In his celebrated poem Japuji, while writing about Karamkhand, the Realm of Grace Guru Nanak Dev Ji has mentioned Ram and Sita. As per Goswami Tulsidas, Shri Ram is the Absolute Lord and Sita Ji is His Shakti. Further he says that Shri Ram and Sita Ji are mentioned as the two but they constitute a single reality. In ਓੱ , there is neither the Lord nor His Power. In Sachkhand, the Realm of the Truth, the Power lie within the Lord, whereas in the Realm of the Grace, the Lord and His Power are the two poles of the same reality. The mystic experience of ਓੱ is of Nothingness; in the Realm of Truth, this experience gets translated into THE ONE; in the Realm of Grace, the experience is of duality, in which the TWO make a single bipolar reality. Read Karta Purush 6 to know more about करमखंड, the Realm of Grace.
गुरु नानक देव ने कर्मखण्ड के अपने वर्णन में राम और सीता का उल्लेख किया है। गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार राम परमात्मा हैं और सीता उनकी शक्ति है। परमात्मा और उनकी शक्ति वाणी और अर्थ, जल और तरंग के समान अभिन्न हैं। उन्हें भिन्न कहा जाता है लेकिन वे भिन्न नहीं, अभिन्न हैं। ਓੱ में परमात्मा और उनकी शक्ति दोनों नहीं हैं, अतः वहां सत्ता का अनुभव 'अनस्तित्व' (Nothingness, I-not-ness) का है; सचखंड में शक्ति परमात्मा के अंदर ही समाई हुई है, अतः सचखंड का अनुभव अस्तित्व 'मैं हूँ' (I Am) का है; करमखंड में परमात्मा और उसकी शक्ति भिन्न है लेकिन भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं, यहां सत्ता का अनुभव 'मैं वही हूं' (I Am That) का है। ਓੱ की अवस्था शून्य (0) की है, यहां विषय व विषयी दोनों का अभाव है; सति या सचखंड की अवस्था 'एक' की है, यहां केवल विषयी का अस्तित्व है; नाम या करमखंड की अवस्था दो की होगी, यहां विषयी व विषय दोनों होंगे किंतु ये दो बिना किसी भेद के परस्पर तल्लीन अपृथक्त्व की अवस्था में होंगे। करमखंड के बारे में और अधिक जानकारी के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 6
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‘जपुजी’ में बताये गये पाँच खंडों में सचखंड पहला खंड है। यह सृष्टि का मूलभूत खंड है, इसके आगे करमखंड है। गुरू नानक देव जी ने जपुजी की 37वीं पउड़ी की पहली 10 पंक्तियों में करमखंड का वर्णन इस प्रकार किया है :
करमखंड की बाणी जोरु ॥ (1)
तिथै होरु न कोई होरू ॥ (2)
तिथै जोध महाबल सूर ॥ (3)
तिन महि राम रहिआ भरपूर ॥ (4)
तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥ (5)
ता के रूप न कथने जाहि ॥ (6)
ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥ (7)
जिन के रामु वसे मन माहि ॥ (8)
तिथै भगत वसहि के लोअ ॥ (9)
करहि अनदु सचा मनि सोइ ॥(1-8) (10)
