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Writer's pictureGuru Spakes

Kartapurush ep7

Updated: Apr 30, 2023

In his description of the process of creation, Guru Nanak Dev Ji has called the first realm as Saramkhand (सरमखंड). The word सरम has originated from the Sanskrit word श्रमन which means bliss. The first or the causal realm of our creation is full of bliss. How this realm is created? What are it's characteristics? Read Karta Purush 7 to get the answer.


सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में करमखंड के पश्चात्‌ सरमखंड का स्थान आता है। सरम शब्द संस्कृत के ‘श्रमन’ से बना है, जिसका अर्थ है - आनंद। सच्चिदानंद प्रभु में विभाजन की प्रक्रिया से बनने वाला यह पहला लोक या खंड है और इसका स्वरूप ‘आनंद’ है, सरमखंड आनंद का धाम है। सरमखंड का निर्माण कैसे होता है, इसकी क्या विशेषताएं हैं, इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 7


Kartapurush ep7
Kartapurush ep7
 

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सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में करमखंड के पश्चात्‌ सरमखंड का स्थान आता है। जपुजी की 36वीं पउड़ी की तीसरी पंक्ति से सरमखंड का वर्णन आरम्भ होता है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :

सरम खंड की बाणी रूपु ॥ (3)

तिथै घाड़ति घड़िऐ बहुतु अनूपु ॥ (4)

ता कीआ गला कथीआ न जाहि ॥ (5)

जे को कहे पिछे पछुताइ ॥ (6)

तिथै घड़िऐ सुरति मति मनि बुधि ॥ (7)

तिथै घड़िऐ सुरा सिधा की सुधि ॥ (8)


सरम शब्द संस्कृत के ‘श्रमन’ से बना है, जिसका अर्थ है - आनंद। सच्चिदानंद प्रभु में विभाजन की प्रक्रिया से बनने वाला यह पहला लोक या खंड है और इसका स्वरूप ‘आनंद’ है, सरमखंड आनंद का धाम है। कहते हैं - सरम खंड की बाणी रूपु, अर्थात ‘आनंद के खंड की विशेषता या लक्षण है - रूप अर्थात आकृति’। बहुत सारे विद्वानों ने 'रूपु' का अर्थ आकार या आकृति न करके सुंदरता किया है। सौंदर्य आनंद का उपादान है लेकिन सौंदर्य उन वस्तुओं में होता है जिनका हमें वस्तुनिष्ठ रूप से अनुभव होता है। सुंदरता का भाव हमारे मन में किसी वस्तु को देख कर ही उत्पन्न होता है। अतः इस तरीके से भी रूप या सौंदर्य के अधिष्ठान स्वरूप किन्हीं वस्तुओं (Forms) के अस्तित्व का संकेत मिलता है। यह सच है कि सुंदरता अरूप परमात्मा में भी है, किंतु यहां जिस सुंदरता की ओर संकेत है उसका आश्रय कोई रूप ही है, इसका प्रमाण इस पउड़ी की अगली तीन पंक्तियों में मिलता है जहां आप कहते हैं कि ‘वहां ऐसी अनुपम आकृतियों को घड़ा जाता है जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता, यदि कोई वर्णन करने का प्रयास करे तो उसे बाद में पछताना पड़ता है कि व्यर्थ ही प्रयास किया’।

