The world is not as it seems. It is a transformation of the Divine power of the Lord, but our knowledge of it is limited and incomplete. The truth of the world is determined by the state of our own souls. If we are in untruth, then we will see the world as untruth. But if we are in truth, then we will see the world as it really is, the essence of a truth.
The world has been called both "true" and "false" in the Adi Granth.
This is because the world is a transformation of the Conscious, Divine power of the Lord, which is true, but our knowledge of the world is false because we do not know it as it really is.
The falsity or truth of the world is determined by the state of the soul observing it.
If the person who perceives the world is in untruth, then the world is untruth for him.
If the perceiver of the world is in truth, then for him this visible world is the essence of a truth.
Here are some additional points that are worth highlighting:
The text mentions that the world is a "transformation" of the Divine power of the Lord. This suggests that the world is not something separate from God, but rather a manifestation of God's power.
The text also states that our knowledge of the world is "false" because we do not know it as it really is. This suggests that there is a deeper reality to the world that we cannot perceive with our senses.
Finally, the text emphasizes that the falsity or truth of the world is determined by the state of the soul observing it. This suggests that our own spiritual state has a profound impact on how we perceive the world.
The text is essentially teaching us about the nature of reality and our own spiritual journey. It is telling us that the world is not something to be taken for granted, but rather something to be explored and understood. It is also telling us that our own spiritual state has a profound impact on how we perceive the world.
This is a reminder that we are all spiritual beings, and that our true home is in the realm of the Divine. It is a call to wake up from our illusion of separation and to see the world as it really is, the essence of a truth.
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आदिग्रंथ में प्रस्तुत सृष्टि रचना सिद्धांत के अध्येता के समक्ष आने वाली एक सबसे बड़ी समस्या यह है कि आदिग्रंथ में जगत् को कहीं तो ‘सच’ कहा गया है और कहीं ‘झूठ’ कहा गया है। यह तर्क दिया गया है कि परमात्मा सत् है और जो कुछ जगत् में है, सब उसने रचा है, अतः यह भी सत् है :
आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥(5-293)
सचे तेरे खंड सचे ब्रह्मांड ॥ सचे तेरे लोअ सचे आकार ॥
सचे तेरे करणे सरब बीचार ॥(1-463)
इहु जगु सचै की है कोठड़ी सचे का विचि वासु ॥(1-463)
एहु विसु संसार तुम देखदे ॥
इहु हरि का रूप है हरि रूप नदरी आइआ ॥(3-922)
लेकिन जगत् को सत् ही नहीं, झूठ या मिथ्या भी कहा गया हैः
राज बिनासी ताम बिनासी सातकु भी बेनाधा ॥
