top of page
Writer's pictureGuru Spakes

Kartapurush ep5

Updated: Apr 30, 2023

In the Sanatan Dharma, the creation, sustenance and destruction of the universe has been described as a divine sport. Just as a king of the whole world, in his glory and the joyous intoxication of his sovereignty, plays the part of a simple soldier, imitating his actions, similarly, the Lord, in His bliss, amuses Himself by assuming the multiple forms of the world. Read Karta Purush 5 to know more about this theory.

सनातन धर्म में सृष्टि की व्याख्या यह है कि यह एक वैश्व खेल, एक लीला है, जिसका प्रयोग दिव्य सत्ता का मनोरंजन है। मनुष्य में छिपी हुई परमात्मसत्ता ने जगत में प्रत्यक्ष दिखती अदिव्यता को ओढ़ लिया है, मानव के रूप में स्वयं प्रभु ही दुख को सहन कर रहा है या फिर वह अपने आप ही अपनी भक्ति कर रहा है। लीला के सिद्धांत के तार्किक आधार और इस पर उठाई जाती आपत्तियों के संबंध में जानकारी के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 5


Kartapurush ep5
Kartapurush ep5
 

Read the previous article▶️Kartapurush ep4

 

समस्त सृष्टि के दो विभाग हैं - जड़ व चेतन। इन्हें ही हम जगत्‌ व जीव कहते हैं। गुरू नानक देव पीछे उद्धरत ‘जपुजी’ की 37वीं पउड़ी की 13वीं पंक्ति तिथै खंड मंडल वरभंड द्वारा जगत्‌ की ओर संकेत करते हैं जबकि 15वीं पंक्ति में आया पद आकार - जिसका अर्थ है आकृतियां या जीवों के प्रकार - जीव श्रेणी की ओर संकेत करता है। 14वीं पंक्ति अनंत प्रभु से उत्पन्न इस जड़-चेतन सृष्टि की अनंतता को बयान करती है। इस अनंत जड़-चेतन सृष्टि का एकंकार प्रभु से क्या संबंध है, इसे जानने के लिए इस पउड़ी में आए निम्नलिखित पदों की ओर ध्यान देना होगा :