सरमखंड त्रिलोकी का पहला खंड है। त्रिलोकी में विविधता है और यह विविधता रूपों अथवा आकृतियों की है। इससे पहले कि हम सरमखंड में उपलब्ध होने वाले इन रूपों की प्रकृति को समझें, हमें इनके स्रोत को जान लेना आवश्यक होगा। परमात्मा अरूप है और एक है, जगत नाम-रूप है और ये नाम-रूप विविध हैं। सृष्टा का अर्थ एकता है तो सृष्टि का अर्थ अनेकता है। इस अनेकता के दो पक्ष हैं - चेतन व जड़ अथवा आत्मा व शरीर। सांख्य दर्शन में इन्हीं दोनों को पुरुष व प्रकृति कहा गया है। इन दोनों की उत्पत्ति सरमखंड में ही होनी चाहिए। इस पउड़ी की 7वीं पंक्ति में गुरु नानक देव जी लिखते हैं - तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि । 'वहां सुरत, मति, मन व बुद्धि घड़े जाते हैं।' डा0 बलबीर सिंह अपनी पुस्तक 'सुरत-शब्द विचार' में लिखते हैं, "सुरत पद वाणी में अनेक अर्थों में आया है जिनमें समझ, होश, वृत्ति, ध्यान, चेतनता, मूल चेतना, जीवात्मा आदि अर्थ शामिल हैं।"(राधास्वामी सत्संग ब्यास द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'संतमत विचार' में उद्धरत) हमारे विचार में यहां इस शब्द का अर्थ ‘जीवात्मा’ है जो सृष्टि में प्रत्येक रूप का अहम्‌ पक्ष व बहुलता का आध्यात्मिक आधार है। सांख्य दर्शन इसे ‘पुरुष’ कहता है। दूसरी ओर मन व बुद्धि सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। जहां तक मति का प्रश्न है, यदि इसका अर्थ अहंकार कर लिया जाये तो हमें पुरुष व प्रकृति दोनों के संयोग का हेतु भी प्राप्त हो जाता है।


किन्तु इतने भर से सरमखंड में विविध रूपों के मूल के संबंध में हमारी समस्या का समाधान नहीं होता। रचना के विकासक्रम से देखें तो करमखंड में हमारे पास दो सत्ताएं थीं जिन्हें 'राम' व 'सीता' कहा गया। आदिग्रंथ में अन्यत्र इन्हें क्रमशः नाम शब्द, शिव व शक्ति आदि कहा गया है। हम जान चुके हैं कि यहां वस्तुतः एक ही चेतना है, दो नहीं, दो उस चेतना की दशाएं हैं। 'राम' चेतना की स्थिति है जबकि 'सीता' चेतना की क्रिया है। इसके पश्चात हमें सरमखंड में जड़-चेतन सृष्टि की विविधता की सूचना दे दी गई है। हमें कहीं नहीं बताया गया कि करमखंड की एकता से सरमखंड की विविधता का क्या संबंध है? हमें यह भी नहीं पता कि करमखंड में प्राप्त चैतन्य तत्त्व से सरमखंड में प्राप्त होने वाले जड़ तत्त्वों जैसे मन, बुद्धि आदि की उत्पत्ति कैसे होती है? सांख्य दर्शन के अनुसार मन, बुद्धि, अहंकार आदि प्रकृति से उत्पन्न होते हैं किन्तु गुरु नानक के इस वृतांत में हमें इस संबंध में कोई सूचना नहीं दे गई। हमें सावधानी और धैर्यपूर्वक इन सूत्रों की खोज आदिग्रंथ में अन्यत्र करनी होगी।

भक्त नामदेव जी लिखते हैं :

पहिल पुरीए पुंडरक वना ॥ ता चे हंसा सगले जनां ॥

क्रिस्ना ते जानऊ हरि हरि नाचंती नाचना ॥1॥

पहिल पुरसाबिरा ॥ अथोन पुरसादमरा ॥ असगा अस उसगा ॥

हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा ॥1॥ रहाउ॥

नाचंती गोपी जंना ॥ नईआ ते बैरे कंना ॥ तरकु न चा ॥

भ्रमीआ चा ॥ केसवा बचउनी अईए मईए एक आन जीउ ॥2॥

पिंधी उभकले संसारा ॥ भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा ॥ तू कुनु रे ॥

मै जी ॥ नामा ॥ हो जी ॥ आला ते निवारणा जम कारणा ॥3॥(पृ -693)