द्रिसटिमान है सगल बिनासी इकि साध बचन आगाधा ॥(5-1204)
जैसा सुपना रैनि का तैसा संसार ॥
द्रिसटिमान सभु बिनसीऐ किआ लगहि गवार ॥(5-808)
द्रिसटिमान है सगल मिथेना ॥(5-1083)
रे मन किआ करहि है हा हा ॥
द्रिसटि देखु जैसे हरिचंदउरी इकु राम भजनु लै लाहा ॥(5-402)
इन परस्पर विरोधी दिखने वाले कथनों से आदिग्रंथ के अध्येताओं में बड़ी उलझन उत्पन्न हुई है। हमारे विचार में जगत् को एक साथ सच और झूठ कहने के दो कारण हैं। पहला कारण यही है कि आदिग्रंथ के अध्येताओं में आदिग्रंथ की तत्त्वमीमांसा की समझ ही उलझी हुई है। हम जानते हैं कि ब्रह्मांड की सामग्री के दो रूप हैं - जड़ और चेतन; माया शक्ति और प्रभू शक्ति। गुरू अर्जुन देव जी जगत् के चेतन रूप की उपादान सामग्री को ‘सच’ और उसके द्वारा धारण किये गये चैतन्य रूपों को ‘अगम्य’ और ‘अनुपम’ कहते हैं :
सचु तेरी सामगरी सचु तेरा दरबारा ॥
सचु तेरे खाजीनिआ सचु तेरा पासारा ॥
तेरा रूपु अगमु है अनूपु तेरा दरसारा ॥
हउ कुरबाणी तेरिआ सेवका जिन्ह हरि नामु पिआरा ॥(5-746)
दूसरी ओर ब्रह्मांड के जड़ रूपों की एक जड़ सामग्री भी है। यह सामग्री झूठ है; इससे निर्मित होने वाला जगत् मानों एक भयानक और डरावना जंगल है; इसमें निवास करते और इसे सच मानने वाले मनुष्य तो मानों शैतान हैं जो काम, क्रोध और अहंकार के प्रभाव से विक्षिप्त हो चुके हैं :
महा भइआन उदिआन नगर करि मानिआ ॥
झूठ समग्री पेखि सचु करि जानिआ ॥
काम क्रोधि अहंकारि फिरहि देवानिआ ॥
सिरि लगा जम डंडु ता पछुतानिआ ॥
बिनु पूरे गुरदेव फिरै सैतानिआ ॥(5-708)
यहाँ पर यह स्मरण रहे कि प्रभू की चेतन शक्ति को ‘सच’ और जड़ शक्ति को ‘झूठ’ कह देने का अर्थ यह नहीं है कि चेतन शक्ति तो स्थायी, शाश्वत है जबकि जड़ शक्ति क्षणस्थायी है। प्रभू की चेतन शक्ति/शब्द/ईश्वर और जड़ शक्ति/माया -दोनों ही जगत्-सामग्री के दो उपादान हैं और ये दोनों ही क्षणस्थायी व परिवर्तनशील हैं। जैसे जल से अनेक लहरें उठती हैं, वे जल रूप ही होती हैं और अंततः जल में ही मिल जाती हैं; जैसे स्वर्ण धातु से अनेक प्रकार के रूपों वाले आभूषण निर्मित होते हैं, वे वस्तुतः स्वर्ण ही होते हैं; वैसे ही शक्ति के दोनों रूपों - चेतन और जड़ - से तदनुसारी रूपों की रचना होती है जो कर्म और काल की गति के अनुसार विकसित होते और अंततः क्षरण को प्राप्त होते हैं। हम चेतन शक्ति को Energy और जड़ शक्ति को energy कह सकते हैं। ऐसे ही चेतन शक्ति से निर्मित रूप को हम Form और जड़ शक्ति से निर्मित रूप को form कह सकते हैं। शक्ति (Energy/energy) के ये दोनों रूप (Forms/forms) जगत् का ‘एक बीज’ (One Seed/one seed) हैं जिससे परमात्मा अनेक प्रकार के जीवों की रचना करता है। ध्यान रहे कि चेतन शक्ति और जड़ शक्ति दोनों ही ‘एक बीज’ हैं। चेतन शक्ति उस ‘एक बीज’ का तत्त्व (Substance) है जबकि जड़ शक्ति उस ‘एक बीज’ का नाम-रूप है। इस तरह तत्त्व और नाम-रूप इस ‘एक बीज’ के दो पार्श्व हैं। फिर इस ‘एक बीज’ से उसी जैसे अनंत रूप उत्पन्न होते हैं और प्रत्येक रूप के दो पक्ष हैं - तत्त्व और नाम-रूप; चेतन और जड़। इस तरह जगत् में अनंत रूप ऐसे दुहरे सत्य को छिपाए हुए प्रकट होते और नष्ट होते रहते हैं, कोई नहीं बता सकता कि वे रूप कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं अर्थात सभी रूप (Forms/forms) वस्तुतः शक्ति (Energy/energy) हैं जो दिव्य विधान के अनुसार शक्ति में से घनीभूत होते हैं और अंततः छिन्न-भिन्न हो कर शक्ति के सागर में ही समा जाते हैं :
