Guru Arjun Dev Ji writes, "Remember your origins, O thoughtless fool. Why you are so proud of yourself?" Everything consists of two things, the root which is the Spirit and the apparent outgrowth which is the Maya. The Spirit is substratum reality, the Maya is the substrated reality. The wise tries to know his spiritual roots whereas the fool is interested in the Maya. Read Karta Purush 8 for the detailed study on this subject.
गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :
मूलु समालहु अचेत गवारा।।
इतने कउ तुम क्या गरबे।।
'परमात्मा को भूले हुए और गंवार मनुष्य तुम अपने मूल को जानने का प्रयास करो। व्यर्थ ही क्यों घमंड कर रहे हो?' इसमें आया शब्द 'मूल' बड़ा महत्वपूर्ण है। प्रत्येक वस्तु के दो स्वरूप हैं - मूल (अधिष्ठान, substratum) और प्रतीति (अधीष्ठित, substrated)। जो मूल को संभालता है वह ज्ञानी है। जो प्रतीतियों में उलझ गया है वह गंवार है। मूल और प्रतीति के बारे में विस्तृत चर्चा के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 8.
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(पीछे हमने भक्त नामदेव जी के एक शब्द का अध्ययन करते हुए जाना कि उसमें परमात्मा की दो शक्तियों का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है। अब हम जानेंगे कि इसी तथ्य का समर्थन आदिग्रंथ की बाणी में अन्यत्र भी हुआ है।)
यदि हम एक बार फिर भक्त नामदेव के ऊपर उल्लिखित शब्द को देखें तो आपने वहाँ पहली, श्रेष्ठ प्रकृति को ‘आमिरा’ कहा है जबकि दूसरी, अपकृष्ट प्रकृति को ‘कृष्णा’ कहा है। किन्तु हमने बार-बार लिखा है कि प्रकृति के दोनों रूपों के लिये एक ही शब्द का व्यवहार हो सकता है यद्यपि उस शब्द के अर्थ दोनों प्रकृतियों के संदर्भ में भिन्न-भिन्न होंगे। आदिग्रंथ में ही अन्यत्र अपकृष्ट प्रकृति के लिये ‘आमिरा’ पद का नियोजन किया गया है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :
आसा महला 5 ॥
मता करउ सो पकनि न देई ॥ सील संजम कै निकटि खलोई ॥
वेस करे बहु रूप दिखावै ॥ ग्रिहि बसनि न देई वखि वखि भरमावै ॥1॥
घर की नाइकि घर वासु न देवै ॥ जतन करउ उरझाइ परेवै ॥2॥ रहाउ॥
धुर की भेजी आई आमरि ॥ नउ खंड जीते सभि थान थनंतर ॥
तटि तीरथि न छोडै जोग संनिआस ॥
पड़ि थाके सिम्रिति बेद अभिआस ॥2॥
जह बैसउ तह नाले बैसै ॥ सगल भवन महि सबल प्रवेसै ॥
होछी सरणि पइआ रहणु न पाई ॥ कहु मीता हउ कै पहि जाई ॥3॥
सुणि उपदेसु सतिगुर पहि आइआ ॥
गुरि हरि हरि नामु मोहि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥
निज घरि वसिआ गुण गाइ अनंता ॥
प्रभु मिलिओ नानक भए अचिंता ॥4॥
घरु मेरा इह नाइकि हमारी ॥
इह आमरि हम गुरि कीए दरबारी ॥1॥ रहाउ दूजा ॥(पृ- 371)