इसकी व्याख्या ‘रहाउ’ की पंक्ति से चलेगी। ‘पहले पुरुष का आविर्भाव हुआ। फिर पुरुष से, पुरुषात्, आमिरा अर्थात प्रकृति उत्पन्न हुई। इस प्रकृति का उस पुरुष से मेल हुआ जिससे परमात्मा का एक सुंदर-सा बाग बन गया जिसमें जीव ऐसे नाच रहे हैं जैसे कुएं की टिंडों में पानी नाचता है।’ ध्यान रहे कि आदिग्रंथ में ‘प्रकृति’ पद का प्रयोग केवल एक बार भक्त जयदेव की बाणी में हुआ है अन्यथा यह गुरु साहिबान का प्रिय शब्द नहीं है। हमने यहाँ इस शब्द का प्रयोग केवल ‘पुरुष’ पद के अनुकरण में किया है। भक्त नामदेव जी ‘प्रकृति’ के स्थान पर ‘आमिरा’ पद का प्रयोग कर रहे हैं। अरबी भाषा में ‘अमर’ शब्द का अर्थ ‘हुकम’ और ‘आमिर’ का अर्थ ‘हुकम को लागू करने वाला’ होता है। ‘आमिर’ का ही स्त्रीलिंग ‘आमिरा’ है। भक्त नामदेव जी के कथन का आशय है कि ‘सर्वप्रथम पुरुष उत्पन्न हुआ, फिर उस पुरुष से, उसके संकल्प को लागू करने वाली प्रकृति की उत्पत्ति हुई।’ इस प्रकृति का पुरुष से उत्पन्न होना दर्शाता है कि यह पुरुष के ही समान चैतन्य व भगवद्स्वरूपा है। अतः यह भगवद्गीता में वर्णित पराप्रकृति है न कि अपराप्रकृति है। पराप्रकृति परमात्मा के समान सत्, चित्, आनंद है जबकि अपराप्रकृति तम, रज व सत्त्व -तीन गुणों वाली है। इस अध्याय में पहले प्रस्तुत की जा चुकी तत्त्वमीमांसा से परिचित पाठक समझ गये होंगे कि ‘पहले पुरुष उत्पन्न हुआ और फिर उससे उसके संकल्प को लागू करने वाली पराप्रकृति उत्पन्न हुई’ -इन दो पंक्तियों में भक्त नामदेव जी ने पुरुष-प्रकृति/नाम-शब्द/शिव-शक्ति/कादर-कुदरत के उस स्वरूप की उत्पत्ति को दर्शाया है जिसमें पुरुष/नाम/शिव/कादर स्थिर व दृष्टा हैं और प्रकृति/शब्द/शक्ति/कुदरत सक्रिय व दृश्य है। इसके अतिरिक्त इस युग्म का दूसरा स्वरूप करमखंड में है जहां पुरुष/शिव सदा-सदा समाधिस्थ हैं और प्रकृति/शक्ति अक्रिय है। इसका अर्थ हुआ कि भक्त नामदेव जी ने अपने शब्द का प्रारंभ करमखंड से नहीं अपितु सरमखंड के उस बिन्दु से किया है जो त्रिलोकी का प्रारंभ बिन्दु है।


फिर भक्त जी लिखते हैं कि ‘शिव का शक्ति से संयोग हुआ’, असगा अस उसगा करमखंड में शिव समाधिस्थ हैं और शक्ति अक्रिय है और ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इसका अर्थ है कि करमखंड में प्रभुसत्ता आदर्श ब्रह्मांडीय अनुभव से भिन्न व रिक्त है। परमात्मा के इसी रूप को धर्मग्रंथों में सत्तामात्र, केवल, केवलम्, अकेला आदि कहा गया है। परमात्मा द्वारा सृष्टि उत्पन्न किये जाने के संकल्प से शिव की समाधि भंग होती है और वे नेत्र खोलते हैं, इसे भक्त नामदेव जी ‘पुरुष का आविर्भाव’ कहते हैं। तदुपरांत शक्ति-तत्त्व में निहित आदर्श ब्रह्मांड का ऐसे विकास होता है जैसे सूर्य के उदित होने पर कमल की पंखुड़ियाँ खुलने लगती हैं, इसे भक्त नामदेव जी ‘आमिरा का आविर्भाव’ कहते हैं। तीसरे चरण में शिव और शक्ति का मिलाप होता है, इसका अर्थ है कि परमात्मा जगत् के दृष्टामात्र ही नहीं रहते, वह इसमें आसीन होते हैं, इसमें तत्त्व रूप से उपस्थित होते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के इन तीनों चरणों को गुरु नानक देव ने इस प्रकार लिखा है :

