Kabeer Ji writes, "From the one Light, the entire universe has welled up, so who is good and who is bad?" It means there is no evil in the world. This is a great statement. But it is our common experience that the evil really exist in the world. So, what does he mean to say? Read Karta Purush 9 to get the answer.
भक्त कबीर जी लिखते हैं :
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ।। अर्थात 'परमात्मा के एक नूर से ही सारा जगत् पैदा हुआ है, कोई अच्छा या बुरा नहीं है।’ यह एक महान वक्तव्य है। आम तौर पर यह प्रश्न किया जाता है कि जगत् में बुराई या पाप (evil) क्यों है? लेकिन भक्त कबीर जी का कथन है कि बुराई नहीं है। भक्त कबीर के कथन का अर्थ क्या है, यह जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 9
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सत्य स्वरूप परमात्मा सति, उसकी सत्ता नाम, उसकी आध्यात्मिक व त्रिगुणात्मिक -दो प्रकार की शक्तियों व जीवों के बीच संबंधों के इस विषय के सांगोपांग विवेचन के क्रम में हमारे लिये भक्त कबीर जी के 'अवलि अलह नूरु उपाइआ' शब्द का अध्ययन अत्यंत प्रासंगिक और अत्यावश्यक है। आप लिखते हैं :
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥1॥
‘सर्वप्रथम अल्लाह ने नूर को उत्पन्न किया (फिर नूर से कुदरत को उत्पन्न किया) ये सारे जीव कुदरत के ही बनाये हुए हैं। अल्लाह के एक नूर से ही सारा जगत् पैदा हुआ है, कोई अच्छा या बुरा नहीं है।’ इस पंक्ति में परमात्मा, उसकी ज्योति, जिसे ‘एक’ कहा गया है, कुदरत और जगत् के जीव-जन्तु चार चरण स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस पंक्ति में एक परमात्मा और जगत् के अनेक जीवों के बीच ‘नूर’ अर्थात ज्योति और ‘कुदरत’ -दो चरण दिखाई पड़ते हैं। कुरान (24.35) में अल्लाह को स्वर्ग और पृथ्वी में चारों ओर फैला नूर बताया गया है, फिर इस नूर की तुलना आले (niche) में रखे दीये से की गई है। इससे पता चलता है कि ‘नूर’ के दो रूप हैं, एक, दीपक (lamp) और दूसरा, उसका चारों ओर पसरा प्रकाश (light)। यदि हम इस निष्कर्ष की तुलना पीछे सतिनामु अध्याय में पठित ‘जोती-जोति’ समास से करें तो पता चल जाता है कि अल्लाह के ‘नूर’ के ये दो रूप वस्तुतः अल्लाह की सत्ता और महत्ता हैं। इसमें से प्रभु की सत्ता को आदिग्रंथ में नाम/शिव/कादर आदि कहा गया है जबकि उसकी महत्ता को शब्द/शक्ति/कुदरत आदि कहा गया है। हमारा यह दृढ़ मत है कि भक्त कबीर जी ने जिसे ‘नूर’ और ‘कुदरत’ कहा है, वे कुरान में ऊपर उल्लिखित ‘नूर’ के दो रूप ही हैं। ‘नूर’ के अर्थ ज्योति, तेज, प्रकाश आदि हैं। ध्यान रहे कि यहां 'नूर' पद से ज्योति के स्रोत (lamp या Sun) की ओर संकेत होता है न कि उस स्रोत के परिणाम (light) की ओर। सूर्य ज्योति रूप है, यह ज्योति का स्रोत है और फिर इसका परिणाम किरण भी ज्योति रूप है। ज्योति दोनों में है, स्रोत (सूर्य) में भी है और परिणाम (किरण) में भी है। दोनों का तत्व एक ही है लेकिन फिर दोनों में अंतर भी है। सूर्य में ज्योति सत्ता रूप (essence) है जबकि किरण में ज्योति महत्ता/दीप्ति/शक्ति रूप (might, lustre, splendor) है। सूर्य और किरण, सत्ता और महत्ता दोनों सत्य स्वरूप परमात्मा सति ही है : आपे सूरु किरणि बिसथारु।।