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Writer's pictureGuru Spakes

The Soul's journey to enlightenment. Kartapurush ep49

The question "Who am I?" is one that has been asked by philosophers and mystics for centuries. Kartapurush ep49, based on Meher Baba's teachings, offer one possible answer to this question.

Namastey🙏😄

Before you start reading, have a look at the key highlights of this article.

  • Meher Baba taught that the soul passes through many different life-forms before reaching the human form.

  • This journey includes seven major jumps, from gaseous to liquid to solid forms.

  • The Rigveda refers to them as "thrice seven mysterious levels."

  • The human brain does not have the capacity to understand these gaseous forms.

  • The purpose of this journey is to get the answer to the question "Who am I?"

Wait... Here's something more interesting.

The reference to the Rigveda suggests that Meher Baba's teachings are rooted in ancient wisdom.

Meher Baba's teachings on the evolution of the soul offer a unique perspective on the human condition and the purpose of life. They suggest that we are all on a journey of spiritual evolution, and that the goal of this journey is to realize our true nature. This is a journey that can be challenging, but it is also a journey of great beauty and potential.
 

Read the previous article▶️Kartapurush ep48

 

इस प्रकार इस भौतिक मंडल धर्मखंड में जीवन का अभिव्यक्त रूप व्यष्टिगत है और प्रत्येक व्यष्टिगत सत्ता एक पिंड में केन्द्रित है। पिंड एक कैदखाने की तरह है जिसमें जीवात्मा कैद है। सूफी संतों ने पिंड को ही क़बर कहा है जिसमें रूहें अनंत काल से पड़ी हुई हैं, केवल वही क़बरें जीवित हैं जिनके अंदर प्रभू प्रेम की ज्वाला प्रकट हुई है और जो इस सत्य के ज्ञान से पुनीत हो गये कि अंदर व बाहर चारों ओर परमात्मा ही है, ऐसे मनुष्यों को ही फ़क़ीर कहते हैं। हज़रत सुलतान बाहू फरमाते हैं :

