We are not bound by the material world. We can transcend the material world and experience the pure consciousness which is the ultimate reality.
Brahman has two forms: the superior form and the inferior form.
The world also has two forms: the superior form and the inferior form.
Brahman, the ultimate reality, has two forms: the superior form and the inferior form. The superior form is pure consciousness and a manifestation of the superior power of Brahman, while the inferior form is the material world. The material world is a manifestation of the inferior power of Brahman.
The superior form of the world is elemental which is made up of the basic elements of nature, while the inferior form of the world is simply a collection of names and forms.
The text is a reminder that the ultimate reality is Brahman, the pure consciousness that underlies all of existence and the material world is ultimately unreal and is not to be taken too seriously.
This is a message of liberation telling us that we are not bound by the material world. We can transcend the material world and experience the ultimate reality of Brahman.
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ब्रह्म और जगत् के पारस्परिक संबंधों के बारे में वेदान्त में दो सिद्धांत दिए जाते हैं। रामानुज, निम्बार्क और मध्व आदि वेदांती लेखक जगत् को ब्रह्म का परिणाम कहते हैं जबकि शंकर इसे विवर्त कहते हैं। परिणामवाद सिद्धांत के अनुसार देश और काल में विविध नामों-रूपों की यह रचना एक परम सत्ता की वास्तविक आत्म-अभिव्यक्ति है, परमात्मा ही रचना के रूप में परिवर्तित हो जाता है। विवर्तवाद सिद्धांत के अनुसार परमात्मा शुद्ध व अव्यय रहता है और एक जादूगर के समान जगत् को ऐसे आभासी रूपों में अभिव्यक्त करता है जिससे अज्ञानी जीव धोखा खा जाते हैं। विवर्त का अर्थ है - अतात्विक परिवर्तन। वस्तु ज्यो की त्यों रहे, आप भ्रान्तिवश उसे अन्यथा समझ लें। यह अन्यथा भाव ही विवर्त है। पहले हम इन दोनों सिद्धांतों के विरुद्ध दी जाने वाली आपत्तियों को जान लें। परिणामवाद के विरुद्ध पहली आपत्ति यह है कि ब्रह्म अविभाज्य है लेकिन उससे जगत् परिणाम की संभावना उसमें विभाजन को आवश्यक बना देती है। यदि हम यह कहें कि उसमें परिवर्तन आंशिक रूप से होता है तब तो ब्रह्म में विभाजन आवश्यक ही है। यदि हम कहें कि ब्रह्म में विभाजन नहीं होता तो मानना पड़ेगा कि ब्रह्म जगत् के रूप में पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाता है, तब जगत् में ब्रह्म ही होगा और तप, संयम, योग आदि साधनाओं के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति अनावश्यक होगी। दूसरे, ब्रह्म असीम, शुद्ध व अव्यय है किन्तु आंशिक या पूर्ण परिणाम से उसमें परिवर्तन व सीमाबंधन उत्पन्न हो जाता है। तीसरे, ब्रह्म शुद्ध चैतन्य है, जगत् जड़ है। शुद्ध चैतन्य तत्त्व से जड़त्व कैसे उत्पन्न होता है? चौथा, यदि परम सत् ही जगत् के रूप में परिवर्तित होता है तो जीव व उपाधि (limitation) भी सच होगी और उनका संयोग भी सच होगा। ऐसे में उपाधि का नाश कैसे होगा? दूसरी ओर यदि जीव व उपाधि का संयोग झूठ है तो फिर जड़ पदार्थ भी झूठ होना चाहिये। किन्तु यह झूठा जड़ पदार्थ आता कहाँ से है?