(1) तिथै; (2) वेखै; (3) जिव जिव हुकम तिवै तिव कार; (4) नदरि निहाल; और (5) बिगसै।


तिथै का अर्थ है 'वहां' अर्थात 'सत्यस्वरूप प्रभु के धाम सचखंड के भीतर’। सृष्टि की समस्त पार्थिव व अपार्थिव लीला सचखंड के, सत्यस्वरूप परमात्मा के अस्तित्व के अंदर है। पीछे हमने सृष्टि के पांच खंडों की तुलना वेदान्त के पांच कोषों से करते हुए लिखा था कि अन्नमय कोष से लेकर आनंदमय कोष तक प्रत्येक कोष एक संकेन्द्रित वृत्त है और एक कोष के अंदर क्रमशः दूसरा, फिर तीसरा, चौथा व पांचवां कोष है। इस सांचे में पांचवां आनंदमय कोष मूल कोष है जो चौथे विज्ञानमय कोष को जन्म देता है और यह चौथा कोष तीसरे मनोमय कोष को जन्म देता है। यह तीसरा कोष आगे दूसरे कोष प्राणमय कोष को व प्राणमय कोष अंतिम अन्नमय कोष - जो मानवीय अनुभव के दृष्टिकोण से प्रथम कोष है - को जन्म देता है। इस प्रकार पांच कोष मिलकर एक काया का निर्माण करते हैं। इस काया में मूल आधार आनंदमय कोष है। ठीक इसी प्रकार सचखंड समस्त दृश्य व अदृश्य जगत्‌ का मूल आधार है। इस प्रक्रिया में जब सचखंड से करमखंड का निर्माण होगा तो सृष्टि के इस नये चरण में वही व्याप्त होगा जो सचखंड मे विराजमान है, और यह प्रक्रिया सृष्टि के प्रत्येक नये चरण में दोहराई जायेगी। जो तत्त्व सचखंड में व्याप्त है, वही धर्मखंड में व्याप्त है, और फिर भी सदा एक जैसा और अछूता है। इतना ही नहीं, जगत्‌ के निर्माण की पूरी श्रृंखला में प्रत्येक खंड का अपने अनुवर्ती खंडों से यही संबंध है। प्रत्येक पूर्ववर्ती खंड अनुवर्ती खंड को व्याप्त (pervade) करता हुआ भी सदा-सदा एक समान रहता हुआ अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। दूसरी ओर प्रत्येक अनुवर्ती खंड में सभी पूर्ववर्ती खंडों के तत्त्व विद्यमान रहते हैं, अतः प्रत्येक अनुवर्ती खंड अपने पूर्ववर्ती खंड में अपना अस्तित्व रखता है, गति करता है व जीवन पाता है। जहां भी निचले खंड का अस्तित्व होगा, वहीं अन्य उच्चतर श्रेणी के खंडों का भी पूर्ण प्रकटन होगा जो उन निम्न खंडों को अपने अभ्यंतर में धारण किए रहेंगे और इस प्रकार यथाक्रम रूप से ह्रासमान परिमाण के अनेक अनगिणत संकेन्द्रित मंडल पूरे ब्रह्मांड में विद्यमान रहेंगे। यही कारण है कि इन पांच खंडों में ज्यों-ज्यों धर्मखंड से अगले खंडों में सूक्ष्मता बढ़ती है, त्यों-त्यों उन खंडों की विशालता के प्रमाण भी प्राप्त होते है जो साधक को विस्मय से ओतप्रोत करते जाते हैं। इस प्रकार सभी उच्चतर खंड पूरी तरह सबसे निम्न खंड में विद्यमान हैं। दूसरी ओर सभी अनुवर्ती खंड सबसे श्रेष्ठ खंड सचखंड में अन्तर्भूत हैं, उसी में अपना अस्तित्व रखते व उससे जीवन पाते है।(मैंने इस सिद्धांत को श्री जे सी चटर्जी कृत 'Kashmir Shaivism' पुस्तक से लिया है।) इस तरह सभी खंड एक दूसरे के अंदर हैं। सूक्ष्म के अंदर स्थूल है जबकि स्थूल के अंदर सूक्ष्म है। श्री जे सी चटर्जी सृष्टिनिर्माण की प्रक्रिया के इस लक्षण को यौगिकता (involution) की संज्ञा देते हैं। हालांकि आपने इस यौगिकता के केवल एक पहलू पर अधिक बल दिया है, जिसके अनुसार, ''ज्यों-ज्यों परम सद्वस्तु स्थूल पदार्थ के रूप में प्रतीत होने की अवस्था की ओर नीचे उतरती है त्यों-त्यों वह अधिक से अधिक जटिल व यौगिक रूप ग्रहण करती जाती है।'' अर्थात्‌ प्रत्येक स्थूल पदार्थ में परम सद्वस्तु अपने समस्त ऐश्वर्य के साथ विद्यमान है। बाणी इसीलिए परमात्मा को जल थल महीअलि पूरिआ कहती है। किंतु यह तो यौगिकता का सिर्फ एक पहलू है, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि समस्त जड़-चेतन सृष्टि परम सद्वस्तु के अंदर है। हमारे विचार में यही तथ्य 'तिथै' पद से व्यंजित हो रहा है। इसी तथ्य को ओअंकारि एको रवि रहिआ सभु एकस माहि समावैगो (4-1310) व फरीदा खालकु खलक महि खलक वसै रब माहि (बाबा फरीद -1381) जैसी उक्तियों द्वारा बताया गया है। परमार्थ में आम तौर पर यह कहा जाता है कि परमात्मा हमारे अंदर है, लेकिन यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है कि हम भी परमात्मा के भीतर हैं।


