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3 forms of the One Almighty. As described in Mulmantra, Bhagavad Gita & Adi Granth. Introduction ep2

Updated: Jul 18

 

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  1. What are the three forms of the One Almighty described by Guru Nanak Dev Ji in the Mulmantra?

  2. How are these three forms related to the concepts of 'ओम् तत् सत्' and 'निरंकार, एकंकार व ओंकार'?


  • ਓੱ सति' and 'नामु ' these three terms used by Guru Nanak Dev Ji in the Mulmantra describe the three forms of the One Almighty.

  • These three forms have been mentioned in the Bhagvadgeeta (17.23) and the Upanishads as 'ओम् तत् सत्' and in the Adi Granth as निरंकार, एकंकार व ओंकार .

  • It, therefore, makes an interesting reading. Read Mulmantra Introduction ep2 to get more information on this subject.



Read the previous article▶️Mulmantra Introduction ep1

 

पीछे हमने जाना कि मूलमंत्र का पहला अंक १ परमात्मा की एकता की घोषणा करता है । इसके बाद आने वाला ਓੱ वर्ण बताता है कि एक परमात्मा (१) निर्गुण है । अगला पद बताता है कि परमात्मा सगुण भी है जबकि नाम उस एक का गुण है । फिर हमने अपनी इस स्थापना के प्रति दो संभावित आपत्तियों का उल्लेख किया जिनका अध्ययन पीछे किया जा सकता है ।


इन आपत्तियों के उत्तर जानने के लिए हमें 'गुण' शब्द के अर्थ को जानना होगा। अग्नि में ताप का गुण है, जल में शीतलता का गुण है और ये दोनों गुण उन पदार्थों को अस्तित्व प्रदान करते हैं। इस तरह जगत् में अनंत सत्ताएं हैं जिन्हें सत्तत्व प्रदान करने वाला कोई न कोई गुण है और गुण-निधान सत्ता सति उन सभी गुणों का स्रोत है और इन्हें अस्तित्व प्रदान कर रहा है। इन विविध रूपों में वही जीवन जी रहा है। दूसरे, प्रत्येक सचेतन सत्ता में गुण दो प्रकार से अभिव्यक्त होता है। एक, सत्ता की वह विशेषता जो चेतना के लिए सहज है और सदा उसमें छिपी रहती है। दूसरे, सत्ता की वह विशेषता जो चेतना की सामर्थ्य या उसका स्वभाव बन कर सतह पर आती है। उदाहरणार्थ, किसी औषध का रोग-मुक्त करने का गुण वनस्पति या खनिज में रहने वाली चेतना में सहज रूप से छिपा रहता है और औषध में यही गुण 'निरोग करने की शक्ति' के रूप में अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार सृष्टि की अनन्त सत्ताओं में अनंत गुण हैं लेकिन प्रत्येक सत्ता में गुण दो विधियों से रहते हैं। पहला, जो सत्ता के लिए सहज है। दूसरा, जो सत्ता का स्वभाव बनता है। और बाणी में ‘सहज-स्वभाव’ का समास हमारे विचार में, नाम और शब्द के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार गुण अनंत है, नाम में ये गुण एकता में स्थित हैं, शब्द में ये गुण अनेकता में सक्रिय हैं। नाम गुणों की संयुक्तावस्था है, शब्द गुणों की वियुक्तवस्था है। ’संजोग-विजोग’ का समास इसी सत्य का संकेत करने के लिए आया है। नाम में ये गुण संयुक्त व स्थिर हैं, इसीलिए नाम को गुप्त अर्थात् अव्यक्त, निराकार इत्यादि कहा गया है; शब्द में ये गुण वियुक्त व गतिशील है, इसीलिए शब्द को प्रकट अर्थात् व्यक्त, साकार कहा गया है लेकिन शब्द को प्रकट व साकार कहने का अभिप्राय यह नहीं कि इन ज्ञानेन्द्रियों से दीखता यह जगत् ही शब्द है। बाणी में जगत् को 'मिथेना' कहा गया है जबकि शब्द सच है। जगत् की समस्त विविधता नाम में निष्क्रिय संभावना के रूप में रहती है, शब्द में यह समस्त विविधता सक्रिय संभावना के रूप में रहती है जो प्रकट दीखती त्रैगुणी विविधता में संभव होती है।