कवन रूप द्रिसटिओ बिनसाइओ ॥
कतहि गइओ उहु कत ते आइओ ॥1॥ रहाउ॥
जल ते ऊठहि अनिक तरंगा ॥ कनिक भूखन कीने बहु रंगा ॥
बीजु बीजि देखिओ बहु परकारा ॥ फल पाके ते एकंकारा ॥2॥(5-736)
यहाँ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि गुरू जी द्वारा लिखित और ऊपर दिये गये उद्धरण की अंतिम पंक्ति श्वेताश्वतर उपनिषद (6.12) की प्रथम पंक्ति ‘एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति ॥’ का पद्यानुवाद है। ऋषि का कथन है, “वह एक परमात्मा, एकंकार, जो निष्क्रिय है और अनंत सत्ताओं को अपने वश में रखता है, एक ही बीज को बहुविध प्राणियों के रूप में विकसित करता है।’
इससे स्पष्ट हो जाता है कि जगत को एक साथ ‘सच’ और ‘झूठ’ इसलिये कहा गया है क्योंकि जगत के निर्माण में दो उपादानों का प्रयोग होता है जिनमें से एक ‘सच’ है और दूसरा ‘झूठ’ है। किन्तु ध्यान रहे कि प्रभू की चेतन शक्ति के लिये प्रयुक्त विशेषण ‘सच’ और जड़ शक्ति के लिये प्रयुक्त विशेषण ‘झूठ’ -दोनों सापेक्ष पद हैं। जड़ शक्ति चेतन शक्ति के सापेक्ष है जबकि चेतन शक्ति परमात्मा के सापेक्ष है। चेतन शक्ति की तुलना में जड़ शक्ति ‘झूठ’ है; जड़ शक्ति की तुलना में चेतन शक्ति ‘सच’ है; परमात्मा की तुलना में ये दोनों ‘झूठ’ हैं। कारण, परमात्मा का अस्तित्व स्वतंत्र व निरपेक्ष (Absolute) है। शक्ति के इन दोनों रूपों का अस्तित्व अस्वतंत्र व सापेक्ष (Relative/relative) है। प्रभू की चेतन शक्ति/शब्द/ईश्वर ब्रह्म/नाम पर आश्रित है, ब्रहमाश्रय, जबकि प्रभू की जड़ शक्ति/माया प्रभू की चेतन शक्ति/शब्द/ईश्वर पर आश्रित है, ईश्वराश्रय। अतएव ब्रह्म/नाम की तुलना में ईश्वर/चेतन शक्ति और माया/जड़ शक्ति दोनों ‘झूठ’ हैं। यह स्मरण रहे कि शक्ति के इन दोनों रूपों के लिये समान संज्ञा का प्रयोग किया जा सकता है किन्तु उसका अर्थ शक्ति के दोनों रूपों के संदर्भ में भिन्न-भिन्न हो जायेगा। ब्रह्म/नाम निरपेक्ष सच है; माया निरपेक्ष झूठ है; ईश्वर/शब्द न तो सच है न ही झूठ है, यह अनिर्वचनीय है। गुरू साहिबान ने बाणी में ब्रह्म/नाम को ‘सचो सच’ (यथार्थ सत्य, Absolute Truth) और ईश्वर/शब्द को ‘सच’ कहा है जबकि माया के लिये झूठ, मिथ्या आदि शब्दों का व्यवहार किया है। लेकिन माया को ‘असत्’ या ‘झूठ’ कहे जाने का अर्थ यह नहीं है कि यह खरगोश के सींग के समान अस्तित्वहीन (non-existent) है, अपितु यह ‘असत्’ इसलिये है क्योंकि यह निस्सार (un-Substantial) है। माया रूपी यह जगत् ‘सत् प्रतिष्ठ’ या ‘सन्मूल’ (rooted or based on Reality) है। इस जगत् का मूल सच है और जो उस सच को जानता है वह खुद भी सच है क्योंकि सच को ‘जानने’ का अर्थ सच ‘हो जाना’ है, उसके लिये माया ‘नहीं है’। जो उस सच को नहीं अपितु उसके विकासज (evolute) माया को ‘जानता’ है, वह खुद भी वस्तुतः ‘नहीं है’, बाणी उसे ‘भूतना’, ‘बेताला’ आदि कहती है।