किन्तु यदि हम यह स्वीकार करें कि ब्रह्म के दो रूप हैं - पर व अपर; अक्षर व क्षर; पूर्ण व आंशिक; शुद्ध व माया संवलित; और ब्रह्म का अपर, क्षर, आंशिक व माया संवलित रूप ही जगत् के रूप में उत्पन्न होता है तो हमारी समस्या सुलझ जाती है। ब्रह्म केवल पर, अक्षर, पूर्ण और शुद्ध ही नहीं है अपितु अपर, क्षर, आंशिक व माया संवलित भी है। उसका पर, अक्षर, पूर्ण और शुद्ध रूप ज्ञानमात्र (Pure Consciousness) है जबकि उसका अपर, क्षर, आंशिक व माया संवलित रूप ज्ञान ही नहीं क्रिया व गति भी है जिससे काल की गति व देश का विभाजन उत्पन्न होता है। ब्रह्म का यही आंशिक रूप आगे और भी आंशिक होता है जिससे वही पूर्ण ब्रह्म जीव अर्थात लघु बन जाता है। दूसरे, उपाधि कभी भी सच नहीं होती, जीव का उपाधिगत होना एक भ्रम होता है जिसका निवारण तप, संयम, योग आदि साधनाओं के द्वारा होता है।
जहां तक शांकर संप्रदाय का प्रश्न है इसके संबंध में एक विचार तो यह है कि शंकर ने जगत् प्रतीति को अज्ञानी जीव की आत्मगत रचना मात्र स्वीकार किया है, इसके आधार पर शंकर के सिद्धांत को आत्मगत आदर्शवाद (Subjective Idealism) कहा जा सकता है। किन्तु शंकर के संबंध में यह विचार अज्ञानतापूर्ण प्रतीत होता है। शंकर ने ब्रह्म में शक्तियों की विविधता के अस्तित्व को और जगत् की वस्तुपरक विविधता को स्वीकार किया है। बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ में उसने स्वीकार किया कि जगत् प्रतीति की संतोषजनक व्याख्या जगत् की वस्तुगत बहुलता को स्वीकार किये बिना नहीं होती। शंकर के अनुसार परमात्मा की सृजनात्मक शक्ति/शब्द/विद्या माया असत् रूपों को जन्म देती है। इस विचार का विरोध इस आधार पर किया गया है कि उपनिषदों में ब्रह्माण्ड संबंधी भूमिका ब्रह्म को दी गई है न कि माया को। किन्तु यह आपत्ति स्वीकार करने लायक नहीं है क्योंकि ब्रह्म की सृजनात्मक शक्ति ब्रह्म ही है, यद्यपि यह अवर ब्रह्म है। उपनिषदों में ब्रह्म का जगत् के उत्पत्तिकर्ता, पालनहार और संहारक के रूप में भरपूर परिमाण में वर्णन हुआ है और इन सभी स्थानों पर ब्रह्म की सृजनात्मक शक्ति अथवा अवर ब्रह्म/शब्द की ओर संकेत है। अपने इस मत, कि ब्रह्म की सृजनात्मक शक्ति असत् रूपों को जन्म देती है, के समर्थन में शंकर छान्दोग्य उपनिषद (6.1.3-4) को उद्धरत करता है। इस उद्धरण में श्वेतकेतु को उसके पिता समझाते हैं कि मिट्टी के एक ढेले से मिट्टी से निर्मित सभी पदार्थों को जान लिया जाता है क्योंकि उनकी विविधता केवल नाम-रूप की है। इस उद्धरण में जगत् के दो रूपों का ज्ञान सन्निहित है। पहला तात्त्विक रूप है जो प्रभू की दिव्य माया से निर्मित है और जिसमें प्रभू आसीन हैं और दूसरा नाम-रूप है जो अदिव्य माया से निर्मित है। इस अदिव्य रूप में प्रभू नहीं हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि शंकर के अनुसार जगत् परमात्मा की मायावी (illusory) रचना है और इसमें एक जादुई वस्तुपरकता है।
