The human body is a unique opportunity to experience the fruits of our past actions and to make new efforts towards liberation.
The human body is called Karma Yoni, while other bodies like insects, birds, animals, deities, up to Brahmaloka are called Bhog-Yonis.
The basis of this distinction is that in the human body, both the fruition of old deeds and the new efforts are included, whereas in other bodies there is only the fruition of old deeds.
Man is free to act but dependent to enjoy the fruits, while in other forms the creatures do not have the freedom to act.
However, in the texts of Sanatan Dharma, the freedom of will and action of man has been completely rejected.
This raises the question of what is the justification of the statement that "Human body is Karma Yoni and other bodies are Bhog Yonis".
The answer to this question can be found in Karta Purush 51.
In other bodies, we are only able to experience the fruits of our past actions. But in the human body, we have the freedom to act and to make new efforts. This is why the human body is called Karma Yoni, or the womb of karma.
The freedom of will and action in human life is a complex issue that has been debated by philosophers and theologians for centuries. However, there is no doubt that the human body is a unique opportunity to make a difference in the world and to achieve liberation.
If you are interested in learning more about the nature of karma, the role of free will in human life, and the distinction between Karma Yoni and Bhog-Yoni, I encourage you to read Kartapurush ep51.
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प्रसंगवश यहां यह जान लेना जरूरी है कि 84 लाख योनियों को दो किस्मों में बांटा जाता है - कर्मयोनि व भोगयोनि। यह कहा जाता है कि मनुष्य शरीर कर्मयोनि है जबकि अन्य शरीर जैसे कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्मलोक तक की योनियाँ भोग-योनियाँ हैं। इस भेद का आधार यह बताया जाता है कि ‘मनुष्य शरीर में पुराने कर्मों का फलभोग और नया पुरुषार्थ दोनों सम्मिलित हैं जबकि अन्य शरीरों में केवल पुराने कर्मों का फलभोग है।’(साधक संजीवनी, पृ -128) इस तर्क के अनुसार यह माना जाता है कि “पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं उनका वह कर्म भी फल-भोग में है। कारण कि उनके द्वारा किया जाने वाला कर्म उनके प्रारब्ध के अनुसार पहले से ही रचा हुआ है। ………..परन्तु मनुष्य शरीर तो केवल नये पुरुषार्थ के लिये ही मिला है जिससे यह अपना उद्धार कर ले।”(वही) “इस मनुष्य शरीर में दो विभाग हैं - एक तो इसके सामने पुराने कर्मों के फलरूप में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मों के अनुसार ही इसके भविष्य का निर्माण होता है। ………….तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र और फल-प्राप्ति में परतंत्र है।”(वही)