(5-387) भक्त कबीर जी सत्ता रूप सूर्य के प्रकट होने की सूचना देते हैं किंतु शक्ति रूप किरण की उत्पत्ति की सूचना नहीं देते, ऐसा वह काव्य के बंधन से करते हैं और फिर उसकी भरपाई -'ये सारे जीव कुदरत के ही बनाये हुए हैं' - ऐसा कह कर करते हैं। ‘नूर’ ‘एक’ है, यह ऐसे है जैसे मानों सूर्य है, यह प्रभु की सत्ता है जबकि कुदरत उस सूर्य से चारों ओर पसरी ज्योत्सना अथवा चैतन्यता है अतएव यह प्रभु की महत्ता है। ‘नूर’ अल्लाह का एकत्व है; ‘कुदरत’ भी एक है किन्तु यह प्रभु में निहित अनेक होने की शक्ति है, अतएव यह अनेक भी हो सकती है। भक्त कबीर एक तरफ जगत् की विविधता का स्रोत नूर को बता रहे हैं, एक नूर ते सभु जगु उपजिआ ; दूसरी ओर आप कुदरत को जगत् की विविधता का स्रोत बताते हैं, कुदरति के सभ बंदे । इस विरोधाभास का समाधान यह है कि ‘नूर’ जगत् का प्रणेता-तत्त्व (Father principal) है जबकि ‘कुदरत’ जगत् का मातृ अथवा उद्गम तत्त्व (Mother principal) है। ‘नूर’ अल्लाह द्वारा किया गया सृष्टि रचना का संकल्प है; ‘कुदरत’ उस संकल्प से गर्भित पराप्रकृति है जो माया रूप चराचर सृष्टि को उत्पन्न करती है। कुदरत/पराप्रकृति चेतन शक्ति है; माया/अपराप्रकृति जड़ शक्ति है। जड़ होने के नाते माया चारों ओर विस्तृत फैलाव (space) को घेरती है; चेतन होने के नाते कुदरत इस फैलाव को नहीं घेरती, ठीक वैसे ही जैसे प्रकाश स्थान को कभी भी नहीं घेरता है। दूसरे, जब प्रभु की चेतन शक्ति का प्रकाश जड़ माया के पदार्थ पर पड़ता है तो वह पदार्थ हमारे लिये व्यक्त हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित वस्तु हमारे बोध का विषय बन जाती है। यदि चेतन शक्ति का प्रकाश नहीं होगा तो चारों ओर अंधकार होगा और जड़ माया रूप पदार्थ के होते हुए भी हम उसका बोध नहीं कर पाएंगे। हम यह कह सकते हैं कि जैसे व्यावहारिक रूप से प्रकाश की अनुपस्थिति में, घुप्प अंधकार के कारण, वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रहता, वैसे ही प्रभु की चेतन शक्ति शब्द की अनुपस्थिति में माया का अस्तित्व ही नहीं रहता। शब्द के कारण माया के बोध (awareness) में ही मायिक जगत् का अस्तित्व निहित है अन्यथा माया ‘नहीं है’, असत् । यदि शब्द के बोध से माया को निकाल दिया जाये तो वह ज्ञान शुद्ध चैतन्य/नाम बन जाता है। इस प्रकार यदि शब्द नहीं होगा तो माया नहीं होगी; दूसरी ओर यदि माया नहीं होगी तो शब्द भी नहीं होगा, अपितु वह अवस्था अशब्द/नाम की होगी। बाणी में जिसे नाम कहा गया है, उसी को वेदान्त में ‘ब्रह्म’ कहा गया है; दूसरी ओर बाणी में जिसे शब्द कहा गया है उसी को वेदान्त में ‘ईश्वर’ कहा गया है। नाम/ब्रह्म और शब्द/ईश्वर में अंतर यह है कि जब नाम/ब्रह्म माया की उपाधि से ग्रस्त (limited by Maya) हो जाता है तो वह शब्द/ईश्वर बन जाता है। जब वही नाम/ब्रह्म अविद्या से ग्रस्त होता है तो उसे जीव कहते हैं। नाम/नूर/ब्रह्म स्वयं-प्रकाश (self-illuminating) है; शब्द/कुदरत/शक्ति नाम के आश्रय से है; माया शब्द के आश्रय से है। शब्द जब नाम में लीन होता है तो वह अशब्द/नाम ही होता है। यह अशब्द ही उस समय शब्द बन जाता है जब उसके अनुभव-क्षेत्र में माया उपस्थित हो जाती है जो उसे बोधगम्य रूप में प्रकट होने के लिये सक्षम बनाती है। इस प्रकार माया की उपाधि से संवलित नाम/नूर/ब्रह्म/पुरुष को शब्द/कुदरत/ईश्वर/प्रकृति कहते