इस शब्द में ‘माया’ पद कहीं नहीं आया है, पर लक्षण सारे माया के हैं। इसमें दो ‘रहाउ’ हैं, दोनों में ‘नायिका’ पद आया है, इसका अभिधा अर्थ ‘स्त्री’ है। लक्षणा से इसका अर्थ शक्ति/प्रकृति/माया होगा। शिव/पुरुष/ब्रह्म नायक है, शक्ति/प्रकृति/माया उसकी अनुगामिनी नायिका है। फिर दूसरी पंक्ति और दूसरे रहाउ में स्त्रीलिंग पद ‘आमरि’ आया है, इसका अर्थ ‘पुरुष के संकल्प को कार्यान्वित करने वाली’ है। इससे पता चलता है कि ‘नायिका’ व ‘आमिरा’ दोनों पदों का अर्थ माया है। यह माया जीव के भक्ति आदि शुभ संकल्पों को परवान नहीं चड़ने देती; शील, संयम जैसे प्रयत्नों में बाधाएं प्रस्तुत करती है; मोहक और लुभायमान स्वरूपों को जीव के आगे प्रस्तुत करके उसे भ्रमित करती व निज-स्वरूप में निवास नहीं करने देती; सारा संसार इसके वश में है; योग, संन्यास, तीर्थाटन, वेदादि धर्मग्रंथों के अभ्यास, देवी-देवताओं की शरण जैसे उपाय इसके सामने तुच्छ हैं; इस माया को जीतने का उपाय यह है कि जीव सद्गुरु के पास जाये, उसके दिये हरि के नाम-मंत्र के माध्यम से प्रभु का गुणगान करे जिससे जीव अचिंत्य प्रभु से मिलाप कर उसी के समान हो जाता है, तदुपरांत यह माया जिस प्रकार प्रभु की अधीनस्थ है उसी प्रकार उस सिद्ध पुरुष की भी अधीनस्थ हो जाती है।
इससे पता चलता है कि भक्त नामदेव जी द्वारा वर्णित आमिरा और गुरु अर्जुन देव जी के द्वारा बताई गई आमिरा भिन्न-भिन्न हैं। भक्त नामदेव जी द्वारा वर्णित आमिरा/माया ब्रह्म से उत्पन्न हुई है अतएव उसी के समान प्रकाशरूपा और ज्ञानरूपा है, दूसरी ओर गुरु अर्जुन देव जी द्वारा वर्णित आमिरा/माया उस श्रेष्ठ प्रकृति वाली आमिरा/माया का गौण रूप और परिणाम मात्र है, अतएव यह अंधकार और अज्ञान का स्रोत है। यह गौरतलब है कि गुरु अर्जुन देव जी ने इस गौण माया को भी धुर दरगाह से आया बताया है, धुर की भेजी आई आमरि । इस तर्क से इस गौण माया का मूल भी ब्रह्म है, किन्तु यह ब्रह्म के समान नहीं है। माया के दोनों रूप, पर और अपर, ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं। भला उसके सिवाए यहाँ किसी भी वस्तु का स्रोत कोई दूसरा कैसे हो सकता है! किन्तु जहां परा अथवा श्रेष्ठ माया प्रभु की प्रिय है, यह उसी का पूरक पक्ष है, वहीं अपरा अथवा कनिष्ठ माया उसका आभास (reflection) मात्र है। प्रभु अपनी श्रेष्ठ माया में तो उपस्थित हैं किन्तु कनिष्ठ माया में अनुपस्थित हैं, ठीक वैसे ही जैसे मैं अपने शरीर में तो उपस्थित हूँ किन्तु अपने पेन में उपस्थित नहीं हूँ यद्यपि यह पेन वैसे ही मेरा है जैसे यह शरीर मेरा है।
ऊपर उल्लिखित शब्द में गुरु अर्जुन देव ने भ्रम में डालने वाली माया के लिये पद ‘नायिका’, जिसका अर्थ ‘स्त्री’ है, का प्रयोग किया है। राग रामकली में सम्मिलित एक अन्य शब्द में भी आप जी ने इसी माया का उल्लेख कुलक्षणी स्त्री के रूप में किया है। आप लिखते हैं :
गहु करि पकरी न आई हाथि ॥ प्रीति करी चाली नही साथि ॥
कहु नानक जउ तिआगि दई ॥ तब ओह चरणी आइ पई ॥1॥
(हे संत जनो! जिस-जिस मनुष्य ने इस माया को) बड़े यत्न से पकड़ा, उस-उसके हाथ में यह ना आई, जिसने भी (इससे) बड़ा प्यार किया, उसने यह पाया कि इस माया ने साथ नहीं निभाया। हे नानक! कह, जब किसी मनुष्य ने इसको (मन से) छोड़ दिया, तब ये उसके चरणों में आ पड़ी।