ब्रह्मांड की रचना में प्रभू की चेतन शक्ति/शब्द और जड़ शक्ति/माया -दोनों दो उपादान हैं। चेतन शक्ति सत्, चित, आनंद है; जड़ शक्ति सत्व, रजस् और तमस् -तीन गुणों वाली है। जगत् रचना में न तो चेतन शक्ति के अवयव परिवर्तित होते हैं, न ही जड़ शक्ति के अवयव परिवर्तित होते हैं। परमात्मा मानों एक बाजीगर, मायावी, (Magician) है; माया उसकी जादुई शक्ति (magical Power/power) है; और जगत् परमात्मा की माया का खेल है जिसके द्वारा एक परमात्मा अनेक रूपों (Forms/forms) में प्रकट होता है। ज्यों ही वह इस खेल को समेटता है और धारण किये गये कृत्रिम रूपों को उतारता है तब केवल एक ही सत्ता, एकंकार, शेष रह जाता है। चूंकि माया दो प्रकार की है, एक श्रेष्ठ प्रकृति वाली और एक निम्न प्रकृति वाली, अतः माया का खेल भी दो प्रकार का है -श्रेष्ठ और अवर। जो जीव माया के अवर रूप के खेल में मग्न रहते हैं उनके हिस्से में माया का भ्रम और उससे उत्पन्न विकार जैसे लोभ, मोह इत्यादि आता है। जो जीव गुरू के प्रसाद से श्रेष्ठ प्रकृति वाली माया के खेल में प्रवेश करते हैं उनका द्वैतभाव समाप्त हो जाता है, उन्हें ज्ञान हो जाता है कि विविधता का सारा खेल उस एक परमात्मा का है जो अविनाशी है, न कोई जन्म लेता है, न ही कोई मरता है। जिसको हम शरीर की मृत्यु या नाश कहते हैं वह तो इसकी ‘अ-दर्शन’ या विलुप्तता की अवस्था मात्र है। जहां तक चैतन्य तत्त्व का प्रश्न है वह तो एक ही है। ‘मेरी आत्मा’ या ‘तुम्हारी आत्मा’ जैसी कोई बात नहीं है। आत्मा आकाश के समान एक है, उसमें विविधता की अनुभूति माया की उपाधि के कारण है। जैसे विस्तृत आकाश और घड़ों के भीतर का आकाश एक ही है, विविधता घड़ों के कारण है। वैसे ही आत्मतत्त्व एक ही है जो माया के कारण अनेक हुआ प्रतीत हो रहा होता है, विविधता माया के कारण है। अद्वैतता के इस ज्ञान के प्रताप से जीव परमगति को प्राप्त होता है :
बाजीगरि जैसे बाजी पाई ॥ नाना रूप भेख दिखलाई ॥
सांगु उतारि थम्हिओ पासारा ॥ तब एको एकंकारा ॥1॥
xx xx xx xx
सहस घटा महि एकु आकासु ॥ घट फूटे ते ओही प्रगासु ॥
भरम लोभ मोह माइआ विकार ॥ भ्रम छूटे ते एकंकार ॥3॥
ओहु अबिनासी बिनसत नाही ॥ ना को आवै ना को जाही ॥
गुरि पूरै हउमै मलु धोई ॥ कहु नानक मेरी परम गति होई ॥4॥(5-736)
इस प्रकार जगत् को एक साथ ‘सच’ व ‘झूठ’ कहने में जो विरोधाभास है उसका प्रधान कारण जगत् की विरोधाभासी प्रकृति है। किन्तु यह एकमात्र कारण नहीं है। यह उचित है कि जगत् के दो उपादान है जिनमें एक चेतन है और दूसरा जड़ है किन्तु यह नियम है कि जगत् सामग्री के इन दोनों पक्षों के लिये समान शब्दावली का प्रयोग किया जायेगा और अन्य धर्मग्रंथों के समान आदिग्रंथ में भी इस अनुशासन का पालन किया गया है। फिर जगत् के वर्णन में इस नियम का अपवाद क्यों है? हमारे विचार में इसका एक महत्वपूर्ण कारण और भी है।
हमने देखा है कि व्यक्ति में चेतना की दो अवस्थाएं संभव हैं, एक ज्ञान की अवस्था है, दूसरी अज्ञान की है। ज्ञान की दृष्टि यह है कि मेरी चेतना व आकार दोनों का आधारभूत सत्य शब्द/ईश्वर है, अज्ञान की दृष्टि यह है कि मेरा अस्तित्व, मेरा बल मेरे कारण है। ज्ञान की दृष्टि जीवात्मा को शुद्ध, शान्त व स्थिर सच्चिदानंद की अवस्था में रखती है, अज्ञान की दृष्टि उसे मृत्यु और सीमाबन्धन के साम्राज्य की असहाय, विक्षुब्ध व मलिन प्रजा बना देता है। ज्ञान की अवस्था में जीवात्मा के संकल्प शुद्ध व कर्म अहंशून्य होते हैं; अज्ञान की अवस्था में उसके संकल्प ठीक और गलत, पाप और पुण्य के द्वन्द्वों में झूलते रहते हैं व उसमें कर्मों के कर्ता