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The Ego and the Divine Consciousness. Kartapurush ep53

Updated: Aug 17, 2023

Ego is a necessary part of the soul's journey from matter to mind and ultimately to God. Without the ego, there would be no consciousness, no progress, and no miracle of creation. Learn how it can lead to greater understanding and enlightenment.
  • The ego is the instrument by which the Conscious Energy of the Supreme Lord manifests itself in new and advanced world forms.

  • Through the development of the ego, the Divine Consciousness itself is being revealed more and more.

  • If there was no ego, there would never have been the origin and development of consciousness in inert bodies.

  • The story of the journey of the soul from matter to mind is similar to the story of the origin and development of the ego in the body.

  • There is no possibility of any randomness, disorder or disturbance anywhere in this whole journey. All this is the cosmic design of the Lord, at the center of which is the manifestation of the ego in matter.

  • The stone does not have the consciousness of 'I am', therefore it is not conscious either. As the ego emerges in matter, the soul progresses.

  • This whole miracle of the Lord's power in the inert bodies, as a result of which the supreme manifestation of the creation, man, is born, is possible because of the ego.

  • All the suffering, all the pain that comes from the ego is precious.


The text wants to tell its readers that

  • Ego is not something to be feared or rejected. It is a necessary part of the soul's journey to God. The ego is the instrument by which the soul develops consciousness and progresses on its journey.

  • The suffering and pain that comes from the ego is simply part of the process, and it is ultimately precious because it leads to greater understanding and enlightenment.

  • Ego can be a bridge to the Divine Consciousness, or it can be a barrier. It is up to the individual to choose how they will use their ego.

If we can use our ego to develop our consciousness and to connect with the Divine Consciousness, then we can experience true freedom, love, and peace. The ego can be a precious gift, if we know how to use it.

 

Read the previous article▶️Kartapurush ep52

 