संकल्प और कर्म की स्वतंत्रता के प्रश्न पर हमने विस्तृत विचार-विमर्श अन्यत्र किया है। यहाँ हम सिर्फ इतना ही कहेंगे कि बाणी में मनुष्य की संकल्प और कर्म की स्वतंत्रता को सिरे से खारिज कर दिया गया है। बाणी के अनुसार जीव वही करते हैं जो उन्हें परमेश्वर द्वारा करने के लिये कहा जाता है, वे वही प्राप्त करते हैं जो परमात्मा द्वारा उन्हें दिया जाता है : कहिआ करणा दिता लैणा ॥(5-98) केवल अन्य योनियों द्वारा किया जाने वाला कर्म ही उनके प्रारब्ध के अनुसार पहले से निश्चित नहीं है, मनुष्य योनि में भी जीव के कर्म उसके प्रारब्ध के अनुसार पहले से ही निश्चित होते हैं। साथ ही उनके जीवन में आने वाली अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भी उनके प्रारब्ध के अनुसार पहले से ही निर्धारित होती है। इससे यह कथन कि ‘मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र और फल प्राप्ति में परतंत्र है’ गलत है। सभी जीव पूरी तरह परतंत्र हैं।
लेकिन इसके बावजूद यह कथन सच है कि ‘मनुष्य योनि कर्म योनि है और अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं।’ लेकिन इस कथन का औचित्य वह नहीं है जो ऊपर ‘साधक संजीवनी’ के उद्धरण में दिया गया है। सभी योनियाँ कर्म और उसके भुगतान के सिद्धांत पर आश्रित हैं। सभी योनियों में जीव के समक्ष प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं जिनके आधार पर जीव सुख या दुख भोगता है। किन्तु जब यह जीव मनुष्य शरीर में आता है तो वह ऐसी क्षमता विकसित कर सकता है कि वह प्रारब्ध के अनुसार मिलने वाली अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति को और उनके प्रति सुख या दुख से भरे संवेग की प्रतिक्रिया को भिन्न-भिन्न करके देख सके अर्थात वह समझ सकता है कि प्रारब्ध के अनुसार मिलने वाली अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भिन्न है और उसमें सुखी या दुखी होना भिन्न है। परिस्थिति पूर्व कर्मों से निर्धारित होती है, कर्म माया है, और यह स्वयं (Self) मायाजन्य परिस्थितियों से तादात्म्यता रख भी सकता है और नहीं भी रख सकता है। यदि वह माया से जुड़ा हुआ है, उसका ध्यान इंद्रियों के नौ द्वारों तक सीमित है तो वह परिस्थितियों का दास होता है और उनसे उत्पन्न सुख-दुख को भोगता है। तब उसके और अन्य योनियों में कोई अंतर नहीं होता। किन्तु यदि वह माया से भिन्न व स्वतंत्र हो जाये अर्थात अपने ध्यान को इंद्रियों के नौ द्वारों तक सीमित न रखकर भ्रू-मध्य के दशमद्वार में केंद्रित कर ले तो वह प्रारब्ध के अनुसार मिलने वाली अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति का साक्षी मात्र बन कर रह जाता है और उनसे मिलने वाले सुख-दुख से ऊपर उठ जाता है।
मनुष्य शरीर को कर्मयोनि इसलिये कहा गया है क्योंकि इस योनि में जीव अपने कर्म को ऐसी दिशा दे सकता है जिससे अंततः वह कर्मों के बंधन से ही स्वतंत्र हो सकता है। जीव अपने कर्मों को यह दिशा दो विधियों से दे सकता है। पहली विधि वही है जिसकी ओर ऊपर संकेत किया गया है अर्थात जीव अपने चारों ओर फैले ख्याल को भ्रू-मध्य में एकाग्र करे और उस आनंदमय पुरुष को जान ले जो सुख और दुख की निम्नगामी क्रीड़ा से सदैव ऊपर की भूमिका में दृष्टा होकर स्थित है। इससे जीव को दुख-सुख का ज्ञान तो होगा किन्तु दुख-सुख का भोग नहीं होगा। ज्ञान मन-इंद्रियों के माध्यम से होता है; भोग में हेतु पुरुष/जीव (आत्मा) है। पुरुष प्रकृति से संयुक्त होकर दुख-सुख भोगता है लेकिन यदि वह भ्रू-मध्य में स्थिर होकर प्रकृति से वियुक्त होगा तो उसे सुख-दुख का ज्ञान तो होगा लेकिन सुख-दुख का भोग नहीं होगा। कर्म की इस विधि को ज्ञानयोग कहा गया है।
