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Writer's pictureGuru Spakes

The 4 movements of the Soul. Kartapurush ep50

The Soul is the master of its own destiny.
The 4 movements of the Soul | Kartapurush ep50.

Namastey🙏😄

Before you start reading, have a look at the key highlights of this article.

  • A man can engage his mind in four areas: the Inner Word, good deeds, a mix of good and bad deeds, and bad deeds.

  • According to the type of actions he engages in, he will experience one of four possible movements after death: he will either cross the cycle of birth and death, attain the realm of divine beings, return to the life of human beings, or go to the lower worlds.

  • The inner Word refers to the practice of mantra yoga or other spiritual disciplines.

  • Service refers to selfless acts of kindness and compassion.

  • Charity refers to giving to others without expecting anything in return.

  • Bad deeds include theft, dacoity, adultery, and other harmful or destructive actions.

The text concludes by stating that "the soul is the master of its own destiny." This means that each individual has the power to choose their own path and determine their own outcome after death. It hence emphasizes the importance of engaging in good deeds.
 

Read the previous article▶️Kartapurush ep49

 

हमने देखा कि मानसिक गतिविधि के दो संभावित क्षेत्र हैं। मन बहिर्मुख भी हो सकता है और अंतर्मुख भी। गतिविधि के इन दोनों रूपों से मन को ज्ञान की प्राप्ति होगी। अंतर्मुख होने पर उसका ज्ञान तादात्म्यता का होगा, इसमें ज्ञेय, ज्ञाता व ज्ञान की प्रक्रिया का भेद नहीं होगा। बहिर्मुख होने पर उसे वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होगा। तत्त्वतः वस्तुओं का यह जगत्‌ आंतरिक शब्द से भिन्न नहीं है। जो अंतर में है वही बाहर है : अंतरि बसे बाहरि भी ओही ॥(5-293) लेकिन हउमैग्रस्त मन ने यह मानकर कि मैं विषयी हूं और बाकी सब विषय हैं अपने आपको पहले तो जगत्‌ से अलग किया और फिर उनसे संपर्क करने के लिए ऐसी प्रक्रियाएं विकसित कीं जो सत्य को अधूरे रूप से प्रस्तुत करती हैं। फलस्वरूप बहिर्मुख होने पर मन के ज्ञान में ज्ञेय, ज्ञाता व ज्ञान का त्रिविध भेद रहेगा। इस विधि से मन जो ज्ञान पाता है उसका उपयोग वह किसी न किसी प्रयोजन से अवश्य करता है किंतु यहां उसे कभी भी उस सत्ता का ज्ञान नहीं होता जो सबको बनाने वाली, शक्ति देने वाली व मार्ग दिखाने वाली है। उसका ज्ञान अटकलों से भरा हुआ होता है, जो उसे उच्च नैतिक लक्ष्य भी नहीं दे पाता। ऐसा मन सदा अंधों की तरह टटोलकर आगे बढ़ता है, उसमें कहीं निश्चितता नहीं होती। किंतु गहराई से देखा जाए तो ज्ञान ऊपर उल्लिखित दो किस्मों का नहीं है। अंतर्मुख शब्द अवश्य एक है किंतु बाहरी प्रकृति त्रैगुणात्मक सात्विक, राजसिक व तामसिक है। अतः प्राकृतिक जगत्‌ का ज्ञान भी तीन प्रकार का होना चाहिए। सात्विक ज्ञान, राजसिक ज्ञान व तामसिक ज्ञान। इससे पता चला कि धर्मखंड में मनुष्य को प्राप्त होने वाला ज्ञान दो नहीं, बल्कि चार प्रकार का है। इन चारों में से अंतर्मुख शब्द का ज्ञान ज्ञाता को पवित्र करने वाला है। गीता के चौथे अध्याय में, जिसको ज्ञानयोग की संज्ञा दी गई है, इसी ज्ञान की महिमा है। वहां लिखा गया है :


हे शत्रुओं को सताने वाले अर्जुन, भौतिक पदार्थों द्वारा किए जाने वाले यज्ञों की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ अधिक अच्छा है, क्योंकि सब कर्म ज्ञान में जाकर समाप्त हो जाते हैं;(4.33)

