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The Guru's Grace and the way of Devotion. Kartapurush ep57

Updated: Jan 9

The Word of Truth is the inner voice that guides us on the path of spiritual development. The path of devotion to God is the only way to achieve true happiness and fulfillment. By following the teachings of the Guru, one can enjoy the love of the Lord.
  • God is omnipresent, omniscient, and eternal. This means that God is present in all things & all places. He knows everything and He'll contonue to exist. There is no beginning or end to God.

  • God has established an unshakable order through the divine Word. He has created a system of laws and principles that govern the universe. These laws are unchangeable and cannot be broken.

  • This order is that devotion to God can be achieved through the grace of the Guru. The Guru is a spiritual teacher who can help us to connect with God. By following the Guru's teachings, we can develop devotion to God.

  • The proof of devotion to God is the Word of Truth. The Word of Truth is the inner voice that guides us on the path of spiritual development. When we are truly devoted to God, we will be able to hear the Word of Truth and follow its guidance.

  • The path of devotion to God is the only way to achieve true happiness and fulfillment. It is a perfect way of life that is free from sin and imperfection.

  • By following the teachings of the Guru, one can enjoy the love of the Lord.


This text can help readers in a number of ways. First, it can help them to understand the nature of God and the spiritual path. Second, it can provide them with guidance on how to develop devotion to God. Third, it can inspire them to follow the teachings of the Guru and to experience the love of the Lord.

Here are some specific ways in which the text can help readers:

  • It can help them to understand that God is not a distant being, but is present in all things and all places. This can help them to feel a sense of connection with God and to develop a more spiritual outlook on life.

  • It can help them to understand that the path of devotion to God is the only way to achieve true happiness and fulfillment. This can give them hope and motivation to follow the spiritual path.

  • It can help them to understand that the Guru is a spiritual teacher who can help them to connect with God. This can make them more open to receiving the Guru's guidance.

  • It can help them to understand that the Word of Truth is the inner voice that guides them on the path of spiritual development. This can help them to develop their intuition and to listen to their inner guidance.

  • It can help them to understand that there is no imperfection in the path of devotion to God. This can give them confidence and trust in the spiritual path.

Ultimately, the text can help readers to find their way to God and to experience the love of the Lord. This is a journey that is different for everyone, but the text can provide guidance and inspiration along the way.

Kartapurush ep57
Kartapurush ep57
 

Previous article - Kartapurush ep56

 