हैं जबकि माया की उपाधि से शुद्ध शब्द/कुदरत/ईश्वर/प्रकृति को नाम/ब्रह्म/पुरुष कहते है। नाम/नूर/ब्रह्म/पुरुष निरपेक्ष सत्ता है। शब्द/ईश्वर और माया दोनों सापेक्ष सत्ताएं हैं। माया का अस्तित्व शब्द/ईश्वर के सापेक्ष है, माया में निवास कर रहे जीव माया के नियमों के अधीन रहते हैं और इन नियमों की उद्घोषणा शब्द/ईश्वर द्वारा की जाती है। शब्द/ईश्वर का अस्तित्व सति/महेश्वर अथवा परमेश्वर के सापेक्ष है, शब्द/ईश्वर में निवास कर रहे जीव दिव्य नियमों के अधीन रहते हैं जिनकी उद्घोषणा सति/महेश्वर या परमेश्वर स्वयं करते हैं। इस प्रकार सति/महेश्वर भी कर्ता है और शब्द/ईश्वर भी कर्ता है। इसीलिये लिखा गया है:
तूँ करता तूँ करणहारु तू है एकु अनेक जीओ ॥ (5-760)
तू करता तू करणहारु ॥ (5-1193)
यहाँ ‘करता’ और ‘करणहार’ पद क्रमशः सति और शब्द के लिये आये हैं। ध्यान रहे कि सति दिव्य नियमों के उद्घोषक हैं; नाम स्वयं ही दिव्य नियम है; शब्द उस दिव्य नियम के अधीनस्थ है। इस प्रकार हम यह भी कह सकते हैं कि शब्द सति की अध्यक्षता में कार्य करता है और यह भी कह सकते हैं कि शब्द नाम की अध्यक्षता में कार्य करता है। श्रीभगवद्गीता में श्रीभगवान् ने बताया, “मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को रचती है” : मयाsध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।।(9.10) प्रभु नाम/शिव/पुरुष/कादर के रूप में प्रकट होकर सृष्टि रचना की अध्यक्षता करते हैं जबकि शब्द/शक्ति/प्रकृति/कुदरत के रूप में प्रकट होकर चराचर जगत् बनते हैं। भक्त कबीर ने इन्हीं दोनों रूपों को क्रमशः ‘नूर’ और ‘कुदरत’ कहा है। ‘कुदरत’ जगत् नहीं है, यह जगत् का प्रसवन करती है (brings forth), वेद में इसीलिए इसको ‘सविता’ कहा गया है।
भक्त कबीर लिखते हैं कि सभी जीव कुदरत द्वारा बनाये गये, कुदरति के सभ बंदे । जीव का निर्माण जड़ माया और प्रभु के चिदांश के मेल से होता है। इसका अर्थ हुआ कि सृष्टि के निर्माण के लिये कुदरत तीन कर्म करती है। पहला, यह जड़ माया को उत्पन्न करती है; दूसरा, यह चेतन आत्माओं की बहुलता को उत्पन्न करती है; और, तीसरा, यह जड़ माया और चेतन आत्मा का मेल करती है। भगवद्गीता के सातवें अध्याय में श्रीभगवान् कहते हैं, "पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार -ये आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् जड़, गौण प्रकृति है और हे महाबाहो! तुम्हें मेरी पराप्रकृति को भी जानना चाहिए जो जीव बनी है और जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।"(7-4.5) इससे स्पष्ट होता है कि पराप्रकृति अथवा आदिग्रंथोक्त कुदरत एक ओर तो जीवात्मा बनी है जबकि दूसरी ओर अपरा प्रकृति अर्थात् त्रैगुणात्मक माया में रूपांतरित होकर बुद्धि, अहंकार, मन व जगत् के पांच मूल तत्त्वों में विभक्त हुई है। किंतु श्रीभगवान् की चेतन शक्ति केवल यही नहीं है। अर्थात् इतना ही नहीं कि यह विराट शक्ति अनेक जीवात्माओं व प्राकृतिक शक्तियों के रूप में प्रकट होकर निःशेष हो जाती है। परमात्मा की शक्ति का केवल यही रहस्य नहीं हो सकता है। यह चेतन सत्ता अनन्त है और अपने गर्भ से समस्त जगत् को उत्पन्न करने के पश्चात् उसे धारण भी किए रहती है, ययेदं धार्यते जगत् । इस प्रकार जगत् के अहम् व इदम् दोनों पक्ष एक ही चेतन शक्ति से उत्पन्न् होते हैं और यही चेतन शक्ति इनकी ईश है, वह इन्हें धारण करती है और प्रभु की इच्छानुसार इन्हें चलाती है। जड़ माया जगत् का नियंत्रण नहीं करती। यह माँ, मातृ (creatrix) अवश्य है किन्तु यदि इसकी चेतन शक्ति से तुलना की जाये तो यह धात्रि, दाई है। जगत् की परिकल्पना, निर्माण व नियंत्रण चेतन शक्ति के हाथ में है किन्तु जीव अज्ञानता के कारण जड़ शक्ति को अपनी स्वामिनी बना लेता है।
