Are you a Manmukh or a Gurmukh?
The difference between Manmukhs and Gurmukhs is the difference between being ruled by your ego and being in tune with the divine.
Namastey🙏😄
Before you start reading, have a look at the key highlights of this article.
There are two types of human beings: Manmukhs and Gurmukhs.
Manmukhs do not remember the Lord's name or practice the divine Word.
Gurmukhs practice the divine Word and get absorbed in the Name.
Gurmukhs use their intellect to practice the Word, which makes them intelligent and elevates their spiritual state.
Manmukhs use their intellect in a wayward way, which makes them unintelligent and degrades them spiritually.
The easiest way to progress from Manomaya Kosha to Vijnyamaya Kosha is to go to a Guru and learn from them the method of practicing the Word.
Wisdom makes a man, the practice of the Word makes a man a great man.
The practice of the divine Word is the foundation of a great personality and a great civilization.
Wait... Here's more.
The distinction between Manmukhs and Gurmukhs is a central one in Sikhism. Manmukhs are those who are ruled by their ego and desires, while Gurmukhs are those who are in tune with the divine will.
The practice of the divine Word is a way to overcome the ego and to connect with the divine. It is a process of purification and transformation that can lead to spiritual liberation.
The Guru is a guide who can help us to practice the divine Word and to progress on the spiritual path.
In summary, the text describes the two types of human beings, Manmukhs and Gurmukhs, and the different ways they use their intellect. It also emphasizes the importance of practicing the divine Word, which can lead to spiritual elevation and the development of a great personality.
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करमखंड से धर्मखंड तक के सृष्टि वर्णन में हमने देखा कि करमखंड में स्थित एकता ही धर्मखंड में दृष्टिगोचर होने वाली अनेकता में व्यक्त हुई है। करमखंड में अनेकता प्रभूसत्ता में निहित अन्तःशक्ति या संभावना के रूप में है जो निचले तीन मंडलों में क्रमशः वास्तविकता में मूर्त होती जाती है। सृष्टि के अनेक रूपों में प्रकट होने वाली यह अन्तःशक्ति सर्वप्रथम सृष्टि के कारण मंडल सरमखंड में ‘एक’ बीज के रूप में प्रकट होती है। यह बीज ही आगे आने वाले मंडलों में निरंतर बढ़ता, फलता-फूलता है और एक विशाल संसार वृक्ष का रूप धारण करता है। संसार के लिए वृक्ष का यह रूपक बड़ा दिलचस्प है। ऋग्वेद (1.24.7), गीता (15.1), तैत्तिरीय उपनिषद, कठोपनिषद व महाभारत में विश्व की उपमा एक वृक्ष से दी गई है। गीता में कहा गया है कि इस वृक्ष की जड़ें ऊपर हैं, ऊर्ध्वमूलं, क्योंकि यह संसार के रूप में फैलता है, इसलिए इसकी शाखाएं 'नीचे की ओर', अधःशाखम, कही जाती हैं। अब वृक्ष का मूल 'एक' बीज है तो उसका अंतिम परिणाम भी बीज ही होता है। ये बीज संख्या में अनेक होते हैं और हर बीज में