'करम' अरबी भाषा का शब्द है, इसके अर्थ नदर, कृपा इत्यादि हैं। पीछे हमने ‘कृपा’ की व्याख्या करते हुए इसे सत्यस्वरूप प्रभु सति का गुण बताया है। सति कृपालु है, कृपा या करम उसकी विशेषता है और यह कृपा नाम है। अतः करमखंड नाम का धाम है। इससे हमारे पास परमात्मा के तीनों स्वरूपों की प्राप्ति होती है। पहला, निर्गुण ਓੱ, जो सदा धुंधुकारे में है; दूसरा, सगुण सति जो सच के धाम सचखंड में है; तीसरा नाम, जो सगुण सत्ता सति का गुण, उसकी कृपा है। इस प्रकार इन तीनों स्वरूपों में से सति व नाम में गूढ़ एकता है और इसी एकता को ध्यान में रखते हुए गुरू नानक ने सचखंड व करमखंड को एक ही पउड़ी में रखा है। परमात्मा सति व उसके गुण नाम के बीच गूढ संबंध हैं। प्रभु का नाम प्रभु की यथार्थ अभिव्यक्ति है। प्रभु का नाम उसकी सत्ता है जिसके द्वारा वह स्वयं को कृपापूर्वक भक्त के समक्ष प्रकट करता है। प्रभु का नाम प्रभु स्वयं है।
करमखंड में करम का अभिधात्मक अर्थ ‘कृपा’ है, लक्षणा से हमने इसका अर्थ नाम किया है। गुरू साहिब ने इसको नाम का खंड इसलिए नहीं कहा है क्योंकि आप पांचों खंडों का वर्णन आत्मा के आरोहण के दृष्टकोण से कर रहे हैं। निरंतर आत्मिक उन्नति करते हुए साधक सचखंड में प्रभु की प्राप्ति से पूर्व कृपा के धाम में पहुंचता है। यदि यह प्रश्न किया जाये कि क्या इससे पहले उस पर कृपा नहीं होती तो इसका उत्तर देते हुए राम सिंह लिखते हैं, "कृपा का संकल्प गुरमति में बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई गुरमति को कृपा का मार्ग कहे तो अनुचित नहीं होगा। हमने धर्मखंड में साधना की शुरूआत करने वाले व्यक्ति को भी दैवीकृपा का पात्र माना है। सभी खंड कृपा के खंड हैं। फिर करमखंड को विशेष रूप से कृपा का खंड क्यों कहा गया है? इसका कारण यह है कि इस खंड में पहुंच कर ही साधक को यह पूर्ण विश्वास होता है कि वह जो भी आत्मिक उन्नति कर रहा है, कृपा का परिणाम है। उसको यह भी प्रत्यक्ष हो जाता है कि अब तक जो प्रगति उसने की, उसके पीछे भी कृपा ही थी, भले ही उसके लिए यह तथ्य स्पष्ट नहीं था। दिन के समय तारे दिखाई नहीं देते, रात होने पर वे दृष्टिगोचर होते हैं। दिन के समय तारे समाप्त नहीं हो जाते, वैसे ही अस्तित्व में रहते हैं। करमखंड कृपा रूपी तारों के लिए रात है। उस समय कृपा प्रत्यक्ष है, अप्रत्यक्ष रूप से काम वह पहले भी कर रही थी।"(वही, पृ-251) इस प्रकार करमखंड सृष्टि रचना की प्रक्रिया के दृष्टिकोण से नाम का धाम है जबकि आत्मा की आध्यात्मिक उन्नति के दृष्टिकोण से कृपा का धाम है। नाम व कृपा एक ही है।
गुरु नानक कहते हैं, ‘करमखंड की बाणी जोरू’ । अधिकांश टीकाकारों ने बाणी पद का रूप बाणि करके इसका अर्थ आदत, विशेषता, लक्षण (note, sign, character) किया है। इस प्रकार इस पंक्ति का अर्थ निकला कि करमखंड का लक्षण है 'जोरु' अर्थात जोड़। आचार्य विनोबा भावे 'जपुजी' की टीका में लिखते हैं, "यहां करम अर्थात् परमेश्वर की कृपा है। साधना के पश्चात् परमेश्वर की कृपा का खंड आता है। उसकी बाणी (motto) क्या है? 'जोरु' अर्थात् जोड़, परमेश्वर की संगत। परमेश्वर की कृपा का स्वरूप यह है कि मनुष्य सदा परमेश्वर की संगत में रहता है।" अब यह अर्थ आत्मा के उत्थान के क्रम में हुआ लेकिन सृष्टि के निर्माण की प्रक्रिया में 'जोड़' का अर्थ भिन्न हो जाता है। यहां जोड़ या योग दो सत्ताओं का है। गुरु नानक देव जी के कथन का आशय है कि करमखंड की विशेषता दो का योग या युग्म है और वहां इस युग्म के अतिरिक्त और कोई नहीं है।