उस ज्ञान को सविनय, आदरपूर्वक, प्रश्नोत्तर द्वारा और सेवा द्वारा प्राप्त करो। तत्त्वदर्शी ज्ञानी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश करेंगे;(4.34)

यह ज्ञान वह नाव है जिस पर सवार होकर जीव भवसागर को पार कर जाता है;(4.36)

यह ज्ञान वह अग्नि है जो कर्मों को भस्म कर देती है;(4.37)

यह ज्ञान कहीं बाहर नहीं है बल्कि दीर्घकालिक अभ्यास से साधक इसे अपने अंदर ही प्राप्त कर लेता है।(4.38)


इस प्रकार अंतर्मुख शब्द का ज्ञान मोक्षप्रद है जबकि त्रैगुणात्मक प्रकृति का ज्ञान तीन प्रकार के बंधन पैदा करने वाला है। भगवद्‌गीता में ही कहा गया है :


हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम ये तीन गुण शरीर में अवस्थित निर्विकार जीवात्मा को बांधते हैं;(14.5)

हे निष्पाप! इन तीनों गुणों में से निर्मल होने के कारण प्रकाशक तथा दोषरहित शांत सत्वगुण ज्ञान और सुख के संग द्वारा जीव को बांधता है;(14.6)

हे कुतीपुत्र! रजोगुण को रागात्मक विषयों की अभिलाषा तथा आसक्ति से उत्पन्न जानो। यह रजोगुण कर्म की आसक्ति द्वारा जीव को बांधता है;(14.7)

हे भारत! सत्वगुण सुख में तथा रजोगुण कर्म में आसक्त रहता है, किंतु तमोगुण ज्ञान को आच्छन्न करके प्रमाद की ओर लगाता है।(14.9)


यदि ज्ञान चार प्रकार का है तो उसके परिणाम भी चार प्रकार के ही निकलने चाहिएं। यदि दीर्घकालिक अभ्यास द्वारा साधक को अपने अंदर ही प्राप्त हो जाने वाला ज्ञान भवसागर पार करने के लिए नाव के समान है तो प्रकृति के तीन गुणों का ज्ञान जीवात्मा के लिए तीन भिन्न-भिन्न प्रकार के बंधन पैदा करने वाला होना चाहिए। इसी तथ्य को बयान करते हुए श्रीभगवान्‌ लिखते हैं :


जब यह मनुष्य उस दशा में मृत्यु को प्राप्त होता है जब सत्वगुण प्रधान हो तो वह निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है;(14.14)

जब रजोगुण प्रधान हो, उस समय मृत्यु को प्राप्त होने पर वह कर्मों में आसक्ति वाले मनुष्यों में जन्म लेता है और यदि उसकी मृत्यु तब हो जब कि तमोगुण प्रधान हो तो वह कीट, पशु आदि मूढ़योनिओं में जन्म लेता है;(14.15)

सात्विक कर्म का फल सुख होता है, राजसिक कर्म का फल दुख होता है जबकि तामसिक कर्म का फल अज्ञान होता है।(14.16)


इस प्रकार स्थूल रूप से मनुष्य अपने मन को चार क्षेत्रों में लगा सकता है, इससे उसके समक्ष चार प्रकार के कर्मों की संभावना रहती है और तदनुसार मृत्यपरांत उसकी चार प्रकार की गतियां संभव हैं। या तो वह अंतर्मुख शब्द अभ्यास करके भवसागर पार कर जायेगा; या उत्तम कर्मों जैसे सेवा, दान-पुण्य इत्यादि को करने पर देवयोनि को प्राप्त होगा; या फिर मध्यम कोटि के भले-बुरे कर्मों के कारण फिर से मनुष्य योनि में लौट आयेगा; या फिर अधम कोटि के निकृष्ट कर्मों जैसे चोरी, डकैती, जारकर्म इत्यादि के कारण निचली तिर्यक योनिओं में चला जाएगा। इसी सत्य का वर्णन आदिग्रंथ में किया गया है। तीसरे गुरू अमरदास जी लिखते हैं :


अंतरि रतनु मिलै मिलाइआ ॥ त्रिबिधि मनसा त्रिबिधि माइआ॥(3-117)