अंदर हू ते बाहर हू, वत बाहू कित्थ लभीवे हू ।

सै रियाज़त कर कराहां, खून जिगर दा पीवे हू ।

लक्ख हज़ार कताबां पढ़ के, दानिशमंद सदीवे हू ।

नाम फ़क़ीर तहेंदा बाहू, कबर जहेंदी जीवे हू ।


ऋग्वेद (1.24.13) में शुनःशेप की कथा आती है, वहां लिखा गया है : ‘तीन स्थानों से पेड़ से बंधे हुए व बंदी बनाए गए शुनःशेप ने आदित्य का स्मरण किया और प्रार्थना की, हे वरूण! हे प्रभू! हे अपराजेय! कृपा करके मुझे छुड़ा लो।' इस कथा की शब्दशः व्याख्या करके वेद के कर्मकांडीय अर्थ करने वालों ने यह निर्धारित किया कि वैदिक काल में पशु या कभी-कभार नरबलि की प्रथा थी। बलिपशु को लकड़ी के एक खंभे से बांध दिया जाता और बाद में इस खंभे को, जिसे यूप कहा गया, पशु सहित जला दिया जाता था। किंतु हमारे विचार में यह व्याख्या बालोचित है। श्री आर.एल. कश्यप ‘शुनःशेप’ का अर्थ Ray of Delight करते हैं। Delight अर्थात्‌ रस। परमात्मा रसरूप है, आत्मा उसकी एक बूंद है, अतः जीवात्मा ही शुनःशेप है जिसे पिंड रूपी पेड़ से माया के तीन गुणों से निर्मित स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर द्वारा बांध दिया गया है। अब इसकी मुक्ति तभी होगी जब परमात्मा रूपी यजमान गुरू के रूप में इसके अंदर नाम की दिव्य अग्नि प्रज्जवलित करे। तभी इस अभिशप्त जीवात्मा को ज्ञात होगा कि न केवल वह स्वयं, बल्कि यहां जो कुछ भी है, सब वैश्विक है। सब कुछ प्रभू की दिव्यशक्ति ही है जिसने क्रमशः वैश्व मन व वैश्व प्राण के रूप में परिवर्तित होते हुए दृष्टिमान जड़ पिंडों का रूप धारण किया है। अब उसी शक्ति की प्रेरणा से प्रत्येक पिंड में छिपा आध्यात्मिक तत्त्व ही विपरीत क्रम से प्रकट हो रहा है अर्थात्‌ जहां ब्रह्मांड में आध्यात्मिक तत्त्व प्राथमिक है जो मानसिक, प्राणिक व अंततः जड़ रूप धारण करता है, वहीं पिंड में अभिव्यक्ति का क्रम उलट जाता है। पिंड जड़ वस्तु है जिसमें से सर्वप्रथम प्राण का प्रस्फुटन होता है जो आगे मानसिक सत्ता 'मनुष्य' के लिए मार्ग प्रशस्त करती है और अंत में मनुष्य के अंदर उचित विधि के द्वारा आध्यात्मिक ज्योति प्रकट होती है। अतः एक प्रभूशक्ति ही चहुं ओर है। जड़ उसी शक्ति का द्रव्य रूप है; प्राण उसी शक्ति का ऊर्जा रूप है; मन उसी शक्ति का विचार रूप है; आत्मा उसी का ज्योति रूप है। जड़ निपट अंधकार है जहां केवल पार्थिवता व स्थैर्यता है मानो शक्ति वहां गहन निद्रा में सो रही है; प्राण रूपों का निर्माण, संरक्षण व विनाश करने वाली शक्ति है किंतु उसकी सारी गतिविधि बुद्धिहीन, अवचेतन क्रियामात्र है मानों वहां शक्ति स्वप्न देख रही है; मन विचार का, बुद्धि का प्रयोग करता है, मन के रूप में शक्ति ही सहेतुक कामना करती है, अतः यहां शक्ति की तुलना एक जाग्रित मनुष्य से की जा सकती है; इससे भी परे चौथी, तुरीयावस्था है, जहां शक्ति शुद्ध आध्यात्मिक ज्योति के रूप में प्रतिष्ठित है। सारा जगत्‌ इन तीन अवस्थाओं में स्थित है, तुरीयावस्था को कोई विरला ही जानता है : तीनि बिआपइ जगत कउ तुरीआ पावै कोउ ॥(5-297)


यहां धरती पर शक्ति की क्रीड़ा के तीन प्रदेश हैं जो माया के तीन गुणों से निर्मित हैं। हम देख चुके हैं कि पहला विशुद्ध जड़ जगत्‌ है जैसे गैस, द्रव, पत्थर या खनिज जहां माया के तमोगुण का राज्य है; दूसरा प्राणी जगत्‌ है जिसके एक सिरे पर वनस्पति है और दूसरे सिरे पर पशु, यहां क्रमविकास के साथ साथ रजोगुण की प्रधानता होती जाती है; तीसरा जगत्‌ वह है जिसके एक सिरे पर मनुष्य है और दूसरे सिरे पर सूक्ष्म जगत्‌ का वह भाग जो हम धर्मखंड के वासियों का परलोक है, यह माया के सत्व गुण की उत्पत्ति व विकास का क्षेत्र है। यही धर्मखंड में निवास करने वाली जीवात्माओं का संसार है जो माया के तीन गुणों से निर्मित है : तिहु गुण महि वरतै संसारा ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अउतारा ॥(5-389)