करि-करि समास में हमने देखा कि एकंकार स्वयं को सृष्टि के निमित्त व उपादान कारणों में विभक्त करता है। वेखै पद बताता है कि इन दोनों में क्रमशः दृष्टा व दृश्य का संबंध है। निमित्त कारण नाम है, यह सति का सार या उसकी तात्त्विकता (essentiality) है जबकि उपादान कारण शब्द है, यह सति का स्वरूपप्रकाश, उसका प्रत्यक्षीकरण (manifestation) है। नाम अरूप है, शब्द उस अरूप का आत्मरूपायन है। शब्द नाम का अंतर्जात शरीर है अर्थात्‌ शब्द ने नाम के अंतर से और अंतर में ही जन्म लिया है और ऐसा करके नाम में निहित अनंत संभावनाओं को रूप व नाम देकर संभव बना दिया है। नाम अनंत है, शब्द सांत है और यह सांत अनंत का सामने का पक्ष और आत्मनिर्धारण है मानो, जैसा कि बाणी कहती है, अनंत का आसन, उसका शरीर या महल है। शब्द विषय (object) है जबकि नाम विषयी (subject) है। समस्त सृष्टि में जीवों के भाग्य का निर्धारण इस तथ्य से होता है कि हमारा तादात्म्य (identity) विषय के साथ है या विषयी के साथ। प्रथम अवस्था में हम दृश्य सृष्टि के साथ एकमेक होते हैं और तब सृष्टि में किसी न किसी रूप व आकार को ग्रहण करने के लिए विवश होते हैं। दूसरी अवस्था में हमारी तादात्म्यता नाम के साथ होती है जो दृष्टा परमात्मा है। यह आत्मा की मुक्तावस्था है। यदि हमारी तादात्म्यता दृश्य सृष्टि के साथ है तो हमारी स्वाधीनता एक भ्रम मात्र है। तब हमारा कर्म वैसा ही होगा जैसा प्रभु का हुक्म है, जिव जिव हुक्म तिवै तिव कार । ऐसी अवस्था में संकल्प की हमारी स्वतंत्रता उतनी ही भ्रमात्मक होती है जितनी उस तीर की, जो कमान से निकला है। हम सभी प्रभु के हुक्म, उसके सत्यसंकल्प के अधीन होते हैं। परमात्मा हम सबको अपने हुक्म में रखता है लेकिन हुक्म की यह कलम हमारे पूर्व कर्मों व प्रवृत्तियों के अनुसार ही चलती है : हुकमि चलाए आपणै करमी वहै कलाम ॥(1-1241) ध्यान रहे कि हुक्म सत्यस्वरूप प्रभु का दिव्य संकल्प है। सति हुक्मी है, नाम उसका हुक्म है और शब्द महकूम या अधीनस्थ है। इस प्रकार सृष्टि में हुक्मी, हुक्म व महकूम का त्रिक है। दूसरी ओर इसी सृष्टि में कुछ ऐसे भी भाग्यशाली जीव हैं जिन्हें प्रभु अपनी कृपा से धन्य कर देता है, नदरि निहाल । जब हम किसी पर कृपालु होते हैं तो उसे अपनी क्षमता के अनुसार सुख प्रदान करते हैं। इस तरह प्रभु द्वारा जीवों पर कृपा किए जाने का तात्पर्य उन्हें सुख प्रदान करना है, और इसीलिए हमारी यह सुनिश्चित राय है कि आदिग्रंथ में जहां भी सुखदाता शब्द का प्रयोग किया गया है वहां आंखें मूंद कर यकीन कर लेना चाहिए कि यह शब्द सत्यस्वरूप परमात्मा सति के लिए प्रयुक्त हुआ है। सति सुखदाता है। वह कौन सा सुख प्रदान करता है? तीसरे गुरू अमरदास जी सुख की परिभाषा देते हुए लिखते हैं : सुख सागर हरि नामु है गुरमुखि पाइआ जाइ॥(3-29) सति सुखदाता है, नाम उसका गुण अर्थात सुख है। समस्त सृष्टि नाम रूपी सुख की अभिलाषा करती है, लेकिन उस सुख को वही प्राप्त करता है जिस पर प्रभु कृपालू होता है, नाम के बिना सब दुख ही दुख है। सुख उसी को प्राप्त होता है जो नाम को मन में बसाता है :

सभ नावै नो लोचदि जिसु किरपा करे सो पाए ॥

बिनु नावै सभु दुखु है सुखु तिसु जिसु मंनि बसाए ॥(3-427)