सुणि संतहु निरमल बीचार ॥
राम नाम बिनु गति नही काई गुरु पूरा भेटत उधार ॥1॥ रहाउ॥
हे संत जनो! जीवन को पवित्र करने वाला यह उपदेश सुनो- परमात्मा के नाम के बिना ऊँची आत्मिक अवस्था बिल्कुल ही नहीं होती, (पर, नाम गुरु से ही मिलता है) पूरा गुरु मिलने से (माया के मोह से मुक्ति हो के) पार-उतारा हो जाता है।
जब उस कउ कोई देवै मानु ॥ तब आपस ऊपरि रखै गुमानु ॥
जब उस कउ कोई मनि परहरै ॥ तब ओह सेवकि सेवा करै ॥2॥
हे संत जनो! जब कोई मनुष्य उस (माया) को आदर देता है (संभाल-संभाल के रखने का यत्न करता है) तब वह अपने ऊपर बहुत मान करती है (रूठ-रूठ के भाग जाने का प्रयत्न करती है)। पर जब कोई मनुष्य उसको अपने मन से उतार देता है, तब वह उसकी दासी बन के सेवा करती है।
मुखि बेरावै अंति ठगावै ॥ इकतु ठउर ओह कही न समावै ॥
उनि मोहे बहुते ब्रहमंड ॥ राम जनी कीनी खंड खंड ॥3॥
हे संत जनो! (वह माया हरेक प्राणी को) मुँह से परचाती है, पर आखिर धोखा दे जाती है; किसी एक जगह वह कतई नहीं टिकती। उस माया ने समस्त ब्रहमण्डों (के जीवों) को अपने मोह में फसाया हुआ है। पर संत जनों ने (उसके मोह को) टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।
जो मागै सो भूखा रहै ॥ इसु संगि राचै सु कछू न लहै ॥
इसहि तिआगि सतसंगति करै ॥ वडभागी नानक ओहु तरै ॥4॥(5-891)
हे संत जनो! जो मनुष्य (हर वक्त माया की मांग ही) मांगता रहता है, वह तृप्त नहीं होता, (उसकी भूख उसकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती), जो मनुष्य इस माया (के मोह) में ही मस्त रहता है, उसको (आत्मिक जीवन के धन में से) कुछ नहीं मिलता। पर हे नानक! इस (माया के मोह) को छोड़ के जो मनुष्य संतों की संगति करता है, वह बहुत भाग्यशाली मनुष्य (माया के मोह की रुकावटों से) पार लांघ जाता है।
इन दोनों उदाहरणों के विपरीत राग आसा में संकलित एक अन्य शब्द में आपने ‘स्त्री’ पद का प्रयोग करके प्रभु की परा, दिव्य प्रकृति का उल्लेख किया है। आप लिखते हैं :
आसा महला 5 ॥
निज भगती सीलवंती नारि ॥ रूपि अनूप पूरी आचारि ॥
जितु ग्रिहि वसै सो ग्रिहु सोभावंता ॥ गुरमुखि पाई किनै विरलै जंता ॥1॥
सुकरणी कामणि गुर मिलि हम पाई ॥
जजि काजि परथाइ सुहाई ॥1॥ रहाउ॥
जिचरु वसी पिता कै साथि ॥ तिचरु कंतु बहु फिरै उदासि ॥
करि सेवा सत पुरखु मनाइआ ॥
गुरि आणी घर महि ता सरब सुख पाइआ ॥2॥
बतीह सुलखणी सचु संतति पूत ॥ आगिआकारी सुघड़ सरूप ॥
इछ पूरे मन कंत सुआमी ॥ सगल संतोखी देर जेठानी ॥3॥
सभ परवारै माहि सरेसट ॥ मती देवी देवर जेसट ॥
धंनु सु ग्रिहु जितु प्रगटी आइ ॥ जन नानक सुखे सुखि विहाइ ॥4॥(5-371)