इस चर्चा से पहला निष्कर्ष यह निकलता है कि ’नामु’ सत्यस्वरूप सगुण सत्ता सति का गुण है और उसके द्वारा सति की सत्ता (नाम) व सति की शक्ति (शब्द) की एकता का कथन किया गया है।


दूसरा, यदि 'नामु' को एक ही मानें तो हमारे पास ਓੱ सति व नामु एक परमात्मा के त्रिविध स्वरूप की प्राप्ति होती है। इसी को भगवद्गीता (17.23) व उपनिषदों में 'ओम् तत् सत्' कहा गया, जबकि भाई गुरदास ने इन तीनों को निरंकार, एकंकार व ओंकार कहा है। ध्यान रहे कि मूलमंत्र में जिसे ओंकार कहा गया वह परात्पर सत्ता है, जबकि आदिग्रंथ व भाई गुरदास की बाणी में वर्णित ओंकार अंतःस्थ सत्ता है, इससे नाम व शब्द की एकता का कथन होता है।


तीसरे, यदि हम नामु में निहित सति की सत्ता व सति की शक्ति की एकता को स्वतंत्र मान लें तो हमारे पास परमात्मा के चतुर्विध स्वरूप की प्राप्ति होती है – ਓੱ, सति, नाम व शब्द । इन्हीं को मांडूक्य उपनिषद में ओम् अथवा परमात्मा के चार पाद कहा गया है। इन चारों में सति जीवों का प्रभू है, वह सत् (being) है। ਓੱ असत् (not being) है; नाम सति की सत्ता (essence of being) है; जबकि शब्द सति की शक्ति (power of being) है। ਓੱ व सति दोनों वैश्वोत्तर (transcendent) है। इस युग्म में सति जीवों का भगवान् है जबकि ਓੱ मांडूक्य उपनिषद (मन्त्र 7) के शब्दों में अव्यवहार्य है। नाम व शब्द वैश्विक (immanent) हैं , इस युग्म में नाम अधिक मूलभूत है। सति की सत्ता स्वयं सत् है जबकि सति की शक्ति सत् के लिए है। इस तरह दोनों युग्मों में सति व नाम मूलभूत हैं और इससे बना सतिनाम आदिग्रंथ की तत्त्वमीमांसा में मूलभूत प्रभूसत्ता है। किन्तु ये चारो मूलत: एक चेतना है।


'सतिनामु' के समास को ही जगत् के संदर्भ में 'कर्तापुरुष' समास के द्वारा बयान किया गया है। सति कर्ता है : तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ (4-11) 'नामु ' पुरुष है। 'पुरुष' का अर्थ है, 'पुर-पुर में शयन करने वाला'। इस तरह नाम परमात्मा का अंतस्थ रूप है। लेकिन चूंकि नाम पद द्वारा सति की सत्ता व सति की शक्ति के मेल की ओर संकेत है, अत: 'पुरुष' पद द्वारा संकेतित परमात्मा की अंतस्थ सत्ता के भी दो रूप हुए - एक, सति की सत्ता अर्थात् नाम और दूसरी, सति की शक्ति अर्थात् शब्द। बाणी नाम के बारे में दो बातें कहती है :

नामु निरंजन नालि है .......॥ (1-1242)

नामु निरंजन अलखु है ......॥ (1-1242)


नाम अलक्ष्य है। मुंडक उपनिषद इसे अद्रेश्यम्, अग्राह्यम्, अगोत्रम्, अवर्णम्, अचक्षु, अश्रोत्रम्, अपाणिपादम् कहता है। (1.1.6) दूसरी ओर शब्द ही आगे, पीछे, ऊपर, नीचे चारों ओर वरत रहा है :

सभु इको सबदु वरतदा ......... ।। (3-654)

नाम चौथे पद करमखंड में है :

करि किरपा जिसु आपनै नामि लाए ।।

नानक चउथे पद महि सो जनु गति पाए ।। (5-284)


दूसरी ओर शब्द निचले तीनों खंडों में रमण कर रहा है :

तिहु लोआ महि सबद रविआ है .... ।। (1-351)