इस प्रकार सृष्टि में हुक्मी, हुक्म व महकूम के त्रिक के समानांतर ही सुखदाता, सुख व सुख की अभिलाषा करती कुदरत का दूसरा त्रिक भी है और ये दोनों त्रिक एक ही सत्य को व्यक्त करते हैं। सत्यस्वरूप प्रभु सति ही हुक्मी व सुखदाता है, नाम उसका हुक्म व सुख है, जबकि तीसरी सत्ता शब्द है, और ये तीनों एक हैं। एकंकार या सति ही एक से ये तीनों बना है। सति गुणनिधान सत्ता है, जबकि नाम शब्द उसके दो प्रकार के गुण हैं। नाम सति की तात्त्विकता है जबकि शब्द उसकी अभिव्यंजना है। चूंकि नाम शब्द को ही बाणी में शिव व शक्ति भी कहा गया है, इसलिए आदिग्रंथ में इस जगत्‌ की समस्त बहुलता को कहीं तो शिव-शक्ति के मेल से उत्पन्न बताया गया है, जैसे : जह देखा तह रवि रहे सिव सकति का मेलु ॥(1-21) तो कहीं इसे शिव-शक्ति का घर कहा गया है, जैसे : चारि पदारथ लै जगि आइआ ॥ सिव सकती घरि वासा पाइआ ॥(1-1027) इस जगत्‌ में जिन जीवों पर वह सुखदाता प्रभु प्रसन्न होता है उन पर गुरू के माध्यम से कृपा करता है। यह कृपा कृपालु प्रभु का गुण है, अतः कृपा करने का अर्थ उनके हृदय में अपने गुण अर्थात्‌ नाम को टिकाना है। प्रभु की अपार कृपा से अभिषिक्त ऐसे भाग्यशाली जीवों के अंतर में नाम प्रकट हो जाता है, उन्हें कभी नाम विस्मृत नहीं होता और यही प्रभु की कृपा की सच्ची निशानी है : नानक नामु न वीसरै करमि सचै नीसाणु ॥(1-21) जो जीव गुरू के माध्यम से प्रभु की कृपा अर्थात्‌ नाम को प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें गुरमुख कहा गया है। इसके विपरीत मनसुख हैं, जो गुरू के पास नहीं जाते, अतः प्रभु की कृपा नाम से वंचित रह जाते हैं। वे नामभक्ति अर्थात शब्दब्रह्म का अभ्यास नहीं करते। उनके अंदर सदा संशय बना रहता है, वे दुनियावी धंधों में मग्न रहते हैं और इस तरह आत्मिक रूप से अपनी हत्या कर लेते है :

अंदरि सहसा दुखु है आपै सिरि धंधै मार ॥

दूजै भाइ सुते कबहि न जागहि माइआ मोह पिआर ॥

नामु न चेतहि सबदु व बीचारहि इहु मनसुख का आचारु ॥

हरि नामु न पाइआ जनमु बिरथा गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥(3-508)


मनसुख मनुष्य कायर हैं क्योंकि वे इंद्रियों के प्रलोभनों का डटकर मुकाबला नहीं करते; वे कुरूप हैं क्योकि सुंदरता नाम में है; वे दिन-रात मायिक धंधों में लिप्त रहते हैं, उन्हें सपने में भी सुख नहीं मिलता, उनकी कहीं प्रतिष्ठा नहीं होती :

मनमुखु काइरु करूपु है बिनु नावै नकु नाहि ॥

अनदिनु धंधै बिआपिआ सुपनै भी सुखु नाहि ॥

नानक गुरमुखि होवहि ता उबरहि नाहि त बधे दुख सहाहि ॥(3-591)


इस प्रकार गुरुमुख व मनसुख, भक्त और सांसारिक जीव इस सृष्टि के दो सिरे हैं और इन दोनो का कर्ता सत्यस्वरूप प्रभु आप ही है :

दुख सुख करते हुकमु रजाइ ॥ भाणै बखस भाणै देइ सजाइ ॥

दुहां सिरिआं का करता आपि ॥ कुरबाणु जांई तेरे परताप ॥(5-1270)