वही वृक्ष एक संभावना के रूप में समाया रहता है। ठीक इसी प्रकार संसार वृक्ष का मूल एक परमात्मा है; लेकिन इसका अंतिम परिणाम उन जीवों की उत्पत्ति है जो संख्या में अनेक होते हैं और जिनमें वही संसार वृक्ष समाया रहता है। इस प्रकार करमखंड में स्थित प्रभू की एकता धर्मखंड में जीवों की उस अनेकता में प्रकट होती है जहां प्रत्येक जीव परमात्मा समेत समस्त ब्रह्मांड को अपने अंदर छिपाए हुए है। अब हम यह देख आये हैं कि धर्मखंड में प्रभू में निहित 'अस्तित्व' (सत्) का गुण ही सक्रिय है, चेतना व आनंद यहां पृष्ठभूमि में हैं, अतः धर्मखंड में सत्ताओं की ऐसी अनेकता दृष्टिगोचर होगी जिनमें चेतना गुप्त होगी। अर्थात् कोई भी सत्ता सचेतन नहीं होगी। सत्ता के इस रूप को पिंड कहा जाता है। पिंड जड़ पदार्थ हैं। ये पंचभौतिक पदार्थ का प्रपंच हैं। पिंडों की इस अनेकता के रूप में यही जड़ पदार्थ था जो धरती के रंगमंच पर मनुष्य या किसी भी जीवित प्राणी के आगमन से बहुत पहले मौजूद था क्योंकि जीवन चेतना है और पिंड में चेतना का प्रतिनिधित्व प्राण करता है जो धरती पर दीर्घकाल के पश्चात् प्रकट हुआ। पिंड पूर्णतः स्थूल, जड़ पदार्थ है। प्रत्येक पिंड एक सूक्ष्म ब्रह्मांड है जिसका मूल बिंदू (core) ज्योतिरूप पुरुष है जो एक के बाद एक बुद्धि, मन, प्राण व जड़ के पर्दों से ढंका हुआ है। वेदांत में इन पर्दों को कोश कहा गया है। कुल पांच कोश हैं - अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश व आनंदमय कोश। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के पांच तल हैं। प्रत्येक पिंड में चेतना क्रमविकास (evolution) की यात्रा करते हुए अस्तित्व के जिस तल पर पहुंचती है, उसी के अनुरूप उस पिंड का बाहरी स्वरूप होगा और उसी के अनुपात में उसकी नैतिक चेतना व सामर्थ्य होगी। सभी पिंडों का मूल बिंदू आत्मा है, जो एकसमान है। ''सभी आत्माएं परमात्मा थीं, हैं और रहेंगी। सभी आत्माएं एक परमात्मा ही हैं और वे असीम, शाश्वत व निराकार हैं। आत्माओं में अथवा आत्मा के रूप में उनके सत् और सत्ता में कोई अंतर नहीं है। अंतर आत्माओं की चेतना के स्तर में, उनके अनुभव में और इस प्रकार उनकी अवस्था में है।''(God Speaks, पृ -1) अतएव धर्मखंड में प्रतीयमान (apparent) विविधता केवल ऊपरी या बाहरी है। विविधता सत् (Being) में नहीं, सत् की शक्ति के प्रकटन में है। लेकिन फिर भी हम आगे चलकर देखेंगे कि शक्ति के प्रकटन के कारण दीख पड़ती भिन्नता भी, सूक्ष्म दृष्टि से देखे जाने पर, एक गंभीर एकता को छिपाए हुए है।
अस्तित्व का प्राथमिक तल अन्नमय कोश है। यह एक स्थूल पदार्थ है जिसकी परिधि में पत्थर व खनिज से लेकर मनुष्य के शरीर तक सब आकार शामिल हो जाते हैं। इस तरह प्रत्येक पिंड के प्राथमिक स्वरूप को ही अन्नमय कोश कहा जाता है। यह कोश पांच मूलभूत तत्त्वों यथा पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु व आकाश से निर्मित होता है और इसका स्वरूप इस तथ्य पर निर्भर करता है कि पिंड में निवास करने वाली आत्मा अन्न-भूमिका में है या प्राण-भूमिका में, या मनो-भूमिका में या विज्ञान-भूमिका में। जब आत्मा अन्न-भूमिका में होती है तो पिंड का अन्नमय शरीर गैस, द्रव, पत्थर या धातु का होगा। इस अवस्था में पिंड का रूप जड़ (inanimate) होगा, उसमें जीवन व ऊर्जा प्रसुप्त होंगी, उनमें ऐच्छिक गति (voluntary motion) नहीं होगी और वे स्वयं को शयित (recumbent) व क्षैतिज अवस्था में व्यक्त करेंगे।