अंत में हम उन दार्शनिक प्रणालियों पर दृष्टिपात करेंगे जिनका उपयेग आदिग्रंथ के महात्माओं ने सृष्टि चित्रण के लिए किया है। इस सम्बन्ध में हिंदू धर्म के भिन्न-भिन्न दार्शनिक संप्रदायों में असत्कार्यवाद, सत्कार्यवाद, विवर्तवाद नामक तीन सिद्धांत प्रचलित हैं। इन तीनों प्रणालियों में माना जाता है कि जगत्‌ किसी मूल कारण सत्ता का कार्य है। किंतु कारण व कार्य के बीच संबंधों को लेकर तीनों की राय भिन्न-भिन्न है। न्याय दर्शन व वैशेषिक दर्शन द्वारा प्रस्तुत किये गये असत्कार्यवाद के सिद्धांत के अनुसार कारण व कार्य की सत्ता भिन्न-भिन्न है। जगत्‌ रूपी कार्य मूल कारण से स्वतंत्र है। सांख्य दर्शन के सत्कार्यवाद या परिणामवाद सिद्धांत के अनुसर जगत्‌ रूपी कार्य मूल कारण सत्ता में विद्यमान रहता है, कारण ही पूर्वावस्था को त्याग कर कार्यावस्था को प्राप्त करता है जैसे दूध का दही बन जाना, मिट्टी का घड़ा बन जाना, स्वर्ण का कुंडल बन जाना, इत्यादि। तीसरा सिद्धांत शंकराचार्य का विवर्तवाद है जिसके अनुसार न तो कारण व कार्य भिन्न-भिन्न हैं, न ही कार्य कारण में विद्यमान रहता है। मूल कारण सत्ता जस की तस रहती है केवल उसके बदल जाने की प्रतीति होती है। इस प्रकार कार्य व कारण एक ही है, दोनों में अद्वैतता है। कार्य की अप्रकटावस्था कारण कहलाती है, कारण की प्रकटावस्था कार्य है। दोनों एक हैं। बाणी में अनेक स्थानों पर विवर्तवाद सिद्धांत को ही स्वीकृति दी गई है। सृष्टि चित्रण के संबंध में विवर्तवाद सिद्धांत को मान्यता देने के ठोस कारण हैं। सति परम आत्मा, उत्तम पुरुष या पुरषोत्तम है, और वह सच्चिदानंद है। गुरू नानक देव जी उसे सदा सति अर्थात सत्, सुहाणु अर्थात सुंदर, मनि अर्थात्‌ चेतन व चाउ अर्थात्‌ आनंदस्वरूप कहते हैं। श्री अरविंद लिखते हैं, "परमेश्वर सच्चिदानंद है, वह अपने आपको अनन्त सत्ता के रूप में व्यक्त करता है जिसका सारस्वरूप है चेतना, और फिर चेतना का सारस्वरूप है परम सुख, आत्म-आनन्द। आनन्द अपनी ही विविधता को ज्ञान का विषय बनाता हुआ, मानों अपनी ही विविधता को खोजता हुआ स्वयं विश्व में परिणत हो जाता है।''(ईशोपनिषद, पृ -62) सति सच्चिदानंद है, और सति ही स्वयं को नामशब्द में विभाजित करता है, एक सत्ता तीन में विभक्त होती है। सति स्वयं को अस्तित्व - सत्‌ - में अभिव्यक्त करता है किंतु अस्तित्व के लिए निमित्त व उपादान कारणों की अपेक्षा होती है, नाम शब्द ही क्रमशः निमित्त व उपादान कारण हैं, ऐसा हम पीछे कारण-करण की व्याख्या में देख