सृष्टि की समस्त दिव्यता, सामंजस्य, पूर्णता, ज्ञान, आनंद, प्रेम, सौंदर्य, शक्ति, क्षमता, शुभ जिसकी अभीप्सा मनुष्य करता है, और अदिव्यता, असामंजस्य, अपूर्णता, अक्षमता, मिथ्यात्व, भ्रांति, कष्ट, दुख जिसमें हम वर्तमान में जी रहे हैं, का स्रोत एक ही है। यहां जो कुछ है, सब उसी से अभिव्यक्त हुआ है। सति ऐसा सर्वव्यापक भगवान है जिसके बिना, जिससे अलग किसी भी भौतिक वस्तु, प्राणिक इच्छा या मानसिक भाव का अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि सबका अस्तित्व उसी के द्वारा और उसी की सत्ता में है। भगवान दो नहीं हैं - एक, जो मंगलकारी है, और दूसरा जो अमंगलकारी है और पहले के साथ संघर्षरत है। न ही भगवान के साथ-साथ कोई प्रति-शक्ति (anti-Christ) है जिसमें भगवान तो पूर्ण व दिव्य सत्ता है जो जगत्‌ की रचना करती है जबकि स्वर्ग से च्युत एक अपूर्ण, अदिव्य, प्रति-शक्ति भी है जो जगत्‌ का या तो प्रबंधन करती है या उसके प्रबंध में निहित दिव्यविधान में खलल डालने का प्रयत्न करती है। श्रीअरविन्द लिखते हैं, ''यदि जगत्‌ का अस्तित्व परम आत्मा से है तो उसकी व्यवस्था......भी आत्मा की शक्ति के द्वारा ही होनी चाहिए, उसका विधान भी आध्यात्मिक चेतना और सत्ता के किसी विधान के अनुसार ही होना चाहिए।...............आत्मा की शक्ति को सदा उसके प्रपंचों या उसकी क्रियाओं का निर्धारण करना या कम-से-कम स्वीकृति देते रहना चाहिए क्योंकि ऐसी कोई स्वतंत्र शक्ति या कोई प्रकृति नहीं हो सकती जो मूल, शाश्वत स्वयंभू से न निकली हो।''(दिव्य जीवन, पृ-398) इसलिए इस विरोधाभासी सृष्टि की एकमात्र न्यायसंगत व्याख्या यही है कि यह एक वैश्व खेल, एक लीला है, जिसका प्रयोग दिव्य सत्ता सति का मनोरंजन है, वेखै विगसै करि वीचारु


लीला के सिद्धांत के संबंध में तीन बातों पर गौर करना जरूरी है। इसमें पहला बिंदू तो एक आपत्ति के रूप में है। श्रीअरविंद लिखते हैं, ''एक ऐसा भगवान जो अपने आप तो सर्वानन्दमय है, जो प्राणियों के दुख में मज़ा लेता है या जो अपने ही अपूर्ण सृजन के दोषों के कारण उन पर दुख आरोपित करता है, वह भगवान नहीं हो सकता और मनुष्य की नैतिक सत्ता या बुद्धि को उसके विरुद्ध विद्रोह करना या उसके अस्तित्व को मानने से इन्कार करना चाहिए।''(दिव्य जीवन पृ -406) लेकिन आदिग्रंथ के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह आपत्ति वैध नहीं है। भाई वीर सिंह लिखते हैं, ''खेल असमता, विषमता के बिना और दुख-सुख दो सिरों के बिना नहीं हो सकता, पर इस खेल या नाटक के पात्र कोई स्वतन्त्र, उससे अलग सृष्टि के जीव उसने कहीं से पकड़ कर दुख-सुख में नहीं डाले। उसने सब अपने आप से रचे हैं और बीच में भरपूर है आप।'' अर्थात्‌ मनुष्य में छिपी हुई परमात्मसत्ता ने इस अदिव्यता को ओढ़ लिया है, मानव के रूप में स्वयं प्रभु ही दुख को सहन कर रहा है या फिर वह अपने आप ही अपनी भक्ति कर रहा है। श्री आर. के. काव अपनी पुस्तक The Doctrine of Recognition में सोमानंद को उद्धरत करते हुए लिखते हैं :

क्रीड़या दुःखवेद्यानी कर्मकारिणि तत्फलै: ।

संभत्स्यमानिनि तथा नरकार्णगेह्वरे ॥

निवासीनि शरीराणि गृह्वाति परमेश्वरः ॥ (शिवदृष्टि 1, 36-37)


“In His sportiveness, the Lord (Maheshvara) takes on the bodies abiding in the depths of the oceans of hell, experiencing there, the painful results of their misdeeds.”