अस्तित्व का दूसरा तल प्राणमय कोश है। प्राण जीवनी शक्ति के रूप में अन्नमय कोश के भीतर प्रकट होता है। धरती पर उसका पदार्पण सर्वप्रथम वनस्पति के रूप में होता है। वनस्पति के तल पर पिंड में कुछ विशेषताएं ऐसी हैं जिनके आधार पर इसे सप्राण कहा जाएगा जबकि कुछ विशेषताएं ऐसी हैं जिनके आधार पर इसे निष्प्राण कहा जाएगा। उद्दीपन के प्रति प्रत्युत्तर, जो जीवन का मूलभूत लक्षण है, पौधों में सुलभ है। चेतना की वृद्धिगत अवस्था इस तथ्य से भी पता चलती है कि पादपरूप सीधे खड़े होते हैं किन्तु उनमें ऐच्छिक गति का अभाव व सीधे खड़े होने के लिए किसी दूसरे साधन जैसे पृथ्वी या चट्टान की सहायता की आवश्यकता ऐसे तथ्य हैं जो यह बताते हैं कि जीवन का यह रूप अधिक विकसित नहीं है। इस तरह हम कह सकते हैं कि वनस्पति जगत् अन्नमय कोश व प्राणमय कोश के मध्य संक्रमण की अवस्था है। प्राण की शक्ति का विकास आगे चलकर कृमि, कीटकों, जलचरों, नभचरों व तत्श्चात् पशुओं में होता है। प्राण तत्त्व का प्रमुख गुण जिजीविषा है जो प्राणधारियों में संकल्प बल, साहस, निजी उत्साह, पराक्रम आदि गुणों को उत्पन्न करता है जिससे वे अन्नमय कोश के जड़त्व का प्रतिरोध करते और उसे विशिष्ट रूपों में ढालते हैं ताकि वातावरण के साथ अनुकूलन द्वारा या फिर उसकी प्रतिकूलता का प्रतिरोध करते हुए जीवन को दीर्घ किया जा सके। प्राण का एकमात्र सरोकार इतना ही है, इससे आगे न उसकी कोई कामना है न विचारणा की क्रिया। जब आत्मा प्राण-भूमिका में आती है तो पिंड के अन्नमय शरीर में भी तदनुसारी परिवर्तन होते हैं। पहली बार शरीर में ऐच्छिक गति की सामर्थ्य उत्पन्न होती है। कृमि-कीटकों, जिनमें सब प्रकार के कीड़े-मकोड़े, सरीसृप, व जलथलचर शामिल हैं, में यह गति रेंगने के रूप में होती है, जलचरों में तैरने के रूप में होती है जबकि नभचरों के रूप में ये शरीर आकाश में उड़ सकते हैं।
अस्तित्व का तीसरा तल मनोमय कोश है। मनुष्य वह प्राणी है जिसमें यह कोश पूर्णतः विकसित रूप से प्रकट होता है। मन के कारण ही हम मनुष्य हैं। किंतु मनुष्य में मन की उत्पत्ति अकस्मात् नहीं होती। जिस प्रकार पादपजगत् अन्नमय कोश व प्राणमय कोश के बीच संक्रमण की अवस्था है उसी प्रकार चौपाए पशुओं को प्राणमय व मनोमय कोश के बीच एक सेतु के रूप में मानना चाहिए। पशुओं की कुछ प्रजातियां, विशेषकर बंदर, अपने वर्ग में सर्वाधिक विकसित हैं। उनमें बुद्धि का श्रेष्ठ स्तर मिलता है और वे मनुष्य की तरह सीधे खड़े रह सकते हैं। मन के विकास के कारण ही मनुष्य में कल्पना, स्मृति, तर्क, विवेचना जैसी विशेषताएं उत्पन्न होती हैं। जब आत्मा मनोभूमिका में आती है तो पिंड के अन्नमय कोश व प्राणमय कोश दोनों रूपांतरित हो जाएंगे। एक ओर तो अन्नमय शरीर की प्रवृत्ति सीधे (erect) खड़े होने की होगी। दूसरी ओर पिंड में प्राणिक चेतना - जिसका प्रधान लक्षण है, ''मृत्यु और पारस्परिक भक्षण, क्षुधा और सचेतन कामना, सीमित अवकाश और क्षमता का भाव और वृद्धि, विस्तार, विजय और आधिपत्य के लिए संघर्ष"(दिव्य जीवन, पृ -200) - के स्थान पर नैतिक चेतना विकसित होने लगती है। ''जैसे जैसे मन विकसित होता है ...... वह जीवन के, प्रेम के और परस्पर सहायता के अनुभव से इस बोध पर आता है कि प्राकृत व्यक्ति सत्ता का एक गौण पद है और वह विश्व सत्ता के सहारे ही रहता है।''(दिव्य जीवन, पृ -201) इस तरह मनुष्य में आदान-प्रदान का आचरण पनपता है और 'योग्यतम उत्तरजीविता' (survival of the fittest) जैसे सिद्धांत अप्रासंगिक हो जाते है।