होने का भाव बना रहता है। अब ये जो चेतना की दो अवस्थाएं हैं उनमें से ज्ञान की अवस्था तो सत् है, लेकिन दूसरी अज्ञान की अवस्था असत् है। जगत् सत् है लेकिन उसकी समझ सत् भी हो सकती है और असत् भी। प्रभू से मैं अलग हूं, स्वतंत्र हूं, यह समझ अज्ञानता है। यह जगत् के बारे में मेरी गलत चेतना का एक पर्दा है और इस अज्ञानता की जड़ें बाहरी जगत् में नहीं, मेरे अंतर में हैं। जब अंतर से पर्दा उठ जाता है तो जगत् की हमारी समझ में बदलाव आ जाता है। इससे बाहरी जगत् व हमारे बीच के संबंधों में कोई तात्त्विक परिवर्तन नहीं होता। "केवल व्यष्टिगत केंद्र से अंतर्दृष्टि और बहिर्दृष्टि में गहरा परिवर्तन आता है और परिणामस्वरूप हमारे क्रियाकलाप की भावना और प्रभाव में भी।''(दिव्य जीवन, पृ -39) तात्त्विक रूप से यह जगत् प्रभू की चेतन, दिव्य शक्ति का रूपांतरण है अतः यह सच है। किन्तु सामान्य रूप से इस जगत् का हमारा ज्ञान झूठ है क्योंकि इस जगत् को हम वैसे नहीं जानते जैसा यह वास्तव में है :
माधवे किआ कहीऐ भ्रमु ऐसा ॥ जैसा मानीऐ होइ न तैसा ॥(रविदास जी - 657)
यदि मैं जगत् को वैसा नहीं ‘जानता’ जैसा यह वस्तुतः है तो मेरा इसे ‘जानना’ झूठ होगा और चूंकि ज्ञान अपने प्रत्येक रूप में शक्ति है (knowledge is power) अतः मेरा ‘झूठ’ का ‘ज्ञान’ न केवल मुझे ‘झूठ’ बनने के लिये विवश कर देगा अपितु मेरे अनुभव के सभी रूपों को भी ‘झूठ’ बना देगा। दूसरी ओर यदि मेरा ‘ज्ञान’ ‘सच’ का है तो वह न केवल मुझे ‘सच’ बना देगा अपितु वह मेरे अनुभव के सभी रूपों को भी ‘सच’ बना देगा। गुरू अर्जुन देव लिखते हैं :
सभु जगु साचा जा सच महि राते ॥(5-183)
‘जब सच में लीन हो गये तो सारा जगत् सत्यस्वरूप ही प्रतीत होने लगा।’ इससे स्पष्ट हुआ कि जगत् सत् है या असत् है, ऐसा जानने की चाबी निज-स्वरूप को जानने में है। यदि मेरे अंदर सत् प्रकट है तो वह सत् बाहर जगत् में भी प्रकट होगा, तब जगत् सत् ही होगा। यदि मेरे अंदर सत् प्रच्छन्न है, प्रकट नहीं है तो मेरा यह वक्तव्य कि ‘जगत् सत् है’, असत् है। जिस सीमा तक सदवस्तु मेरे अंदर प्रकट है उसी सीमा तक वह सदवस्तु बाहर जगत् में प्रकट होगी। मेरे जगत् का केंद्र ‘मैं’ (Self) हूँ। यदि मैं अपनी आत्मा (Self) को जानता हूँ तो मैं सबमें एक आत्मा (Self) को ही जानूँगा क्योंकि आत्मा सर्वत्र है, एक है और सत् है। जो भी आत्मा के अतिरिक्त (other than the Self) है वह अनात्म (not-Self) है और वह भी यद्यपि सर्वत्र है तथापि अनेक है अतएव भेद का मूल है और असत् है। प्रतिपल परिवर्तित, मर्त्यशील और प्रत्यक्षतः निस्सार (unsubstantial) प्रतीत हो रहा यह जगत् ऐसी सदवस्तु पर आधारित है जहां पहले चरण में प्रतिपल परिवर्तन एक क्रीड़ा मात्र प्रतीत होती है और दूसरे चरण में स्थाई शाश्वतता में परिणत हो जाती है। उस सदवस्तु के ज्ञान से उस पर आधृत व प्रतिष्ठित यह जगत् भी सत् प्रतीत होने लगता है, और ऐसे ज्ञानी के लिये यह कथन स्वाभाविक है :
एकु सबदु दूजा होरु नासति ………….॥(1-155)