दूसरे, जब हम अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि के प्राप्त होने पर सुख-सामग्री का अपने सुख-सुविधा के लिये उपयोग करते हैं तो यह उस अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि का भोग होता है। इसी प्रकार जब हम प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि के आने पर सुख की इच्छा करते हैं तो यह दुख का भोग होता है। जब हम इस प्रकार सुख-दुख का भोग करते हैं तो भविष्य में हमें भोग (अर्थात निम्न) योनियों में ही जाना पड़ेगा। यह मनुष्य योनि हमें सुख-दुख भोगने के लिये नहीं मिली बल्कि दुख-सुख से ऊंचा उठकर परमात्मा की प्राप्ति के लिये मिली है। इसके स्थान पर हमें अनुकूलता व प्रतिकूलता का सदुपयोग करना चाहिए। अनुकूल परिस्थिति का सदुपयोग है - निष्काम भाव से दूसरों की सेवा करना तथा उस सेवा-कर्म को प्रभू के चरणों में अर्पित करना। प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग है - सुखभोग की इच्छा का परित्याग करके और प्रभू के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए उस परिस्थिति को सहना। ऐसा करने पर वे परिस्थितियाँ जीव के उद्धार के लिये साधन-सामग्री बन जाती हैं और जीव कर्म करने और उनके फल का भोग करने की विवशता के दुष्चक्र को तोड़कर प्रभू-प्राप्ति के पथ का पथिक बन जाता है।
इस प्रकार यह कहना भ्रामक है कि जीवात्मा केवल मनुष्य योनि में ही कर्म करती है और इसके अतिरिक्त शेष सभी योनियाँ मनुष्य योनि में किये गये कर्मों का भुगतान करने के लिए हैं। मनुष्य योनि में कोई व्यक्ति कितना भी पापी क्यों न हो, यह असंभव है कि वह इतने ज्यादा पाप करे कि उनके भुगतान के लिए वह जीवात्मा करोड़ों, अरबों वर्षों तक 84 लाख योनियों में भटकती रहे। गुरू नानक देव जी ने तिर्यक योनिओं को प्राप्त जीवात्मा को 'डूब गयी' कहा है, इससे यही संकेत मिलता कि उस जीवात्मा के भटकाव की अवधि अनंत काल है, वह तो डूब ही गयी। उसके बारे में यह कहा ही नहीं जा सकता कि उसे फिर से मनुष्य शरीर प्राप्त होगा। उसे मनुष्य शरीर में आने का अनमोल अवसर तभी प्राप्त होगा जब परमात्मा की असीम कृपा हो जाये, जब कोई ऐसा संयोग बन जाये जो केवल दिव्य विधान से ही निर्मित हो सकता है, अन्यथा नहीं। इससे पता चलता है कि मनुष्येतर योनियों को भोगयोनि कहने का अर्थ यह नहीं कि वे योनियाँ मनुष्य शरीर में किये गये कर्मों के भोगार्थ ही हैं, और वहां भोग चुक जाने के उपरान्त फिर से मनुष्य योनि प्राप्त हो जायेगी। बाणी मनुष्य शरीर को जनमु पदारथु कहती है। 'पदार्थ शब्द से एक ऐसी अनमोल वस्तु का संकेत होता है, जो प्रयोग किए जाने पर जीवन का प्रयोजन संवार देता है, जिससे जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। इसलिए मनुष्य जन्म भी एक खास अनमोल पदार्थ है।''(संता सिंह ततले कृत 'गुरबाणी ततसागर' भाग 3) समस्त रचना को कहीं तो अंधा कूंआ कहा गया है, अंध कूप, जिसके निचले तल का किसी को अता-पता नहीं है, या फिर इसे दुस्तर भवसागर कहा गया है जिसका ओर-छोर किसी को नज़र नहीं आता। पिंड में कैद जीवात्मा इन विषम परिस्थितियों में घूम रही है, मनुष्य जन्म एक ऐसा अवसर है जब संसार सागर की महातरंगों के बीच यह पिंड मानों तल पर आ जाता है, यही वह अवसर है जब जीव सद्गुरू की संगत करके, मदद के लिए सदा आगे बढ़ा उसका हाथ पकड़ कर फिर से प्रभू मिलाप कर सकता है :
भवजलि डूबत सतिगुरू काढै ॥ जनम जनम का टूटा गाढै ॥(5-741)
बाह पकरि प्रभि आपे काढे ॥ जनम जनम के टूटे गाढै ॥(5-744)
अंध कूप ते सेई काढे ॥ जनम जनम के टूटे गांढे ॥(5-1085)
महां तरंग ते कांढै लगा ॥ जनम जनम का टूटा गांढा ॥(5-1348)
यह मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है, बार-बार नहीं मिलता जैसे पका फल शाखा से टूट जाने पर पुनः शाखा से नहीं जुड़ता :
कबीर मानस जनमु दुलभु है होइ न बारै बार ॥
जिउ बन फल पाकै भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार ॥(कबीर-1366)
यह मनुष्य शरीर सत्यस्वरूप प्रभू ने अपनी कृपा से दिया है :