हम परम सत्ता का क्रम देखें। पहले निरंकार है जो ‘शून्य’ (0) है, फिर एकंकार ‘एक’ (1) है और अब दो का जोड़ या युग्म है। इस युग्म में दो सत्ताएं कौन-सी हैं? इस संबंध में गुरु जी भारतीय धर्मसाधना में दो चिरपरिचित संज्ञाओं का प्रयोग करते है - राम व सीता। यहाँ 'राम' शब्द का प्रयोग जगत् के कण-कण में रमण कर रही प्रभुसत्ता नाम के लिए हुआ है। जहां तक 'सीता' शब्द का अर्थ है, टीकाकारों ने इसके लिए लगभग सभी संभावित स्रोतों को छाना है, किंतु उस स्रोत की ओर नहीं गये, जहां से यह शब्द आया है। वह स्रोत रामभक्ति संप्रदाय है। इस संप्रदाय के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता गोस्वामी तुलसीदास हैं। अतः 'सीता' शब्द के अर्थनिर्धारण के लिए वही संगत व्यक्ति हैं। आप अपनी सुप्रसिद्ध रचना रामचरितमानस के बालकांड में सीता जी के बारे में लिखते हैं :
उद्भवस्थितिसंहारकारिणी क्लेशहारिणीम् ।
सर्वश्रेयसकरीं सीतां नतोऽहं रामवल्लाभाम् ॥ 5॥
'उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सभी प्रकार के कल्याण को संभव करने वाली श्री रामचन्द्र जी की प्रियतमा श्री सीता जी को मैं नमस्कार करता हूं।' अर्थात् सीता जी राम की शक्ति हैं जिनसे सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार का काम होता है और जो जीवों के सभी प्रकार के कल्याण का साधन हैं। यह अति महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है और रामभक्ति संप्रदाय में गोस्वामी तुलसीदास से पूर्व के काल से ही चला आ रहा है। ‘अध्यात्म रामायण’ में हनुमान जी को उपदेश देते भगवती सीता कहती हैं, “वत्स हनुमान ! तुम राम को साक्षात अद्वितीय सच्चिदानन्दघन ब्रह्म जानो। वह समस्त उपाधियों से रहित सत्तामात्र, मन तथा इंद्रियों के अविषय हैं और मुझे इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाली मूल प्रकृति जानो। मैं ही इनकी सन्निधि मात्र से आलस्य रहित होकर विश्व का सृजन किया करती हूँ।“ श्रीरामोत्तरतापनीयोपनिषद् में लिखा है कि ''श्रीराम के सामीप्य मात्र-से जो सम्पूर्ण देहधारियों की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं, वे जगदानन्ददायिनी विदेहनन्दिनी सीता नादबिन्दुस्वरूपा हैं। वे ही 'मूल प्रकृति' के नाम से जानने योग्य हैं। प्रणव से अभिन्न होने के कारण ही उन्हें ब्रह्मवादी जन 'प्रकृति' कहते हैं।'' सीता को प्रभु की प्रकृति श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद् में भी कहा गया है। ध्यान रहे कि यह प्रकृति सांख्य वाली नहीं है, वह तो जड़, भौतिक रूप है। सीता को भगवद्गीता मे वर्णित पराप्रकृति कहना चाहिए। इस अंतर को न समझने के कारण न केवल आदिग्रंथ बल्कि सभी संप्रदायों की तत्त्वमीमांसा में वे दरारें उभर आती हैं जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है।
हमने निर्गुण-सगुण की व्याख्या में देखा कि ਓੱ अर्थात निरंकार निर्गुण है जबकि सति अर्थात एकंकार सगुण है, जबकि नाम अर्थात ओंकार सगुण का गुण है। नाम वैश्व प्रभु है और एक है : एकु नामु तारे संसारू ॥(3-1175) यह प्रभु का गुण है, लेकिन बाणी में ‘गुण’ शब्द एकवचन में नहीं आया है। कारण, निर्गुण-सगुण में गुण का अर्थ ‘लक्षण’ है और, जैसा कि वेदान्त में कहा गया है, परमात्मा के लक्षण दो प्रकार के हैं - स्वरूप लक्षण व तटस्थ लक्षण। करमखंड में सगुण प्रभु सति का गुण स्थित है जो 'एक' है, लेकिन 'एक' होते हुए भी दो का युग्म या जोड़ है, 'जोरु'। गुरु नानक इस युग्म को 'राम' व 'सीता' कहते हैं। 