अब तक किए गए विवेचन के आधार पर अन्नमय कोश, प्राणमय कोश व मनोमय कोश की संगति क्रमशः त्रैगुणी माया के तमोगुण से निर्मित जड़, रजोगुण से निर्मित प्राण, व सत्व गुण से निर्मित मन से हो जाती है। आनंदमय कोश की संगति वैश्वपुरुष/शब्द की अनुभूति से हो जाती है। यह ऐसी अवस्था है जब जीवात्मा माया के तीन गुणों में ही होती है लेकिन वहाँ ये तीनों गुण संतुलित अवस्था में होते हैं और जीव शब्द से संयुक्त होता है। जहां तक विज्ञानमय कोश का प्रश्न है, यह महान बुद्धि अथवा महत् है, यहाँ भी माया के तीन गुण संतुलन की अवस्था में हैं किन्तु जीव इनका दृष्टा नहीं अपितु दृश्य प्रकृति का भाग है। इस प्रकार विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश में समानता भी है और अंतर भी है। अंतर यह है कि विज्ञानमय कोश में जीव अपराप्रकृति का भाग है जबकि आनंदमय कोश में वह पराप्रकृति का भाग है; समानता यह है कि दोनों अवस्थाओं में प्रकृति शांत व निश्चल होती है जिससे जीव को अत्यंत सुख और आनंद की अनुभूति होती है।
हमारा मानना है कि मनोमय कोश बुद्धि के अवर स्वरूप को इंगित करता है जबकि विज्ञानमय कोश बुद्धि के श्रेष्ठ स्वरूप को बताता है। हम कह सकते हैं कि पिंड में स्थित आत्मा जब अस्तित्व के तीसरे तल मनोमय कोश में पहुंचती है तो मनुष्य का बौद्धिक पक्ष (intellect) प्रधान होता है जबकि विज्ञानमय कोश में मनुष्य का भाव-संवेदन पक्ष (feeling) प्रधान होता है। जब आत्मा विज्ञानमय कोश में पहुंचती है तो मनुष्य दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन व परोपकारी बनता है। मेहर बाबा ने गुरू नानक देव जी द्वारा वर्णित सरमखंड, जिसे हमने मानसिक जगत् कहा है, को दो भागों में बांटा है। बाबा जी लिखते हैं, ''मानसिक सृष्टि में मन के दो भाग हैं। पहले भाग में मन का स्वभाव विचार या जिज्ञासा का होता है। इस तल पर मन में चिन्तन का पक्ष प्रधान होता है - श्रेष्ठ चिंतन, निकृष्ट चिंतन, शुभ विचार, अशुभ विचार, भौतिक विचार, आध्यात्मिक विचार इत्यादि। दूसरे तल पर मन में संवेदना का पक्ष प्रधान होता है और वह जज्बातों या भावनाओं के रूप में कार्य करता है। ये भावनाएं कई प्रकार की होती हैं जैसे पीड़ा, आवेश, कामनाएं, अभिलाषाएं, वेदनाएं इत्यादि। ...... अतएव मानसिक सृष्टि के दो भाग हैं - पांचवां मंडल जहां चेतना विचार प्रधान होती है और छठा मंडल जहां चेतना भाव-संवेदन प्रधान होती है।''