काइआ कोटु रचाइआ हरि सचै आपे ॥(1-789)
माटी ते जिनि साजिआ करि दुरलभ देह ॥
अनिक छिद्र मन महि ढके निरमल द्रिसटेह ॥(5-712)
मनुष्य देह की प्राप्ति केवल कर्मों का हिसाब किताब नहीं है, यह संयोग अपार प्रभू की अपार कृपा से संभव होता है। इससे पता चलता है कर्मयोनि व भोगयोनि की आम तौर पर की गई व्याख्या मान्य नहीं है। मनुष्य योनि को कर्मयोनि कहा गया है, यह ठीक है, किंतु यहां 'कर्म' का अर्थ प्रभू-भक्ति है। बाणी में मनुष्य जन्म को भी दुर्लभ कहा गया है और प्रभू के नाम को भी। मनुष्य योनि में ही प्रभू की नामभक्ति संभव है, अतः मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है, शेष सभी भोगयोनियाँ हैं, वहां का नियम एक ही है - कर्म करो और भुगतान करते रहो। निश्चित रूप से यह अत्यंत डरावनी स्थिति है, किंतु बाणी स्पष्ट रूप से यही संकेत दे रही प्रतीत होती है :
फफा फिरत फिरत तु माइआ ॥ दुलभ देह कलिजुग महि पाइआ ॥
फिरि इआ अउसरु चरै न हाथा ॥ नामु जपउ तउ करीअहि फासा ॥(5-258)
कर्मफल का नियम सर्वत्र है। सभी योनियाँ में कर्म और उसका भोग होता है। देवताओं से लेकर निम्नतम प्राणी तक प्रत्येक जीव कर्मों को करता है और उसका फल भोगता है। मनुष्य केवल इस दृष्टिकोण से श्रेष्ठ है कि वह प्रभू की भक्ति कर सकता है। यह भक्ति रूपी कर्म है जो अनन्य रूप से केवल मनुष्य ही कर सकता है। यही कारण है कि आदिग्रंथ में सर्वत्र मन को संबोधित करके उपदेश दिये गये हैं। तीसरे गुरू अमरदास जी लिखते हैं :
मन तूं जोति सरूपु है आपणा मुलु पछाणु ॥(3-440)
'हे मन! (तेरा मूल) ज्योतिस्वरूप परमात्मा है, तू अपने मूल की पछाण कर।' यहां ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका मूल ज्योतिस्वरूप परमात्मा नहीं। शरीर व प्राण का मूल भी ज्योति है। सब कुछ ज्योति से उत्पन्न हुआ है। लेकिन फिर भी यह उद्बोधन मन के प्रति है, शरीर या प्राण के प्रति नहीं। इसका कारण यह है कि शरीर हमारे अस्तित्व का जड़ छोर है और जड़ "अज्ञान के तत्त्व की पराकाष्ठा है। यहां चेतना अपने कर्मो के एक रूप में खो गयी और अपने आप को भूल गयी है, जैसे कोई आदमी अत्यधिक तल्लीनता के समय न केवल यह भूल जाये कि वह है भी या नहीं और क्षणिक रूप में वही कर्म बन जाये जो किया जा रहा है और वही शक्ति बन जाये जो उसे कर रही है।''(दिव्य जीवन, पृ-246) वहां ऐसा लगता है कि मानों आत्मा है ही नहीं। ''प्राण में भी सत्य की खोज करना निराशाजनक है क्योंकि प्राण में भी चेतना अवमानसिक ही होती है।........ प्राण में जब मन विकसित होता है तब भी पहला क्रियाशील पहलू होता है एक ऐसी मानिसकता जो क्रिया में, प्राणिक और भौतिक आवश्यकताओं और तल्लीनताओं में, आवेगों, कामनाओं, संवेदनों और भावों में अंतर्लीन है।''(वही, पृ -309) मानव मन में ही समझने, जानने की इच्छा होती है क्योंकि यहीं मन अपने पूर्ण स्वरूप को ग्रहण करता है। इसीलिए मनुष्य योनि बड़ी कीमती है। जैसे दुनिया में सरकारें अपने प्रतिभाशाली नागरिकों को विशेष सुविधाएं, प्रयोगशालाएं इत्यादि देती हैं ताकि वे आगे बढ़ सकें। वैसे ही मन जीवात्मा को प्रभू पातशाह द्वारा प्रदान किया गया एक अनमोल यंत्र है जो प्रभूसत्ता के अन्वेषण का साधन है। मनुष्य देही को प्राप्त करके इस कार्य से गाफ़िल रहना वस्तुतः मन रूपी इस यंत्र को व्यर्थ गंवा देने के तुल्य है : हउमै विचि सेवा न होवई ता मनु बिरथा जाइ ॥(3-560)
(शेष आगे)
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Deserves a five star rating. The way this article justifies how the human body is a karma yoni is great. Keep up the good work 💯
Perfect 👌.