गुरू अर्जुन देव जी लिखते हैं कि जीव द्वैत की इस अवस्था में इसलिए आया था ताकि परमात्मा से अद्वैत की अनुभूति को प्राप्त कर सके : या जुग महि एकहि कउ आइआ ॥(5-251) लेकिन इसका दुर्भाग्य है कि जन्म लेते ही यह मोहिनी माया के मोह से ग्रस्त हो जाता है : जनमत मोहिओ मोहनी माइआ ॥(5-251) यह माया जड़ व त्रैगुणात्मक है और यह प्रभू की चेतन शक्ति/दिव्य माया से उत्पन्न होती है। यह प्रभू की परछाई है : रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥(1-1038) ध्यान रहे कि जड़ माया को प्रभू की चेतन शक्ति की परछाई कहना या प्रभू की परछाई कहना एक ही बात है क्योंकि प्रभू की चेतन शक्ति प्रभू से उसी प्रकार सम्बद्ध है जैसे मेरा शरीर मुझसे सम्बद्ध है। जिस प्रकार एक व्यक्ति की परछाई व्यक्ति से उत्पन्न व उसके अधीन होते हुए भी उसके विपरीत स्वभाव वाली होती है, वैसे ही माया प्रभूशक्ति की परछाई है, उसके अधीन है किंतु प्रभूशक्ति से भिन्न गुण, कर्म व स्वभाव वाली है। माया को प्रभू की परछाई कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार प्रभू के गुण अनंत हैं किंतु उन्हें तीन वर्गों - सत्‌, चित्‌ व आनंद - में वर्गीकृत किया जा सकता है, उसी प्रकार माया के गुण अनंत हैं किंतु उन्हें भी तीन वर्गों - तमस, रजस व सत्व - में वर्गीकृत किया जा सकता है। माया के तीन गुण प्रभू के तीन गुणों का ही विकार हैं। प्रभू में निहित सत्‌, चित्‌ व आनंद से ही माया के तमस्, रजस् व सत्व तीनों गुण उत्पन्न होते हैं। फिर जिस तरह सत, चित्‌ व आनंद प्रभू के गुण नहीं, बल्कि उसका स्वरूप हैं, ठीक उसी तरह ये तीन गुण भी माया का स्वरूप, उसका ताना-बाना हैं। जिस तरह व्यक्ति की परछाई व्यक्ति के अधीन है उसी तरह माया प्रभू की चेरी या दास है : माइआ बंदी खसम की तिस आगै कमावै कार ॥(3-90) व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो, परछाई सदा अंधकारमय ही होती है, ठीक उसी तरह माया प्रभू से विपरीत स्वभाव वाली है। प्रभू चारों ओर है किंतु गुप्त है। माया भी चहुं ओर है किंतु प्रकट है। माता, पिता, पुत्र, स्त्री, संपत्ति, नाते-रिश्तेदार, सज्जन-मित्र आदि सब माया हैं। भक्त कबीर जी ने लिखा है : जो दीसै सो माइआ। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है : गो गोचर जहं लगि मन जाई ॥ सो सब माया समुझह भाई ॥ सारी रचना माया रूप है। जो दृश्य आंख से देखते हैं, जो आवाज़ कान से सुनते हैं, नाक से जो गंध सूंघते हैं, त्वचा से जो स्पर्श करते हैं, जीभ से जो रस चखते हैं, यहां तक कि स्वयं ये ज्ञानेन्द्रियां भी, माया हैं। ये सब मिथ्या, कूड़ि, हैं : कूड़ि कूड़ै नेहु लगा विसरिआ करतारु ॥(1-468) 'कूड़ै' का अर्थ है 'मिथ्यात्व से'। 'कूड़ि' का अर्थ है 'मिथ्यात्व के द्वारा'। जीवात्मा जगत्‌ से संपर्क करती है। जगत् त्रिगुणात्मक माया है और संपर्क के साधन भी त्रिगुणात्मक माया हैं। समस्त जीवन व्यापार का सार यह है कि गुणों में गुण खेल रहे हैं, गुणा गुणेषु वर्तन्ते । फिर प्रभू अंदर है, माया बाहर है। माया आवरण की शक्ति है, सच को ढकती है : एह माइआ जितु हरि विसरै .........॥(3-961) प्रभू अमृत रूप है, माया विष रूप है। प्रभू बंधनों से छुड़ाने वाला है, माया बंधन रूप है। त्रैगुण में गुण का अर्थ रस्सी ही है। त्रैगुण अर्थात्‌ तीन रस्सियां। माया तीन रस्सियों से बनी एक रस्सी है। पिंड में मन, प्राण व जड़ शरीर और ब्रह्मांड में पहले तीनों खंड माया के क्रमशः व्यष्टिगत व वैश्विक रूप हैं :

तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥(3-603)

एहु सरीरु है त्रै गुण धातु ॥(1-1343)

इंद्री दसै दसै फुनि धावत त्रै गुणीआ खिनु न टिकावैगो ॥(4-1310)


प्रभू स्थिर है, माया चंचल है। माया को 'धात' कहा गया है। यह 'धावत' का पंजाबी रूप है और इसका अर्थ है दौड़ना, चलायमान या सक्रिय होना। हमारी शारीरिक गतिविधि, श्वास का आना-जाना, खून का दौरा, हृदय आदि का काम करना, मानसिक विचारणा इत्यादि सारी सक्रियता मायिक है। माया के रसों से प्रेम करने वाले जीव चंचलता का अनुभव करते हैं, प्रभू के भक्त प्रभू की तरह ही स्थिर हो जाते हैं : पवन झुलारे माइआ देइ ॥ हरि के भगत सदा थिरू सेइ ॥(5-801) प्रभू आनंद रूप है, माया दुख रूप है; प्रभू चेतन है, माया जड़ है। संक्षेप में कहें तो प्रभू सत्यम्‌, ज्ञानम्‌, अनंतम्‌ है जबकि माया मिथ्या, जड़ व सीमित है।


