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Writer's pictureGuru Spakes

The nature of reality & your place in it. Kartapurush ep47

  • The universe is created on the principle of reflection or shadow.

  • The Absolute form of God is reflected in the Conscious power of God.

  • Maya, the inert power of God, is the shadow of the Conscious power of God.

  • The subtle region of creation is a reflection of the causal region, while the physical region is a reflection of the subtle region.

  • The original form of the world is in the causal sphere and the world we experience is also a shadow of the shadow of that original form of the world.


  • Read this article if you are interested in learning more about the nature of reality and the role of Maya in creation. You will gain a deeper understanding of the nature of reality and your place in it.

  • This article provides a clear and concise explanation of the principles of reflection and shadow, and it shows how these principles apply to the creation of the universe.


 

Read the previous article▶️Kartapurush ep46

 

इस प्रकार जपुजी की 34वीं पउड़ी का प्रयोजन दुहरा है। एक तो यह पउड़ी सृष्टि के मूलभूत सिद्धांतों को सार रूप में बयान करती है। दूसरे, इसमें धर्मखंड की विशेषताओं का वर्णन है। लेकिन यहीं एक प्रश्न उठता है। यदि इस पउड़ी की 11 पंक्तियों में वर्णित सिद्धांत सारी सृष्टि पर लागू होते हैं तो फिर सारी सृष्टि को ही धर्मखंड क्यों नहीं कह दिया जाता? इस पउड़ी में कुछ तो ऐसा वर्णन होना चाहिए जो अनन्य रूप से धर्मखंड पर ही लागू होता हो जिससे इस खंड के बाकी सृष्टि से विभाजन को न्यायोचित सिद्ध किया जा सके। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर हमारा यह आधारवाक्य खंडित हो जाता है कि 34वीं पउड़ी आगे तीन पउड़ियों में होने वाले सृष्टि वर्णन की प्रस्तावना है और इसके तथ्य सारी सृष्टि पर लागू होते हैं।


इस समस्या का समाधान यह है कि 34वीं पउड़ी में वर्णित तथ्य जैसे सृष्टि का परमात्मा की पराशक्ति और अपराशक्ति के संयोग से निर्मित होना, इसका देश व काल द्वारा सीमांकन, सत्ता का बहुरूपों में विभाजन, कर्म-सिद्धांत जो सृष्टि का संचालक नियम है और नाम-भक्ति जो सृष्टि रचना का मूलभूत प्रयोजन है, तीनों खंडों पर लागू होते हैं किंतु ये उन तीनों पर एक समान रूप से लागू नहीं होंगे बल्कि आत्मा के उत्थान या पत्न के अनुसार इन नियमों का उसे होने वाला अनुभव सापेक्ष रूप से भिन्न-भिन्न स्तर का होगा। जिस जीवात्मा का आत्मिक अनुभव धर्मखंड तक ही सीमित होगा उसके लिए जगत्‌ की भौतिकता एक स्थिर व अपरिहार्य सत्य होगी, उसके लिए जीवों की अनेकता ही एकमात्र सटीक सच होगी जिसे संभवतः सद्‌ग्रंथों के अध्ययन व आत्मिक रूप से उन्नत पुरुषों की संगत के प्रभाव से उत्पन्न इस बौद्धिक समझ से हलका किया जा सकेगा कि समस्त अनेकता एक ही सद्वस्तु का बहुविध विभाजन है जिससे उसके जीवन का निर्धारण करने वाले नीति-नियमों में उसी सीमा तक पारलौकिकता व निस्वार्थता के तत्त्वों को पैदा किया जा सकेगा किंतु श्रेष्ठ आत्मिक अनुभव के अभाव के कारण स्वार्थ आदि प्रवृत्तियों का प्रभाव अदम्य रूप से बना रहेगा। उसकी समझ जीवन को उसके प्रत्येक स्तर पर ही नहीं अपितु उसके प्रत्येक क्षण में प्रभावित करने वाले कर्म-सिद्धांत के प्रति और जीवन के मूलभूत प्रयोजन, नाम-भक्ति, के प्रति एक धुंधलके से भरी हुई होगी जिससे उसके जीवन की परिस्थितियां कठोर व कष्टदायक होंगी। इसके विपरीत जब जीवात्मा उचित आध्यात्मिक मार्गनिर्देशन में साधना करती हुई उन्नति करके ज्ञानखंड तक पहुंचेगी तो उसका आत्मिक अनुभव व ज्ञान उसी सीमा तक विशाल हो जाएगा। इसीलिए पीछे पउड़ी 36 की पहली पंक्ति, गिआन खंड महि गिआनु परचंड में आये ‘प्रचंड’ शब्द की व्याख्या में हमने लिखा कि इससे धर्मखंड की तुलना में ज्ञानखंड में जीवात्मा के ज्ञान की सापेक्ष प्रखरता का संकेत होता है। इस पउड़ी में केते पद की पुनरावृत्ति से पांच तत्त्वों, देवी-देवताओं, अवतारों, पृथवियों, जीवन के स्रोतों (खाणियों) व वाणी के प्रकारों (बाणियों) की अनेकता की ही सूचना नहीं मिलती, इससे साधक में सृष्टि की समस्त अनेकता के प्रभूसत्ता की एकता के धागे में पिरोए होने के ज्ञान की भी सूचना मिलती है। यह ज्ञान आत्मज्ञान है जिसमें साधक समस्त सत्ताओं में स्वयं को ही देखता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि वे सभी अनुभव जैसे विभाजन, सीमितता, स्थूलता, अज्ञानता आदि जो धर्मखंड में मनुष्य के जीवन को दुखों की एक अंतहीन गाथा बना देते हैं, ज्ञानखंड में अपने दंश को खो देंगे जिससे उसे तीव्र आनंद की अनुभूति होगी, तिथै नाद बिनोद कोड आनंद । आनंद की यह अनुभूति सरमखंड में और भी गूढ़ हो जाएगी इसलिए उस खंड का नाम ही सरमखंड अर्थात्‌ आनंद का खंड रखा गया है।