आपीनै आपु साजिउ आपीनै रचिउ नाउ ॥

दुई कुदरति साजीऐ करि आसणु डिठो चाउ ॥(1-463)


इसमेंआपीनै रचिउ नाउ’ का संबंध सत्पुरुष अर्थात परमशिव का अपनी निजसत्ता शिव को दृष्टा रूप में उत्पन्न करने से है; ‘दुई कुदरति साजीऐ’ का संबंध परमशिव का अपनी निजशक्ति को जगत् रूप में उत्पन्न करने से है; और करि आसणु डिठो चाउ का संबंध परमशिव का अपनी निजसत्ता शिव के माध्यम से अपनी निजशक्ति में विराजमान होने से है। पहले दो चरणों से शिव व शक्ति के बीच दृष्टा-दृश्य संबंधों का और उनके भिन्न-भिन्न होने का प्रमाण मिलता है जबकि तीसरे चरण में शिव को शक्ति में आसीन बताने से शिव-शक्ति की अभिन्नता का प्रमाण मिलता है। इस तरह शिव-शक्ति के संबंध एकसाथ भेद-अभेद वाले और अचिंत्य हैं।


इस पंक्ति के चौथे पाद में भक्त जी लिखते हैं, “जगत् मानों परमात्मा का एक सुंदर-सा बाग है, दूसरी ओर जीव माया के हाथों में ऐसे नाच रहे हैं जैसे कुएं की टिंडों में पानी नाचता है।” इस पंक्ति में जगत् के दुहरे स्वरूप की ओर एक धुंधला-सा संकेत किया गया है जिसको अधिक विस्तार के साथ आपने अगली पंक्ति में लिखा है। इसलिये इसकी व्याख्या वहीं उचित होगी।