निर्गुण संप्रदाय के नेता शंकर के विवर्तवाद और सगुण संप्रदाय के नेता रामानुज आदि के परिणामवाद के बीच विवाद गलतफहमी के कारण है। दोनों के बीच समाधान की विधि यह है कि ब्रह्म के दो रूप हैं - सत्ता और शक्ति; पर और अपर; अक्षर और क्षर; पूर्ण और आंशिक; शुद्ध और माया संवलित। दूसरी ओर ब्रह्म की शक्ति के भी दो रूप हैं - देवात्म शक्ति और त्रिगुणात्मिका शक्ति। ब्रह्म की देवात्म शक्ति ब्रह्म की वास्तविक शक्ति है, यह उसी के जैसी सच्चिदानंद है, इसका अनुभव एक दिव्य व सर्वजनीन अनुभव के रूप में उस अभ्यासी को होता है जो किसी पूर्ण गुरू से ध्यानयोग की समुचित विधि सीखकर अपनी चेतना को एकाग्र कर लेता है : गुरमुखि एक द्रिसटि करि देखहु घटि घटि जोति समोई जीउ ॥(1-599) ब्रह्म की त्रिगुणात्मिका शक्ति अपने आपको अनुभवजन्य ज्ञान के समक्ष प्रस्तुत करती है और इसकी मान्यता केवल अनुभवजन्य ज्ञान के लिये है। ब्रह्म का शक्ति रूप और माया का देवात्म शक्ति रूप एक ही हैं अर्थात ब्रह्म के शक्ति रूप को ही दिव्य माया के रूप में जाना जाता है। यह दिव्य माया ब्रह्म व हमारे जगत् के बीच संपर्क सूत्र है।
ब्रह्म एक है, एकंकार । वह अपूर्वम् व अनपरम् है (बृहदारण्यक 2.5.19) अर्थात उसकी न तो कोई पूर्ववर्ती अवस्था है और न ही कोई उत्तरवर्ती अवस्था है। वह किसी अन्य सत्ता का परिणाम नहीं है। वह तीनों कालों में एक समान रहता है। बाणी में उसे सति कहा गया है जो संस्कृत के सत् का अर्ध तत्सम रूप है। इसका अर्थ है कि वह अतीत में ब्रह्म था, वह आज भी ब्रह्म है, वह भविष्य में भी ब्रह्म रहेगा। इस प्रकार ब्रह्म/एकंकार/सति अविकारी (Unmodifiable) सत्ता है। वह अव्यय, अक्षर, अक्षय, अज, देश और काल से रहित है। ब्रह्म/एकंकार/सति एक उदासीन सत्ता (Neutral Entity) है, वह पुरुष (Masculine) और प्रकृति (Feminine) एक साथ है। जगत् रचना के निमित्त वह अपने स्वरूप को जस-का-तस रखते हुए दो सत्ताओं - पुरुष और प्रकृति - में विभक्त होता है। आदिग्रंथ की बाणी में इन दोनों में से पुरुष सत्ता को नाम/शिव/कादर/ब्रह्म आदि और प्रकृति सत्ता को शब्द/शक्ति/कुदरत/माई आदि कहा गया है। ब्रह्म/एकंकार/सति एक है और सदा-सदा एक है, उससे जो दो सत्ताएं उत्पन्न होती हैं वे भी ब्रह्म हैं, वे भी सत् हैं और वे भी वस्तुतः ‘एक’ हैं। ये दो सत्ताएं एक द्विध्रुवीय वास्तविकता (One Bipolar Reality) का निर्माण करती हैं। इन दो सत्ताओं में निहित एकत्व को रेखांकित करने के लिये इसे ‘ओंकार’ पद से अभिव्यक्त किया गया है जबकि इन दो सत्ताओं में निहित द्विविधता को रेखांकित करने के लिये ‘ओंकार’ के दो रूप बताए गये हैं - पर व अपर। ओंकार के पर रूप को ही नाम/शिव/कादर/ब्रह्म आदि कहा गया है जबकि ओंकार के अपर रूप को शब्द/शक्ति/कुदरत/माई आदि कहा गया है। इस तरह ब्रह्म या परमात्मा के तीन रूप सिद्ध होते हैं - एकंकार, ओंकार का पर रूप और ओंकार का अपर रूप; इन्हें ही गुरबाणी में सति, नाम और शब्द कहा गया है। नाम सति का तत्त्व है, यह सति के समान ही सदा-सदा शुद्ध, स्थिर, पूर्ण व अव्यय रहता है। सति और नाम दोनों समान हैं। अंतर यह है कि सति जगत् से अतीत (transcendental) तथा पुरुष और प्रकृति से रहित उदासीन सत्ता (Neutral Entity) है, इसीलिए वेद और उपनिषदों में इसके लिए नपुंसक लिंग ‘तत्’ सर्वनाम का प्रयोग हुआ है। दूसरी ओर नाम जगत् में (immanent) है तथा पुरुष (Masculine) है, इसके लिए वेद और उपनिषदों में पुलिंग सर्वनाम ‘सः’ का प्रयोग हुआ है। तीसरी सत्ता प्रकृति/ईश्वर/माया/शब्द है। यदि हम पुरुष/ब्रह्म/नाम की तुलना प्रकृति/ईश्वर/शब्द से करें तो हम कह सकते हैं कि ब्रह्म ज्योति (Lamp) है तो ईश्वर उसकी ज्योत्सना है, दोनों अभिन्न, अवियोज्य और शाश्वत हैं। ब्रह्म/नाम और ईश्वर/शब्द दोनों अकृत