'राम' कल्याणस्वरूप प्रभु है और 'सीता' उनकी शक्ति है। राम-सीता का यह युग्म सदा-सदा युग्मित है चाहे वह रचना में हो या लय में। ये दोनों भिन्न सत्ताएं नहीं बल्कि एक ही परम सत्ता सति की दो अवस्थाएं हैं। गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार राम और सीता अर्थात् प्रभु और उनकी शक्ति वाणी और अर्थ, जल और तरंग के समान अभिन्न हैं। उन्हें भिन्न कहा जाता है लेकिन वे भिन्न नहीं, अभिन्न हैं। यह सारा जगत् इन दोनों के युग्म से उत्पन्न है। अतः आप इस जगत् को 'सियाराममय' कहकर इसे प्रणाम करते हैं। बाणी में अन्यत्र इस युग्म को शिव-शक्ति का युग्म कहकर जगत् की उत्पत्ति इनके मेल से बताई गई है। कश्मीरी शैवदर्शन, जहां से 'शिव-शक्ति' का यह अभिधान आया है, में परमसत्ता को 'परमशिव' कहा गया है जिससे यह अर्थ निकलता है कि शिव-शक्ति के युग्म में शिव शक्ति का अधिपति है और शक्ति शिव के अधीनस्थ है। दूसरी ओर वहां शक्ति को शिव का हृदयसार (heart-essence) कहा गया है। जे. रुद्रप्पा अपनी पुस्तक Kashmir Shaivism में लिखते हैं, "The power or Sakti of Siva is a sort of reflex relation of self identity which is never dissociated of Him. It is unalienated conscious nature of Siva with all the contents unmanifested. It is independent of anything else than its own self which is but the power of limiting the self-transcending Siva who is also unsurpassed blissful enjoyer (भोकतृ) of contents of Himself (भोग्यवस्तूनि). It is for this reason He assumes the form of Sakti……..Sakti is therefore nothing else than the externalization of self-consciousness of Siva as the object of His own enjoyment. Sakti is therefore आत्मविमर्श or प्रकाश. This works wonders in obedience to Siva's will." अर्थात् शक्ति मानों शिव का प्रतिबिम्ब है, उसकी अपनी चेतना है जिसे वह निहार रहा है। जे. रुद्रप्पा के वर्णन में ध्यान देने वाली सूचना यह है कि शक्ति शिव की अविमुख चेतन प्रकृति है जिसमें शिव के अवयव (contents) गुप्त अवस्था में रहते हैं। यदि हम पूछें कि ‘शिव’ या दूसरे शब्दों में, जैसा कि 37वीं पउड़ी कह रही है, 'राम', ‘वैश्व-प्रभु’ के अवयव क्या हैं, जो उसमें गुप्त रहते हैं और जिनके भोग के लिए वह शक्ति के रूप में सक्रिय होता है? तो उत्तर है - सत्, चित् और आनंद क्योंकि प्रभु सच्चिदानंद है। रचना के पांच मंडलों में सचखंड व करमखंड के बाद के तीनों मंडल प्रभुस्वरूप में निहित इन तीनों विशेषताओं का ही प्रकटन हैं। इस तरह समस्त ब्रह्मांड प्रभु की अपनी शक्ति का प्रकटन है। रचना करने की प्रभु की अपनी इच्छा ही शक्ति के निस्सरण के लिए प्राथमिक आवेग बन जाती है। "जब प्रभु अपने अंतर में बीज रूप में निहित समस्त ब्रह्मांड को उन्मुक्त करने का संकल्प करता है, तब उसे शक्ति की संज्ञा दी जाती है।''('महेश्वरानन्द' जे. रुद्रप्पा द्वारा उद्धरत) इसी प्रकार जे. रुद्रप्पा कश्मीरी लेखक उत्पलदेव को उद्धरत करते हुए लिखते हैं, "Sakti is the emanation of joy of the Lord when He raised His face to gaze His own splendour." 