पहली पंक्ति में रचना के मूल का वर्णन करने के पश्चात दूसरी पंक्ति में रचना के स्वरूप का वर्णन किया गया है। भक्त जी लिखते हैं, “जगत् की पहली पुरी तो मानों श्वेत कमलों का वन ही है, समस्त जीव उसके हंस हैं। हरि की यह रचना नाच रही है (माया में मोहित होकर दौड़-भाग कर रही है), यह हरि की कृष्णा शक्ति की प्रेरणा से है -ऐसा जान लो।” हम देख सकते हैं कि इन दो पंक्तियों में दो स्वतंत्र बिंबों का निर्माण किया गया है। इन बिंबों को समझने के लिये हमें इन पंक्तियों में आये कुछ संज्ञा व क्रियापदों यथा ‘पहिल पुरीए’ ‘पुंडरक’ ‘हंसा’ ‘क्रिस्ना’ व ‘नाचंती’ का अध्ययन करना चाहिये। ‘पहिल पुरीए’ का अर्थ ‘पहली पुरी’ होना चाहिये। जगत् में तीन पुरियाँ/लोक/खंड हैं। इसीलिए इसे त्रिपुर या त्रिलोक कहा जाता है। भक्त जी जिसे ‘पहली पुरी’ कह रहे हैं, उसी को गुरु नानक ने सरमखंड कहा है। सरमखंड तीनों खंडों में पहला खंड है। हम गुरु नानक के हवाले से जान चुके हैं कि सरमखंड आनंद का धाम है। भक्त जी ने भी यही लिखा है कि जगत् की पहली पुरी अर्थात सरमखंड में सुख-शांति का साम्राज्य है। ध्यान रहे कि प्रो साहिब सिंह ‘पहिल पुरीए’ पद्यांश में ‘पुरीए’ को संस्कृत शब्द ‘पुरा’ - जिसका अर्थ ‘पहले’ (in the beginning) होता है - से निर्मित मानकर ‘पहिल पुरीए’ का अर्थ ‘पहले पहल’ करते हैं। यदि हम ‘पहिल पुरीए’ का अभिधा अर्थ ‘पहले पहल’ करते हैं तो भी लक्षणा से इसका अर्थ ‘तीन पुरियों में पहली पुरी अर्थात सरमखंड’ लिया जा सकता है। ‘पुंडरक’ संस्कृत शब्द ‘पुण्डरीक’ का अपभ्रंश है। ‘कमल’ विशेषकर ‘श्वेत कमल’ को पुण्डरीक कहते हैं। यह शब्द सुंदरता व आध्यात्मिक श्रेष्ठता का अभिव्यंजक है। ‘हंसा’ हंस का बहुवचन है। भारत के आध्यात्मिक साहित्य में आम तौर पर अशांत जल के बीच स्थिर भाव से तिरते हंस की उपमा जगत् की समस्त दौड़-भाग के बीच धीरतापूर्वक प्रभु-भक्ति में लीन व्यक्ति के लिये दी जाती रही है। हंस और प्रभु-भक्त के बीच संबंधों को दर्शाने वाला ऐसा प्राचीनतम विवरण ऋग्वेद (1.65.5) में मिलता है। अशांत जल के बीच स्थिर भाव से तिरते हंसों के विपरीत रचना में ऐसी जीव सृष्टि भी है जो प्रभु की कृष्णा शक्ति की प्रेरणा से प्रेरित है और ऐसे नाच रही है, ‘नाचंती’, जैसे कुएं की टिंडों में पानी नाचता है। ‘क्रिसना’ पद का अर्थ माया किया गया है। किन्तु यह माया कौन-सी है - श्रेष्ठ अथवा निकृष्ट, परा अथवा अपरा? इस प्रश्न का उत्तर ‘कृष्णा’ पद में ही छिपा है, इसके अर्थ श्यामल, अंधकारमय, ज्ञानशून्य, अदीप्त आदि हैं। इन पदों की व्याख्या से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन दो पंक्तियों में दो स्वतंत्र व विषम (contrasting) बिंबों का निर्माण किया गया है। ‘पुण्डरीक’ पद में श्वेत वर्ण प्रकाश व ज्ञान का अभिव्यंजक है; ‘कृष्णा’ पद में श्यामल वर्ण अंधकार व अज्ञान का अभिव्यंजक है; इन दोनों पदों से परमात्मा की दो प्रकृतियों का संकेत होता है जिनमें से एक प्रभु की निज प्रकृति, उसका अपना ही स्वरूप है जबकि दूसरी प्रकृति पहली की अंधकारपूर्ण छाया है। ‘हंस’ पद माया की समस्त दौड़-भाग के बीच धीरतापूर्वक प्रभु-भक्ति में लीन जीवों का अभिव्यंजक है; ‘नाचंती’ पद माया में मोहित होकर दौड़-भाग कर रहे जीवों का अभिव्यंजक है। ‘पहली पुरी’ पद द्वारा सरमखंड की ओर संकेत किया गया है; बिम्ब को पूर्ण करने के लिये हम ‘पहली पुरी’ या ‘पहले पहल’ पद्यांश के अनुकरण में ‘बाद की पुरी’ या ‘बाद में’ का नियोजन अपनी ओर से कर सकते हैं जिससे धर्मखंड का संकेत होगा। इससे पहली पंक्ति का सरलार्थ इस प्रकार होगा, “जगत् की तीन पुरियों में से पहली पुरी में सभी जीव प्रकाश और ज्ञान की शक्ति से भरपूर हैं तथा हंस के समान या कमल के समान माया के पंक से निर्लेप व अक्षुब्ध रहकर जीवन व्यतीत करते हैं किन्तु बाद की पुरियों में अंधकार और अज्ञान की शक्ति के प्रभाव से मोहित होकर व्यर्थ की दौड़-भाग में तल्लीन हो जाते हैं।”