शब्द दूजा है, ‘होरु’ अर्थात माया भी दूजी है क्योंकि माया शब्द की ही परछाई है। परछाई मूल वस्तु को ही दर्शाती है किन्तु परछाई में मूल वस्तु औंधी (inverted), विपरीत हो जाती है। इसी कारणवश शब्द की परछाई असत् है, नास्ति, जबकि शब्द सत् है। शब्द हमारे जगत् का आध्यात्मिक रूप है; माया हमारे जगत् का त्रिगुणात्मिक रूप है। माया-रूप जगत् के सभी पदार्थ सच हैं, पर वे सच इसलिये हैं क्योंकि वे सच पर आश्रित हैं, सच उनका आश्रय है; वे सच पर आधृत (substrated) हैं, सच उनका आधेय (substratum) है। जो उस सच का ध्यान करते हैं वे उस सच को प्राप्त करके सच, सत्यस्वरूप बन जाते हैं पर जो उसका ध्यान नहीं करते और जन्म-मरण में हैं वे सत्यस्वरूप नहीं हैं अपितु वे बिल्कुल कच्चे हैं :
सचै सभि ताणि सचै सभि जोरि ॥ ………………………………॥
नानक सचु धिआइनि सचु ॥ जो मरि जमे सु कचु निकचु ॥(1-463)
गुरू अमरदास जी लिखते हैं :
माइआ करि मूलु जंत्र भरमाए ॥ हरि जीउ विसरिआ दूजै भाए ॥
जिसु नदरि करे सो परम गति पाए ॥4॥
अंतरि साचु बाहरि साचु वरताए ॥ साचु न छपै जे को रखै छपाए ॥
गिआनी बूझहि सहजि सुभाए ॥5॥(3-232)
‘परमात्मा ने माया-यंत्र का निर्माण कर इसके आश्रित रहने वाले जीवों को भ्रमित किया है। माया के प्यार के कारण उन्हें परमात्मा भूला रहता है। पर, जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा दृष्टि करता है, वह मनुष्य सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है जहाँ माया का मोह छू नहीं सकता। ऐसा जीव ‘सहज’ और ‘स्वभाव’ के द्वारा दिव्य रहस्यों को जानने वाला ज्ञानी बन जाता है। ऐसे ज्ञानी के लिये सच गुप्त नहीं रहता बल्कि वह अंतःकरण में भी और बाहर भी सच को ही देखता है।’ साधारण जीवों के लिये ‘सच’ के दोनों रूप - सहज और स्वभाव - गुप्त और अंतर्मन की कहीं गहराइयों में छिपे हुए रहते हैं जबकि माया बाहर प्रत्यक्ष होती है किन्तु सहज और स्वभाव के रहस्य को बूझने वाले ज्ञानी के लिये अंदर सहज है जबकि बाहर उस सहज का स्वभाव, उसकी शक्ति वर्त रही है। माया केवल भ्रम रूप थी जो सच के प्रकट होने पर नष्ट हो गई। लेकिन यह रूपांतरण केवल सहज और स्वभाव/ज्ञान और विज्ञान/नाम और शब्द के ज्ञानी के लिये है। जो जीव प्रभू की कृपा दृष्टि से रहित व अज्ञानी है वह माया आवेष्टित है। उसके अंदर भी झूठ है और बाहर भी झूठ है।
जगत् सत् है, यह मैं तभी जान पाऊंगा जब मैं जगत् की अंतरात्मा को जान लूंगा, और यह काम मैं तभी कर पाऊंगा जब मैं अपनी अंतरात्मा को जान लूंगा। इस स्थिति में मुझमें हउमै नहीं रहेगी। तब जगत् की वस्तुस्थिति नहीं बदलेगी केवल मेरे अंदर अज्ञान का घटाटोप छंट जाएगा। मैं जान लूंगा कि जड़ जगत् अपने आपको निराकार प्रभू के आकार के रूप में प्रकट कर रहा है और अशरीरी प्रभू स्वयं को जगत् की अंतरात्मा के रूप में प्रकट कर रहा है और दोनों ही दिव्य, वास्तविक और तत्त्वतः एक हैं। दूसरी ओर यदि मैं सत् आत्मा को नहीं जानता - और ध्यान रहे कि 'जानने' का अर्थ 'होना' है - तो मेरे लिए जड़तत्त्व ही सत् है और आत्मा असत् है। यदि जड़ आत्मा को नहीं जानता तो उसका यह ज्ञान भी असत् ही होगा। इसका अर्थ हुआ कि जगत् को मिथ्या या असत् कहने से आश्य यह है कि वह स्वप्न मिथ्या है जो हउमैग्रस्त आत्मा देख रही है। जगत् का मिथ्यात्व या उसकी सत्यता जगत् के अपने मूलभूत स्वरूप से निर्धारित नहीं होगी बल्कि इसका अवलोकन करने वाली आत्मा की अवस्था से निर्धारित होगी। यदि जगत् की प्रतीती करने वाला असत् में है तो उसके लिये जगत् असत् है, वह असत् में रह रहा है और असत् में ही जाएगा। यदि जगत् की प्रतीती करने वाला सत् में है तो उसके लिए यह दृश्य जगत् एक सत्य का सारवान् रूप है।