रहाउ की पंक्ति में लिखते हैं, “(हे भाई!) गुरु को मिल के मैंने श्रेष्ठ करणी- (रूप) स्त्री हासिल की है जो यज्ञ, विवाह आदि पवित्र अवसरों में हर जगह सुंदर लगती है।” प्रभु की पराशक्ति इस मायारूप जगत् में शुभत्व का एकमात्र स्रोत है और इसकी प्राप्ति गुरु के माध्यम से होती है। मनुष्यों में जहां भी पावनता का साक्षात्कार होता है, समझना चाहिये कि वहाँ प्रभु-शक्ति ही साक्षात हो रही है। “(परमात्मा की यह शक्ति उसकी) निजभक्ति (है और मानो) मीठे स्वभाव वाली एक स्त्री है (जो) रूप में बेमिसाल है (जो) आचरण में मुकम्मल है। जिस (हृदय) घर में (ये स्त्री) बसती है वह घर शोभा वाला बन जाता है। पर, किसी विरले जीव ने गुरु की शरण पड़ के (ये स्त्री) प्राप्त की है।” प्रभु ने अपनी शक्ति को प्रकट ही इसलिये किया था क्योंकि वह अपनी भक्ति करना चाहता था। हम जीव इस शक्ति से संयुक्त होकर ही प्रभु के भक्त बन सकते हैं। इस शक्ति से वियुक्त जीवों का प्रभु के भक्त होने का दावा अज्ञानतापूर्ण है। इस शक्ति से संयुक्त जीव मीठे स्वभाव वाले, सुंदर रूप और उच्च आचरण वाले बन जाते हैं। “(यह शक्ति रूप स्त्री) जब तक परमात्मा के पास ही रहती है तब तक जीव बहुत भटकता फिरता है। जब (गुरु के द्वारा जीव ने) सेवा करके परमात्मा को प्रसन्न किया, तब गुरु ने (इसके हृदय-) घर में ला के बैठाई और इसने सुख आनंद प्राप्त कर लिए।” परमात्मा और उसकी शक्ति दोनों सदैव संयुक्त हैं और जीवों के अंतःकरण में कहीं गूढ़ स्थान पर निवास करते हैं किन्तु जीव इस शक्ति से अनभिज्ञ भी हो सकते हैं और अभिज्ञ भी हो सकते हैं। जो जीव इस शक्ति से अनभिज्ञ हैं उन्हें संसारी कहते हैं, जो गुरु की कृपा से इस शक्ति से अभिज्ञ हो जाते हैं वे परमात्मा का रूप हो जाते हैं। “(यह शक्ति रूपी स्त्री दया, विनम्रता, लज्जा आदि) बत्तीस सुंदर लक्षणों वाली है, सदा स्थिर नाम इस की संतान है।” नाम लफ़्ज नहीं है, यह सत्य स्वरूप परमात्मा सति की सत्ता है और इसकी प्राप्ति शब्द, जो आदिग्रंथ में प्रभु की शक्ति के लिये बहुप्रयुक्त संज्ञा है, के अभ्यास से होती है। इसलिये यहाँ आपने नाम को शक्ति की संतान कहा है। इस प्रकार जगत् के निर्माण की प्रक्रिया में प्रभु की शब्द-शक्ति उसकी सत्ता नाम से उत्पन्न होती है जबकि प्रभु से मिलाप के क्रम में यह प्रक्रिया उलट जाती है और नाम की उत्पत्ति शब्द से होती है, इसको बाणी में ‘सबदे नामि विसाहा हे’ कहा गया है। इसी को ऋग्वेद में यह कहकर समझाया गया है कि ‘अदिति दक्ष से उत्पन्न होती है और दक्ष अदिति से उत्पन्न होता है।’ गुरु जी आगे लिखते हैं, “(ये स्त्री) आज्ञा में चलने वाली है, निपुण है, सुंदर रूप वाली है। जीव-कंत पति की (हरेक) इच्छा ये पूरी करती है, देवरानी जेठानी (आशा-तृष्णा) को ये हर तरह से संतोष देती है (शांत करती है)।” “(मीठे बोल, विनम्रता, सेवा, दान, दया) समस्त शुभ गुणों में यह पराशक्ति सबसे उत्तम अर्थात प्रथम है, सारे देवरों-जेठों (ज्ञान-इंद्रियों) को मश्वरे देने वाली है (सही मार्ग-दर्शन करने के काबिल है)। हे दास नानक! (कह) वह हृदय-घर भाग्यशाली है, जिस घर में (ये पराशक्ति रूपी स्त्री) आ के दर्शन देती है, (जिस मनुष्य के हृदय में प्रगट होती है उसकी उम्र) सुख आनंद में बीतती है।”