'प्रभु में अपने ही वैभव पर दृष्टिपात करने से होने वाला आनंद का उन्मेष ही शक्ति है।' इस आनंदोन्मेष से प्रभुस्वरूप में निहित आनंद, चित् व सत् तत्त्वों से क्रमशः सरमखंड, ज्ञानखंड व धर्मखंड का निर्माण होता है। वस्तुतः प्रभु स्वरूप की इन तीन विशेषताओं के कारण प्रभु शक्ति तीन भिन्न-भिन्न रूप धारण करती है जिससे तीनों मंडलों में भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर होती हैं। कश्मीरी शैव दर्शन में शक्ति के इन तीनों रूपों को इच्छा-शक्ति, ज्ञान-शक्ति व क्रिया-शक्ति नाम दिये गये हैं। श्वेताश्वतर की श्रुति के अनुसार उस परमात्मा की स्वाभाविकी पराशक्ति ज्ञान, बल और क्रिया रूप त्रिविध प्रकार की ही सुनी जाती है। प्रभु की संकल्प या इच्छा-शक्ति से सरमखंड में बहुविध रूपों का जन्म होता है। इन रूपों की विशेषता सौंदर्य है। शैव दर्शन के आधार पर हम कहेंगे कि सरमखंड प्रभु में निहित आनंद तत्त्व की अभिव्यक्ति है। प्रभु की चित् अथवा ज्ञानशक्ति से ज्ञानखंड का निर्माण होता है। यह ज्ञानशक्ति ब्रह्मांड में निहित प्रत्येक तत्व को अपनी चेतनशक्ति से धारण किए रहती है। प्रभु में निहित सत् तत्व से धर्मखंड का निर्माण होता है। सत् का अर्थ है अस्तित्व। धर्मखंड में अस्तित्व के गुण से विशिष्ट अनगिनत आकार हैं और प्रत्येक आकार क्रिया अथवा कर्म से निर्धारित होता है। इस तरह धर्मखंड क्रिया या कर्मप्रधान है। यह प्रभु की ही क्रियाशक्ति या कहें कि किसी भी आकार को धारण करने की शक्ति है जो हमारे ठोस आकारों के जगत् धर्मखंड का निर्माण करती है। इस प्रकार जिस तरह एक पेड़ की समस्त विविधता उस बीज में निहित है जिससे वह पेड़ प्रकट होता है उसी तरह समस्त आत्मनिष्ठ व वस्तुनिष्ठ ब्रह्मांड, समस्त विविधता का मूल प्रभु की शक्ति है और प्रभु की शक्ति उसी तरह प्रभु से एक है जिस तरह आग का ताप आग ही है। राम, वैश्व प्रभु, अनंत हैं और सीता अनंत की वह अनंत शक्ति है जो उसे सांत, सीमित करती है ताकि प्रभु की इच्छा के अनुसार रूपों को घड़ा जा सके। राम अकाल है, सीता उस अकाल की शक्ति है जो उस सार्वकालिक सत्ता को काल में रूपांतरित करती है ताकि देश व काल वाले इस जगत् का निर्माण हो सके। इस तरह त्रिलाकी का सारा खेल शिव-शक्ति के मिलाप से संभव होता है : जह देखा तह रव रहे सिव सकती का मेल ॥(1-21)
करमखंड त्रिलोकी का भाग नहीं है। तीनों लोकों से आशय सरमखंड, ज्ञानखंड व धर्मखंड से है। करमखंड त्रिलोकी से बाहर है। लेकिन शिव व शक्ति का युग्म, जिसे गुरु नानक देव जी ने जपुजी की इस 37वीं पउड़ी में राम व सीता कहा गया है, करमखंड में भी है। गुरू नानक देव जी स्वयं यह कह रहे हैं कि करमखंड में राम व सीता का जोड़ा है लेकिन और कोई नहीं है। अब शक्ति का मूल आवेग सृष्टि का सृजन करने का है, करमखंड में वह उपस्थित भी है तो करमखंड सृष्टि या त्रिलोकी का भाग क्यों नहीं है? इसका उत्तर इस पउड़ी की चौथी व पांचवीं पंक्ति में है जिनमें राम व सीता का वर्णन है। आप कहते हैं कि राम वहां भरपूर है अर्थात् भरा-पूरा है, परिपूर्ण है। यदि हम आत्मा के आरोहण के संदर्भ में देखें तो हम कह सकते हैं कि इस मंडल में साधक की चेतना में राम के सिवाए और किसी की गुंजाइश नहीं। सीता यहां है लेकिन यह यहां जगत्निर्माण व ध्वंस के कार्य में संलग्न नहीं। यह प्रभु की महिमा में 'सीतो' अर्थात् शीतल व तृप्त है, शांत है। शक्ति अर्थात प्रभु तत्त्व में निहित शाश्वत गति इस मंडल में स्थिर है। स्थिरता का यह गुण करमखंड को समस्त त्रैलोक्य में चलने वाले सृजन व लय के शाश्वत चक्र से मुक्त करके वह स्थिति प्रदान करता है जो पांचों खंडों में केवल सचखंड को प्राप्त है। इस प्रकार सचखंड की तरह करमखंड भी शाश्वत, अमर धाम है। गुरू नानक देव जी द्वारा दोनों खंडों को एक ही पउड़ी में बयान करने का यह एक स्पष्ट कारण है।