उपनिषदें कहती हैं, “यदि पुरुष ‘ब्रह्म असत् है’ ऐसा जानता है तो वह स्वयं भी असत् ही हो जाता है और यदि ऐसा जानता है कि ‘ब्रह्म है’ तो वह भी सत् हो जाता है।”(तैत्तिरीयोपनिषद् 2.61) ‘ब्रह्म असत् है’ ऐसा जानने वाले जीव का असत् हो जाना क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शंकर ने लिखा है कि ‘जिस प्रकार असत् (अविद्यमान) पदार्थ पुरुषार्थ से संबंध रखने वाला नहीं होता उसी प्रकार जो ‘ब्रह्म असत् अर्थात अविद्यमान है’ ऐसा जानता है वह भी असत् के समान ही पुरुषार्थ से संबंध नहीं रखने वाला हो जाता है।’ सरल शब्दों में कहें तो उससे परमात्मा को जानने का पुरुषार्थ करने का अधिकार भी छीन लिया जाता है, वह तिर्यक योनियों में जाने के लिए अभिशप्त रहता है।
वल्लभाचार्य के दर्शन पर लिखते हुए श्री एस. एन. दासगुप्त लिखते हैं, “जगत्-प्रपंच का सत्य अथवा मिथ्यात्व उसको प्रत्यक्ष करने की पद्धति पर निर्भर करता है, जब एक व्यक्ति जगत् का प्रत्यक्षीकरण करता है और उसे ब्रह्म के रूप में ज्ञात करता है तब जगत् के यथार्थ नानात्व से संबंधित उसका बौद्धिक प्रत्यय तिरोहित हो जाता है। यद्यपि वस्तुतः प्रत्यक्ष किया गया जगत् यथावत् बना रह सकता है। इस प्रकार माया की सृष्टि बाह्य न होकर आंतरिक होती है। इसलिये दृश्य जगत् स्वरूपत: मिथ्या नहीं है, केवल ईश्वर से पृथक् एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में उसका प्रत्यय मिथ्या होता है।”(भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग 4 व 5, पृ -348)
निस्संदेह आदिग्रंथ में ऐसे स्थानों की कमी नहीं जहां माया के लिए नकारात्मक विशेषणों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है। इसे 'डाइणि', 'नागनी', 'खोटी रासि', 'जिह्बा की फूड़ि' कहा गया है। इसकी तुलना ऐसी स्त्री से की गई है जिसके माथे पर सदा त्रिकुटी पड़ी रहती है, जो गुस्से से भरी और कडुवा बोलने वाली है। गुरू साहिबान के इन कथनों का अभिप्राय यही है कि जिज्ञासु सदवस्तु के ज्ञान के लिए प्रेरित हो। सारे धर्म और दर्शन का मूल यह विचार है कि यह ब्रह्मांड केवल आभास है, न कि तत्व। हमारा यह समस्त जगत् आभास है। उपनिषदों की भाषा में कहें तो माया है। उपनिषदें बार-बार कहती हैं कि आत्मा की खोज करनी चाहिए। (बृहद. 2.4.5; छान्दोग्य 8.7.1) इसका अर्थ हुआ कि यह देह और यह जगत् जो अयाचित ही स्वयं को हमारे सामने प्रकाशित कर देते हैं, वे आत्मा - मूल सत् - नहीं हैं। बृहद. (2.4.5) के अनुसार सभी दुनियावी वस्तुओं और रिश्तों का मूल्य केवल आत्मा के कारण है, और यह वह आत्मा है जो वह सब कुछ बनी है जो हमारे समक्ष है, इदं सर्वं यद् अयम् आत्मा। जिस प्रकार जब एक व्यक्ति के वाद्ययंत्र पर हाथ रखते ही स्वर प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार जो मनुष्य आत्मा को जान लेता है वह जानने योग्य सब कुछ जान लेता है। छान्दोग्य (6.1.2) लिखता है, “जिस तरह मिट्टी के एक टुकड़े से मिट्टी के समस्त गुणों का ज्ञान हो जाता है क्योंकि मिट्टी में होने वाले समस्त परिवर्तनों से केवल नाम-रूप का ही परिवर्तन होता है, वास्तव में केवल सब मिट्टी ही है।” इसी प्रकार चारों ओर एक आत्मा ही है, बाकी सब तो उसके भिन्न-भिन्न रूप व नाम हैं।