मुंडक (2.2.7) में नाम को 'हृदयं सन्निधाय' व शब्द को मन, प्राण व शरीर का नेता कहा गया है। 'ਓੱ ' शून्य (0) है, सति एक (1) है और जगत् में यह एक सत्ता ही नाम में संपूर्ण रूप से स्थित है जबकि शब्द में आंशिक रूप से विस्तृत है :


एकंकारु एकु पासारा एकै अपर अपारा ।।

एक बिसथरिन एकु संपूरनु एकै प्राण आधारा ।।(5-821)


शब्द चारों ओर है, इससे यह नहीं समझना कि यह दृष्टिमान जगत् शब्द है। शब्द सच है और अगोचर है :


सचा सबदु भतार है सदा सदा रावेइ ।। (4-311)

तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाइऐ .....।। (4-448)


दृष्टिमान जगत् मिथ्या है, यह त्रैगुणी माया है और यह माया शब्द की परछाई-मात्र है। इस तरह जगत् में हमारे पास तीन सत्ताएं मिलती हैं - नाम, शब्द व त्रैगुणी माया। इन तीनों के बीच संबंधों को अगले चार पदों ‘निरभउ, निरवैरु, अकाल मूरति’ में बताया गया है।


निरभउ, निरवैरु, अकाल व मूरति, इन चार पदों में ‘अकाल’ पद ‘मूरति’ का विशेषण है और उसका अर्थ है - काल-रहित स्वरूप वाला। इस तरह ये चार पद ’निरभउ, निरवैरु व अकाल मूरति’, तीन संकल्पों के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। ये तीनों संकल्प जगत् में अंतस्थ सत्ता नाम का वर्णन करते हैं लेकिन साथ ही शब्द व त्रैगुणी माया के स्वरूप का भी संकेत कर देते हैं। नाम एक प्रभू सति की एकता है, इसलिए वह निर्भय है : एके कउ नाही भउ कोइ ।। (1-796) इसलिए नाम को प्राप्त किये बिना कोई निर्भय नहीं हो सकता : नानक विणु नावै निरभउ को नाही .....॥ (4-588)


दूसरी ओर शब्द एक प्रभू सति की अनेकता है। जहां अनेकता होगी वहां भय भी होगा। पुन: त्रैगुणी माया भी अनेकता है, अत: त्रैगुणी माया भी भययुक्त है। यह समीचीन है क्योंकि त्रैगुणी माया शब्द का ही अवर रूप, उसी की परछाई-मात्र है। इन दोनों को भगवदगीता में क्रमश: पराप्रकृति व अपराप्रकृति कहा गया है। शब्द परा अर्थात् परम, श्रेष्ठ, वरिष्ठ है, माया अपरा अर्थात् कनिष्ठ है। दोनों भययुक्त हैं लेकिन शब्द निर्मल भय है जिससे समस्त भय नष्ट होते हैं :


निरमलु भउ पाइया हरि गुण गाउआ हरि वेखै रामु हदूरे ।। (4-774)

जीव त्रैगुणी माया में रहते, जन्म लेते व मरते हैं। वे सदा यमदूत के भय में रहते हैं लेकिन यदि वे शब्द रूप भय में स्थिर हो जायें तो उनका जन्म लेना सफल हो जाता है।

भै विचि जंमै भै मरै भी भउ मन महि होइ ॥

नानक भै विचि जे मरै सहिला आइआ सोइ ॥ (3-149)


जहां एकता होगी वहां शत्रुता, बैर भी नहीं होगा। नाम में एकता है वहां द्वैत नहीं इसलिए नाम निरवैर है :


तिसहि सरीकु नाही रे कोई ॥ (5-1081)

निरवैरु अकाल मूरति ॥ (4-1201)