लेकिन सचखंड व करमखंड में एक बड़ा अंतर भी है। हमने देखा कि सचखंड के वर्णन में गुरू नानक देव जी ने उन भक्त आत्माओं का उल्लेख नहीं किया जो प्रभु की कृपा से अभिषिक्त होती हैं लेकिन करमखंड में भक्त आत्माओं की भी उपस्थिति है। इस बात की पुष्टि इस पउड़ी की तीसरी पंक्ति 'तिथै जोध महाबल सूर' व 9वीं पंक्ति 'तिथै भगत वसहि के लोअ' से होती है। इस प्रकार करमखंड के निवासियों को एक ओर योद्धा, महाबली, शूरवीर कहा गया है और दूसरी ओर भक्त कहा गया है। भक्त व शूरवीर दोनों के हिस्से बलिदान व आत्मदान आया है। इसीलिए प्राचीन संस्कृतियों में इन दोनों को आचरण के उच्च प्रतिमानों के रूप में देखा गया है। वैदिक साहित्य में अमरत्व के आकांक्षी, इन्द्रियों व मन को अन्तर्मुख करके भीतरी स्व का साक्षात्कार करने वाले साधकों को ‘धीर’ कहा गया है। बालबुद्धि लोग भौतिक सुखों का पीछा करते हैं जिससे वे काल के चारों ओर फैले जाल में फंसे रहते हैं, परन्तु धीरमति अमरत्व चाहते हैं। बोलचाल की भाषा में ‘धीर’ से अभिप्रेत है – नायक, हीरो। ऐसे मनुष्य का मन असामान्य रूप से दृढ़ व साधनसम्पन्न होता है। ऐसा व्यक्ति अनोखा व अद्वितीय होता है। वह ऐसे मार्ग पर निकलता है जो अधिकांश लोगो के लिए अज्ञात है। वह जगत् के प्रलोभनों के विरुद्ध संघर्ष करता है और अपनी कमजोरियों को परास्त करके ऐसे दिव्यसौंदर्य को प्राप्त करता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। अछल व अच्युत प्रभु की भक्ति से वे ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है जहां माया उसे छल नहीं सकती और न ही काल का चक्र उसे उच्च पदवी से च्युत कर सकता है। उनके मन में सच्चे प्रभु का निवास है और वे सदा आनंदमग्न रहते हैं।
यहां सवाल उठता है कि इन भक्त आत्माओं का ‘राम’ व ‘सीता’ अर्थात परमात्मा व उसकी शक्ति के युग्म से क्या संबंध है? इतना स्पष्ट है कि करमखंड का रहस्यवादी अनुभव मूल स्वरूप में एकता का अनुभव है अतः साधक को एकता का ही अनुभव होगा। लेकिन सचखंड की एकता व करमखंड की एकता में अंतर है। इस एकता की प्रकृति को समझने के लिए हमें द्वैत की प्रकृति को समझना होगा। जगत् में समस्त द्वैत विषयी (subject) व विषय (object) का है। शिव विषयी है और शक्ति विषय है। यह शिव का सामने का पक्ष है। जगत् की समस्त बहुलता का मूल यह शक्ति ही है। ध्यान रहे कि प्रभुशक्ति विषय (object) है और माया भी विषय है। दोनों में अंतर यह है कि प्रभुशक्ति में शिव आसीन हैं जबकि माया में वह नहीं हैं। शिव/नाम दृष्टा (Observer) हैं; शक्ति/शब्द दृश्य (being Observed) है; माया वह तीसरा पक्ष है जो प्रभु द्वारा देखी जा रही दृश्य सद्वस्तु को देख रही है किन्तु उसके वास्तविक स्वरूप के बारे में दिग्भ्रमित है। अतः मायाग्रस्त जीवों को न तो चारों ओर पसरी शक्ति का ज्ञान है और न ही इस शक्ति के स्रोत शक्तिमान प्रभु का ज्ञान है। दूसरी ओर प्रभुशक्ति में ज्ञान से पत्न नहीं है। साधरण अवस्था में हम जीव सृष्टि की बहुलता का भाग और माया के वश में होते हैं। सृष्टा की एकता में निवास का साधन यह है कि जीव सर्वप्रथम अपने दिव्य मूल की पहचान करे। हमारा दिव्य मूल यह शक्ति ही है और हम शक्ति