ऊपर जो तर्क दिया गया है, उसका समर्थन इस तथ्य से भी होता है कि समस्त सृष्टि आभास सिद्धांत के आधार पर निर्मित है। सर्वप्रथम परमात्मा की चिति शक्ति शब्द परमात्मा की अक्षर सत्ता नाम का आभास है। फिर परमात्मा की जड़ शक्ति माया उसकी चेतन शक्ति शब्द का आभास है। इसे हम एक उदाहरण के जरिए समझ सकते हैं। मानों एक सूर्य है जिसका आभास सरोवर या झील आदि के जल में पड़ता है और फिर उस आभास का आगे एक और आभास दीवार पर पड़ता है। प्रभू की अक्षर सत्ता नाम ही मानों सूर्य है, सरोवर में उससे निर्मित आभास को हम ईश्वर/शब्द कहेंगे जबकि दीवार पर बने उसके आभास को हम माया कहेंगे। जो हम देखते हैं वह वास्तविकता के आभास का आभास है। इतना ही नहीं, सूक्ष्म मंडल ज्ञानखंड सृष्टि के कारण मंडल सरमखंड का आभास है जबकि भौतिक मंडल धर्मखंड सूक्ष्म मंडल ज्ञानखंड का आभास है। आभास के इस रूप के लिए भी ऊपर बताई गई उदाहरण समुचित कही जाएगी। इस प्रकार त्रिलोकी के तीनों मंडल माया से निर्मित हैं किन्तु इन तीनों में से कारण मंडल सरमखंड में माया शुद्धतम रूप में है और सूक्ष्म मंडल ज्ञानखंड में माया धर्मखंड की अपेक्षा शुद्ध रूप में है। जगत् का मौलिक रूप सरमखंड में है और हम जिस जगत् का अनुभव करते हैं वह जगत् के उस मौलिक रूप की परछाई की भी परछाई है। ऐसे में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि त्रिलोकी के तीनों मंडल एक जैसे सिद्धांतों से शासित होते हैं किन्तु उन सिद्धांतों का माया से आबद्ध जीव को होने वाला अनुभव तीनों मंडलों में तीन भिन्न-भिन्न स्तर का होगा।


