Yagya is not just a ritual, but a way of life. It is a way of connecting with the divine and fulfilling our purpose in the universe. It is the creative activity of the universe.
Yagya is the Vedic name for the creation-karma of the universe and its purpose.
God created living beings along with Yagya in the beginning of creation.
God lit the divine fire of Yagya, and now we have to light the divine fire of this Yagya within ourselves.
God has made all the proper arrangements required for this Yajna.
The Word of the Lord is the guide and assistant priest, that is, the Guru. He is the companion in the beginning, middle and end of the Yagya.
The Word of the Lord is the Brahman which protects the living being who performs the Yagya despite the presence of many mistakes and errors.
If we are willing to put in the effort, Yagya can help us to flourish and fulfill all of our desires.
The text can help its readers in a number of ways. It can:
Enrich their understanding of Vedic thought. The text provides a clear and concise overview of the concept of Yagya, and it explains how Yagya is understood in Vedic thought. This can help readers to better understand the Vedic worldview and the role of Yagya in it.
Inspire them to explore Yagya further. The text provides a number of resources for readers who are interested in learning more about Yagya. This can help readers to take the next step in their own spiritual journey.
Give them hope and guidance. The text emphasizes the importance of Yagya in helping us to connect with the divine and fulfill our purpose in the world. This can give readers hope and guidance as they navigate the challenges of life.
If a reader is interested in learning more about the history and practice of Yagya, they could refer to the resources listed in the text.
If a reader is struggling to find their purpose in life, they could reflect on the text's message that Yagya can help us to connect with our true selves and fulfill our potential.
If a reader is feeling lost or alone, they could find comfort in the text's message that Yagya is not something that we have to do on our own.
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गुरू नानक देव जी एक स्थान पर मन को उद्बोधन करते हुए लिखते हैं :
सुणि मन मित्र पिआरिआ मिलु बेला है एह ॥
जब लगु जोबनि सासु है तब लगु इहु तनु देह ॥
बिनु गुण कामि न आवई ढहि ढेरी तनु खेह ॥(1-20)
'हे मेरे प्यारे मित्र मन! मेरी बात ध्यान से सुन। परमात्मा से मिलाप कर ले, मिलु । परमात्मा की भक्ति करके उससे मिलाप करने के लिए यह मनुष्य जन्म एकमात्र अवसर है। फिर यह अवसर ज्यादा लंबा चौड़ा नहीं है। इस देह को तभी तक प्राप्त समझो जब तक जवानी है, अच्छी सेहत है और श्वास चल रहे है। यह शरीर अनमोल बहुत है किंतु यदि इस शरीर की प्राप्ति के उपरान्त प्रभू के गुणों अर्थात् शब्द को अन्तर्मन में नहीं बसाया तो फिर यह शरीर किस काम का! यह तो अंत में मिट्टी का ढेर मात्र बन जाएगा। यह मनुष्य शरीर प्रभू का निवास स्थान है, इसकी शोभा तभी बढ़ेगी जब वह प्रभू इसमें निवास करे, इसमें प्रकट हो। जैसे हम शौक से घर बनाते हैं, लेकिन घर कितना भी सुंदर क्यों न हो, यदि उसमें हम निवास न करें तो वहां पशुओं का ही निवास होगा। उसमें कुत्ता, बिल्ली आदि हर प्रकार के पशु धड़ल्ले से घुस आएंगे, और शीघ्र ही वह घर खंडहर बन जायेगा। ऐसे ही यदि शरीर रूपी हरिमंदिर में हरि का निवास नहीं होगा तो यहां सभी प्रकार के मनोविकार बसेंगे और शीघ्र ही यह शरीर मिट्टी का ढेर मात्र बन जाएगा। जीव को प्राप्त यह मन अनमोल माणिक्य के समान है : मनु माणकु निरमोलु है ॥