के माध्यम से ही शक्तिमान प्रभु नाम/शिव/कादर तक पहुंच सकते हैं। नाम सूर्य के समान स्वयं-प्रकाशित (self-illumined) है। शब्द उसका चारों ओर पसरा प्रकाश है। जब हमारी आँख किसी वस्तु को देखती है तो उस वस्तु का कुछ अंश हमारे नेत्रों के संपर्क में आता है। वह अंश उस वस्तु का आलोक या प्रकाश (lustre) है जिसकी तुलना हम दूर से किसी फ़ूल से आती सुगंध से कर सकते हैं। वस्तु पूर्ण है किन्तु वस्तु के उस आंशिक आलोक वाले पहलू को हम उस वस्तु का आंशिक रूप या उसकी महिमा कहेंगे। ठीक इसी प्रकार नाम पूर्ण सत्ता है जबकि शब्द चारों ओर पसरी उसकी आंशिक महिमा है जिसे जानकर क्रमशः पूर्णत्व की ओर हमारी प्रगति होती है। इस साधना का उत्कर्ष प्रभु की कृपा के इस धाम में होता है जहां सशक्तिक जीवात्मा उस प्रभु से साक्षात्कार करती है जो युगों-युगों से उसे देखता था, वेखै, लेकिन गुप्त था। यही नहीं, 'राम' – कण-कण में गुप्त रूप से रमण करने वाली प्रभुसत्ता - अब उनके मन में बस जाते हैं, जिनके रामु बसे मन माहि । वे साधक उस राम से एकमेक हो जाते हैं, उनके रोम-रोम में 'राम' बस जाता है, तिन महि रामु रहिआ भरपूर । Evelyn Underhill ने अपनी पुस्तक Mysticism में रुईसब्रोएफ नामक एक रहस्यवादी को उद्धरत करते हुए यही लिखा है : When love has carried us above and beyond all things, above the wrought and transformed by the Eternal Word Who is the image of the father, and as air is penetrated by the Sun, thus we receive in idleness of spirit the Incomprehensible Light, enfolding us and penetrating us. And this Light is nothing else but an infinite gazing and seeing. We behold that which we and we that which we behold; because our thought, life and being are uplifted in simplicity and made one with the Truth which is God. इस प्रकार शब्द के निरंतर अभ्यास से साधक शब्दब्रह्म से एकमेक होता है। यह शब्दब्रह्म अशब्दब्रह्म से एकमेक है। साधक इस एकता को पूर्ण रूप से करमखंड में अनुभव करता है। यहां दृष्टा व दृश्य में, विषयी व विषय में कोई भेद नहीं रहता। यह नाम की पछाण या तादात्म्यता की स्थिति है और साथ ही यह 'आपे' की पछाण भी है। इस अवस्था में साधक को यह ज्ञान होता है कि मैं नाम ही हूं। ध्यान रहे कि तादात्म्य का अर्थ ऐक्य नहीं अपितु अपृथक्त्व है। आत्मा का व्यष्टिभाव बना रहता है लेकिन उसका व्यष्टिभाव प्रभु तत्व में निहित समष्टिगत चैतन्य से तदाकार हो जाता है। अतः करमखंड की अवस्था में आत्मा का अनुभव 'मैं वहीं हूं' (अहं सः) अथवा 'वह मैं हूं' (सः अहं) का होगा। वाणी में इस भावदशा को क्रमशः 'हंसा' व 'सोहं' कहा गया है। गुरू नानक देव लिखते हैं : सोहं आपु पछाणीऐ सबदि भेदि पतीआइ ॥(1-59) 'सबदि भेदि' का अर्थ है शब्द से बिंध जाना। शब्द का आर पार हो जाना। जैसे जब कान सूई से बिंध जाता है तो कान की प्रत्येक पर्त सूई के संपर्क में आती है। अतः 'सबदि भेदि' से तात्पर्य साधक की ऐसी मनःस्थिति से है जब वह पूरी तरह शब्द में लीन, शब्द से ओतप्रोत हो गया। तब उसे अपने स्वरूप की पहचान होती है कि ‘जो वह है वही मैं हूं’।