इसी प्रकार भक्त कबीर जी ने प्रभुशक्ति के दोनों रूपों को दो स्त्रियों के रूपक में वर्णन किया है। आप लिखते हैं :
पहिली करूपि कुजाति कुलखनी साहुरै पेईऐ बुरी ॥
अब की सरूपि सुजानि सुलखनी सहजे उदरि धरी ॥1॥
भली सरी मुई मेरी पहिली बरी ॥
जुगु जुगु जीवउ मेरी अब की धरी ॥1॥ रहाउ॥
कहु कबीर जब लहुरी आई बडी का सुहागु टरिओ ॥
लहुरी संगि भई अब मेरै जेठी अउरु धरिओ ॥2॥(कबीर जी -483)
‘मेरी पहली स्त्री कुरूप, निम्न कुल वाली और कुलक्षणी थी। वह लोक और परलोक में बुरे स्वभाव वाली स्त्री के रूप में प्रसिद्ध थी अर्थात उसका साथ निष्फल और निस्सार है। लेकिन मेरी अब वाली स्त्री सुंदर, ज्ञानमयी और दैवी संपदा के समस्त शुभ लक्षणों वाली है और मैंने उसे हृदय से लगा लिया है अर्थात अंतःकरण में धारण कर लिया है। भला ही हुआ जो मेरी पहली ब्याही हुई स्त्री मर गई, जो मुझे अब मिली है, परमात्मा करे वह सदा सलामत रहे। हे कबीर! कह, जब से यह विनम्र स्वभाव वाली स्त्री मुझे मिली है, अहंकारी स्वभाव वाली स्त्री का जोर मेरे ऊपर से टल गया है। ये विनम्रता वाली स्त्री अब सदा मेरे साथ रहती है, और उस अहंकार मति वाली ने कहीं कोई और जगह ढूँढ ली होगी।’
गुरबाणी से इन शब्दों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि आदिग्रंथ में परमात्मा की दो शक्तियों का वर्णन किया गया है। एक परा है तो दूसरी अपरा है; एक ज्ञानमयी है तो दूसरी गुणमयी है; एक आनंदरूप है तो दूसरी दुखरूप है। वेदान्त में इन्हें ही क्रमशः विद्या माया व अविद्या माया कहा गया है। वल्लभाचार्य इन दोनों में से पहली को माया व दूसरी को अविद्या कहते हैं। उनके अनुसार माया ब्रह्म की वास्तविक अघटित-घटनापटीयसी शक्ति - जो कभी न हुआ हो उसे भी करने में पटु या चतुर शक्ति - है जो उन्हीं में स्थित रहती है; अविद्या इस माया का भ्रांतिजन्य पक्ष है जिससे जीवों में ज्ञान का तिरोभाव व अज्ञान का आविर्भाव होता है। गोस्वामी तुलसीदास प्रभुशक्ति के इन दोनों रूपों का वर्णन करते हुए आध्यात्मिक शक्ति के बारे में लिखते हैं :
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥(राम. 3-15-3)
दूसरी ओर त्रिगुणात्मिका शक्ति के बारे में आप लिखते हैं :
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा । जा बस जीव परा भवकूपा ॥(राम. 3-15-3)
हमारा यह जगत् त्रिगुणात्मिक है जबकि प्रभु सच्चिदानंद हैं, प्रभु की पराशक्ति इन दोनों के बीच की कड़ी है। यह जगत् प्रभु की पराशक्ति और प्रभु की त्रिगुणात्मिका शक्ति के मेल से उत्पन्न होता है। राग तिलंग में गुरु अर्जुन देव जी की वाणी है :
खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥
असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥1॥
बंदे चसम दीदं फनाइ ॥ दुनींआ मुरदार खुरदनी गाफल हवाइ ॥(5-723)
