Maya is often described as a veil that obscures our true reality.
Karma is not a punishment or reward system. It is simply the law of cause and effect.
Energy can be neither created nor destroyed. It can only be transformed from one form to another.
The principle of energy is that for every action, there is an equal and opposite reaction. The principle of karma is that as we sow, so shall we reap. Both principles are based on the idea that actions have consequences.
Maya, karma, and energy are all interrelated. They are all forms of energy, and they all have the power to shape our reality.
By understanding these concepts, we can better understand ourselves and the world around us.
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धर्मखंड के प्रति दृष्टिकोण की द्विविधता का दूसरा औचित्य गुरू नानक द्वारा इन 12 पंक्तियों में प्रयोग किए गए दो शब्दों - धरमसाल व धरमखंड - में भी निहित है। हमारा मानना है कि 34वीं पउड़ी की तीसरी पंक्ति में आया पद 'धरमसाल' (धर्मशाला) व 35वीं पउड़ी की पहली पंक्ति में आया पद 'धरमखंड' (धर्मखंड) एक ही अर्थ का संप्रेषण नहीं करते। 'धरमसाल' पद संपूर्ण सृष्टि के लिये आया है जबकि ‘धरमखंड’ उस भाग के लिए आया है जो ज्ञानखंड से नीचे है। 34वीं पउड़ी से पांचों खंडों का वर्णन आरम्भ होता है और इस तरह यह पउड़ी पांच खंडों की भूमिका या विषयप्रवेश की तरह काम करती है। इस पउड़ी के शाब्दिक अर्थ इस प्रकार हैं :
‘अग्नि = परमात्मा की पराशक्ति/शब्द, पवन = परमात्मा की अपराशक्ति/माया (और उसके विकासजों यथा) जल = महान बुद्धि, (अहंकार आदि) -इन सभी के समुदाय में स्थापित यह धरती = जगत् (जो ऊपर आकाश व नीचे) पाताल (के मध्य विस्तृत देश [space] में स्थित है, जो दिनों व) रातों, ऋतुओं, तिथिओं व वारों (की कालगति के प्रबंध में है, एक) धर्मशाला (के समान है।) इस जगत् में भांति-भांति के जीव (और उनके जीवन के लिए भांति-भांति की जीवन-)युक्तियाँ (रची गई हैं।) वे (जीव संख्या में) असंख्य हैं और उनके नाम अनेक हैं। (प्रत्येक जीव के अपने-अपने शुभ-अशुभ कर्मों का) निपटान (जीव के) कर्मों (की प्रकृति और करतार की) कृपा (के अनुसार) होता है।) (इस विशाल ब्रह्मांड का रचयिता व इसे निश्चित विधान के अनुसार चलाने वाला परमात्मा) आप सच्चा है और उसका दरबार भी सच्चा है जहां प्रभू द्वारा अनुमोदित संतजन सुशोभित होते हैं। (उन संतों पर) करम (प्रभू की सहेतुक कृपा का) और नदर (प्रभू की अहेतुक कृपा) का निशान पड़ता है। (कह रहे हैं गुरू) नानक (देव जी कि मृत्युपरांत आगे प्रभू के दरबार में) जाने पर ही पता चलता है (कि सृष्टि का विधान व प्रयोजन क्या है।) वहीं यह ज्ञान होता है (कि कौन-सा बर्तन) कच्चा (है व कौन-सा) पका हुआ है!'
इसके पश्चात् 35वीं पउड़ी की पहली पंक्ति मे कहते हैं : 'धर्मखंड का धर्म अर्थात् लक्षण यही है (जो पीछे बयान कर दिया गया है।)'
यदि हम मानें कि संपूर्ण 34वीं पउड़ी अनन्य रूप से धर्मखंड का वर्णन करती है और इसे किसी प्रकार से सम्पूर्ण सृष्टि के वर्णन की भूमिका के रूप में नहीं लेना चाहिए अर्थात् 34वीं पउड़ी में त्रिलोकी की सामान्य विशेषताओं का नहीं, केवल धर्मखंड की विशेषताओं का ही वर्णन है तो हमारे सामने कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जिनका उत्तर मिलना मुश्किल हो जाता है, जैसे :
क्या सिर्फ धर्मखंड ही ऊपर आकाश व नीचे पाताल के मध्य विस्तृत देश [space] में स्थित है, और दिनों व रातों, ऋतुओं, तिथिओं व वारों की कालगति के प्रबंध में है? क्या त्रिलोकी के शेष दो खंड नामतः सरमखंड व ज्ञानखंड देशकाल में स्थित नहीं हैं? यदि ऐसा है तो फिर ये दोनों खंड अविनाशी सिद्ध होते हैं। फिर तो हउमै, मन, प्राण आदि तत्त्व भी अविनाशी ही ठहरेंगे। यह निष्कर्ष गुरू-आश्य के अनुकूल नहीं है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि सरमखंड व ज्ञानखंड वास्तविक हैं ही नहीं, वे तो किन्हीं अवस्थाओ के प्रतीक मात्र हैं। इस तर्क को हम पहले ही रद्द कर चुके हैं और सिद्ध कर चुके हैं कि ये वास्तविक लोक हैं।