अब इस रचना के क्रम को एक बार फिर देखें। सर्वप्रथम ‘निरंकार’ है जो सदा-सदा धुंधुकारे में गुप्त ‘परम नास्ति’ (Nothingness) है, यहाँ न तो विषयी है न ही विषय है, यह ऐसा अद्वैत है जहां ‘कुछ नहीं’ है। यह निरंकार ‘एकंकार’ (The One) में रूप परिवर्तन करता है। यह ‘परम नास्ति’ या ‘असत्’ का ‘परम अस्ति’ या ‘सत्’ - जिसे बाणी में सति कहा गया है - में प्रकटन है। यह सति सिर्फ ‘एक’ (I) है। यहां सिर्फ विषयी है कोई विषय नहीं। सब कुछ उस विषयी के अंदर है और वह विषयी यह सब कुछ है, यह ऐसा अद्वैत है जहां ‘सब कुछ’ है। ब्रह्मांड अपनी अव्यक्त अवस्था में परम सत्ता सति के निजी अनुभव के रूप में उसके अंदर है। ब्रह्मांडीय अनुभव का यह सर्वोत्तम व आदर्श रूप है। किंतु सति केवल यह सर्वसमावेशी, सर्वोत्तम व आदर्श ब्रह्मांडीय अनुभव ही नहीं, साथ ही साथ वह इस अनुभव से अतीत व इस अनुभव का भोक्ता सच्चिदानंद भी है। प्रभु का सच्चिदानंद स्वरूप उसका सारवान् रूप, मानों उसकी आत्मा है जबकि प्रभु में निहित आदर्श ब्रह्मांडीय अनुभव उसकी अभिव्यक्ति है। यहाँ इन दोनों के बीच वही संबंध होंगे जो मनुष्य के अस्तित्व में आत्मा व शरीर के मध्य होते हैं। इसी को बाणी में सचखण्ड कहा गया है।
सचखण्ड के पश्चात करमखंड आता है। यहाँ ब्रह्मांड के निर्माण के लिए उत्तरदायी सति की शक्ति उसके निजरूप से भिन्न हो जाती है। चूंकि यह शक्ति सीमित करने वाला तत्त्व है, अतः सति का आदर्श ब्रह्मांड का अनुभव भी तिरोहित हो जाता है। सति की इसी अवस्था को नाम की अवस्था कहा गया है। कश्मीरी शैव दर्शन में परमसत्ता के इन दोनों रूपों को क्रमशः 'परमशिव' और 'शिव' कहा गया है। ‘परमशिव’ सचखण्ड में सति के रूप में विराजमान है और 'शिव' करमखंड में नाम के रूप में विराजमान है। इन दोनों अवस्थाओं में व्यावहारिक रूप से कोई अंतर नहीं है सिवाय इसके कि शिव अथवा नाम प्रभु की वह अवस्था है जिसमें आदर्श ब्रह्मांड के उस अनुभव का निषेध हो जाता है जिसके साथ सति अपने आपको एकमेक रखे हुए था। प्रभु की इस अवस्था को सनातनी परंपरा में शक्ति रहित सत्तामात्र कहा गया है जबकि आदिग्रंथ में केवल नाम कहा गया है। केवल नाम शुद्ध चैतन्य, चिन्मात्र या सत्तामात्र है। इसका अनुभव ऐसा अनुभव है जिसमें किसी ब्रह्मांड का कोई संकल्प, विचार या भावना नहीं है। यहां ब्रह्मांड - और ध्यान रहे कि ब्रह्मांड से हमारा आशय उस सत्ता से है जो ब्रह्मांड की जनक शक्ति है - और नाम दोनों भिन्न हैं, लेकिन भिन्न होते हुए भी अभिन्न हैं। यहां ब्रह्मांड की जनक शक्ति को यह ज्ञात है कि ‘जो वह है वही मैं हूं’, अतः जो आत्मा इस शक्ति से एक होगी, उसे भी इसी अपृथक्तव का ज्ञान होगा। इस प्रकार ਓੱ में सत्ता का अनुभव 'अनस्तित्व' (Nothingness, I-not-ness) का है; सति का अनुभव अस्तित्व 'मैं हूँ' (I Am) का है; करमखंड में सत्ता का अनुभव 'मैं वही हूं' (I Am That) का है। ਓੱ की अवस्था शून्य (0) की है, यहां विषय व विषयी दोनों का अभाव है; सति या सचखंड की अवस्था 'एक' की है, यहां केवल विषयी का अस्तित्व है; नाम या करमखंड की अवस्था दो की होगी, यहां विषयी व विषय दोनों होंगे किंतु ये दो बिना किसी भेद के परस्पर तल्लीन अपृथक्त्व की अवस्था में होंगे। यदि हम आत्मा के उत्थान के दृष्टिकोण से देखें तो माया के मंडलों से ऊपर उठ चुकी और करमखंड को प्राप्त हो चुकी आत्मा की यह अवस्था मोक्ष की अवस्था है जिसमें उसे अपने शुद्ध स्वरूप का, अपने अनन्त ज्ञान और आनंद का पूर्ण अनुभव होगा।
(शेष आगे)
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