हैं, दोनों का न तो आदि है न ही अंत है। ईश्वर/शब्द ब्रह्म/नाम से हीन सत्ता नहीं है। इससे ब्रह्म/नाम और ईश्वर/शब्द में अद्वैतता बनी रहती है। लेकिन माया/शब्द/ईश्वर का अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वराधीन, न स्वतंत्र (ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य 1.2.22) वह ब्रह्म/नाम पर आश्रित है, ब्रह्माश्रय । इस प्रकार माया/ईश्वर/शब्द ब्रह्म/नाम से भिन्न है, अभिन्न है, और न भिन्न न अभिन्न है। ब्रह्म/नाम सच्चिदानंद है, माया/ईश्वर/शब्द सत्, चित, आनंद है। ब्रह्म/नाम अखंड, निरवयव (without parts) है। माया/ईश्वर/शब्द सावयव है, निरवयव है, और अवयव सहित व रहित भी है। उसके बारे में कुछ भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। इस तरह माया/ईश्वर/शब्द की स्थिति दुहरी है। स्वरूपत: यह भी ब्रह्म के समान शुद्ध, स्थिर व पूर्ण है किन्तु जगत् रचना के निमित्त माया से संवलित, गतिशील व आंशिक होती है और जगत् रचना के कर्म से निवृत्त होने पर पुनः शुद्ध व पूर्ण स्वरूप में स्थिर हो जाती है। अपनी परा अवस्था में माया ब्रह्म के समान अव्यक्त (unmanifest) रहती है लेकिन जगत् रचना के निमित्त व्यक्त होती है। इसीलिए सनातनी साहित्य में परमात्मा की शक्ति के लिये दो सर्वनाम प्रयुक्त किये गये हैं - ‘साः’ और ‘इदं’। सर्वनाम ‘साः’ स्त्रीलिंग है, इसका अर्थ ‘वह’ है और यह दूरस्थ सत्ता के लिये प्रयुक्त होता है। दूसरी ओर सर्वनाम ‘इदं’ का अर्थ ‘यह’ है। अपनी परावस्था में शक्ति ब्रह्म के समान अव्यक्त होती है, ‘साः’; प्रभू की इच्छा को पूर्ण करने के लिये यह शक्ति इस जगत् के रूप में प्रकट होती है, ‘इदं’।
इस प्रकार ब्रह्म/एकंकार/सति ही ब्रह्म/नाम के रूप में श्रेष्ठ, शुद्ध अवस्था में करमखंड में रहता है और यही अवर, कनिष्ठ अवस्था में शक्ति/शब्द में परिवर्तित होता व सृष्टि में वर्तता है। किन्तु यह परिवर्तन वास्तविक नहीं विवर्त है अर्थात यह अतात्विक परिवर्तन है। ब्रह्म/नाम और ईश्वर/शब्द के एकंकार/सति से संबंधों को बयान करने के लिये गुरबाणी में अनेक स्थानों पर एक ही पंक्ति में ‘आपे’ व ‘आपि’ पदों का नियोजन किया गया है। उदाहरणार्थ :
सभु किछु आपे आपि है दूजा अवरु न कोइ ॥ (3-35)
सभु किछु आपे आपि है दूजा अवरु न कोइ ॥ (3-38)
सभु किछु आपे आपि है गुर सबदि सुणाई ॥ (3-947)
सभु किछु आपे आपि है गुरमुखि सदा हरि भणि ॥ (3-949)
सभु किछु आपे आपि है आपे देइ वडिआई ॥ (3-954)
नानक सभु किछु आपे आपि है दूजा नाही कोइ ॥ (3-994)
इन सभी उद्धरणों का अभिप्राय है कि सति ही नाम है और वही शब्द है। ब्रह्म/नाम ज्यो का त्यों रहता है, हम भ्रान्तिवश उसे अन्यथा समझ लेते हैं। ब्रह्म/नाम ही शक्ति/शब्द के रूप में अपने मूल स्वरूप से विपरीत होकर वर्तता है। इस स्तर पर जगत् ब्रह्म के शक्ति रूप का अनावरण है। इसी के साथ ही ब्रह्म की शक्ति का अवर रूप भी उत्पन्न होता है। शक्ति का यह अवर रूप शक्ति के श्रेष्ठ रूप का उसी प्रकार परिणाम है जैसे धुआँ अग्नि का परिणाम है। शक्ति के इसी अवर रूप को तीन गुणों वाली माया कहा गया है। जिस प्रकार शक्ति का श्रेष्ठ रूप ईश्वर/शब्द स्वतंत्र नहीं है अपितु यह ब्रह्म/नाम पर आश्रित है उसी प्रकार शक्ति का अवर रूप माया भी स्वतंत्र नहीं है और यह ईश्वर/शब्द पर आश्रित है, ईश्वराश्रय । जब शक्ति के इस अवर रूप के तीन गुण संतुलित व अमिश्रित होते हैं तो यह अव्यक्त होती है, जब इसके तीन गुण मिश्रित होते हैं तो यह व्यक्त हो जाती है। वेदान्त के अनुसार ब्रह्मांड अव्यक्त माया (ईश्वर/शब्द) से व्यक्त होता है और तदुपरांत विकसित होता है।