लेकिन जड़ होने के कारण माया जीव का अपने आप कुछ नहीं बिगाड़ सकती। यह हउमै अथवा अनादि अज्ञानता है जिसके कारण जीव माया के फंदे में फंसते हैं। बाणी में हउमै को रोग, दीर्घ रोग, वडा रोग, कंडा, गुबार आदि कहा गया है। हउमै को रोग कहकर इसके साथ जो 'दीर्घ' विशेषण जोड़ा गया है, उसमें 'दीर्घ' पद के अर्थ लम्बा, पुराना, स्थायी (chronic) आदि किए गए हैं। हमारे विचार में 'दीर्घ रोग' पदों में ‘दीर्घ’ का अर्थ ‘बड़ा’ है जैसे 'दीर्घकाय' में ‘दीर्घ’ का अर्थ होता है - बड़ा। हिंदी शब्द 'बड़ा' व पंजाबी शब्द 'वडा' समानार्थी हैं। घर में परिवार के वरिष्ठतम सदस्य को पंजाबी में 'वडा' अर्थात्‌ 'बड़ा-बुजुर्ग' (elder) कहा जाता है। आश्य यह होता है कि वह परिवार का मूल है। इसी तरह हउमै को ‘दीर्घ’ या ‘वडा’ रोग कहने का तात्पर्य है कि वह सभी रोगों का मूल है। पुनः हउमै को कंडा कहा गया है। जिस तरह पैर में कंडा चुभ जाये तो दर्द अवश्य होगा, भले ही कोई मखमली जूता ही पहन ले। ऐसे ही हउमै रूपी कंडा यदि अंतर्मन में चुभा हुआ है तो जगत्‌ के सभी प्रकार के सुखों में भी जीव दुखी रहेगा। फिर हउमै को गुबार कहने का तात्पर्य यह है कि हउमैग्रस्त जीव एक प्रकार के दृष्टिदोष से ग्रस्त होता है जिससे वह तत्त्व को नहीं देखता। अतः जीव के दुख का कारण हउमै ही है।