आये हैं। चित्‌ स्वयं को ज्ञेय व शक्तिमान सत्ता में अभिव्यक्त करता है किंतु ज्ञेय ज्ञान व ज्ञाता के बिना व शक्ति कर्ता, कर्म व कर्म के परिणाम के बिना अधूरी है। सति, नाम शब्द के त्रिक में सति ज्ञेय है, नाम ज्ञान है, शब्द ज्ञाता है। इसी तरह सति कर्ता है नाम कर्म है जबकि शब्द कर्म का परिणाम है। पुनः सच्चिदानंद में आनंद का लक्षण स्वयं को प्रेम में परिणत करता है किंतु प्रेम, प्रेमी व प्रेमपात्र के बिना अधूरा है। सति, नामशब्द के त्रिक में सति प्रेम का पात्र अर्थात्‌ प्रियतम है, नाम प्रेम है, शब्द प्रेमी है। सृष्टि रचना से पूर्व सच्चिदानंद सति में ज्ञेय, ज्ञान, व ज्ञाता; प्रियतम, प्रेम व प्रेमी; आनंद, आनंद का उपभोक्ता व आनंदस्वरूप उपभुक्त तीनों एक हैं। सृष्टि की रचना में तीनों ऐसे उन्मुक्त होते हैं जैसे कमल के खिलने पर उसके संपुट खुल जाते हैं। बाणी में अनेक स्थानों पर नाम को प्रभू का प्रेम, प्रभू का ज्ञान आदि कहा गया है। इसी तरह शब्द को कुदरत, आकार आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है। शब्द की उत्पत्ति व जगत्‌ की रचना, दोनों में वही संबंध है जो बीज की प्राप्ति व पौधे के निर्माण में है। बीज का पौधे के रूप में पुष्पन पल्लवन देश व काल में होने वाला विस्तार है जो यथासमय होगा किंतु वह बीज ही पौधा है, इसमें कोई संश्य नहीं है। श्री अरविंद लिखते हैं, "जिसे हम संसार.........कहते हैं वह अपनी अध्यात्म सत्ता के रूप और उपादान में स्वयम्भू पुरुष का आत्मरूपायण ही है। ब्रह्म ही सब कुछ हो जाता है या बनता है; जो कुछ वह बनता है वह भी ब्रह्म ही है। प्रेम का पात्र प्रेमी का आत्मा (आत्मसत्ता) ही है। कर्म है कर्ता का आत्मरूपायण; विश्व है विश्वेश्वर का विग्रह और व्यापार।''(वही, पृ-63) इस तरह सृष्टि-क्रिया आत्म-प्रसव या आत्म-प्रक्षेपण है। जगत्‌ ब्रह्म का शुद्ध आत्मगत विकास है, यह उसका विवर्त है। प्रभू सत्ता के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आता, वह ज्यों का त्यों सच्चिदानंद है लेकिन फिर भी वह भिन्न रूप में प्रतीत होने लगता है। पुनः ब्रह्म प्रतीयमान परिणाम से अपने शुद्ध रूप में लौट सकता है। वह 'एक' 'निराकार' ही 'बहु' 'आकारों' में प्रकट होता है। निर्गुण व निष्क्रिय प्रभूसत्ता ही अनन्त गुणों व समस्त सक्रियता को प्रदर्शित करती है। जगत्‌ ब्रह्म की प्रतीती (appearance) है, रचना (creation) नहीं। सारा प्रतीयमान जगत्‌ ब्रह्म ही है। बाणी में यह विचार प्रभूत मात्रा में व्यक्त हुआ है।