‘इस सिद्धांत से ही धर्म की बुनियाद रखी जाती है। क्योंकि यदि हम मानेंगे कि यह आनुभविक जगत् ही सत्य है तो सर्वप्रथम परमात्मा का अस्तित्व असंभव हो जायेगा। तब हमारे चारों ओर असीम आकाश होगा जिसमें पदार्थ के अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं होगा। तब अमरता भी असंभव हो जायेगी क्योंकि काल में हमारा जन्म व मृत्यु दोनों घटनाएं सत्य व निरपेक्ष होंगी। तब संकल्प की स्वतंत्रता भी असंभव हो जायेगी क्योंकि कारणता के नियम के अनुसार प्रत्येक परिणाम - और तदुपरांत प्रत्येक मानवीय कार्य - किसी कारण से संभव होंगे। तब कुछ भी हमारे नियंत्रण में नहीं होगा। लेकिन यदि हम कहें कि यह आनुभविक जगत्, जो काल व दिक् में विस्तीर्ण व कारणता के नियम से बंधा है, सत्य नहीं मिथ्या है, माया है। सत्य तो कुछ और है जो देश, काल व कारणता के नियम से स्वतंत्र है तब धर्म व श्रद्धा की गुंजायश हो जाती है।’ (The Philosophy of the Upanishads, Paul Deussen पृ 45 व 46)
अतः गुरबाणी में आईं इन उक्तियों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। माया का सारा अस्तित्व प्रभू से ही है। जब जीव प्रभू की भक्ति करता है तो वह माया में रहते हुए ही उससे निर्लेप रहकर पवित्र जीवन वाला बन जाता है :
माइआ का रूपु सभु तिस ते होइ ॥ जिस नो मेले सु निरमलु होइ ॥(3-797)
जितनी देर यह मनुष्य माया का मुहताज रहता है इसे तृप्ति नहीं आती। जब यह माया से मूंह मोड़ता है तब माया इसकी दासी बन जाती है :
जब इहु धावै माइआ अरथी ॥ नह त्रिपतावै नह तिस लाथी ॥
जब इस ते इहु होइउ जउला ॥ पीछै लागि चली उठि कउला ॥(5-235)
इसका कारण यही है कि न तो त्रैगुणमयी जगत् ब्रह्म के अंदर निवास करता है न ही ब्रह्म त्रैगुणी जगत् के अंदर निवास करता है। दोनों भिन्न-भिन्न हैं। ऐसे में यदि हम अपने जीवन के अर्थों की तलाश माया के इस जगत् में करते हैं तो दोष माया का नहीं, हमारा है। ये अर्थ हमें वहां मिलेंगे जिसके अंदर हम निवास कर रहे हैं, जो हमें आधार प्रदान कर रहा है। जब उसकी उपलब्धि होगी तो माया का मोह व उससे उत्पन्न शोक की संभावना ही नहीं रहती। श्री अरविंद लिखते है, "जीव भूतमात्र के पीछे स्थित अज्ञेय का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर सम्भूति में अब और आसक्त नहीं रहता और विश्व के किसी विशेष व्यक्ति या पदार्थ को पूर्ववत् ऐसा ऐकान्तिक मूल्य या महत्त्व नहीं प्रदान करता मानों वह अपने आप में कोई विषय हो एवं अपने आप में कामनीय हो। सब कुछ आत्मा की अभिव्यक्ति के रूप में और अपने अंदर अभिव्यक्त 'आत्मा' के निमित्त ही उपभोग्य है और मूल्य एवं महत्त्व रखता है, परन्तु कोई भी वस्तु अपने आपके निमित्त उपभोग्य और मूल्यवान नहीं। कामना और भ्रम दूर हो जाते हैं; भ्रम का स्थान ले लेता है ज्ञान, कामना का स्थान वैश्व प्रभूत्व का सक्रिय आनंद।''(ईशोपनिषद, पृ -56)
(शेष आगे)
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Beautiful words and explanation.
Quoting "If we are in untruth, then we will see the world as untruth. But if we are in truth, then we will see the world as it really is, the essence of a truth."
It is lengthy but the quality of this text is beyond my imagination. I feel anyone can read this and feel such.
Keep it up. Very knowledgeable and informative.