दूसरी पंक्ति में भक्त जी लिखते हैं, “स्त्रियाँ और पुरुष अर्थात सारी सृष्टि कृष्णा माया के संकेतों पर नाच रही है किन्तु यह सृष्टि परमात्मा द्वारा त्यक्त नहीं है। वह परमात्मा सभी जीवों में है, उस परमात्मा का एक वाक् ही सबकी रहनुमाई कर रहा है। इस विषय में संदेह नहीं करो और अपने भ्रमों का निवारण कर लो।” भक्त जी ने परमात्मा के अंतःस्थ रूप के दो पहलू बताए हैं, पहला, वह सभी में निर्विकार भाव से विराजमान हो रहा है और दूसरा, वह सभी का मार्गनिर्देशन कर रहा है। परमात्मा का पहला रूप नाम है, यह हम सभी के अस्तित्व का सामान्य सत्य है, परमात्मा का नाम ही हममें विद्यमान होकर हमारी विद्यमानता को सुनिश्चित कर देता है। परमात्मा का दूसरा रूप हम सभी में निहित विशिष्टता का सत्य है, हम सभी मानों सिक्के हैं - कोई दवन्नी, कोई चवन्नी, कोई अठन्नी, या रुपया या मोहर - और प्रभु का वाक् या शब्द (Word) मानों वह टकसाल है जिसनें हमें वह विशिष्ट मूल्य प्रदान किया है। किन्तु प्रभु का शब्द हमें कोई मूल्य मनमानी रीति से नहीं देता, हमें वही मूल्य प्रदान किया जाता है जिसके हम पात्र होते हैं। हमारे अपने आग्रह, अपनी कामना, अपने कर्म हमारे भविष्य को तय करते हैं और इसी स्तर पर कृष्णा माया अपना जाल पसारती है। यह अत्यावश्यक है कि हम संशय न करके श्रद्धा भावना को विकसित करें जिससे हमारे नैतिक मूल्य और कर्म श्रेष्ठ कोटि के हो जायें और हमारे उद्धार का मार्ग प्रशस्त हो सके।