(1-22) इसी के कारण पिंड को मनुष्य की आकृति उपलब्ध होती है। अब रत्न कितना भी अनमोल क्यों न हो, उसकी शोभा तभी बढ़ती है जब वह जौहरी के हाथ में आये, तराशा व संवारा जाये और किसी पातशाह की पगड़ी में सुशोभित हो। अन्यथा मिट्टी में पड़ा वह रत्न मिट्टी मात्र है। इसी तरह मन रूपी रत्न अमूल्य वस्तु है। यदि मनुष्य देही में आने के उपरान्त जीव गुरू रूप जौहरी के पास जाये, सजे, संवरे तो अंततः यह मन प्रभू-पातशाह के दरबार में शोभा पाता है, अन्यथा मिट्टी से उत्पन्न यह रत्न मिट्टी में ही मिल जाता है।
इस तरह स्थूल रूप से मन की तीन स्थितियां हैं। मानव देह में मन एक रत्न के समान है। प्रभू-भक्ति में समर्पित होने पर मन और भी सुंदर हो जाता है, जबकि प्रभू-भक्ति से मुख मोड़ने और विकारों में लिप्त रहने से यह अंत में मिट्टी बन जाता है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :
तनु जलि बलि माटी भइआ मनु माइआ मोहि मनूरू ॥
अउगण फिरि लागू भए कूरि वजावै तूरु ॥
बिनु सबदै भरमाईऐ दुबिधा डोबे पूर ॥(1-19)
‘मृत्युपरांत तन तो सड़ गल कर मिट्टी हो जाता है, जबकि माया में मोहित मन मनूर हो जाता है। जहां तक जीव का प्रश्न है, मायाजाल में मोहित मन की संगत में किए गए अवगुण उस आत्मा के बैरी बन जाते हैं और कूड़ अर्थात् मिथ्यात्व प्रसन्न होता है कि जीव को कैसा धोखा दिया और गुमराह किया अर्थात् जीवात्मा अब जगत् की निस्सारता को अनुभव करके पछताती है।’ इन पंक्तियों में मनमुखी जीव की मृत्यु के उपरान्त उसके तन, मन व आत्मा की अवस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। शरीर चाहे गुरमुख का हो या मनमुख का, उसकी गति एक ही है, मिट्टी हो जाना, जलने पर भी और दबने पर भी, पर मन व आत्मा का भविष्य अलग अलग होता है। आप कहते हैं कि मनमुख जीव का मन मनूर हो जाता है। मनूर लोहे की अपकर्षी दशा है। भाई वीर सिंह लिखते हैं, "अच्छा भला लोहा जब पानी, हवा या किसी ओर अम्लीय द्रव्य के संपर्क में आता है तो मिट्टी हो जाता है, उसे मनूर कहा जाता है........ मनूर चाहे मिट्टी जैसा ही होता है पर उसमें लोहा मौजूद है, वह लोहे की मिट्टी है। लोहा उसमें है और वह फिर लोहा हो सकता है।''(संथया, पोथी पहली, पृ-285) इस मनूर को यदि अग्नि में डाला जाये तो वह फिर से लोहा बन सकता है पर गुरबाणी में उसका कंचन बन जाना भी आया है :
राम नामु रसु राम रसाइणु रसु पीआ गुरमति रसभा ॥
लोह मनूर कंचनु मिलि संगति हरि उर धारिउ गुरि हरिभा ॥(4-1337)
मारू ते सीतलु करे मनूरहु कंचनु होइ ॥
सो साचा सालाहीऐ तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥(3-994)
मनूरै ते कंचन भए भाई गुरू पारसु मेलि मिलाए ॥
आपु छोडि नाउ मनि वसिआ भाई जोति मिलाइ ॥(3-638)
गुरू साहिब के कथन का आश्य है कि जीव को मन रूपी लोहा दिया गया था जिसे साध कर अर्थात् परम पारस रूपी संतों की संगत करके उसे कंचन जैसा बनाना था ताकि जीवात्मा भवबंधन से मुक्त हो जाये, लेकिन इन्सान ने गलती की, यह माया में मोहित हो गया, कंचन तो क्या बनना था फिर से मिट्टी समान हो गया और आत्मा को निचली योनिओं में भटकना पड़ा।