(God Speaks, पृ -47 व 48) आपने यह भी लिखा है कि जब आत्मा पांचवें मंडल अर्थात् सरमखंड के पहले भाग में होती है तो उसमें विचारों के सृजन के संबंध में तो दक्षता होती है किंतु संवेदनाओं, आवेगो या कामनाओं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। अब चूंकि पिंड ब्रह्मांड की ही प्रतिकृति है अतः पिंड में भी मन के दो भाग होने चाहिएं। ये दो भाग मनोमय कोश व विज्ञानमय कोश ही हैं। मनोमय कोश के कारण मनुष्य में विचारों (ideas) का विस्फोट होता है। वह सफल व्यवसायी, राजनीतिज्ञ, विचारक, लेखक, वैज्ञानिक आदि बनता है जबकि विज्ञानमय कोश के कारण मनुष्य सफल ही नहीं, उदार व परोपकारी, एक भला मनुष्य बनता है। विज्ञानमय कोश के कारण ही मनुष्य उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाता है। ऐसा ही मनुष्य मार्टिन लूथर किंग जूनियर, विनोबा भावे जैसे महामानव बनता है। हम देख चुके हैं कि बाणी में मनुष्यों के दो रूप बताए गए हैं - मनमुख व गुरमुख। 'मनमुख का आचरण ऐसा होता है कि वह प्रभू-नाम का स्मरण नहीं करता और शब्द का विचार अर्थात् अभ्यास नहीं करता : नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का आचारु ॥(3-509) दूसरी ओर गुरमुखों का मूल लक्षण यह है कि वे शब्द का विचार करते हैं जिससे वे नाम में लीन हो जाते हैं और उनका उद्धार हो जाता है : गुरमुखि नामि रते से उधरे गुर का सबदु वीचारि ॥(3-1259) गुरमुख बुद्धि का उपयेग शब्द के विचार के लिए करता है जिससे उसे उत्तम बुद्धि व उत्तम गति प्राप्त होती है। मनमुख बुद्धि का उपयोग स्वच्छंद तरीके से करता है जिससे उसकी बुद्धि निकृष्ट हो जाती है और वह अधोगति को प्राप्त होता है। इससे दो बातें पता चलती हैं। पहली, मनमुख व गुरमुख मानवमात्र की दो श्रेणियां हैं जो आत्मिक रूप से क्रमशः मनोमय व विज्ञानमय कोश पर स्थित हैं। दूसरा, मनोमय कोश से विज्ञानमय कोश के तल पर उन्नति के लिए, अर्थात् मानव से महामानव बनने अथवा उन्नत व श्रेष्ठ मन की प्राप्ति करने का सबसे सरल उपाय यह है कि जीव गुरू के पास जाकर उससे शब्द के अभ्यास की विधि सीखे और अंतर्मुख शब्द का अभ्यास करे। बुद्धि का उपयोग पिंड में स्थित आत्मा को नर बनाता है। ध्यान रहे कि 'नर' शब्द का धातु 'नृ' है जिसका अर्थ 'नेतृत्व करना' है। मनुष्य को नर इसलिए कहा गया है क्योंक वह बुद्धि के बल पर समस्त जीवों पर शासन करता है : अवर जोनि तेरी पनिहारी ॥ इसु धरती महि तेरी सिकदारी ॥(5-373) दूसरी ओर शब्द का अभ्यास नर को नरश्रेष्ठ बनाता है। बुद्धि मानव का निर्माण करती है, शब्द के अभ्यास से मानव महामानव बनता है। शब्द अभ्यास श्रेष्ठ व्यक्तित्व व श्रेष्ठ सभ्यता की बुनियाद है।
विज्ञानमय कोश से परे आनंदमय कोश है। यह पिंड में अस्तित्व का अंतिम तल है जिसमें पहुंचने पर आत्मा ब्रह्मांड के उस भाग में प्रवेश करती है जिसे हमने पीछे धर्मखंड के निवासियों का परलोक कहा है। वैदिक साहित्य में इसको पितृलोक कहा गया है अर्थात् वह क्षेत्र जहां से दिवंगत आत्माएं गुज़रती हैं। इस कोश में पहुंचने पर आत्मा पिंड के कैदखाने से मुक्त हो जाती हैं और शब्द के सच्चे अस्तित्व, चेतनता व आनंद को अनुभव करती हैं। धर्मखंड में आत्माओं की सबसे अधिक संख्या अस्तित्व के प्रथम तल अन्नमय कोश में स्थित है। अस्तित्व के दूसरे तल प्राणमय कोश में स्थित आत्माओं की संख्या प्रथम तल की अपेक्षा कम हैं जबकि मनोमय कोश में स्थित आत्माओं की संख्या इससे भी कम है। विज्ञानमय कोश में स्थित आत्माएं दुर्लभ हैं जबकि आनंदमय कोश में स्थित आत्माएं दुर्लभतम हैं, ऐसी आत्मा करोड़ो में कोई विरली ही है : कोटि मधे को विरला दासु ॥(5-1340)
(शेष आगे)
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Excellent 👌