यथा नृप: सार्वभौम: प्रभावामोदभावित: ॥

क्रीड़न् करोति पादातधर्मोस्तद्धर्मधर्मत: ।

तथा: प्रभु: प्रमोदात्मा क्रीड़त्येवम् तथा तथा ॥ (शिवदृष्टि 1, 37-38)


“Just as a king of the whole world, in his glory and the joyous intoxication of his sovereignty, plays the part of a simple soldier, imitating his actions, similarly, the Lord, in His bliss, amuses Himself by assuming the multiple forms of the world.”

इस तर्क से लीलासिद्धांत क्रूर व जुगुप्साजनक तो नहीं रहा जाता लेकिन इससे लीला की विचित्रता कम नहीं हो जाती और विरोधाभास बने ही रहते हैं।


लेकिन यदि लीलासिद्धांत के संबंध में हमें दो प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर मिल जायें तो इससे विरोधाभास भी क्षीण हो जाएंगे। पहला, क्या रचना में कोई ऐसा कारण उपस्थित है जो लीला को सार्थक व न्यायोचित सिद्ध कर सके? दूसरा क्या इस खेल में जीवात्मा की कोई स्वीकृति है या नहीं? पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीअरविंद लिखते हैं, ''यद्यपि ऐसी सुनिश्चित श्रेणियां हैं जिनमें हर एक की प्रकृति की अपनी व्यवस्था है फिर भी वे जड़ के रूपों में शरीर धारण की हुई अंतरात्माओं के प्रगतिशील आरोहण के दृढ़ सोपान मात्र हैं, निश्चेतन से अतिचेतन या सर्वचेतन की स्थिति की ओर उठती हुई प्रगतिशील दिव्य अभिव्यक्ति हैं जिसमें मानव चेतना संक्रमण का निर्णायक बिंदु है। तब अपूर्णता अभिव्यक्ति की एक जरूरी स्थिति बन जाती है क्योंकि समस्त दिव्य प्रकृति निश्चेतना में छिपी हुई होते हुए भी उपस्थित है इसलिए उसे उसके अंदर से धीरे-धीरे मुक्त करना होगा। यह अनुक्रम आंशिक उन्मीलन को जरूरी बनाता है और उन्मीलन का यह आंशिक रूप या अधूरापन अपूर्णता को जरूरी बनाता है। ............अज्ञान और अपूर्णता के बने रहने के लिए जो कुछ दिव्य प्रकृति की विशेषता है - उसके ऐक्य, उसकी सर्व-चेतना, उसकी सर्व-शक्ति, उसका सर्व-सामंजस्य, उसका सर्व-शुभ, उसका सर्व-आनंद उसके प्रतीयमान प्रतिकूल होने चाहियें; परिसीमन, असंगति, अचेतना, असामंजस्य, अक्षमता, संज्ञाहीनता, दुख और अशुभ प्रकट होने चाहियें। क्योंकि उस विकृति के बिना अपूर्णता की कोई मजबूत आधारभूमि नहीं हो सकती थी। वह आधारभूत दिव्यता की उपस्थिति के विरुद्ध अपने स्वरूप को इतनी आजादी से अभिव्यक्त न कर पाती और न अपने आपको बनाये रख सकती। एकांगी ज्ञान अपूर्ण ज्ञान है और अपूर्ण ज्ञान उस हद तक अज्ञान है, भागवत प्रकृति का विरोधी है लेकिन जो उसके ज्ञान के परे है उसके बारे में अपनी दृष्टि में यह विपरीत निषेध, विपरीत भाव हो जाता है। वह चीजों के प्रति, जीवन और कर्म के प्रति भ्रांति को, गलत ज्ञान को, गलत व्यवहार को शुरू करता है। गलत ज्ञान प्रकृति में गलत इच्छा बन जाता है, हो सकता है कि पहले वह भूल से गलत होता है लेकिन बाद में आसक्ति से, मिथ्यात्व में सुख से गलत होता है। सरल-सा विरोध जटिल विकार बन जाता है। एक बार अज्ञान और निश्चेतना को स्वीकार कर लिया जाये तो ये चीजें न्यायसंगत अनुक्रम में स्वाभाविक परिणामस्वरूप प्रकट होती जाती हैं और उन्हें आवश्यक तत्त्वों के रूप में स्वीकार करना होता है।'' (दिव्य जीवन, पृ-407)