हउमै का अर्थ है - मैं, मेरी। जब हम कहते हैं 'मैं', तो हमारा संकेत अपने अस्तित्व की उस चेतना से होता है जिसकी ओर संकेत हमारी वाणी व देह कर रही होती है। इस 'मैं' को हम कभी भी सुनते, देखते व जानते नहीं। यह 'मैं' हमारे लिए अदृश्य, अश्रव्य व अज्ञेय है। वाणी व देह उस 'मैं' को दृश्य, श्रव्य, ज्ञेय बनाते हैं। हमारी 'मैं' के लिए देह का उतना ही महत्व है जितना कि हमारी देह के लिए वस्त्रों का। लेकिन व्यावहारिक जीवन में हम यह संतुलन कभी नहीं रखते। जिस तरह देह को मलीन रख कर वस्त्रों को अधिक महत्त्व देने वाला व्यक्ति हमारी दृष्टि में मूर्ख है, उसी तरह हमारे सच्चे अहं, आत्मा की तुलना में देह को अधिक महत्त्व देने वाले व्यक्ति संतों की नज़र में मूढ़ हैं, मोहग्रस्त हैं। हउमै वह विभाजनकारी चेतना है जो अपने साथ समस्त द्वंद्वों की श्रृंखला जैसे जीवन-मरण, शुभ-अशुभ, हर्ष-विषाद, पूर्णता-अभाव लाती है। मृत्यु, दुख-सुख, अशुभ आदि इस हउमैग्रस्त चेतना की रचनाएं हैं। इसके कारण ही आध्यात्मिक चेतना से भौतिक चेतना की ओर पत्न होता है। यही हमारा भौतिक चेतना के अंदर अवतरण है। दूसरी ओर शब्द जो समस्त विश्व में निष्पक्ष भाव से फैला हुआ है उसके लिए ये मृत्यु, कष्ट, अशुभ आदि की अवस्थाएं उसकी ज्योतिर्मय अवस्था की छायारूप है क्योंकि ये उसके निजस्वरूप की उलटी अवस्थाएं हैं। जब तक हम भौतिक चेतना में हैं, हमें सदा भौतिक अवस्थाओं की परस्पर विरोधिता का समाधान खोजने रहना होगा, उनमें मेल बिठाते रहना होगा लेकिन शब्द को किसी तरह का मेल बिठाने की जरूरत नहीं क्योंकि वहां ये सभी भाव रूपांतरित हो जाते हैं। अतः जगत्‌ में जो भ्रांति, दुःख, पीड़ा, अशुभ, मृत्यु आदि नकारात्मक भाव दिखते हैं, हउमै के कारण हैं। हउमै ही प्रतिक्रियाओं के उन सभी रूपों का निर्धारण करता है। हम जानते हैं कि हउमै स्वरूपविस्मृति है, जीवात्मा को पता नहीं रहता कि उसका स्वरूप शब्द/परमेश्वरी शक्ति है, यदि हउमै न हो तो जीवात्मा के समक्ष सत्‌ की दो अवस्थाएं होंगी - एक शब्द और दूसरी त्रैगुणात्मक माया; एक प्रभू और दूसरी प्रभू की छाया; एक चेतन सत्ता और दूसरा जड़ यंत्र; एक, जो सदा एक समान रहता है, दूसरा, जो पहले से उत्पन्न व उसके नियंत्रण में है किंतु कभी भी एक समान नहीं रहता। ज्ञान की उस अवस्था में जीवात्मा के चयन में भ्रांति व उसके कारण शुभ-अशुभ या जन्म-मरण के द्वैत की गुंजायश नहीं होगी। लेकिन यदि उसमें हउमै होगी तब उसके सामने एकमात्र माया का सत्य होगा। अरूप व चेतन सत्ता, जो एकमात्र स्वयंभू सद्वस्तु है, के दृष्टि से ओझल हो जाने पर रूप व जड़, जो माया है, एकमात्र सत्‌ होने का दावा करेंगे जबकि वास्तव में ये निराकार प्रभू का आवरण ही है। तब माया की उपस्थिति दुर्निवार होगी और जीवात्मा के लिए इसके परिणाम विनाशकारी होंगे। प्रभू अछल है, प्रभू के भक्त भी उसी के समान माया के प्रलोभनों के समक्ष अछल रहते हैं किंतु हउमैग्रस्त जीवों के लिए यह माया वैसे ही अटल व अपरिहार्य रूप से भयावह होती है जैसे घास के सूखे ढेर के लिए अग्नि, सूर्य को ढक लेने वाले बादलों की छाया, या दरिया में बाढ़ का उफान :

माई माइआ छलु ॥

त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिंद भजन बिनु हड़ का जलु ॥(5-717)


साफ है कि व्यक्ति में चेतना की दो अवस्थाएं संभव हैं, एक ज्ञान की अवस्था है, दूसरी अज्ञान की है। ज्ञान की दृष्टि यह है कि मेरी चेतना व आकार दोनों का आधारभूत सत्य शब्द है, अज्ञान की दृष्टि यह है कि मेरा अस्तित्व, मेरा बल मेरे कारण है। ज्ञान की दृष्टि जीवात्मा को शुद्ध, शान्त व स्थिर सच्चिदानंद की अवस्था में रखती है, जबकि अज्ञान की दृष्टि उसे मृत्यु और सीमाबन्धन के साम्राज्य की असहाय, विक्षुब्ध व मलिन प्रजा बना देता है। ज्ञान की अवस्था में जीवात्मा के संकल्प शुद्ध व कर्म अहंशून्य होते हैं, अज्ञान की अवस्था में उसके संकल्प ठीक और गलत, पाप और पुण्य के द्वन्द्वों में झूलते रहते हैं व उसमें कर्मों के कर्ता होने का भाव बना रहता है :

माइआ जेवडु दुखु नहीं सभि भवि थके संसारु ॥

गुरमती सुखु पाईऐ सचु नामु उर धारि ॥(3-39)