हमने देखा कि सृष्टि रचना के प्रक्रम में ज्यों-ज्यों वैश्विक सत्‌ नीचे उतरता है त्यों-त्यों वह एक से अनेक, वैश्विक से व्यष्टि व प्रकट से गुप्त होता जाता है। त्रिलोकी के अंतिम भाग धर्मखंड में यह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुंचती है। यहां एक व अनन्त चेतन प्रभूसत्ता अनेक व सांत पिंडों में प्रकट होती है। प्रत्येक पिंड जड़ है और अपने अंतर में प्राण, मन व आत्मा को छिपाये हुए है। ध्यान रहे कि मेहर बाबा ने लिखा है कि आत्म-चैतन्य पाषाण रूप को ग्रहण करने से पहले अनगिनत युगों तक विभिन्न जीवन-रूपों के अनेक अनुभवों में से गुज़रता है जिनमें सात मुख्य गैसीय रूप हैं किंतु इन रूपों को सामान्य मानवीय चेतना समझ नहीं पाती। अर्थात्‌ जिस तरह मानव-रूप तक पहुंचने के लिए क्रमविकास प्रक्रिया को सात मुख्य छलांगें (seven major leaps) लगानी होती हैं, जैसे पत्थर से धातु, धातु से पौधे, पौधे से कृमि, कृमि से मछली, मछली से पक्षी, पक्षी से पशु और पशु से मनुष्य, और ये सातों छलांगें पिंड के ठोस रूपों में होती हैं, उसी प्रकार, मेहर बाबा के अनुसार, पिंड के गैसीय रूपों में भी आत्म-चैतन्य को सात छलांगे लगानी होती हैं। और ये वे रूप हैं जिनका विश्लेषण व वर्गीकरण करने की क्षमता मानव मस्तिष्क में नहीं है। इतना ही नहीं ऋग्वेद (1.726) में आता है : त्रिः सप्त यद्‌ गुह्यानि त्वे इत्‌ पद अविदन्‌ निहिता यज्ञियासः । श्री आर.एल. कश्यप इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं : Hidden in you were the thrice seven secret planes which were found by the masters of the yajna. 'गुप्त थे तुझमें तीन बार सात (3x7) रहस्यमय तल जो यज्ञ के मर्मज्ञों द्वारा ढूंढ निकाले गए।' इसमें त्रिःसप्त का अर्थ है 'अस्तित्व के सात तल तीन-तीन बार।' अर्थात्‌ सृष्टि रूपी यज्ञ प्रक्रिया की मौलिक समझ रखने वाले तत्त्ववेत्ताओं ने जान लिया कि अस्तित्व के सात तल हैं और ये सातों तल पहले गैस में, फिर द्रव में और फिर ठोस में है। ये 'तीन बार सात रहस्यमय तल' प्रभू में ही गुप्त थे जो क्रमशः क्रमविकास की एक दीर्घ, जटिल व कठिन प्रक्रिया द्वारा प्रकट हो रहे हैं। यदि इस व्याख्या को स्वीकार किया जाये तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि मनुष्य रूप तक पहुंचने से पहले आत्मा को पिंड के सात गैसीय रूपों, सात द्रव रूपों और फिर सात ठोस रूपों में से गुजरना पड़ता है। इस तरह जीवात्मा बड़ी लंबी और कष्टपूर्ण यात्रा के पश्चात्‌ मनुष्य योनि में पहुंची है और इस यात्रा का उद्देश्य इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना था कि 'मैं कौन हूं'? प्राचीन परंपरा यह मानती है कि जीवात्मा अज्ञानता के कारण चौरासी लाख योनियों में घूमती रहती है। इसमें निचले सिरे पर पाषाण आदि तमोगुणी सृष्टि है जबकि उच्च सिरे पर देवगण हैं जिनमें सत्व गुण की प्रधानता है। आदिग्रंथ में चौरासी लाख योनियों की संख्या को स्वीकार किया गया है और इस कारण धर्मखंड की सृष्टि को 'चउरासीह लख मेदनी' कहा गया है :

लख चउरासीह मेदनी तुझ ही ते होई ॥(3-1283)

लख चउरासीह मेदनी तिसना जलति करे पुकार ॥

इहु मोहु माइआ सभु पसरिआ नालि चलै न अंती बार ॥(3-1416)

जे आवहि से जाहि फुनि आइ गए पछुताहि ॥

लख चउरासीह मेदनी घटै न वधै उताहि ॥(1-936)

लख चउरासीह मेदनी सभ आवै जासी ॥

निहचलु सचु खुदाइ एक खुदाइ बंदा अबिनासी ॥(5-1100)


शास्त्रों में इन चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ बताई गई है। मेहर बाबा ने लिखा है कि आत्मा के मानवरूप को ग्रहण करने के साथ ही चेतना का विकास पूरा हो जाता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मानवरूप से श्रेष्ठ कोई रूप विकसित नहीं होगा। चेतना के विकासक्रम में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है अतएव आत्मा मनुष्य शरीर का उपयोग सभी संस्कारों व कर्मों को समाप्त करके अपने वास्तविक, शाश्वत व अनंत स्वरूप को प्राप्त करने में करती है। बाबा जी के इस कथन में दो तथ्य हैं। पहला, सभी जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ है; दूसरा, मनुष्य शरीर का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसे प्राप्त करके परमात्मा की भक्ति की जाये और परमात्मा से मिलाप कर लिया जाये। बाणी इन दोनों वक्तव्यों का समर्थन करती है। कुछ उद्धरण देखें :