जहां तक लीला के संबंध में जीवात्मा की इच्छा का प्रश्न है, आदिग्रंथ में इस विषय में एक से अधिक स्थानों पर कहा गया है कि रचना की व्यवस्था या प्रतीयमान अव्यवस्था के लिए जीव के अपने कर्म उत्तरदायी हैं, यथा :

करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥ आपे बीजि आपे ही खाहु ॥(1-4)

करमी करमी होइ वीचारु ॥ सचा आपि सचा दरबारु ॥(1-7)

करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥(1-8)

हुकमि चलाए आपणै करमी वहै कलाम ॥(1-1241)


श्रीअरविंद के शब्दों में हम यह कह सकते हैं, ''इस प्रकार की अभिव्यक्ति, आत्मसृजन या लीला न्याय-संगत न प्रतीत होती यदि उसे अनिच्छुक जीव पर लाद दिया जाता। लेकिन यह सपष्ट है कि शरीरधारी आत्मा की सहमति पहले से ही रही होगी क्योंकि प्रकृति पुरुष की स्वीकृति के बिना कुछ नहीं कर सकती। वैश्व सृष्टि को संभव बनाने के लिए केवल दिव्य पुरुष की इच्छा ही नहीं बल्कि व्यष्टिगत अभिव्यक्ति के लिए व्यष्टिगत पुरुष की स्वीकृति भी रही होगी। लेकिन यह कहा जा सकता है कि इस तरह की कठिन और यातना पीड़ित क्रमिक अभिव्यक्ति के लिए दिव्य इच्छा और आनंद का कारण और अंतरात्मा की स्वीकृति का कारण अब भी एक रहस्य है। लेकिन अगर हम अपनी निजी प्रकृति को देखें और यह अनुमान कर सकें कि वैश्व मूल के आरंभ में सत्ता की कोई ऐसी ही, सजातीय गतिविधि रही होगी तो यह बात एकदम रहस्य नहीं रहती। इसके विपरीत अपने आपको छिपाने और खोजने का खेल उन सबसे बढ़कर श्रमसाध्य हर्षों में से है जो सचेतन सत्ता अपने आपको दे सकती है, यह अत्यधिक आकर्षक खेल है। स्वयं मनुष्य के लिए ऐसी विजय प्राप्ति से बढ़कर सुखद कोई और चीज नहीं है जो कि अपने तत्त्व रूप में कठिनाईयों पर होती है, ज्ञान में विजय, शक्ति में विजय, सृष्टि की असम्भवताओं पर सृष्टि में विजय - जो कि एक कष्टमय श्रम और दुःख की कठिन अग्निपरीक्षा में विजय प्राप्ति का आनंद होता है। वियोग के अंत में आता है, मिलन का प्रगाढ़ सुख, एक ऐसी आत्मा से मिलने का सुख जिससे हम विभक्त हो गये थे। स्वयं अज्ञान में एक आकर्षण है क्योंकि यह हमें अन्वेषण का सुख देता है, नयी, अदृष्ट सृष्टि का आश्चर्य, अंतरात्मा का महान साहसकार्य प्रदान करता है। यात्रा का, खेल का और पाने का आनंद होता है, युद्ध और मुकुट का, श्रम और श्रम के परिणाम का आनंद होता है। अगर सत्ता का आनंद सृष्टि का रहस्य है तो यह भी सत्ता का एक आनंद है। उसे प्रतीयमान रूप से परस्परविरोधी और विपरीत लीला का कारण या कारणों में से एक माना जा सकता है।''(दिव्य जीवन पृ -508)