माइआ मोहु जगतु सबाइआ ॥ त्रैगुण दीसहि मोहे माइआ ॥(3-129)


लेकिन हउमै की यह समझ भी एकांगी व अधूरी है और वस्तुस्थिति की अतिरंजना ही है। बाणी के अनुसार हउमै रोग ही नहीं औषधि भी है : हउमै दीरघ रोगु है दारू भी इसु माहि ॥(1-466) हउमै की संतुलित व्याख्या के लिये गुरू नानक देव जी द्वारा लिखे गये निम्नलिखित श्लोक का अध्ययन उचित होगा। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :

सलोक मः १ ॥

हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ ॥

हउ विचि जमिआ हउ विचि मुआ ॥

हउ विचि दिता हउ विचि लइआ ॥

हउ विचि खटिआ हउ विचि गइआ ॥

हउ विचि सचिआरु कूड़िआरु ॥

हउ विचि पाप पुंन वीचारु ॥

हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु ॥

हउ विचि हसै हउ विचि रोवै ॥

हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै ॥

हउ विचि जाती जिनसी खोवै ॥

हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा ॥

मोख मुकति की सार न जाणा ॥

हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ ॥

हउमै करि करि जंत उपाइआ ॥

हउमै बूझै ता दरु सूझै ॥ गिआन विहूणा कथि कथि लूझै ॥

नानक हुकमी लिखीऐ लेखु ॥ जेहा वेखहि तेहा वेखु ॥(1-466)


अर्थ: (जब तक जीव) हउमै में (है, भाव, अज्ञानता और मोह के रोग से ग्रस्त है तब तक वह) जगत में आता है (और) जगत से चला जाता है, पैदा होता है (और) मरता है। (अर्थात अज्ञानता और मोह ही जीव के भवरोग का कारण है।) इसी अज्ञानता और मोह के दुहरे रोग से ग्रस्त हुआ (जीव कभी किसी जरूरतमंद को) देता है, (कभी अपनी जरूरत पूरी करने के लिए किसी से) लेता है। (जो यह दूसरों को देता है वह उसे वापस लेना पड़ेगा, जो वह दूसरों से लेता है वह भी उसे वापस देना पड़ेगा। अर्थात जीव को जैसी भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ मिली हैं वे सभी हउमै के रोग के कारण उत्पन्न कर्ताभाव के कारण हैं।) इसी अज्ञानता और मोह में (यह कभी तो धन, प्रतिष्ठा आदि को) कमाता है (और गर्वित होता है) और कभी गंवाता है (और आत्मनिंदा और ग्लानि से भर जाता है।) जब तक जीव अज्ञानता और मोह वाले इस सीमाबंधन में है, वह कभी सच्चा है कभी झूठा है (क्योंकि माया का सत्य सापेक्ष सत्य है।) जब तक जीव अज्ञानता और मोह में है, तब तक अपने किए पापों और पुण्यों की गिनती रहता है (भाव, ये सोचता है कि ‘मैंने’ ये