इस प्रकार ब्रह्म की शक्ति के दो रूप हैं, एक श्रेष्ठ रूप है तो दूसरा अवर रूप है। इसी तरह जगत् के भी दो रूप हैं, एक श्रेष्ठ रूप है तो दूसरा अवर रूप है। जगत् का श्रेष्ठ रूप ब्रह्म/एकंकार/सति की श्रेष्ठ शक्ति का अनावरण है तो जगत् का अवर रूप ब्रह्म/एकंकार/सति की अवर शक्ति का अनावरण है। जगत् का श्रेष्ठ रूप ब्रह्म का विवर्त है तो जगत् का अवर रूप ब्रह्म की शक्ति का परिणाम है। जगत् का श्रेष्ठ रूप तात्त्विक है जबकि जगत् का अवर रूप नाम-रूप मात्र है।
इस सिद्धांत से विवर्तवाद और परिणामवाद के विरोधों का समाधान हो जाता है। इसके विरुद्ध यह नहीं कहा जा सकता कि ब्रह्म की प्रकृति में द्वैत व विभाजन को स्वीकार किया गया है क्योंकि ब्रह्म की शक्ति के श्रेष्ठ व अवर -दोनों रूप ब्रह्म की ही दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं। ब्रह्म की शक्ति का श्रेष्ठ रूप ब्रह्म स्वयं है, वह इसमें प्रतिष्ठित है और इसके समस्त रहस्यों से परिचित है : तेरी कुदरति तू है जाणहि अउरु न दूजा जाणै ॥ (5-1135) ब्रह्म की शक्ति के अवर रूप का स्रोत भी ब्रह्म ही है : धुर की भेजी आई आमरि ॥(5-371) आपे माइआ आपे छाइआ ॥(3-125) किन्तु ब्रह्म इस छाया में उपस्थित नहीं है : छाइआ छूछी जगतु भुलाना ॥(1-932) जिससे यह ब्रह्म की सनातन पवित्रता से रहित व मलिन है।
स सिद्धांत से ब्रह्म देश-काल से भी अतीत रहता है। यह ठीक है कि हम ब्रह्म की शक्ति के श्रेष्ठ और अवर -दोनों रूपों को काल पुरुष कहेंगे, दोनों देश-काल में हैं किन्तु दोनों में अंतर यह है कि ब्रह्म का अवर रूप देश-काल है जबकि ब्रह्म का श्रेष्ठ रूप देश-काल में होते हुए भी इससे भिन्न, इसका लेखक और नियंता है। वृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य ब्रह्म के इसी रूप के बारे में संकेत करते हुए कहता है कि वह पृथ्वी में रहता है लेकिन पृथ्वी से भिन्न है, जिसे पृथ्वी नहीं जानती, जिसका शरीर ही पृथ्वी है और जो पृथ्वी पर भीतर से शासन करता है। (3.7)
पुनः इस सिद्धांत में जीव की उपाधियों को कोई सत्यता नहीं दी जाती। उपाधि असत्य है, मृषा है और जीव अज्ञानतावश इसे स्वीकार करता है। जीव की अज्ञानता जीव की प्रकृति का भाग नहीं है अपितु यह माया के अवर रूप का भाग है। जीव के कर्म से माया के तीन गुणों में परिवर्तन होते हैं, किन्तु परिवर्तन का विधान माया के दिव्य रूप द्वारा किया जाता है और इस परिवर्तन का प्रयोजन सत्यस्वरूप प्रभू सति की प्रसन्नता है। इस प्रकार जगत् का समस्त कर्म माया के अदिव्य रूप अर्थात त्रिगुणात्मिक माया द्वारा किये जाते हैं जबकि कर्म की प्रेरणा व बल का स्रोत माया का दिव्य रूप है और यह माया कर्म का नियोजन प्रभू सति के लिये (पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ) करती है। यदि जीव त्रिगुणात्मिका माया में होने वाले समस्त परिवर्तनों को शरणागत भाव से स्वीकार करे तो उसमें और प्रभू की दिव्य शक्ति/शब्द/ईश्वर में समानता स्थापित हो जायेगी। तब वह भी प्रभू का दिव्य वाहन और उसकी कृपा का पात्र बन जायेगा।
(शेष आगे)
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