शब्द व त्रैगुणी माया अनेकता है। अत: यहां वैर है। लेकिन अंतर यह है कि शब्द में माया के बंधन के विरुद्ध युद्ध की स्थिति है जबकि माया में हर एक जीव दूसरों के विरुद्ध मायिक प्राप्तियों के लिए युद्धरत है। शब्द गतिशील व अनेकता के स्वरूप वाली सत्ता है। जहां गति होगी, वहां कर्म भी होगा और कर्मों की प्रेरणा व स्वरूप के अनुसार कर्मों के फल भी होंगे। नाम निर्गुण व कर्माध्यक्ष है; शब्द सगुण व सर्व कर्मों का कर्ता है। चूंकि माया शब्द की ही परछाई है अत: माया भी कर्मों का कर्ता है। दोनों में अंतर यह है कि माया अज्ञानता व तद्जन्य कामना है लेकिन शब्द में ज्ञान से पतन नहीं है, यद्यपि ज्ञान वहां पूर्ण नहीं बल्कि आंशिक रूप में है। अत: शब्द में स्थिर होने पर हमें अपने कर्मों के वास्तविक स्वरूप, कारण व प्रयोजन का पता चल जाता है। हम कर्मों को कुशलतापूर्वक करने वाले बन जाते हैं। माया में स्थिर जीवों के कर्म अज्ञानता, अहंकार व कामना से भरपूर होते हैं।


नाम अकालमूर्त है। नाम जिस क्षण में उत्पन्न होता है, वह क्षण मानों सदा-सदा के लिए एक शाश्वत वर्तमान के रूप में वहीं ठहर जाता है। अत: नाम को 'है भी सचु' कहा गया है। शब्द व त्रैगुणी माया दोनों कालमूर्त हैं। काल का विभाजन सदा आदि, मध्य व अंत तीन अवस्थाओं में होता है। शब्द व त्रैगुणी माया दोनों काल-प्रवाह में हैं। अंतर यह है कि मायाग्रस्त जीवों को भविष्य का ज्ञान नहीं है और भूतकाल की स्मृतियां भी पैर-पैर पर धोखा देने वाले मित्र के समान होती हैं। दूसरी ओर शब्द वह सत्ता है जिसे ऋग्वेद 'जातवेद' कहता है। शब्द प्रत्येक सत्ता को जानता है क्योंकि उसके द्वारा अब तक धारण किये गये समस्त शरीर वास्तव में शब्द ने ही धारण किये हैं। शब्द को ज्ञान है कि काल-प्रवाह में कौन कब क्या था। मायाग्रस्त जीव को इसके बारे में कुछ पता नहीं है।


इस तरह तात्त्विक दृष्टि से जगत् का स्वरूप तिहरा है। पहला नाम है; दूसरा शब्द है; तीसरा त्रैगुणी माया है। चराचर प्राणी माया के तल पर जीवन बिता रहे हैं। प्राणियों का लक्ष्य नाम है जबकि शब्द इसमें साधन है। शब्द नाम का विवर्त है, दोनों सच हैं। माया मिथ्या है और यह शब्द का परिणाम है। इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से जगत् में सच व मिथ्या का द्वैत है। हम जीवों का जगत् असत्य, अंधकार व मृत्यु का जगत् है, साधना का ध्येय नाम के जगत् में पहुंचना है जो सत्य, ज्योति व अमृत से भरपूर है, लेकिन हम अपने-आप वहां नहीं पहुंच सकते। नाम प्रभू की कृपा है, यह कृपा वही दे तभी प्राप्त होगी, अन्यथा नहीं : आपे देइ त पाईऐ .... (3-33) लेकिन त्रैगुण में आये बिना वह ऐसा नहीं कर सकता। यदि वह त्रैगुण में आता है तो मायिक विधान के अनुसार उसे गर्भ में आना होगा। ऐसे में हमारे समक्ष चार प्रश्न हैं :

(1) क्या परमात्मा इस त्रैगुणात्मक जगत् में आता है और भौतिक शरीर को ग्रहण करता है?

(2) यदि हां तो किस प्रकार? क्योंकि बाणी स्पष्ट रूप से करती है कि परमात्मा गर्भयोनि में नहीं आता।

(3) जब वह भौतिक शरीर को ग्रहण करता है तो कौन-से लक्षण उसे सामान्य मनुष्यों से भिन्न कर देते हैं? उसे कैसे पहचानें?

(4) वह जीवों का उद्धार किस प्रकार करता है?