भले काम किए हैं, ‘मैंने’ ये बुरे काम किए हैं) और इसी दुविधा में रहने के कारण (भाव, ईश्वर में अपना आप एक-रूप ना करने के कारण) कभी नर्क में जाता है कभी स्वर्ग में। जब तक अपने प्रभू से अलग अस्तित्व में जीव बंधा पड़ा है, तब तक कभी हँसता है कभी रोता है (भाव, अपने आप को कभी सुखी समझता है कभी दुखी)। परमात्मा से अपनी हस्ती अलग रखने के कारण उसका मन पापों की मैल में लिबड़ जाता है, और वह (अपनी सीमित बुद्धि के आसरे) उस मैल को धोता है। (हालांकि उसका यह उद्यम ऐसा ही है जैसे कोई मैले जल से हाथों को धोने का प्रयास करे।) हउमै में ग्रसा हुआ जीव कभी जाति-पाति के ख्याल में पड़ के (भाव, ये ख्याल करके कि मैं उच्च जाति का हूँ) अपना आप गंवा लेता है। जब तक जीव अपने अलग अस्तित्व की चार दिवारी के अंदर है, ये (लोगों की नजर में) कभी मूर्ख (गिना जाता) है कभी बुद्धिमान (पर, चाहे ये मूर्ख समझा जाए चाहे समझदार, जब तक इस सीमा में बंधा हुआ है, इस हदबंदी से बाहर होने की, भाव) मोक्ष-मुक्ति की समझ इसे नहीं आ सकती। माया अर्थात परमात्मा की चेतन शक्ति हउमै में है और छाया अर्थात परमात्मा की जड़ शक्ति भी हउमै में है। (माया अर्थात परमात्मा की चेतन शक्ति और छाया अर्थात परमात्मा की जड़ शक्ति दोनों में हउमै उपस्थित है। जीव की अज्ञानता और मोह का नाश केवल परमात्मा की सत्ता में लीन होने से होता है।) जब (परमात्मा की सत्ता में लीन होने पर) जीव अपने ‘अहं’ और ‘मम’ को जान लेता है (अर्थात जब उसे ज्ञान होता है कि ‘मैं आत्मा हूँ’ और ‘मेरा सिर्फ परमात्मा है’) तब इसे परमात्मा के घर का द्वार मिल जाता है, (नहीं तो) जब तक इस ज्ञान से वंचित है, तब तक (ज़बानी) ज्ञान की बातें कह-कह के (अपने आपको ज्ञानवान समझ के अपना अंतःकरण) नहीं बदलता। हे नानक! परमात्मा के हुक्म से ही प्रारब्ध लिखा जाता है (अर्थात हउमै का रोग परमात्मा के हुक्म से लगा है, हउमै के अधीन होकर जीव कर्म करते हैं, फिर वे कर्म हुक्म के अनुसार प्रारब्ध बन जाते हैं, सो जीव के भविष्य का निर्माण करने वाला परमात्मा का हुक्म जीव की हउमै अर्थात ‘मैं-मेरी’ के अनुसार होता है) जीव जैसे देखते हैं, वैसा ही उनका स्वरूप बन जाता है (भाव, जिस दृष्टिकोण से जीव अपने आप को देखता है वैसा ही उसका जगत् बन जाता है। हममें ‘मैं’ की चेतना जैसी होती है, ‘मेरे जगत्’ का स्वरूप वैसा ही हो जाता है)।’