ऊपर जो कहा गया है, उसके विरोध में दो आपत्तियां की जा सकती हैं। पहली, तीनों लोकों की व्याख्या की यह पद्धति मूलतः आत्मा के उत्थान के दृष्टिकोण को केन्द्र में रखती है। धर्मखंड में जीवात्मा में ज्ञान का अभाव है या उसका ज्ञान मिथ्या है या यह भी कह सकते हैं कि यहां कुछ अवस्थाओं में यदि उसमें ज्ञान है भी तो वह केवल सैद्धांतिक है। इन्हीं कारणों से उसमें सामर्थ्य व आनंद का भी अभाव है। जब जीवात्मा आध्यात्मिक उन्नति करती हुई अगले मंडल में पहुंचती तो उसमें सच्चा ज्ञान प्रकट होता है जिससे उसमें सामर्थ्य व आनंद की विशेषताएं उत्पन्न होती हैं। आनंद की यही विशेषता आगे सरमखंड में और भी गहन व स्थायी हो जाती है। लेकिन व्याख्या की इस पद्धति में सृष्टि के क्रमिक विकास व उसमें आत्मा के क्रमिक अवतरण के अध्ययन की कोई गुंजाइश नहीं है। जब जीवात्मा का करमखंड से सरमखंड में अवतरण होगा तो उसे आनंद की अनुभूति क्यों होगी? ये तो उसके लिए अपार वेदना का क्षण होगा क्योंकि वह परमसत्ता से वियुक्त हो रही है। इसी तरह ज्ञानखंड में पहुंचने पर उसमें ज्ञान का ह्रास होगा न कि ज्ञान की उत्पत्ति या विकास। इस तरह देखा जाए तो पता चलता है कि 'ज्ञान' व 'सरम' ये दोनों पद धर्मखंड में जीवात्मा के तुलनात्मक रूप से अज्ञानतापूर्ण व दुःखपूर्ण अस्तित्व को रेखांकित करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं। इसका कोई स्वतंत्र व निरपेक्ष अर्थ निकलता ही नहीं। ये दोनों संज्ञाएं सार्थक ही तब होती हैं जब पांचों खंडों का अध्ययन 34वीं पउड़ी से शुरू किया जाये और फिर आत्मा के विकास के साथ साथ 37वीं पउड़ी में सचखंड तक पहुंचा जाए। इस लिहाज़ से पांचों खंडों के अध्ययन के लिए हमारे द्वारा अपनाई गई पद्धति व उसके अनुरूप किया गया विश्लेषण व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। सृष्टि रचना के बारे में हमारी यह मान्यता थी कि सरमखंड, ज्ञानखंड व धर्मखंड तीनों लोकों की उत्पत्ति सच्चिदानंद की वियोगात्मक शक्ति से होती है। करमखंड में सच्चिदानंद प्रभू भरपूर, भरा-पूरा, परिपूर्ण है। वहां प्रभू तत्त्व की अवस्था सत्‌, चित्‌ व आनंद के संयोग, सच्चिदानंद, की अवस्था है। जब प्रभू का वियोगात्मक स्वरूप सक्रिय होता है तो उसमें निहित सत्‌ (अस्तित्व), चित् (चेतना) व आनंद की शक्तियां वियुक्त हो जाती हैं जिनसे क्रमशः धर्मखंड, ज्ञानखंड व सरमखंड का निर्माण होता है। अब 'सरम' का अर्थ आनंद है, ज्ञान और चेतना समानार्थी शब्द हैं किंतु धर्मखंड की व्याख्या में जो पद्धति अभी हमने अपनाई है उसमें सरम व ज्ञान, ये दोनों शब्द प्रभूशक्ति की किन्हीं विशेषताओं का संकेत करते प्रतीत नहीं होते। तीनों खंडों की पीछे दी गई व्याख्या में यह एक बहुत बड़ी खाई है जिसे भरना आवश्यक है। इस व्याख्या के विरोध में दूसरी आपत्ति यह भी हो सकती है कि इसमें सरमखंड व ज्ञानखंड, इन दोनों के नामकरण तो सार्थक सिद्ध हो जाते हैं किंतु धर्मखंड का यह नाम क्यों रखा गया अर्थात्‌ धर्मखंड में 'धर्म' पद का प्रभूशक्ति में निहित अस्तित्व अर्थात सत् के गुण के संदर्भ में क्या अर्थ है, यह स्पष्ट नहीं होता।