इन चारों प्रश्नों के उत्तर मूलमंत्र के अंतिम चार संकल्पों अजूनी, सैभं, गुर, व प्रसादि में दिए गये हैं। अजूनी का अर्थ है कि परम सत्ता भौतिक शरीर को धारण करती है किंतु इसके पीछे कोई योनि अर्थात् कारण नहीं होता। साधारण जीवों के जन्म का कारण कर्म, कामना व अज्ञानता है। परमात्मा का आगमन अकारण (अयोनि) है। सैभं से तात्पर्य है कि वह अपने-आप से आप उत्पन्न होता है। 'गुर' से आशय है कि वह एक गुरुत्वपूर्ण, महान व्यक्तित्व का स्वामी होता है। 'प्रसादि' का संकल्प बताता है कि वह अपनी कृपा से जीवों का उद्धार करता है। इस प्रकार मूलमंत्र के कुल चौदह पदों में से केवल दो पदों 'अकाल' व 'मूरति' में परस्पर विशेषण-विशेष्य संबंध है, जबकि शेष सभी स्वतंत्र पद हैं। इस तरह मूलमंत्र में कुल तेरह संकल्प हैं :


१, ਓੱ, सति, नामु, कर्ता, पुरुष, निरभउ, निरवैरु, अकालमूरति, अजूनी, सैभं, गुर, प्रसादि।


इन तेरह संकल्पों का भावानुवाद इस प्रकार होगा :


‘(परमात्मा) एक (है। वह) निर्विशेष (अथवा निर्गुण, नास्ति, शून्य है। वह) सविशेष (अथवा सगुण, अस्ति, एकम् है। उसमें) सत्ता व शक्ति (दो प्रकार के गुणों का एकत्व है। वह जगत् का) कर्ता (है और उसके) कण-कण में व्यापक (है। वह) भय, वैर-विरोध व काल से रहित स्वरूप वाला (है जबकि जगत् के जीव भय व वैर-विरोध में रहते हैं और कालबद्ध हैं। परमात्मा जीवों के उद्धार के लिए जगत् में आता है, लेकिन जगत् में उसके आगमन के पीछे मायाजन्य अज्ञानता जैसा कोई कारण नहीं, उसका आगमन) अकारण (है और वह) स्वत: प्रेरणा से (प्रकट होता है। वह एक) महान व्यक्तित्व (से सम्पन्न होता है और उसके) प्रसाद (से जीवों का उद्धार होता है।)’

इसका अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार होगा :


The One who is not-Being, Being, the Essence and the Power of the Being combined, Creator of the creation, Immanent in the creation, without fear, without enmity, without limitation of time and space, manifests himself without cause, with His own volition, having an august persona redeems the bonded souls.


विचार की सुविधा के लिए इन तेरह संकल्पों का आगे और वर्गीकरण भी संभव है। ਓੱ में कोई विशेषता नहीं, उसका वर्णन करते समय केवल यह बताना है कि वह क्या नहीं है। सति सविशेष सत्ता है और उसकी विशेषता नाम व शब्द का एकत्व है। सति का अध्ययन उसकी विशेषताओं के अध्ययन के माध्यम से होगा। अत: 'सतिनामु' संकल्प एक हो जाता है। यह निष्कर्ष 'कर्तापुरुष' के संदर्भ में भी सच है। इससे आगे आने वाली तीन संकल्पों ‘निरभउ, निरवैरु व अकालमूरति’ में एक ही विचार श्रृंखला है जिसका संक्षिप्त अध्ययन पीछे किया जा चुका है। अत: इनका अध्ययन भी एक ही अध्याय में करना समीचीन है। शेष चार संकल्पों में ‘अजूनीसैभं’ व ‘गुरप्रसादि’ को दो-दो समासों में श्रेणीबद्ध किए जाने की परंपरा सिख पंथ में काफी पुरानी है। इसलिए हमने मूलमंत्र के तेरह संकल्प का अध्ययन सात अध्यायों में किया है, जो इस प्रकार हैं :


१, ਓੱ, सतिनामु, कर्तापुरुष, निरभउ निरवैरु अकालमूरति, अजूनीसैभ, गुरप्रसादि।


अध्यायों का क्रम मूलमंत्र के अनुसार है, केवल एक महत्वपूर्ण अपवाद के साथ कि हमने '१' प्रत्यय का अध्ययन पुस्तक के अंत में किया है क्योंकि हमारे विचार में यह क्रम पाठकों के लिए बोधगम्य होगा।


(समाप्त)


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