इस तरह सभी योनियों में जीव को अपने कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है। कर्म वह धुरी है जिसके इर्दगिर्द जीवन का पहिया घूमता है। कर्म का मूल विचार है, विचार का स्रोत मन है, और मन माया के सत्वगुण से उत्पन्न होता है। यह सारी सृष्टि माया के तीन गुणों का ही संघात है। अतः सत्वगुण सर्वत्र है, कहीं कम तो कहीं अधिक । अतएव मन भी सर्वत्र है। जहां सत्वगुण न्यून मात्रा में होता है वहां मन भी अप्रौढ़ व अशक्त स्थिति में होता है, फलस्वरूप वहां ऐसा प्रतीत होगा कि जीव कर्म करने से पहले कोई विचार करते ही नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है। विचार वहां भी है यद्यपि वह अत्यंत धुंधला व मंद है। इस विचारमंदता के कारण ही निचली योनियाँ स्पष्ट रूप से चयन के अधिकार से वंचित प्रतीत होती हैं। दूसरी ओर मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसके बारे में ऐसा लगता है कि वह कर्म करते समय सावधानीपूर्वक चयन कर सकता है और इस क्षमता के बल पर मनुष्य अपने भविष्य की रूपरेखा निर्धारित कर सकता है। हालांकि यह स्वतंत्रता प्रतीति मात्र है।
जो भी हो, मनुष्य योनि में आने के लिए जीवात्मा ने एक लंबी यात्रा की है। गुरू अर्जुन देव जी लिखते हैं :
हउ आइआ दूरहू चलि के मै तकी तउ सरणाइ जीउ ॥
मैं आसा रखी चिति महि मेरा सभो दुखु गवाइ जीउ ॥(5-763)
'मैं (चौरासी लाख योनिओं वाले) लंबे रास्ते से चलके आया हूं। अब मैंने तेरा आसरा तका है। मुझे आशा है कि तुम मेरा सारा दुख दूर कर दोगे।' हमारी जीवन यात्रा की शुरूआत इस शरीर के जन्म से नहीं हुई और न ही इस शरीर की मृत्यु से यह यात्रा समाप्त होगी। इसकी शुरूआत हमारी सूक्ष्मतम कल्पना से भी प्राचीन काल में अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हुई और इसका प्रयोजन जीवन का दिव्यकरण है। हमें इस जगत् में दिव्य प्रबोधन के लिए भेजा गया है। हमारा निर्माण ही उदात्त् आध्यात्मिक मंडलों में उड़ान भरने के लिए किया गया है। यदि हम अपने अतीत की ओर देखें तो हम बलिपशु से अधिक नहीं, किंतु यदि हम अपने भविष्य की ओर नज़र दौड़ाएं तो हम एक विजेता हैं। आदिग्रंथ की बाणी हमारी यात्रा के अंतिम छोर को निजघर, महल, सचखंड आदि कहती है। अर्थात् हमारी यात्रा मिथ्यात्व के धाम से लेकर सत्य के धाम तक है। ऋग्वेद (4.58.67) के अनुसार इस यात्रा की शुरूआत ऐसी परिस्थितियों से हुई जहां अंधकार, जड़त्व व मृत्यु का साम्राज्य है और इसकी समाप्ति ऐसी परिस्थितियों में होती है जहां प्रकाश, ज्ञान व अमरता का राज्य है। इस तरह जीवात्मा की यात्रा एक ऐसे महासागर के आर-पार है जिसके एक छोर पर अंधकार व जड़त्व है तो दूसरे छोर पर प्रकाश व चैतन्यता है। इसी को भवसागर कहा गया है। लेकिन इस यात्रा में जीवात्मा न तो कभी अकेली थी और न कभी होगी। गुरू अर्जुन देव लिखते हैं :
एका सेज बिछी धन कंता ॥ धन सूती पिरू सद जागंता ॥(5-737)
'पिंड में जीव-स्त्री व प्रभू-पति एक साथ विराजमान हैं, जीव-स्त्री महिमाशाली प्रभू की उपस्थिति से अनभिज्ञ है, सदा अज्ञानता की नींद में सोयी रहती है जबकि प्रभू-पति सदा जागता है।' इसीलिए ऋग्वेद परमात्मा को मर्त्येषु अमृत अर्थात् मर्त्यशीलों में अमर्त्य कहता है। भवसागर भी वही है, भवसागर से पार कराने वाला भी वही है :
तुही दरीआ तुही करीआ तुझै ते निसतार ॥ (कबीर-338)
वैदिक चिंतन में सृष्टि के समस्त सर्जन-कर्म व इसके प्रयोजन को यज्ञ की संज्ञा दी गई है। भगवद्गीता (3.10) में कहा गया है कि ‘परमात्मा ने सृष्टि के आदि में यज्ञ सहित जीवों की रचना की और उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा फलो-फूलो, यह यज्ञ तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूरा करेगा।' सर्वप्रथम परमात्मा ने यज्ञ को सम्पन्न किया, उसने दिव्य-अग्नि को प्रज्ज्वलित किया। अब इसी यज्ञ को हमने अपने भीतर सम्पन्न करना है। सृष्टि रचना कैसे हुई? उत्तर है - यज्ञ से, नाम से। सृष्टि रचना क्यों हुई? उत्तर है - यज्ञ के लिए, नाम-भक्ति के लिए। पुनः परमात्मा ने इस यज्ञकर्म के लिए हमें अपने बल, चतुराई के भरोसे ही नहीं छोड़ा। इसके लिए अपेक्षित सभी उचित प्रबंध उसने किये हैं। वैदिक यज्ञ की कर्मकांडीय व्याख्या करने वाले विद्वानों के अनुसार यज्ञ को सम्पन्न करने के लिए चार प्रमुख पुरोहित होते थे। ये थे :