फिरत फिरत बहुते जुग हारिउ मानस देह लही ॥

नानक कहित मिलन की बरीआ सिमरत कहा नही ॥(9-631)

अवर जोनि तेरी पनिहारी ॥ इस धरती महि तेरी सिकदारी ॥(5-374)

गुर सेवा ते भगति कमाई ॥ तब इह मानस देही पाई ॥

इस देही कउ सिमरहि देव ॥ सो देही भजु हरि की सेव ॥

भजहु गोबिंद भूलि मत जाहु ॥ मानस जनम का एही लाहु ॥(कबीर जी -1159)

लख चउरासी जोनि सबाई ॥ माणस कउ प्रभि दीई वडिआई ॥

इस पउड़ी ते जो नरू चूकै सो आइ जाइ दुखु पाइदा ॥(5-1075)

जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह ॥

कहु नानक सुन रे मनां दुरलभ मानुख देह ॥ (9-1427)


अन्य योनियां मनुष्य की अधीनस्थ हैं, मनुष्य उनका शासक है। इसका कारण यही है कि मनुष्य के पास मन है जिससे वह विचारों का सृजन कर सकता है, इससे उसे पशुबल से श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, आत्मपरिपूर्ति के अर्थ जीवात्मा द्वारा की जाने वाली इस लंबी यात्रा में, जिसे ऋग्वेद 'अध्वर' कहता है, मनुष्य योनि देवताओं से भी श्रेष्ठ है। देवता इस देही के लिए तरसते हैं : इस देही कउ सिमरहि देव ॥(कबीर जी, -1159) अर्थात्‌ मनुष्य योनि न केवल पशु योनियों से बल्कि देव योनि से भी श्रेष्ठ है। इसका कारण बताते हुए श्री अरविंद लिखते हैं, "पशु थोड़ी-सी आवश्यकताओं की पूर्त्ति से संतुष्ट रहता है और देवता अपने वैभव से संतुष्ट रहते हैं लेकिन मनुष्य तब तक स्थायी रूप से विश्राम नहीं कर सकता जब तक कि वह किसी उच्चतम शुभ या श्रेयस् तक न पहुंच जाये। वह जीवित प्राणिओं में सबसे अधिक असंतुष्ट है क्योंकि सीमाओं का दबाव सबसे अधिक अनुभव करता है।''(दिव्य जीवन, पृ-47)


पशु भी संतुष्ट हो जाता है और देवगण भी, लेकिन मनुष्य के हिस्से में असंतोष आया है। संतोष के दो कारण हो सकते हैं। संतोष का पहला स्रोत तमोगुण है जो अकर्मण्यता, प्रमाद, आलस्य, जड़त्व इत्यादि को पैदा करता है। निचली योनियों में संतुष्टी का स्रोत यही है। संतोष का दूसरा स्रोत सत्व गुण है जो ज्ञान, शक्ति व सुख का जनक है। यह गुण देवताओं को सुलभ है। तीनों गुणों की भिन्न-भिन्न मात्रा से तैयार मिश्रणों व उनके आधार पर निर्मित जीवन रूपों के अनुक्रम में मनुष्य एक ऐसे पायदान पर स्थित है जहां रजोगुण प्रचंड मात्रा में उपस्थित है, सत्व गुण भलीभांति रूप से अंकुरित हो चुका है, जबकि तमोगुण पीछे छिटक चुका है। सत्व गुण ज्ञान का बीज है, जीवों में ज्ञान का उपकरण मन है। संस्कृत में 'मन्‌' धातु के अर्थ हैं - सोचना, जानना, कल्पना करना (to suppose) इत्यादि। सत्व गुण दैवी संपदा जैसे शुद्धता, प्रकाश, निर्भयता, स्थिरता, संतोष आदि गुणों का स्रोत है। इसलिए मन के प्रकट होने के कारण मनुष्य में इन गुणों के प्रति प्रशंसा का भाव अवश्य ही रहता है, लेकिन रजोगुण के प्रचुर मात्रा में उपस्थित होने के कारण उसमें दंभ, दर्प, क्रोध, अधीरता, अनुभव के नित्य नवीन रूपों की ललक, दूसरों में दोष देखने की प्रवृत्ति इत्यादि अवगुण भी भरपूर मात्रा में होते हैं। रजोगुण मनुष्य को असंतुष्ट रखता है और इस असंतोष का दमन करने, इस अग्नि को बुझाने के लिए वह मानसिक शक्ति का, मन का प्रयोग करता है।


