुक्मिणी और कृष्ण, शैव संप्रदाय में शक्ति और शिव अथवा उमा और महेश्वर, वैष्णव संप्रदाय में लक्ष्मी और नारायण, आदिग्रंथ में शब्द और नाम व महाभारत में नर और नारायण कहा गया है। इनमें से पहला तत्त्व जगत् के उद्भव, स्थिति व संहार का कारण बनता है। दूसरा तत्त्व पहले का प्रकाशक व आश्रय है। इनमें से एक गतिशील चेतन तत्त्व है जबकि दूसरा स्थिर है। पुनः ये दोनों वैसे ही एक सत्ता हैं जैसे शरीर व आत्मा हैं। शैव संप्रदाय के अर्धनारीश्वर को इसी विचारवृक्ष की एक शाखा के रूप में देखना चाहिए। शिव पुराण में परमात्मा का एक नाम ‘साम्ब सदाशिव’ है जिसका अर्थ है अम्बा के साथ शिव अर्थात प्रकृति के साथ पुरुष। प्रकृति युक्त पुरुष का नाम ही पुरुषोत्तम है। इसी स्वरूप को अर्धनारीश्वर कहा गया है। केवल प्रकृति क्षर है, केवल पुरुष अक्षर है जबकि प्रकृति युक्त पुरुष को पुरुषोत्तम अथवा अर्धनारीश्वर कहते हैं। आदिग्रंथ की बाणी में इन्हीं तीनों को क्रमशः शब्द, नाम व सति कहा गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि परमात्मा के आधे भाग से यह सारा विश्व प्रकट हुआ जबकि उसका जो आधा भाग है उसके लक्षणों को कोई नहीं जानता। इससे भी पूर्व ऋग्वेद 10.72 में इन दोनों तत्त्वों को दक्ष और अदिति कह कर यह कहा गया कि दक्ष अदिति से उत्पन्न होता है और अदिति दक्ष से उत्पन्न होती है।
अंतिम बात, हमने शिव, शक्ति, शिवलिंग, काशी अविमुक्त क्षेत्र आदि प्रत्ययों में छिपे तत्त्ववाद को समझा है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हमारे लिये शिवालय या काशी का बाहरी रूप महत्व नहीं रखता। जिस प्रकार शरीर और आत्मा दोनों मिलकर एक इकाई बनते हैं वैसे ही धर्म में रूप (form) और तत्त्व (content) मिलकर एक फजचान का निर्माण करते हैं। रूप के बिना तत्त्व सुरक्षित नहीं रह पाता और तत्त्व के बिना रूप एक कंकाल मात्र बन कर रह जाता है।
Wonderful
Amazing knowledge and facts regarding Shiva and his power and how it's related to the Shivling.
Wonderful. This article is full of insights about not only Shaivism but also other sects of the Sanatan Dharma.
A wonderful article on Shiv Shakti. A must read for all those who believe in Shiva. There's some very exciting & interesting knowledge in this.