यह ध्यान देने वाली बात है कि सचखंड का वर्णन करने वाली इन आठों पंक्तियों में सृष्टा व सृष्टि दोनों का वर्णन तो है लेकिन उन आत्माओं का कोई उल्लेख नहीं है जो प्रभु की कृपा से निहाल हो गई हैं अर्थात्‌ भवचक्र से मुक्त हो गई हैं। निश्चित रूप से ये मुक्त आत्माएं जो सत्यस्वरूप ‘सचिआर’ बनी हैं उन्हें सचखंड में ही होना चाहिए। लेकिन गुरू नानक उनका कोई वर्णन नहीं करते। इतना हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि भक्त सचखण्ड निवासी सत्ता सत्पुरुष से मिलाप करता है। गुरू नानक यद्यपि इस प्रभुसत्ता का वर्णन करते हुए शब्दों के साथ संघर्ष कर रहे हैं तथापि इस सत्ता का वर्णन करने के लिए आपके द्वारा प्रयुक्त की गई सकारात्मक शब्दावली यह बताती है कि सिद्धावस्था को प्राप्त साधक उसके धाम तक पहुंचता है, लेकिन इससे एकंकार प्रभु की एकता भंग नहीं होती। सति एक है और सदा-सदा एक है। डंकन गरीनलेस लिखते हैं, "The plane of Truth or Eternal Reality ………….. is God's own home, where He alone abides in eternal bliss, because all who reach that plane are one with Him."(The Gospel of Guru Granth Sahib) 'सचखंड प्रभु का अपना धाम है, जहां वह अकेला शाश्वत आनंद में निवास करता है क्योंकि वे सभी आत्माएं जो वहां पहुंचती हैं, उसके साथ एकमेक हैं।' यह विषय बहुत महत्त्वपूर्ण है और हमारे विचार में इसका पूर्ण अध्ययन करमखंड के प्रसंग में करना अधिक युक्तियुक्त होगा।


गुरू नानक देव जी द्वारा लिखी गई सचखंड का वर्णन करने वाली ये पंक्तियां हमें सृष्टि के प्रथम व मूल आध्यात्मिक मंडल सचखंड में निवास कर रही प्रभुसत्ता का सृष्टि से संबंध बताती हैं। किंतु ये पंक्तियां हमें यह नहीं बतातीं कि सृष्टि के निर्माण से पूर्व यह सत्ता अपने आप में किस दशा में उपस्थित थी। आदिग्रंथ में अन्यत्र भी इस विषय पर कुछ नहीं लिखा गया। हां, इस सत्ता के लिए प्रयुक्त पदावली यह अवश्य ही बताती है कि वह अपने आप में संतुष्ट, सर्वांगपूर्ण व परम आनंद रूप है। समस्त सृष्टि एक विचार के रूप में उसके अंदर वैसे ही निहित है जैसे कमल के खिलने से पहले उसका गुण अर्थात्‌ समस्त सौंदर्य, गंध, वैभव उसके अंतर में ही गुप्त होता है। जब कमल खिलता है, कमल विगास, तो उसका गुण अर्थात्‌ सौंदर्य प्रकट हो जाता ह। सति कमल है जिसके गुण हैं नाम शब्द अथवा ज्योति व नाद। यह कमल खिलता है अर्थात् 'ज्योतिर्मयनाद' प्रकट होता है और परमात्मा अपने ही सौंदर्य, शक्ति व सामर्थ्य को निहारता है। इस प्रकार सति द्वारा सृष्टि की रचना किसी अभाव की पूर्ति के लिए नहीं की गई। J.C.Chatterji के अनुसार सृष्टि सृष्टा का अनुभावन (experiencing out), व आनंदपूर्ण निस्सरण (joyous emanation) है। उपनिषदें कहती हैं कि 'वह एक था, उसने सोचा मैं अनेक हो जाऊँ।' सृष्टि प्रभु द्वारा अपनी एकता को बहुलता में देखने की ललक या उमंग का परिणाम है। यह उसका आनंदपूर्ण खेल है।


(शेष आगे)

 

Continue reading▶️Kartapurush ep6

37 views0 comments

Recent Posts

See All

Комментарии

Оценка: 0 из 5 звезд.
Еще нет оценок

Добавить рейтинг
bottom of page