मन व ज्ञान के मध्य सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए गुरू नानक देव जी ने बड़ी सुंदर उदाहरण दी है। आप लिखते हैं कि जल घड़े मे ही टिक सकता है और घड़े का निर्माण जल के बिना नहीं होता। ऐसे ही मन रूपी घड़े का निर्माण ज्ञान के बिना नहीं होता, ज्ञान ही मन का बीज है। दूसरी ओर ज्ञान मन में ही टिकेगा अर्थात्‌ मनुष्य ही ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। इस ज्ञान के बिना मन निश्चल नहीं हो सकता, ज्ञान से ही मन को अपनी अर्थवत्ता की प्राप्ति होगी लेकिन गुरू के बिना ज्ञान हासिल नहीं होगा :

कुंभे बधा जलु रहै जल बिनु कुंभु न होइ ॥

गिआन का बधा मनु रहै गुरू बिनु गिआनु न होइ ॥(1-469)


मनुष्य असंतुष्ट है क्योंकि उसमें रजोगुण प्रचंड मात्रा में है। उसका सारा उद्यम इस असंतोष का शमन करके सुख प्राप्ति के लिए है। इस उद्यम में वह मन का उपयोग करता है। मन का इस्तेमाल करने की दो विधियाँ हो सकती हैं। पहली विधि यह है कि मानसिक विश्लेषण के द्वारा बाहरी पदार्थमय जगत्‌ का ज्ञान हासिल किया जाये। दूसरी विधि यह है कि मानसिक क्षमताओं जैसे स्मृति व कल्पना के द्वारा गुरूमंत्र के स्मरण व गुरू के ध्यान द्वारा अंतर्मुख शब्द का ज्ञान प्राप्त किया जाये। मुण्डक उपनिषद (1/1/4) में ज्ञान के इन्हीं दोनों रूपों को क्रमशः अपरा विद्या व परा विद्या कहा गया है। अपरा विद्या से नश्वर वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है जो आत्म तत्त्व की जानकारी में सहायक नहीं है, जबकि परा विद्या द्वारा अविनाशी ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान हासिल होता है, सा परा यद तदक्षरमधिगम्यते । यूनानी तत्त्वज्ञ भी इस प्रकार का भेद मानते थे। पहले को उन्होंने दोक्सा (doxa) कहा जबकि दूसरे को एपिस्टेमी (episteme)। आदिग्रंथ में भी मन की इन दो प्रकार की गतियों व उनके कारण भिन्न-भिन्न अवस्थओं का वर्णन किया गया है। मन के बारे में भक्त कबीर लिखते हैं :

इहु मनु सकती इहु मनु सीउ ॥ इहु मनु पंच तत को जीउ ॥(कबीर-342)


जहां भी 'शक्ति' पद 'शिव' पद के साथ सामासिक रूप में आया है, वहां शिव से तात्पर्य अक्षर ब्रह्म, नाम से है जबकि शक्ति से तात्पर्य उसकी पराप्रकृति अथवा शब्द से है। किंतु जहां भी यह स्वतंत्र रूप से आया है वहां इससे अभिप्राय त्रैगुणात्मक, अपरा प्रकृति से है जो परा प्रकृति की छायामात्र है। जैसे :

अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नींद न होई॥

सकती घरि जगतु सूता नाचै टापै अवरो गावै मनमुखि भगति न होई॥(3-506)