सचखंड निवासी सत्स्वरूप परमात्मा सति निर्गुण ही नहीं सगुण सत्ता भी है। इसमें तीन प्रकार के अनंत गुण हैं - सत्‌, चित्‌ व आनंद। फिर यह सत्ता 'एक' है अतः यह सच्चिदानंद है। यहां चेतना में विषयी व विषय का कोई भेद नहीं है, अतएव यहां चेतना का स्वरूप शुद्ध 'मैं' (अस्मि) का है। करमखंड में प्रभूचेतना दो सत्ताओं में विभक्त होकर प्रकट होती है। एक में प्रभू में निहित तीनों प्रकार के गुण संयुक्त रूप से हैं, दूसरे में यही गुण वियुक्त रूप से हैं। बाणी में इन दोनों को क्रमशः संजोग व विजोग कहा गया है। ये दोनों सत्ताएं ही त्रैलोकी का क्रमशः निमित्त व उपादान कारण हैं जबकि सत्यस्वरूप परमात्मा इन कारणों का करने वाला है, और वही हमारा आराध्य देव है : सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥(5-262) करमखंड के अपने वर्णन में गुरू नानक ने इन दोनों को क्रमशः राम व सीता कहा है। राम वहां भरपूर हैं अर्थात्‌ सच्चिदानंदघन प्रभू वहां अडोल रूप से विराजमान हैं जबकि सीता - प्रभूस्वरूप की तीनों विशेषताओं को वियुक्त करके त्रिलोकी का निर्माण करने वाली शक्ति - वहां शांत है अर्थात्‌ रचना कर्म से निवृत्त है। परिणामस्वरूप यहां चेतना में विषयी व विषय का विभाजन अवश्य है किंतु विभाजन की मौलिक शक्ति के कर्म से निवृत्त होने के कारण विषयी व विषय में पूर्ण तादात्म्यता भी है जिससे यहां चेतना की अवस्था 'मैं वह हूं' (अहं सः) की होती है। परमात्मशक्ति के रचना कर्म में प्रवृत्त होने की दशा में सर्वप्रथम शक्ति में रूपों को रचने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिए हम कह सकते हैं कि सरमखंड में प्रभू की इच्छा शक्ति सक्रिय होती है। प्रभू की इच्छा शक्ति की सक्रियता का परिणाम ही सरमखंड है। लेकिन यह इच्छा शक्ति सक्रिय क्यों होती है? इस सक्रियता की मूल प्रेरणा क्या है? उसका उत्तर त्रिलोकी के पहले खंड के लिए प्रयुक्त संज्ञा 'सरम' अर्थात्‌ आनंद पद में छिपा है। प्रभूशक्ति में विस्तार की पहली अवस्था में सच्चिदानंद में से आनंद का तत्त्व विभक्त होगा जिससे सरमखंड बनेगा। यहां समस्त सृष्टि बीज रूप में है। इसका अर्थ हुआ कि सृष्टि का बीज या कारण है - सत्ता का आनंद। परमात्मा मे सृष्टि की रचना करने की शक्ति है लेकिन वह सृष्टि की रचना करने के लिए विवश नहीं है। वह सृष्टि की तमाम गति व रूपों का निर्माण करता है क्योंकि वह रचना कर्म में आनंद लेता है। 