'जीव के अंदर रत्न है अर्थात शब्द है। परमात्मा की कृपा हो जाये तो यह रत्न मिलता है और जीव परमात्मा से मिलाप कर लेता है। इसके अभाव में वह तीन प्रकार के गुणों वाली माया के पाश में रहता है जिसके प्रभाव से उसकी कामनाएं भी तीन प्रकार की रहती हैं।' जब कामनाएं तीन प्रकार की होंगी तो मृत्युपरांत जीव की संभावित दशाएं भी तीन प्रकार की होंगी, क्योंकि : जैसी मनसा तैसी दसा ॥(1-1342) इसी तथ्य को विस्तारपूर्वक बयान करते हुए गुरू नानक देव लिखते हैं :


नानक बेड़ी सच की तरीऐ गुर बीचारि ॥

इकि आवहि इकि जावहि पूरि भरे अहंकारि ॥

मनहठि मती बूडीऐ गुरमुखि सचु सु तारि ॥(1-20)


'हे नानक! एक बेड़ी सच की है। इस पर सवार वे होते हैं जो गुरू की शिक्षा के अनुसार अभ्यास करते हैं। उस अभ्यास का परिणाम है, 'तरीऐ'। वे भवसागर तर जाते हैं अर्थात्‌ गुरू की शिक्षा के अनुसार अभ्यास करके शब्द से जुड़ जाने वाले साधकों को वापस जगत्‌ में, भवबंधन में नहीं आना पड़ता। शब्द का ज्ञान वह नौका है जो उन्हें भवसगर से पार उतार देता है। फिर, एक नौका और है। इस पर पूरों के पूर चढ़ रहे हैं अर्थात्‌ जगत्‌ में एक बड़ी संख्या उन मनुष्यों की है जो 'सच' की नौका पर सवार नहीं होते। सच की नाव सच्चे प्रभू ने खुद बनाई है जो जीव को अज्ञानता, अनेकता, अंधकार और मर्त्यता के इस किनारे से ले जाकर ज्ञान, एकता, प्रकाश व अमृत से भरपूर दूसरे किनारे पर उतार देती है।’ इस तरह मानव जीवन का प्रयोजन जीवन का दिव्यकरण है और इस प्रयोजन की प्राप्ति गुरू के मार्गनिर्देशन में शब्द के अभ्यास से होती है। किंतु जगत्‌ में पूरों के पूर ऐसे मनुष्य मौजूद हैं जो अहंकार की भावना से ग्रस्त हैं। अपनी मनमर्ज़ी से तैयार की गई बेड़ी पार नहीं उतारती। वह बेड़ी किनारे से चलती है, जावहि और इधर उधर से घूमकर वापस उसी किनारे पर उतार देती है, आवहि । ध्यान रहे कि संसार से कूच करने और फिर वापस आने के इस ब्यौरे में मृत्योपरांत जीवात्मा की दो गतियां छिपी हुई हैं। सत्वगुणी जीव मृत्यु के पश्चात्‌ दिव्य स्वर्गों में जाते हैं किंतु किए गए पुण्यकर्मों के क्षीण हो जाने के बाद फिर उनका पत्न हो जाता है और वे मनुष्य योनि में आ जाते हैं। दूसरी ओर रजोगुणी जीव कर्मों में आसक्ति के कारण तत्काल मनुष्य योनि में आ जाता है। आवहिजावहि पदों में देहत्याग के पश्चात्‌ जीवात्मा की इन दोनों अवस्थाओं की सूचना सन्निहित समझनी चाहिए। तीसरी पंक्ति के प्रथमार्ध में कहते हैं, 'मन के हठ के अनुसार जीवनयापन करने वाले डूब ही जाते हैं।' गुर वीचारि करके बेड़ी सच की में बैठने वाले तर गये, तरीऐ ; अहंकार में रहने वाले बेअंत जीव गये और वापस आ गये; जबकि अपनी मनमर्जी करने वाले जीव वापस भी नहीं आये, वे तो डूब ही गये। जो डूब जाता है, वह कभी वापस नहीं आता। तीसरी पंक्ति अधमकोटि के निकृष्ट कर्म करने वाले तमोगुणी जीवों की दुर्दशा का वर्णन करती है, वे डूब गये अर्थात्‌ तिर्यक योनियों में चले गये।


(शेष आगे)

 

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