'जो मनुष्य हर समय प्रभू की रज़ा में रहता है वह माया का निवारण कर लेता है क्योंकि कल्याणस्वरूप प्रभू से मिलाप की अवस्था में अज्ञानता की नींद नहीं सताती। लेकिन जगत्‌ त्रैगुणात्मक माया के वशवर्ती होकर अज्ञानता में रहता है, यह मनमुखता की स्थिति है जिसमें प्रभू-भक्ति संभव नहीं।' अतः भक्त कबीर के कथन का आश्य है कि यह मन 'सकती' अर्थात्‌ त्रैगुणात्मक माया से भी एकरूप हो सकता है और 'सिव' अर्थात्‌ कल्याणस्वरूप प्रभू से भी जुड़ सकता है। अतएव माया के रजोगुण से उत्पन्न असंतोष की अग्नि को शांत करने के लिए मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियों का प्रयोग दृष्टिमान बाहरी जगत्‌ में भी कर सकता है और आंतरिक जगत्‌ में भी। दोनों परिस्थितियों में ज्ञान व शक्ति की प्राप्ति मन को होगी। पहली अवस्था में मन को सारा ज्ञान इंद्रियों से प्राप्त होगा। दर्शन, श्रवण, स्पर्श, गंध और रस का ज्ञान तत्संबंधी इंद्रियों के माध्यम से मन को प्राप्त होगा। जब मन ज्ञान की प्राप्ति के लिए इन पर आश्रित होता है तो वह शक्ति अर्थात माया रूप है। लेकिन मन में यह क्षमता है कि वह इंद्रियों का अतिक्रमण कर सकता है, ऐसा हमने देख लिया है। जब मन अंतर्मुख होगा तो वह सक्रिय नहीं होगा बल्कि शांत, निश्चल हो जाएगा और अनुगत भाव से परमात्मा की कृपा की प्रतीक्षा करेगा। शक्ति अर्थात माया की समस्त सक्रियता से परे शांत व निश्चल परमतत्त्व प्रभू की पराशक्ति अर्थात शब्द है और यह शक्तितत्त्व उस शिव से उत्पन्न हुआ है जो सदा-सदा निष्क्रिय, माया से स्वतंत्र है, तब वह शिवरूप हो जायेगा। पहली अवस्था में मन - और 'मन' से हमारा आश्य मनुष्य है – बाह्य जगत के बारे में, विषय के बारे में अभिज्ञ होगा और वह अत्यंत सक्रिय होगा क्योंकि सारा बाहरी जगत्‌ त्रैगुणी माया है और माया 'धात' है, सदा सक्रिय रहती है, इस अवस्था में मनुष्य को प्रभू-भक्ति का रस प्राप्त नहीं होगा :

त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥(3-603)


दूसरी अवस्था में मन अपने निज स्वरूप की ओर उन्मुख होगा, तब वह शिव रूप होगा। पहली अवस्था में मनुष्य इंद्रियों पर निर्भर होकर उनकी साक्षी के आधार पर ज्ञान प्राप्त करेगा, दूसरी अवस्था में उसका ज्ञान सीधे तादात्म्य (identification) द्वारा होता है। इसी तादात्म्यता को आदिग्रंथ में 'पछाण' कहा गया है : मन तूं जोति सरूपु है आपना मुलु पछाणु ॥(3-440) मन की इन्हीं दोनों अवस्थाओं के बारे में गुरू नानक देव जी लिखते हैं :

इहु मनु करमा इहु मनु धरमा ॥(1-415)


करमाधरमा दो भूमिकाएं हैं जिनमें मन रह सकता है। करमा अर्थात्‌ कर्मण्य, सक्रिय। यह अवस्था 'धात' है जो अपरा माया का स्वभाव है। धरमा से तात्पर्य शब्द से है जो जगत्‌ के लिए धर्म अर्थात्‌ धारण करने वाला है। पहली अवस्था में मन शक्ति रूप है, साकतु ; दूसरी अवस्था में शिव रूप है :

साकतु लोभी इहु मन मूढ़ा ॥ गुरमुखि नामु जपै मनु रूड़ा ॥(1-415)