उपर्युक्त उद्धरण की अंतिम दो पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं। गुरू जी के कथन का आशय है कि यदि जीव अपने अहम् और मम को बूझ ले अर्थात यह जान ले कि ‘मैं कौन हूँ?’ और ‘मेरा कौन है?’ तो उसे परमात्मा के घर का द्वार प्राप्त हो जाता है। पर यदि जीव में यह ज्ञान नहीं तो वह ‘मैं हिन्दू, खत्री, जट्ट आदि हूँ’ और ‘मेरा धर्म, जाति, देश आदि फलां है’ जैसी कोरी बातें करके झगड़े, वाद-विवाद करता रहता है। अब जीव ज्ञान से खाली रहेगा या फिर ज्ञान-सम्पन्न होकर परमात्मा के दर्शन करेगा, यह लेख परमात्मा के हुक्म से लिखे जाते हैं। जैसा वह लेख लिखता है, वैसी ही स्वयं के प्रति अज्ञानतापूर्ण अथवा ज्ञान-सम्पन्न दृष्टि उसकी होती है। और जैसा उसका बोध अहं - ‘मैं कौन हूँ’ - का होता है वैसा ही उसका बोध मम - ‘यह मेरा है’ - का होता है।


हमने देखा कि प्रत्येक पिंड मे अस्तित्व के पांच स्तर हैं - जड़, प्राण, मन, बुद्धि व आत्मा। आत्मा मूल तत्त्व है जिसके इर्द-गिर्द शेष चारों केले की पर्तों के समान एक के ऊपर एक लिपटे हुए हैं। केवल आत्मा ही चेतन सत्ता है, शेष चारों जड़ हैं; आत्मा दृष्टा है, शेष चारों दृश्य है। ये चारों आत्मा की अभिव्यक्तियां हैं। हमने देखा कि पिंड में जीवन का रूप इस तथ्य पर निर्भर करता है कि आत्मा अपनी किस अभिव्यक्ति के प्रति अभिज्ञ है। यदि आत्मा जड़ के प्रति सचेत है तो पिंड का रूप भी जड़ होगा; यदि आत्मा की अभिज्ञता प्राण के प्रति होगी तो पिंड का स्वरूप परिवर्तित हो जाएगा, वह कृमि, सरीसृप, पक्षी या पशु आदि होगा; यदि आत्मा मन के प्रति प्रबुद्ध होगी तो पिंड का स्वरूप मनुष्य का होगा; यदि आत्मा की चेतना विज्ञानमय होगी तो उसके कृत्य श्रेष्ठ महापुरुषों वाले होंगे; जब वह अपने स्वरूप को जान लेगा तो उस पिंड से आध्यात्मिक आभा, आलोक व अनुपम सौंदर्य प्रस्फुटित होगा। इसका अर्थ निकला कि जगत्‌ की उत्पत्ति की सारी प्रक्रिया इस तथ्य के इर्द-गिर्द घूमती है कि आत्मा अपने आपको किस रूप में देख रही है, जेहा वेखहि तेहा वेखु । अपने आपको दृष्टा आत्मा के रूप में जानना ही सच्चा ज्ञान है जबकि दृश्य जगत्‌ से एकाकार होना अज्ञान या हउमै है। अतः जगत्‌ की उत्पत्ति का केंद्रीय सिद्धांत हउमै है। सिद्धों ने गुरू नानक से पूछा कि जगत्‌ की उत्पत्ति कैसे होती है : कितु कितु बिधि जगु उपजै पुरखा ......॥(1-946) तो गुरू जी ने उत्तर दिया : हउमै विचि जगु उपजै पुरखा .........॥(1-946) हउमै अर्थात्‌ अहम्‌ + मम्‌, मैं + मेरा। जिस प्रकार के स्वरूप का बोध आत्मा को होगा, जिस प्रकार की उसकी 'मैं' होगी, वैसा ही उसका जगत्‌ होगा। यदि आत्मा में 'मैं हूं' का भाव नहीं है तो इसका अर्थ है कि उसमें चेतना प्रसुप्त है, तब पिंड का स्वरूप पत्थर या धातु आदि का होगा। यदि आत्मा की 'मैं' का अंतर्विषय (content) देह होगा तो उसका सरोकार भी उदरपूर्ति तक ही सीमित रहेगा, ऐसे जीव को पशु ही कहा जाएगा। अतः यह कथन समीचीन है कि यह शरीर, प्राण, मन इत्यादि सब कुछ हउमै से ही बनता है, जगत्‌ की उत्पत्ति हउमै से होती है : हउमै सभु सरीरु है हउमै ओपति होइ ॥(3-560) हउमै वह साधन है जिसके माध्यम से जीवात्मा पाषाण रूप से उदात्त परिस्थिति की ओर अग्रसर होती है। अहं के विकास द्वारा चैतन्य प्रभूसत्ता ही उत्तरोत्तर प्रकाशित हो रही है। विश्व के अस्तित्व का मूल उपादान कारण शब्द है। अहं उसका उपकरण है जिससे वह नवीन व उन्नत विश्वरूपों में अभिव्यक्त होता है। ''सीमित अहं चेतना का एक मध्यवर्ती प्रपंचमात्र है जो विकास की किसी विशेष धारा के लिए जरूरी है। इस धारा का अनुसरण करते हुए व्यष्टि वहां तक पहुंच सकता है जो स्वयं उसके परे है, और जिसका वह प्रतिरूप है।''(दिव्य जीवन, पृ -59) हउमै एक भूल है, स्वप्न है किंतु इस स्वप्न की सृष्टि प्रभू के अपने संकल्प से हुई है :