होतृ अर्थात् आह्वान करने वाला (Priest of the Call);
अध्वर्यु अर्थात् मार्गदर्शक व सहायक पुरोहित;
उदगातृ, जो प्रस्तावना रूप व आशीषसूचक ऋचाओं का गान करता था और साथ ही एक संगतकार के रूप में ऋचाएं गाता था; और
(4) ब्रह्म, जो यज्ञकर्म का अध्यक्ष था और अतिरिक्त मन्त्रों के उच्चारण द्वारा यज्ञ को त्रुटियों से दोषमुक्त करता था।
लेकिन यह तो बाहरी यज्ञ की बात है। जहां तक वैश्विक यज्ञकर्म का प्रश्न है, उसमें ये चारों कर्तव्य प्रभू स्वयं ही कर रहा है। ऋग्वेद में आता है : त्वाग्रे होत्रं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः । तव प्रशास्त्रं त्वमध्वरीयसि ब्रह्म चासि गृहपतिश्च नो दमे ॥(2.1.2) प्रभू का शब्द ही होतृ है, उसी के आह्वान से पिंड में मन, प्राण, बुद्धि इत्यादि देव शक्तियां अपना निवास बनाती हैं ताकि यज्ञ सम्पन्न हो सके; प्रभू का शब्द ही अध्वर्यु अर्थात् मार्गदर्शक व सहायक पुरोहित अर्थात् गुरू है, उसी की सहायता से जीव सर्वस्व प्रभू को अर्पण करने के योग्य बनता है; शब्द अर्थात् प्रभू की दिव्य ध्वनि ही उदगातृ है जो यज्ञ के आदि, मध्य व अंत में संगतकार है; प्रभू का शब्द ही ब्रह्म है जो अनेक भूलों व त्रुटियों के रहते हुए भी यज्ञकर्ता जीव की रक्षा करता है। ऋषि कहता है : इन्द्राग्नि जरितुःरुचा यज्ञो जिगाति चेतनः।(3.12.2) 'हे इंद्र! हे अग्नि! तुम ही चेतन यज्ञ हो जो उपासक को लेकर यज्ञ करते हो।' अन्यत्र कहा गया है : त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरो अनिषङ्गाय ॥(1.31.3) अर्थात् 'हे अग्नि! तुम निस्संग यज्ञकर्ता के अन्तरंग प्रतिपालक हो।' अग्नि की चार आंखें हैं, चतुरक्ष इध्यसे, जो जड़, प्राण, मन व तुरीयावस्था में हैं अर्थात् वह जीवात्मा की प्रगति के प्रत्येक चरण को देखता है। उसे जिज्ञासु द्वारा की जाती प्रभू-भक्ति इतनी प्रिय है कि गुप्त रूप से वह सदा उसका इस मार्ग पर उत्साहवर्धन करता है : यो रातहव्या........कीरेश्च्नि मन्त्रं मनसा वनोषि तम्।'
अतः अंतर्यामी परमात्मा सदा हमारी सहायता, नेतृत्व व मार्गदर्शन के लिए सक्षम व उत्सुक रहता है, उसी की सहायता से यह महान कार्य सम्पन्न होता है। उसकी अपार दया-मेहर से हमें मनुष्य योनि में भेजा गया है। मनुष्य योनि में भेजने का अर्थ है कि हमें बंदगी का हुकम दिया गया है। हमें इस हुक्म को सिर माथे पर रखना चाहिये, इसमें ना-नुकर नहीं करनी चाहिए, चाहे वह प्रभू हमसे प्यार करे, चाहे गुस्सा करे, इस बात की परवाह किए बिना उसकी भक्ति करनी चाहिए :
फुरमानु तेरा सिरै उपरि फिरि न करत बीचार ॥
तुही दरीआ तुही करीआ तुझै ते निसतार ॥
बंदे बंदगी इकतीआर ॥ साहिबु रोसु धरउ कि पिआर ॥(कबीर -338)
भक्ति रूपी इस महान कार्य के लिए हमें कुछ ज्यादा नहीं करना है, क्योंकि हम कुछ कर सकें, इसके योग्य हम हैं ही नहीं, कर्ता एकमात्र कर्तार है, सत्यस्वरूप परमात्मा है। हमें उसके प्रतिनिधि, सद्गुरू के आगे स्वयं को समर्पण मात्र करना है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :
तनु मनु गुर पहि वेचिआ, मन दीआ सिर नालि ॥
त्रिभवणु खोजि ढंढोलिआ गुरमुखि खोज निहालि ॥
सतिगुरि मेलि मिलाइआ नानक से प्रभू नालि ॥ (1-20)
'जिस परमात्मा से मिलाप के लिए लोग सारा संसार छान मारते हैं, उसे गुरू के द्वारा तलाश करने पर अंदर ही देख लिया। जब मनुष्य ने अपना तन, मन, अपना शीश सद्गुरू के हवाले कर दिया तब, हे नानक! उस शरणागत को गुरू ने प्रभू को अंग संग ही दिखा दिया।' जब हम स्वयं को समग्र रूप से अर्पित करते हैं, तभी समग्र सत्यों के एकमात्र स्रोत परमात्मा की प्राप्ति के योग्य बनते हैं।
(शेष आगे)
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Excellent 👍
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