मनुष्य को चाहिए कि वह मन को इन्द्रियों द्वारा प्राप्त बाह्य विषयों से रोके, इसके लिए मन से संघर्ष करना होगा क्योंकि पत्न का मार्ग आसान है। फिर मन को आंतरिक शब्द के ज्ञान के लिए प्रेरित करना है और उसके पीछे-पीछे अंदर जाना है :

मन ही नालि झगड़ा मन ही नालि सथ मन ही मंझि समाइ ॥(3-87)


जब मन को कहा गया कि वह अपने मूल की पहचान करे तो भाव है कि वह अपने मूल से तादात्म्यता को प्राप्त करे। यह कहा जा रहा है कि मन का मूल ज्योतिस्वरूप परमात्मा है। वर्तमान अवस्था में मन और आत्मा का संबंध हमारी दृष्टि में गढ्‌ढमढ्‌ढ हो चुका है। मन सोचने, विचारने का उपकरण है लेकिन हम समझते हैं कि हम और विचार का यह उपकरण एक ही है। अतः मन को इस संबोधन का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को अपने मूल स्वरूप को जानना चाहिए। जब हमें हमारी सच्ची 'मैं' का ज्ञान हो जाएगा तो मन की समस्त चंचलता, इसका संकल्प-विकल्प में रहने का स्वभाव समाप्त हो जायेगा। तब यह मन सदा राग-द्वेष से विरक्त रहता है, जगत्‌ में रहते हुए ही जगत्‌ से अतीत प्रभू के प्रेम में रहता है :

करमु होवै गुरू किरपा करै ॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै ॥

मन का सुभाउ सदा बैरागी ॥ सभ महि वसै अतीतु अनुरागी ॥

कहत नानकु जो जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥(3-1129)


इस तरह मन ज्ञान का उपकरण अवश्य है किंतु जब तक यह ज्ञान के लिए विश्लेषण और संश्लेषण की विधि को अपनाये रखता है उसका ज्ञान तात्त्विक ज्ञान नहीं होता। विश्लेषण और संश्लेषण से यह वस्तुओं के बाहरी गुणों, उनकी लम्बाई, चौड़ाई आदि तीन आयामों को जान लेता है और कहता है 'अब मैं जानता हूं।' लेकिन वह वस्तु के तत्त्व को नहीं, उनके बारे में अपने विश्लेषण को जानता है। इसीलिए नाम को मन के लिए अगम्य कहा गया है। आध्यात्मिक साधना में मन की भूमिका यही है कि वह गुरू के वचनों पर भरोसा करे और स्मृति व कल्पना की शक्तियों का प्रयोग करके अंतर्मुख शब्द से तादात्म्यता का प्रयास करे। मन के इस प्रकार से अनुप्रयोग में मानसिक विश्लेषण व गतिविधि, चंचलता को छोड़ना पड़ता है किंतु फिर भी मानसिक शक्तियों का उपयोग किया जा रहा होता है। इसीलिए मन के संबंध में गुरूवाणी में ऐसी उक्तियां आती हैं :

ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ ॥

मन ही मन सिउ कहै कबीरा मन सा मिलिआ न कोइ ॥(कबीर-340)

मन ही नाल झगड़ा मन ही नालि साथ मन ही मंझि समाइ ॥(3-87)


साधक को जाना मन से परे है लेकिन जाना मन के माध्यम से है। मन आगे छलांग लगाने के लिए तख्ता है। इस तख्ते का इस्तेमाल करके इसे छोड़ देना है। पहले ही कहा जा चुका है कि इसी को 'मंनै' की अवस्था कहा गया है अर्थात्‌ मन का मान जाना, अपनी संश्यालूवृत्ति, चंचलता आदि को त्याग देना। श्री अरविंद लिखते हैं, "मन का सबसे बड़ा काम है जड़तत्त्व के अंधेरे कारागार से निकली हमारी धुंधली चेतना को प्रशिक्षित करना, उसकी अंधी सहजवृत्तियों, अनियत अंतर्भासों, अस्पष्ट बोधों को तब तक प्रकाशित करना जब तक कि वह इससे अधिक महत्‌ प्रकाश और इससे अधिक ऊंची चढ़ाई के योग्य न हो जाये। मन एक रास्ता है, चरम अवस्था नहीं।''(दिव्य जीवन, पृ-128)


(शेष आगे)

 

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