'जो भी चीज़ यहां है, उसमें सत्ता का आनंद विराजा है और उसका अस्तित्व उस आनंद के बल पर ही है।''(दिव्य जीवन, पृ -91) यहां प्रभू चेतना जिन रूपों का निर्माण करती है वे रूप उसकी अपनी सत्ता का ही प्रकाश हैं और वे उन रूपों को देखकर हर्षित होती है। स्वाभाविक रूप से यहां चेतना की अवस्था करमखंड के 'मैं वहीं हूं' के स्थान पर 'मैं यह हूं' (I am This) होगी। यहां 'यह' (This) कोई व्यष्टिगत सत्य नहीं है, बल्कि समष्टिगत (universal) सत्य है अर्थात्‌ 'यह' से आश्य इदम्‌ है किंतु यह सर्वं इदम्‌ (All This) है। प्रभूशक्ति के विस्तार की दूसरी अवस्था में सच्चिदानंद में से चित्‌ तत्त्व विभक्त होगा। चित्‌ का अर्थ चेतना है। चेतना से ज्ञान संभव होता है। इसका अर्थ हुआ कि इस अवस्था में प्रभू की ज्ञानशक्ति सक्रिय होती है जिससे बनने वाले लोक को गुरू साहिब ज्ञानखंड कहते हैं। यहां चेतना की मूल विशेषता यह है कि वह जगत्‌ के विविध रूपों को अपने ही निजत्व के विस्तार के रूप में सचेतन रूप से जानती है। फलस्वरूप यहां चेतना की अवस्था का मूलसूत्र 'यह मैं हूं' (This I am) होगा। सचखंड में एकता की अवस्था थी। करमखंड में यह एकता विषयी व विषय में विभाजित हुई किंतु यह विभाजन अज्ञानतापूर्ण नहीं है, वहां एकता का पूर्ण ज्ञान है। ज्ञान की यह अवस्था आगे आने वाले सरमखंड व ज्ञानखंड में भी कायम रही यद्यपि विभाजन के सूत्र निरंतर मूर्त रूप लेते गये। सरमखंड में अहम्‌ व इदम्‌ भिन्न होते हैं किंतु अहम्‌ अभी भी इदम्‌ से महत्त्वपूर्ण है। ज्ञानखंड में इदम्‌ का स्वरूप अधिक सुनिश्चित हो जाता है, यहां चेतना का केन्द्र अहम्‌ से छिटककर इदम्‌ पर हो जाता है अर्थात्‌ चेतना बहिर्मुख हो जाती है किंतु अहम्‌ को जिस इदम्‌ का अनुभव होता है वह अभी भी सर्वं इदम्‌ है अर्थात्‌ आत्मा का बोध समग्र का होता है, उसकी चेतना समष्टिगत होती है, अतः उसे ज्ञान की स्थिति ही कहा जाएगा। आत्मा को पता है कि विविध नामों व रूपों का यह जगत्‌ मुझसे भिन्न नहीं है, 'यह मैं हूं'। ज्ञान के ये तीनों प्रकार, जो करमखंड, सरमखंड व ज्ञानखंड में मिलते हैं, अंतरंग व श्रेष्ठ हैं और हमारे रोज़मर्रा के जीवन के लिए असामान्य हैं। तादात्म्यता का धागा तीनों को एकता में पिरोए रखता है। ज्ञान के ये तीनों रूप धर्मग्रंथों में भरपूर परिमाण में मिलते हैं। उदाहरणार्थ ईशावास्योपनिषद के श्लोक संख्या 6 व 7 में ऋषि लिखता है :

यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति ।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगु्प्सते ॥ 6॥

यस्मिन सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्‌ विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत ॥ 7॥


'जो सर्व भूतों को आत्मा में ही निरंतर देखता है और आत्मा को सर्व भूतों में देखता है, वह किसी के प्रति भेदभाव नहीं करता ॥6॥ जहां अनुभवज्ञान प्राप्त साधक की आत्मा ही सर्वभूत बन गई हो, वहां निरंतर एकात्म दीखने वाले उस साधक को कैसा मोह? कैसा शोक?' इसमें छठे श्लोक के प्रथम अर्ध में साधक की उस अवस्था का बयान है जिसे वह ज्ञानखंड में अनुभव करता है, जबकि इसके उत्तरार्ध में सरमखंड के अनुभव को बयान किया गया है। ऋषि कहता है, 'सर्वाणि भूतानि', 'सभी भूतों को'। 'भूत' अर्थात्‌ अस्तित्व धारण करने वाला। विश्व में जो भी पदार्थ है, जीव है, जो कोई भी अस्तित्व में आया हुआ है, उन सबको साधक अपनी आत्मा में देखता है। इस अनुभव को श्रीअरविंद 'समावेश' का नाम देते हैं। यहां एक सत्ता का दूसरी सत्ता से दीखने वाला भेद, जो हमारे जगत्‌ का सामान्य तथ्य है, समाप्त हो जाता है। इससे भी परे सरमखंड में साधक अपनी आत्मा को सभी में देखता है। उसे पता चलता है कि मेरे अंदर निवास करने वाली आत्मा दूसरे सभी में निवास करने वाली आत्मा से लेशमात्र भी भिन्न नहीं है। इस अनुभव को श्रीअरविंद 'अंतर्निवास' का नाम देते हैं। और ऋषि कहता है कि, ''यह दर्शन एकाध बार पलक झपकते, क्षण भर के लिए दिखाई देने वाले नहीं, बल्कि क्षणांश को भी भंग किए बिना, सतत रूप से दिखाई देने वाले होते हैं। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि ऋषि ने इसके लिए 'पश्यति' नहीं कहा बल्कि 'अनुपश्यति' कहा है। अनु अर्थात्‌ पीछे। साधक निरंतर पीछे देखता है और उसे अनुभव करते हुए उसमें अटकता नहीं रह जाता। वह बार बार अनुभव करता है। इस प्रकार निरंतर (निर्‌ + अंतर, बीच में जरा-सा भी अंतर पड़े बिना) अनुभव करता है।''(ईशावास्योपनिषद, श्री उमाशंकर जोशी, पृ -22) ज्ञान की उससे भी परे व श्रेष्ठ अवस्था करमखंड की है जिसे ऋषि सातवें श्लोक में 'आत्मा एव सर्वाणि भूतानि अभूत्‌' कहते है। ज्ञान की पिछली दोनों भूमिकाओं को एकता-सह-विविधता कहा जा सकता है, लेकिन यहां विविधता रह ही नहीं जाती, आत्मा ही सर्वभूत बन जाती है। इस अनुभव के लिए ऋषि 'आत्मैव' शब्द की योजना करता है जिसका अर्थ है, एकत्व का अनुभव। यहां साधक के लिए विश्व के समस्त भूत उसकी आत्मा बन गये हैं (अभूत्‌)। श्री अरविंद इस अनुभव को 'तादात्म्यता' की संज्ञा देते हैं।


इस प्रकार करमखंड, सरमखंड व ज्ञानखंड इन तीनों में ज्ञान भिन्न-भिन्न रूपों में है। यदि हम इसके साथ धर्मखंड को भी ले लें तो ज्ञान के चार रूप हो जाएंगे। इनमें से करमखंड में एकता का ज्ञान है, सरमखंड व ज्ञानखंड में एकता-सह-विविधता का ज्ञान है। ज्ञान के इन चार रूपों को उपनिषदों में चार नाम दिए गए हैं - ज्ञान, प्रज्ञान, संज्ञान और अज्ञान।


इस तरह करमखंड के बाद ज्ञान का निरंतर ह्रास होता है और यह प्रक्रिया धर्मखंड में चरम सीमा पर पहुंचती है। हमने पहले ही लिखा है कि ज्ञान का अर्थ एकत्व की अनुभूति है जबकि अज्ञान का अर्थ बहुत्व की अनुभूति है। सृष्टि में बढ़ती यौगिकता के अनुपात में प्रभू तत्त्व में निहित एकता विभाजित होती व बहुत्व में बदलती है। सरमखंड व ज्ञानखंड का निर्माण प्रभूशक्ति में निहित क्रमशः आनंद व चित्‌ विशेषताओं के विभाजन से हुआ। उसमें केवल सत्‌ तत्त्व ही अक्षुण्य है। सत्‌ का अर्थ अस्तित्व है। जहां सरमखंड में प्रभू की इच्छाशक्ति प्रभू में निहित सनातन ऐक्य से विविध रूपों का निर्माण करती और उस एकता को विविधता में देखकर आनन्दमग्न होती है; ज्ञानखंड में प्रभू की ज्ञानशक्ति एक-एक रूप की विविधता को जानती व उसे सचेतन ऐक्य में धारण किए रहती है; वहीं धर्मखंड में प्रभू की क्रियाशक्ति अर्थात्‌ किसी भी रूप में ढल जाने की शक्ति सक्रिय होती है जिससे ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व संभव होता है। इस तरह धर्मखंड में एकता पूरी तरह तिरोहित हो जाती है, यहां सत्ता का विभाजन पूर्णरूप से हो जाता है।