दूसरी पंक्ति में भक्त जी ने लिखा है, “अल्लाह के एक नूर से ही सारा जगत् पैदा हुआ है, कोई अच्छा या बुरा नहीं है।” यह एक महान वक्तव्य है। आम तौर पर यह प्रश्न किया जाता है कि जगत् में बुराई या पाप (evil) क्यों है? फिर दूसरा प्रश्न यह भी किया जाता है कि जगत् में दुख (suffering) क्यों है? वस्तुतः ये दो प्रश्न दो नहीं एक ही हैं। बुराई दुख का कारण है; दुख बुराई का कार्य है। जहां कारण होगा वहाँ कार्य अवश्य होगा। अतः मूलभूत प्रश्न जगत् में बुराई के अस्तित्व को लेकर है। कबीर जी के शब्दों में इस प्रश्न का उत्तर यही है कि जिस जगत् की उत्पत्ति प्रभु की ज्योति से हुई है उसमें बुराई नहीं है, बुराई उस जगत् में है जिसकी उत्पत्ति जीवों की ‘मैं, ‘मेरी’ से हुई है। जीवों की ‘मैं’, ‘मेरी’ से जगत् के उत्पन्न होने का अर्थ है कि जीव अज्ञानता के रोग से ग्रस्त हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि ‘मैं कौन हूँ’? इस अज्ञानता के कारण हम जगत् से अपने संबंधों को सम्यक् रूप से निर्धारित नहीं कर पाते। ‘मैं कौन हूँ’? हमारे पास इस प्रश्न के जितने भी उत्तर होते हैं वे गलत होते हैं। इस मूल गलती से ‘यह शरीर, घर आदि मेरा है’ यह गलत धारणा उत्पन्न होती है। पहली गलती को अहंता (मैं) और दूसरी गलती को ममता (मेरा या मेरी) कहा गया है, और यही कामना का बीज है। अहं और कामना ये दोनों त्रिगुणात्मिका माया के दो हाथ हैं। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :
माइआ जालु पसारिआ भीतरि चोग बणाइ ॥
त्रिसना पंखी फासिआ निकसु न पाए माइ ॥
जिनि कीता तिसहि न जाणई फिरि फिरि आवै जाइ ॥(5-50)
जीव रूपी पक्षी माया के जाल में दो कारणों से फँसता है। पहला, जिनि कीता तिसहि न जाणई, हमें नहीं पता कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं; दूसरा, पदार्थों की तृष्णा जो पहले कारण का परिणाम है। इसके फलस्वरूप क्या होता है, यह बताते हुए गुरु जी लिखते हैं :
जिउ कूकरु हरकाइआ धावै दह दिस जाइ ॥
लोभी जंतु न जाणई भखु अभखु सभ खाइ ॥
काम क्रोध मदि बिआपिआ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥(वही)
‘जैसे हलकाया कुत्ता दौड़ता है और हर तरफ को दौड़ता है, उसी तरह लोभी जीव को भी कुछ नहीं सूझता, अच्छी-बुरी हरेक चीज खा लेता है। काम और क्रोध के नशे में फंसा हुआ मनुष्य बार-बार योनियों में पड़ता रहता है।’
किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना है कि त्रिगुणात्मिका माया, जिसका अनुभव हमें धन, पदार्थ, रिश्तों आदि के सुख में होता है, तात्विक रूप से बुरी है। बुराई का स्रोत केवल हमारी अज्ञानता है अन्यथा यह माया भी परमात्मा की ही शक्ति है और यह भी मूलभूत रूप से अशुभ नहीं है, यह सिर्फ है (It just exists)। “इसका अमंगलकारी स्वरूप वस्तूपरक तथ्य पर आत्मगत अध्यारोप है। वस्तूपरक तथ्य का अपने-आप में कोई नैतिक लक्षण नहीं है, यह ऐसा लक्षण इसके बारे में न्यायनिर्णय करने वाले व्यक्ति के रंजित दृष्टिकोण के कारण ग्रहण करती है।”