जिनि रचि रचिआ पुरखि बिधातै नाले हउमै पाई ॥

जनम मरणु उस ही कउ है रे ओहा आवै जाई ॥(5-999)

हउमै रोग मानुख कउ दीना ॥(5-1140)


हउमै नहीं होती तो जड़ पिंडों में चेतना की उत्पत्ति व विकास कभी नहीं होता। जीव की जड़ से मन तक की यात्रा की गाथा पिंड में हउमै की उत्पत्ति व विकास की ही गाथा है। इस सारी यात्रा में कहीं कोई यादृच्छिकता (randomness), अव्यवस्था या गड़बड़ी की सम्भावना नहीं है। यह सब प्रभू का ब्रह्मांडीय अभिकल्प (cosmic design) है जिसके केंद्र में जड़तत्त्व में अहं का प्रस्फुटन है। पत्थर में 'मैं हूं' की चेतना (awareness) नहीं अतः वह चेतन (conscious) भी नहीं। ज्यों ज्यों जड़तत्त्व में अहं का प्रस्फुटन होता है, आत्मा की उन्नति होती जाती है। प्राणिजगत्‌ में यह अहं अज्ञानतापूर्ण, असंतुष्ट व अशांत कामना को जन्म देता है। यह कामना जड़तत्त्व के घोर तमस में रजोगुण के शनैः शनैः विस्तार से संभव होती है। प्राणिजगत्‌ मे मनुष्य ही एक ऐसा पशु है जिसमें रजोगुण प्रचंड होता है व सत्व गुण के बीज दृष्टिगोचर होते हैं। अतः जड़ पिंडों में प्रभूशक्ति का यह सारा चमत्कार जिसके परिणामस्वरूप सृष्टि की सिरमौर सत्ता मनुष्य की उत्पत्ति होती है, हउमै के कारण संभव होता है। हउमै से पैदा होने वाले सारे दुख, सारी पीड़ा कीमती है। यह स्त्री की प्रसवपीड़ा के समान है। यही वह प्रसव है जिसे 'माई', 'माँ', जगज्जननी ने धारण किया है और जिसका बीज दिया है उस ‘एक’ प्रभू ने दिया है : एका माई जुगति विआई...॥(1-7) समस्त जीवन एक है और जीवन एक यात्रा है जिसका लक्ष्य है - आत्मज्ञान, अपने सच्चे स्वरूप, अपनी सच्ची 'मैं' का ज्ञान। जब हम अपनी देह, प्राण व मन का अतिक्रमण करेंगे तब हम अपनी सच्ची 'मैं' को पा लेंगे और हमें पता चल जाएगा कि यह सारा खेल प्रभू का ही है : हउमै बूझै ता दरु सूझै ॥(1-466) इस प्रकार हउमै ते जगु उपजै पुरखा पंक्ति से वेदांत के इस विचार का समर्थन होता है कि अहं विश्व के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। यद्यपि इससे इस विचार का समर्थन नहीं होता कि अहं के अज्ञान से छूटकर विश्व की गतिविधि में हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। विश्व के अस्तित्व का मूल कारण शब्द है। शब्द दिव्य गति है जिससे जगत्‌ की त्रिविध गति - भौतिक, प्राणिक, व मानसिक - उत्पन्न होती व बनी रहती है।


(शेष आगे)

 

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Divyansh
Divyansh
Sep 22, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

A very knowledgeable piece of content

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Chaitanya Sabharwal
Chaitanya Sabharwal
Aug 18, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

Truly a content with loads of knowledge. Great explanation and logical.

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Guru Spakes
Guru Spakes
Aug 14, 2023
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All the credit goes to our author🙌 We're glad you enjoyed reading our article 😊✨

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RK25
RK25
Aug 13, 2023
Rated 5 out of 5 stars.

Original and inspiring.

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