दूसरी ओर सांख्य का सृष्टि वर्णन वहीं से शुरू होता है जहां वेदान्त का विवर्तवाद उसे छोड़ देता है। कारण, सांख्य के कम से कम उस रूप को, जिसे ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में सूत्रबद्ध किया गया, सच्चिदानंद की भूमिका ज्ञात नहीं। उसे मन, प्राण और शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति का पता है और इसके आधार पर उसने सत्कार्यवाद सिद्धांत का निर्माण किया। यह प्रकृति प्रभू का आत्मगत सत्य नहीं बल्कि एक बहिर्गत तथ्य है, जिसका परिणाम या विकार यह जगत्‌ है। जगत्‌ रूपी कार्य मूल कारणसत्ता त्रिगुणात्मक प्रकृति में अव्यक्त अवस्था में मौजूद था। कारण का रूपांतरण ही कार्य है जिससे कारण में जो अव्यक्त था वही कार्य में व्यक्त हो गया जैसे मिट्टी में घड़ा अव्यक्त रूप से विद्यमान होता है, जब कार्यरूप घड़ा उत्पन्न होता है तो कारणरूप मिट्टी विलुप्त नहीं होती बल्कि कार्य में परिणत हो कर कायम रहती है। जब कार्य कारण से प्रकट हो जाता है तो उसे उत्पत्ति कहते हैं, जब कार्य कारण में लय हो जाता है तो उसे विनाश या मृत्यु कहा जाता है। यही जन्म-मरण है। शंकराचार्य के विवर्ववाद के आधार पर देखें तो सृष्टि का सत्य केवल प्रभू की सत्ता अर्थात नाम व उसकी शक्ति अर्थात शब्द के मेल से उत्पन्न है जहां द्वैत के लिए कोई अवकाश नहीं, वहीं सांख्य के सत्कार्यवाद के अनुसार यह जीवात्मा व त्रिगुणात्मक माया का खेल है और उसमें अद्वैत के लिए कोई गुंजाइश नहीं। लेकिन आदिग्रंथ के महात्मा इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हैं। जिस तरह सति अपना अस्तित्व जस का तस रखते हुए स्वयं को दो सत्ताओं नाम शब्द में विभक्त करता है, जिसमें एक विषयी व दूसरा विषय है, ठीक उसी तरह शब्द भी अक्षत रहते हुए स्वयं को दो सत्ताओं जीवात्मा व त्रिगुणात्मक प्रकृति में विभक्त करता है। पिंड में जीवात्मा व त्रैगुणी माया के बीच वही सम्बन्ध हैं जो ब्रह्मांड में नाम शब्द के बीच हैं। अर्थात्‌ पिंड में जीवात्मा दृष्टा, एक, स्थिर व भोक्ता है, जबकि माया दृश्य, बहु, गतिशील व भोग्य है। अंतर यह है कि नाम शब्द के बीच विभाजन ज्ञान के प्रकाश से आलोकित है, उसमें भ्रम या भूल रंचक मात्र भी नहीं है। नाम शब्द की समस्त गति को अर्थात्‌ विश्व और सापेक्ष सत्ता की सभी परिवर्तनशील अभिव्यक्तियों को देखता है, उन्हें सहारा देता है लेकिन फिर भी उन सभी से अलग-थलग, बेपरवाह, उदासीनवत्, आत्मलीन रहता है। पिंड में स्थित जीवात्मा भी त्रिगुणात्मक माया के साथ यही संबंध रख सकती है अर्थात्‌ वह माया के समस्त कर्म को करते हुए भी उससे अपने पार्थक्य को बनाये रख सकती है, यह उसकी ज्ञान दशा होगी। किंतु यदि वह माया की समस्त गति को व उसकी क्षर अभिव्यक्तियों यथा मनोमय, प्राणमय व अन्नमय पुरुष को अपना ही स्वरूप समझ बैठे तो यह उसकी अज्ञान दशा होगी। तब समस्त विकृतियां उसमें उत्पन्न होंगी। "सच्चिदानंद की भूमिका वैश्व सत्ता का उच्चतर अर्द्ध परार्द्ध है जिसकी प्रकृति है - अमरत्व, अमृतम। जड़ प्रकृति में अवस्थित मर्त्य सत्ता की अवस्था निम्नतर अर्द्ध परार्द्ध है जिसका स्वभाव है मृत्यु।''(ईशोपनिषद, पृ-49) शंकराचार्य का विवर्तवाद अमर्त्य सत्ता को अपना विषय बनाता है और मर्त्य सत्ता को असत् कहा गया है। कारण, यह सत्‌ नहीं है, ज्ञानावस्था में यह लुप्त हो जाता है। अतः शंकराचार्य का विवर्त सिद्धांत उस जागतिक सत्ता का वर्णन करता है जो केवल ज्ञानियों के लिये है। सांख्य उस जागतिक सत्ता का वर्णन करता है जिसकी प्रकृति त्रिगुणात्मक है, यह हमारा व्यावहारिक जगत्‌ है जो हम सभी का सर्वसामान्य अनुभव है। शंकराचार्य इसी को असत् कहता है क्योंकि यह झूठ-मूठ का यथार्थ है। जगत्‌ का यही दुहरा सत्य आदिग्रंथ में आया है। जब बाणीकार महात्मा परमार्थी दृष्टिकोण से जगत्‌ को देखते हैं तो इसे सचे की सची कार कहते हैं, वही संत जब माया के बंधन से ग्रस्त जीव को समझाने लगते हैं तो जगत्‌ को झूठ कह देते हैं :