(Mystic Philosophy of Upanishads, पृ -304) यदि ऐसा नहीं होता तो फिर यही उत्तम होता कि जितनी जल्दी हो इस संसार का ही नहीं शरीर का भी त्याग कर दिया जाये क्योंकि यह सब कुछ माया ही है। विश्व की योजना को आगे बढ़ाने में सक्रिय भाग लेना, सामाजिक कार्यक्षमता का संवर्धन और सामाजिक संगठन को उत्तरोत्तर दक्ष करने के प्रयत्नों से मूंह मोड़ने की आवश्यकता नहीं, इनमें कोई बुराई नहीं। ये बुरे तब होते हैं जब ऐसा करते हुए हम परमात्मा की इच्छा के सम्मुख पूर्ण वशवर्तिता, आत्मिक दिव्य दर्शन और व्यक्तिगत पूर्णता के मार्ग से भटक जाते हैं। गुरू नानक देव लिखते हैं, 'सच्चे शब्द का निर्माण करके प्रभु ने अटल पातशाही नियम को स्थापित किया। यह शब्द सदा निश्चल है, सभी जीवों में व्याप्त है, सर्वत्र है और हर रहस्य को भली-भांति जानता है। शब्द की आराधना के द्वारा सत्यस्वरूप प्रभु की कृपा का निशान मिलता है। शब्द की आराधना गुरू की कृपा से होती है। इसलिए हे मनुष्य! गुरू के उपदेश पर चल, फिर तुझे पता चलेगा कि प्रभु द्वारा निर्मित जगत् के ताने-बाने में कहीं कोई त्रुटि नहीं। तब तू जीवन में आनंद लाभ करेगा। प्रभु अलख, अगम, अगोचर है पर गुरू की शरण से उसकी समझ आती है :
सचा अमरू चलाइउन करि सचु फुरमाणु ॥
सदा निहचल रवि रहिआ सो पुरखु सुजाणु ॥
गुर परसादी सेवीऐ सचु सबदि नीसाणु ॥
पूरा थाटु बणाइआ रंगु गुरमति माणु ॥
अगम अगोचरु अलखु है गुरमुखि हरि जाणु ॥(1-789)
इसमें महत्वपूर्ण पंक्ति है, पूरा थाटु बणाइआ रंग गुरमति माणु । परमात्मा द्वारा सृष्टि के निर्माण की योजना में कहीं कोई नकारात्मक भावना नहीं, न ही इसमें कोई पाप या पाप के दंड की भावना अंतर्भूत है। नकारात्मकता, दुख, कष्ट इसलिए आते हैं क्योंकि मनुष्य आंतरिक और बाह्य, पारमार्थिक और व्यावहारिक जीवन के बीच संतुलन नहीं रख पाता। पांचवें गुरू अर्जुन देव लिखते हैं :
फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बागु ॥
जो नर पीरि निवाजिआ तिना अंच न लाग ॥(5-966)
'हे फरीद ! भूमि अर्थात् क्षेत्र - जिसका अर्थ समष्टिगत जगत् व व्यष्टिगत शरीर दोनों है - बहुत सुंदर है लेकिन मनुष्य के अंदर विषैला बाग लगा है, जिससे वह दुखी है। जिस मनुष्य को सद्गुरु ने रास्ता दिखाया उनको दुखाग्नि का ताप नहीं लगा।’ फिर लिखते हैं :
फरीदा उमर सुहावड़ी संगि सुवंनड़ि देह ॥
विरले केई पाईओंन जिना पिआरे नेह ॥(5-966)
'हे फरीद! उन जीवों की जीवनावधि सुखों से भरी है और शरीर भी उनके सुंदर हैं जिनका प्रेम प्रियस्वरूप प्रभु के साथ है।' इसी सत्य की अभिव्यक्ति भगवद्गीता के अंतिम श्लोक में होती है। संजय धृतराष्ट्र से कहता है :
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रर्वा नीतिर्मतिर्मम ॥(18.78)
'जहां योगेश्वर कृष्ण हैं और जहां धनुर्धारी अर्जुन हैं, मुझे लगता है कि श्री (सौभाग्य), विजय, कल्याण और नैतिकता भी अवश्य वहीं होगी।' कौरव पक्ष में भी धनुर्धारी बहुत थे लेकिन उनके पास योगेश्वर श्रीकृष्ण - आदिग्रंथ के अनुसार सद्गुरु - नहीं थे। सद्गुरु के बिना विजय भले ही मिल जाये लेकिन सौभाग्य, कल्याण और नैतिकता नहीं मिलती जिससे जीवन की ऊर्जा बर्बरता में बदलती है और जीवन दुखों से भर जाता है।
(शेष आगे)
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