हमने लिखा है कि ज्ञानखंड का ज्ञान आत्मपरक है अर्थात्‌ यह ज्ञाता को अपने स्वरूप का होने वाला ज्ञान है। दूसरी ओर धर्मखंड में जिस क्रिया या कर्म की बात कही गई है, वह वस्तुपरक है अर्थात्‌ जहां ज्ञानखंड में ज्ञान का आलम्बन ज्ञाता स्वयं है, वहीं धर्मखंड में कर्म का आलम्बन कर्ता स्वयं नहीं है। कर्म का आलम्बन कर्ता से स्वतंत्र है। जे. रुद्रप्पा लिखते हैं : Knowledge is peculiar to a given knowing subject. Action is common to all knowing subjects.(Kashmir Saivism, पृ -39) 'ज्ञान ज्ञाता का व्यक्तिनिष्ठ ज्ञान है, जबकि कर्म सभी ज्ञाताओं के लिए सर्वनिष्ठ है।' धर्मखंड में प्रत्येक सत्ता मूर्त रूप से प्रकट होती है और दूसरी प्रत्येक सत्ता, जिसके संपर्क में वह आती है, के कर्म से प्रभावित होती और अपने कर्म से उसे प्रभावित करती है। यहां प्रत्येक सत्ता दूसरी से स्वतंत्र व भिन्न है और वे दोनों तुल्यबल हैं। तुल्यता अपने आदर्श रूप में तुला में होती है जो न्याय का प्रतीक है। इससे पता चलता है कि धर्मखंड में धर्म का अर्थ तुला अथवा न्याय है। यदि मैं अपने संपर्क में आने वाले किसी प्राणी को आहत करता हूं तो मेरा वह कर्म हम दोनों के बीच विद्यमान धर्म या न्याय (तुल्यता) की अवस्था को भंग कर देता है। लेकिन जिस तरह मेरे अंदर प्रभूशक्ति सक्रिय है, उसी तरह उस प्राणी के अंदर भी वही शक्ति सक्रिय है और यह असंभव है कि समस्त विश्व को धारण करने व चलाने वाली शक्ति हमारे बीच न्याय की अवस्था को शाश्वत काल के लिए विक्षुब्ध ही रहने दे, देर सवेर ऐसी अवस्था अवश्य आएगी जब वह शक्ति उस प्राणी से मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करायेगी ताकि हमारे बीच के सम्बन्धों को यथातथ्यतः रखा जा सके। इस तरह राम सिंह का यह कथन बिलकुल उचित है कि धर्मखंड में धर्म का अर्थ कर्मों की परख से संबंधित है। कश्मीरी शैव दर्शन के हवाले से हमने यह जाना है कि धर्मखंड में प्रभू की क्रियाशक्ति सक्रिय होती है। ‘धर्मखंड’ शब्द में ‘कर्म’ पद अंतर्निहित है, धर्मखंड को हम कर्मखंड भी कह सकते हैं, और भगवद्‌गीता के पहले श्लोक में ऐसी ही कहा गया है :

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥(1.1)