इहु जगु सचै की है कोठड़ी सचे का विचि वासु ॥(1-463)

एह विसु संसार तुम देखदे इहु हरि का रूप है हरि रूप नदरी आइआ ॥(3-922)

आप सति कीआ सभु सति ॥ तिस प्रभ ते सगली उतपति ॥(5-294)

दुनीआ खोटी रासि कूड़ु कमाईऐ ॥(1-144)

जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत ॥

कहि नानक थिरु न रहै जिउ बालू की भिति ॥(9-1429)


इस तरह शंकराचार्य व आदिग्रंथ दोनों ने जगत्‌ की दोहरी स्थिति को मान्यता दी है। एक प्रभू का विवर्त है तो दूसरा माया का परिणाम है; एक सत्‌ है तो दूसरा असत् है; एक में अद्वैत है तो दूसरे में द्वैत है; एक ज्ञानियों के लिए है तो दूसरा अज्ञानियों के लिए है। शंकर दार्शनिक-सुलभ सावधानी के चलते आनुभविक जगत्‌ पर बल नहीं देते जिससे उनके बारे में यह भ्रांति फैली कि शंकर जगत्‌ के अस्तित्व को मानते ही नहीं। बाल गंगाधर तिलक अपनी पुस्तक 'गीता रहस्य' में ऐसे लेखकों पर तंज कसते हुए लिखते हैं, ''अंधे को खम्भा न सूझे तो इसमें खम्भे का क्या दोष।'' शंकर आनुभविक जगत्‌ की सत्ता को नकारते नहीं उनके लिए जगत्‌ के शक्ति रूप में ही माया रूप अंतर्भूत (sublated) है। लेकिन दर्शन के कारण अतिरिक्त सावधानी से एक कमजोरी भी उनके विचार जगत्‌ में आ जाती है। हम जान चुके हैं कि उत्पत्ति व विनाश की समस्त लीला प्रभू की चतुर्थ पाद शब्द में होने वाली गौण क्रिया है। पिंड मे स्थित शब्द ब्रह्म का व्यक्तिगत पक्ष है, वह प्रकृति के परिवर्तनों, विभाजनों और द्वन्द्वों का सूत्रधार है, एक-एक पिंड में वही है लेकिन फिर सभी पिंडों से अतीत भी है। इसकी प्रकृति है – सर्व-प्रभूत्व व सर्व-आनंद। जगत्‌ में अनंत रूपों की उत्पत्ति व एक रूप का दूसरे रूप से व्यवहार अर्थात्‌ जन्म व कर्म वे साधन है जिनके द्वारा शब्द प्रभू सति का आनंद साधन बनता है। इसलिए शब्दब्रह्म के प्रयोजन के लिहाज से जन्म व कर्म आवश्यक हैं। लेकिन शंकर के लिए कर्म को स्वीकार करना असंभव है क्योंकि इसके लिए द्वैत को स्वीकार करना होगा। उसके लिए सभी कर्म दुख और कष्ट का स्रोत हैं; इनके त्याग से दुखों व कष्टों का बीज ही नष्ट हो जाता है। लेकिन आदिग्रंथ के बाणीकार महात्माओं के लिए शब्द - ब्रह्म का व्यक्तिगत रूप - भक्ति व सेवा का आलम्बन और इस प्रकार मुक्ति का श्रेष्ठ साधन है। वे जानते हैं कि कर्म बंधन का कारण है किंतु वे यह भी जानते हैं कि कर्म तभी बांधेगा जब उसे हउमै की भावना से किया जाये। शब्द व त्रिगुणत्मक माया, दोनों का कर्म से कोई दुराव नहीं किंतु शब्द का प्रकाश माया के अज्ञानांधकार का विनाश कर देता है जिससे कर्ता सर्वकर्मों को प्रभू को अर्पण करके उन्हें अपनी मुक्ति का साधन बना लेता है। जब मनुष्य के जीवन और कर्म के क्षेत्र से हउमै को निकाल दिया जाता है और उसके स्थान पर परमात्मा को बिठा दिया जाता है, तब मनुष्य की 'मैं' प्रभू की 'मैं' में - जोकि प्रभू का नाम है - लीन हो जाती है तब वह मनुष्य परमात्मा का वाहन, उसका अपना रूप बन जाता है। उसके संकल्पों व कर्मों के माध्यम से परमात्मा का संकल्प व कर्म ही मूर्तिमान हो रहा होता है। ऐसे मनुष्य के लिये संसार अपने आप में धोखा नहीं रहता अपितु सचे की सची कार बन जाता है। यह व्यक्त जगत्‌ तभी तक छलपूर्ण, भ्रामक ढंग वाला और वास्तविकता को प्राणियों की दृष्टि से छिपाने वाला है, जब तक प्राणियों के अंदर हउमै का पर्दा है। अतः मायामय संसार धोखा नहीं, हउमैग्रस्त मनुष्य के लिये वह धोखे का निमित्त बन जाता है :

फरीदा भूमि रंगावली मंझि विसूला बागु ॥

जो नर पीरि निवाजिआ तिना अंच न लाग ॥(5-966)


'जगत्‌ झूठ है' का अर्थ है कि हउमैग्रस्त जीव का जगत्‌ संबंधी ज्ञान अशुद्ध ज्ञान है। इसका अर्थ यह नहीं कि 'यह जगत नहीं है' (unreal)। यह एक परिसीमन है जो असीम से पृथक्‌ वस्तु है और इस परिसीमन के बीज मनुष्य की उस प्रवृत्ति में हैं जिसके कारण वह अपने मन को स्रष्टा की ओर प्रेरित करने की बजाय संसार के विषयों की ओर लगा देता है। ऐसा मन बहिर्मुखी होकर इन्द्रियों के विषयों को प्राप्त करने को उद्यत होता है। इन्द्रियों के विषयों का दास बना ऐसा मन अपनी शुद्ध स्थिति से पतित व निजस्वरूप में विजातीय हो कर मायामय संसार-वन में हैरान परेशान होकर घूमता व दुखी होता है। ऐसे मन को परमात्मा या तो महान छलिया प्रतीत होता है या फिर एक नौसिखिया कारीगर जिसने एक अधूरा व दोषपूर्ण जगत्‌ बना कर जीवों को उसमे ठेल दिया। बाणी इन विचारों का खंडन करती है :

सचा अमरु चलाइअनु करि सचु फुरमाणु ॥

सदा निहचल रवि रहिआ सो पुरखु सुजाणु ॥

गुर परसादी सेवीऐ सचु सबदि नीसाणु ॥

पूरा थाटु बणाइआ रंगु गुरमति माणु ॥

अगम अगोचरु अलखु है गुरमुखि हरि जाणु ॥(1-789)