‘हे भाई! नूर अर्थात चेतन ज्योति (पराशक्ति/शब्द) और खाक अर्थात अचेतन मिट्टी (त्रिगुणात्मिका शक्ति) मिला के परमात्मा ने यह जगत् बना दिया है। आसमान, धरती, वृक्ष, पानी (आदि ये सब कुछ) परमात्मा की ही रचना है। हे मनुष्य! तू जो कुछ आँखों से देखता है, नाशवान है। पर दुनिया (माया के) लालच में (परमात्मा को) भूली हुई पराया हक खाती रहती है।’ प्रभुशक्ति और त्रिगुणात्मिका माया दोनों परमात्मा की ही दो शक्तियां हैं और ये दोनों साथ-साथ रहती हैं। पश्चिमी दर्शन में स्पिनोजा के दर्शन में प्रकृति (Nature) के दो रूप बताये गये हैं। एक को वह Nature naturing (Natura naturans) कहता है और दूसरी को Nature natured (Natura naturata) कहता है। प्रकृति के प्रथम रूप की पहचान प्रेरणादायक (inducing) और ज्ञानमय (illuminating) प्रकृति के रूप में की गई है जबकि प्रकृति के दूसरे रूप को सृष्ट (created), क्रियाशील प्रकृति कहा गया है। भगवद्गीता की परा और अपरा प्रकृति यही हैं। वहाँ इनको ‘सम्पूर्ण प्राणियों की योनि’ कहा गया है। गुरु नानक इन्हें जगत् की दो माएं ‘दुइ माई’ कहते हैं। प्रभु की पराशक्ति ज्ञानशक्ति (cognizing power), बलशक्ति (energizing power), सृष्टि-शक्ति (creative power), रक्षा-शक्ति (preserving power) और नाश-शक्ति (destroying power) है; प्रभु की अपरा शक्ति आवरण शक्ति (concealing power), विक्षेप शक्ति (projecting power), और मोहिनी शक्ति (deluding power) है। ध्यान रहे कि प्रभु की अपरा शक्ति ‘भ्रम’ (illusion) रूप है लेकिन यह ‘विभ्रम’ (hallucination) नहीं है। ‘भ्रम’ किसी यथातथ्य संवेदी निविष्टि (sensory input) के गलत अर्थ निरूपण को कहते हैं। विभ्रम ऐसे बोध की संज्ञा है जिसका आधार संवेदी निविष्टि नहीं है। हमें रस्सी के स्थान पर सांप का भ्रम हो सकता है। इस संदर्भ में रस्सी अधिष्ठान है। जब कोई अधिष्ठान ‘अ’ किसी वस्तु मानों ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ आदि में प्रतीत होता है लेकिन ‘अ’ के रूप में ज्ञात नहीं होता है तो उस प्रतीति को हमारा भ्रम कहा जायेगा। इसके विपरीत विभ्रम में कोई अधिष्ठान नहीं होता है। विभ्रम की रचना हमारा मन वस्तुओं और घटनाओं के अनुभवों अथवा कल्पना (phantasy) से इकठ्ठा की गई स्मृति के भंडार से करता है। शंकर के अनुसार जगत् भ्रम (illusion) है। इसमें ब्रह्म ‘ब’ अधिष्ठान है जो ‘ज1’, ‘ज2’, ‘ज3’ (ज = जगत्) के रूप में प्रतीत होता है। यह प्रतीति माया (अपरा शक्ति) के कारण है। जो प्रतीति के मूल में है वह ब्रह्म (पराशक्ति/शब्द) है, जिस रूप में प्रतीति हो रही है वह माया (अपरा शक्ति) है। मूल सत् है, प्रतीति झूठ है। इसीलिये गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं कि ‘हे मनुष्य! तू जो कुछ आँखों से देखता है, नाशवान है’ : बंदे चसम दीदं फनाइ ॥ इस तरह प्रत्येक वस्तु के दो स्वरूप हैं - मूल (अधिष्ठान, substratum) और प्रतीति (अधीष्ठित, substrated)। जो मूल को संभालता है वह ज्ञानी है। जो प्रतीतियों में उलझ गया है वह गंवार है।
(शेष आगे)
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