'हे संजय! धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठा हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?' यहां धर्म, कुरू व क्षेत्र तीन शब्द ध्यान देने योग्य हैं। 'क्षेत्र' शब्द 'कुरू' व 'धर्म' दोनों से जुड़ा है। श्री अरविंद लिखते हैं, "यह शरीर ही आत्मा का क्षेत्र कहलाता है ............केवल यह स्थूल शरीर ही क्षेत्र नहीं है बल्कि वह सब भी क्षेत्र है जिसे हमारा शरीर आश्रय देता है, अर्थात्‌ प्रकृति का व्यापार, मन, बुद्धि आदि।.......... यह व्यापक शरीर भी केवल व्यष्टिगत क्षेत्र है; एक अधिक व्यापक, सार्वभौम, विश्व-शरीर, विश्व-क्षेत्र भी है।'' इस प्रकार शरीर क्षेत्र है और जगत्‌ भी क्षेत्र है। यह शरीर भौतिक रूप से ब्रह्मांड में स्थित एक पिण्ड है जबकि ब्रह्मांड भी, यह विशाल विश्व भी एक क्षेत्र है, एक देह, पिंडमात्र ही है। जगत्‌ रूपी यह क्षेत्र, जिसे पंजाबी व हिंदी में खेत कहा जाएगा, पांच तत्त्वों से बना है, उन्हीं पांच तत्त्वों से देह रूपी खेत बना है। पुनः क्षेत्र के ये दोनों रूप कुरूक्षेत्र हैं। ''कुरू अर्थात्‌ 'करो' यह आदेशात्मक है। श्रीकृष्ण कहते हैं, “प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों द्वारा परवश होकर मनुष्य कर्म करता है। वह क्षण-मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। गुण उससे कर्म करा लेते हैं। सो जाने पर भी कर्म बंद नहीं होता, वह भी स्वस्थ शरीर की खुराक मात्र है। जब तक प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जीवित हैं, तब तक 'कुरू' लगा रहेगा।”(स्वामी अड़गड़ानंद कृत 'यथार्थ गीता') फिर यह क्षेत्र केवल कुरू अर्थात्‌ कुरूक्षेत्र ही नहीं, धर्मक्षेत्र भी है। धर्म वह मूल नियम है जो इस कर्मभूमि पर हमारी जीवन का शासन करता है। इस व्यवस्था का आधारभूत नियम यह है, 'जो जैसा बोएगा, वह वैसा काटेगा।'


इस तरह धर्मखंड शब्द में दो अर्थ सन्निहित हैं - धर्म व कर्म। सरमखंड में प्रभू की इच्छाशक्ति सक्रिय है और उस सक्रियता की प्रेरणा आनंद है। वहां इच्छा व आनंद का सहज संबंध है, वहां इच्छा व उसकी पूर्ति, जिससे आनंद की अनुभूति होती है, में कोई विरोध नहीं। स्वामी योगानंद ने भी अपनी आत्मकथा में यही लिखा है। श्रीयुक्तेश्वर ने बताया, "कारण जगत्‌ में इच्छाओं की पूर्ति अनुभूतियों (perceptions) से ही हो जाती है...... जिस प्रकार कोई मनुष्य अपनी आंखें बंद कर अपने मन की आंख से दीप्तिमान उज्जवल प्रकाश या फीकी नीली आभा देख सकता है, उसी प्रकार कारणजगत्वासी अपने विचार मात्र से शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का अनुभव कर सकते हैं। विराट मन के बल से वे किसी भी वस्तु का सृजन कर सकते है या उसका विलय कर सकते हैं।'' दूसरी ओर ज्ञानखंड में प्रभू की ज्ञानशक्ति सक्रिय होती है और उस सक्रियता की प्रेरणा है चित्‌ अर्थात्‌ चेतना। चेतना का लक्षण शक्ति है। शक्ति का संचय व उसका प्रदर्शन चेतना का सहज स्वभाव है, अतः ज्ञानखंड में ज्ञान व शक्ति का सहज संबंध है। गुरू नानक ने ज्ञानखंड के अपने वर्णन में शक्ति के बहुविध रूपों को सम्मिलित किया है। अंत मे धर्मखंड में प्रभू की क्रियाशक्ति सक्रिय है और इस सक्रियता का कारण 'सत्‌' अर्थात्‌ प्रभूतत्त्व में निहित 'अस्तित्व' के तत्त्व की विशेषता है जबकि इस सक्रियता का परिणाम स्थूल रूपों का निर्माण है। लेकिन किसी भी रूप का निर्माण अनुचित रूप से, मनमर्जी से या अन्यायसंगत रीति से नहीं होता, बल्कि इसके पीछे धर्म अथवा ऋत का महान नियम कार्य कर रहा है जो भौतिक, नैतिक व आध्यात्मिक क्षेत्रों में हर वस्तु को उसी प्रकार निर्धारित कर रहा है जिसकी वह पात्र है। इसलिए धर्मखंड में क्रिया व धर्म का सहज संबंध है।


(शेष आगे)

 

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RK25
RK25
Jul 07, 2023
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beautiful explanation.

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