‘अमरु’ और ‘फ़रमान’ -दोनों अरबी भाषा के शब्द हैं। दोनों का अर्थ आज्ञा, आदेश, हुक्म आदि है। इससे पहली पंक्ति का शाब्दिक अर्थ होगा : ‘(परमात्मा ने) सत्य स्वरूप आज्ञा, सचु फुरमाणु, जारी करके सत्य स्वरूप आज्ञा, सचा अमरु, को ही प्रवृत किया।’ ‘सो पुरखु’ संस्कृत के ‘स: पुरुष’ का अपभ्रंश है। हम जानते हैं कि संस्कृत साहित्य में ‘स:’ सर्वनाम का प्रयोग करमखंड में निवास कर रही प्रभू की अक्षर सत्ता नाम के लिये हुआ है। नाम सुजाणु है अर्थात उसमें ज्ञान सुष्ठु रूप में अर्थात भरपूर है, वह ज्ञानमात्र (Pure Consciousness) है; फिर नाम ‘सदा निहचल’ है अर्थात शाश्वत रूप से स्थिर है। लेकिन शाश्वत रूप से स्थिर इसी सत्ता को ‘रवि रहिआ’ भी कहा गया है, ‘रव’ शब्द का अर्थ ‘गर्जन करना’, ‘आवाज करना’ आदि है। जहां आवाज होगी वहाँ स्पंदन, गति भी होगी। इसका अर्थ हुआ कि दूसरी पंक्ति में गुरू जी बता रहे हैं कि परमात्मा स्थिर व मूक अवस्था में भी है और गतिशील व नाद रूप में भी है; वह अशब्द अर्थात नाम भी है और शब्द भी है। इसका अर्थ यह भी निकला कि पहली पंक्ति में ‘(परमात्मा ने) सत्य स्वरूप आज्ञा, सचु फुरमाणु, जारी करके सत्य स्वरूप आज्ञा, सचा अमरु, को ही प्रवृत किया’ कहकर गुरु जी ने यह बताया है कि परमात्मा ने शब्द को उत्पन्न करके नाम को ही प्रवृत किया है। शब्द नाम का ही विवर्त है अर्थात नाम ही शब्द बनकर विपरीत रूप से वर्त रहा है। शब्द और नाम -दोनों परमात्मा की आज्ञा के दो रूप हैं; नाम में परमात्मा की आज्ञा परमात्मा के अंदर, मौन व अव्यक्त अवस्था में है; शब्द में परमात्मा की आज्ञा परमात्मा के बाहर, मुखर व व्यक्त अवस्था में है। लेकिन हम जीवों के लिये यह शब्द भी गुप्त है, हम केवल माया को ही जानते हैं। इससे हम परमात्मा की आज्ञा - शब्द - से बाहर हो जाते हैं। परमात्मा की आज्ञा में रहना ही उसका सेवा करना है। परमात्मा की सेवा के लिये शब्द से जुड़ना होगा। शब्द से जुडने के लिये गुरू के पास जाना होगा। गुरू शब्द-मंत्र देता है, यह शब्द-मंत्र भी सच है, इससे शब्द की निशानदेही होती है और परमात्मा की सेवा में जीव लगता है। ‘इस जीवन पद्धति में कहीं कोई अपूर्णता नहीं, इसलिए गुरू की शिक्षा पर चलो और प्रभू के प्रेम का आनंद लाभ करो। प्रभू है तो अपहुँच, इन्द्रियों की पहुँच से परे और अदृश्य; पर गुरू के सन्मुख होने से उसकी समझ पड़ जाती है।’

हुकमि रजाई चलणा गुरमुखि गाडी राहु चलाइआ ॥

पूरे पूरा थाटु बणाइआ ॥ (भाई गुरदास, 12.17)


जगत्‌ रचना की विधि व इसके स्वरूप की चर्चा हो चुकी। किंतु जगत्‌ के सम्बन्ध में अभी भी बहुत कुछ कहना शेष है। अतः गुरू साहिब इसी विषय को आगे निरभउ, निरवैरू, अकालमूर्ति में भी जारी रखे हुए हैं।


(समाप्त)

 

Kartapurush ends here. Guru will be right back with new content!

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Chaitanya Sabharwal
Chaitanya Sabharwal
2023年12月22日
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5 stars✨

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Divyansh
Divyansh
2023年9月22日
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Really nice article. Lots and knowledge available here.

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RK25
RK25
2023年9月13日
評等為 5(最高為 5 顆星)。

Excellent 👌 congratulations

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