अंतिम पंक्ति में भक्त जी ने संसार-सागर में असहाय रूप से गोते खा रहे जीवों की दुर्दशा और स्वयं द्वारा प्रभु की शरण ग्रहण करने की सूचना देकर परमात्मा और उसकी कृपा के अभिलाषी साधक के बीच हुए एक अर्थगर्भित वार्तालाप को लिखा है। परमात्मा द्वारा यह पूछे जाने पर कि ‘तुम कौन हो?’ नामदेव जी नाम से अपना परिचय न देकर केवल इतना ही कहते हैं, “मैं जी।” कारण, साधन-अभ्यास से उनका देह अध्यास छूट चुका है, उनको ज्ञान हो चुका है कि ‘नामदेव’ संज्ञा देह की है और स्वयं (self) देह नहीं है, किन्तु स्वयं का परमतत्त्व से साक्षात्कार अभी नहीं हुआ है। ‘मैं यह नहीं हूँ’ -ऐसा ज्ञान हो चुका है किन्तु ‘मैं यह हूँ’ -ऐसा ज्ञान नहीं हुआ है। इस पर प्रभु जी पूछते हैं, “नामा?” इस पद में श्लेष है। इसका एक अर्थ है, “क्या तुम नामदेव हो?” और दूसरा अर्थ है, “क्या तुम नाम पर आश्रित, नाम को समर्पित हो?” भक्त जी उत्तर देते हैं, “हाँ जी।” तदुपरांत परमात्मा की ओर से कुछ नहीं कहलवाया गया। प्रभु का यह मौन स्वीकृतिबोधक है जिस पर भक्त जी प्रभु जी के समक्ष माया के जंजाल से, जो यमदूतों से त्रास का कारण है, स्वयं की रक्षा की प्रार्थना करते हैं। हम जानते हैं कि नाम पद आदिग्रंथ की वाणी में तीन अर्थों में इस्तेमाल हुआ है - परमात्मा की सत्ता, परमात्मा की शक्ति और परमात्मा की माया। परमात्मा की शक्ति, जिसे नाम/शब्द/कुदरत आदि कहा गया है, हम मायाग्रस्त जीवों और परमात्मा की सत्ता के बीच मध्यस्थ है और इसकी प्राप्ति गुरु के माध्यम से होती है। गुरु नानक देव लिखते हैं : गुर पुछि लिखउगी जीउ सबदि सनेहा ।।(1-242) शब्द हम जीवों व परमात्मा के मध्य संदेशवाहक की तरह है। शब्द के माध्यम से परमात्मा हमें संदेश देता है यद्यपि हमारे मन के लिए वह स्रोत अज्ञात ही रहता है। शब्द के माध्यम से ही हम परमात्मा को संदेश भेज सकते हैं। अंतर्मुख प्रभु के दिव्य शब्द का श्रवण करना मानों परमात्मा को संदेश भेजना है। जब तक हमारे पास शब्द नहीं है तब तक हम परमात्मा के लिये बेगाने हैं और परमात्मा हमारे लिये बेगाना है। शब्द का अभ्यास करने वाले जीव ही प्रभु के दर पर स्वीकार होते हैं : जपु तपु सभु इहु सबदु है सारु ॥(1-661)


हमने लिखा है कि भक्त नामदेव द्वारा लिखित इस शब्द में दो स्वतंत्र व विषम बिंबों का निर्माण किया गया है और इन बिंबों के निर्माण में मुख्य भूमिका परमात्मा की दो प्रकार की प्रकृतियों की है। किन्तु हमें यह भी समझना है कि ये दोनों बिम्ब असंबद्ध नहीं हैं। इन दोनों का निर्माण करने वाली प्रभु की दो प्रकृतियों का परस्पर संबंध उतना ही घनिष्ठ है जितना एक व्यक्ति और उसकी परछाई अथवा अग्नि और धुएं के बीच होता है। इन दोनों में से एक प्रकृति दिव्य है जबकि दूसरी अदिव्य है। दिव्य प्रकृति अदिव्य प्रकृति का स्रोत है और ये दोनों प्रकृतियाँ साथ-साथ रहती हैं। समस्या यह है कि सिख विद्वान अदिव्य, तीन गुणों वाली प्रकृति का आदिग्रंथ में उल्लेख स्वीकार करते हैं किन्तु दिव्य, ज्ञानमयी प्रकृति, जो जगत् का सृजन, पालन व संहार करती है, का आदिग्रंथ में उल्लेख स्वीकार नहीं करते हैं। दूसरी ओर सनातन धर्म पर लिखने वाले अनेक लेखकों ने भी इस विषय के संबंध में या तो निंदनीय अज्ञानता या फिर अल्प ज्ञान का प्रदर्शन किया है जिससे परमात्मा और जगत् के संबंधों की समझ अधूरी ही रह जाती है। हमारा मानना है कि सनातन धर्म के महान ग्रंथों के समान आदिग्रंथ में भी प्रकृति के दो रूपों का उल्लेख हुआ है और जगत् के बहुविध रूपों की उत्पत्ति व इसमें जीवों की भवितव्यता में प्रकृति के इस दोहरे स्वरूप का महत्वपूर्ण स्थान है।


(शेष आगे)

 

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