क्या सिर्फ धर्मखंड ही अग्नि = परमात्मा की पराशक्ति/शब्द, पवन = परमात्मा की अपराशक्ति/माया और उसके विकासजों यथा जल = महान बुद्धि, अहंकार आदि से निर्मित है? अब तक के हमारे अध्ययन के अनुसार सम्पूर्ण त्रिलोकी और इसमें मिलने वाला प्रत्येक पदार्थ परमात्मा की पराशक्ति/शब्द और अपराशक्ति/माया के मेल से उत्पन्न होता है। अंतर केवल इतना ही है कि धर्मखंड में परमात्मा की शक्ति के ये दोनों रूप ऐसे घुले-मिले हैं जैसे दूध और पानी घुल-मिल जाते हैं। ज्ञानखंड में शब्द का अनुभव माया से भिन्न वैसे ही होता है जैसे जल में वस्तु के रूप की झलक पड़ती है। इससे भी आगे सरमखंड में प्रकाश स्वरूप शब्द और अंधकार स्वरूप माया वैसे ही भिन्न-भिन्न दिखते हैं जैसे हमारे लोक में धूप और छाया का अनुभव सुस्पष्ट रूप से भिन्न-भिन्न होता है।
क्या करमी करमी होइ वीचार का नियम, जिसके अनुसार जीवों का अपने अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार हिसाब होता है, सिर्फ धर्मखंड पर ही लागू होता है? ऐसा नहीं है। कर्म का सिद्धांत हमारी सृष्टि का केवल संचालक सिद्धांत ही नहीं है अपितु यह सृष्टि का उत्पादक सिद्धांत भी है। भगवद्गीता में अर्जुन पूछता है, ‘हे पुरुषोत्तम! कर्म क्या है?’(8.1) इस पर गुरू का उत्तर है : भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञित: ॥(8.3) ‘सभी भूतों अर्थात प्राणियों का जो भाव या अस्तित्व अर्थात होनापन है, उस होनेपन को प्रकट करने के लिये जो विसर्ग है, उसको कर्म कहते हैं।’(साधक संजीवनी, पृ -580) जब प्रभू की इच्छा से महाप्रलय का समय आता है तो शिव/नाम दृष्टावस्था से समाधिवस्था में चले जाते हैं, इससे उनकी पराशक्ति/शब्द सक्रिय से अक्रिय अवस्था में आ जाती है। तब अहंकार और संचित कर्मों के सहित प्राणी जड़/अपरा प्रकृति में लीन हो जाते हैं और यह जड़/अपरा शक्ति पराशक्ति में लीन हो जाती है। परमात्मा का उनकी पराशक्ति के साथ संबंध एकसाथ भिन्नता और अभिन्नता वाला है अतएव महाप्रलय के समय जीवों का परमात्मा से मिलाप नहीं होता। वे पराशक्ति में ऐसे बेसुध पड़े रहते हैं जैसे कोई प्राणी कोमा में हो। महासर्ग के समय शिव/नाम/ब्रह्म एक बार फिर समाधिवस्था से दृष्टावस्था में आते हैं, इससे उनकी पराशक्ति पुनः अक्रिय से सक्रिय अवस्था में आ जाती है, ऐसा होते ही पराशक्ति में लीन अपराशक्ति भी उत्पन्न हो जाती है जिससे अहंकार व कर्म सहित सभी प्राणी भी उत्पन्न हो जाते हैं। महासर्ग की इस प्रक्रिया के दो पक्ष होते हैं, एक सर्ग और दूसरा विसर्ग। जितने भी जड़ कहे जाने वाले पदार्थ हैं, उनकी उत्पत्ति सर्ग कही जाती है जबकि प्राणधारियों की उत्पत्ति के क्रम को विसर्ग कहा जाता है। हम कह सकते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिक संकल्पनाओं के अनुरूप चार मूलभूत बलों, तरंगाणु, सूक्ष्म कणों, आकाशगंगाओं, तारों, ग्रहों, उपग्रहों, तत्त्वों, अणुओं आदि की उत्पत्ति सर्ग है जबकि जीवों की उत्पत्ति को विसर्ग कहा जाता है। इस विसर्ग की कारक शक्ति को कर्म कहते हैं।
ऊपर जो कहा गया है वह तो कर्म का उत्पादक पक्ष हुआ। अब इसके संचालक पक्ष को भी जान लें। दर्शन शास्त्र में जो माया है, धर्म शास्त्र में वही कर्म है, और भौतिक शास्त्र में वही ऊर्जा है। उपनिषदों के अनुसार माया नाम, रूप और कर्म है। गुरू नानक देव ने भी माया को कर्मों रूपी पेड़ कहा है। दूसरी ओर कर्म ऊर्जा है जिससे नाम-रूप की उत्पत्ति अवश्यंभावी हो जाती है। इससे माया, कर्म और ऊर्जा की निकटता प्रदर्शित होती है। माया नष्ट नहीं होती, केवल विलुप्त होती है, ‘नश अदर्शने’। कर्म भी नष्ट नहीं होता। ऊर्जा भी नष्ट नहीं होती। ऊर्जा का सिद्धांत है, “प्रत्येक क्रिया की एक समान और प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है।” कर्म का सिद्धांत है, “यथाकारी यथाचारी तथा भवति।”(बृहदारण्यक 4.4.5) “जेहे करम कमाइ तेहा होइसी॥(1-930) यदि हम अपने अस्तित्व - जिसमें शरीर, मन, भावनाएं, बुद्धि आदि सब कुछ सम्मिलित है - को एक कंप्यूटर सिस्टम मानें तो हम कर्म को सॉफ्टवेयर कहेंगे जिससे हमारे अस्तित्व की प्रोग्रामिंग होती है। जिस प्रकार का हमारा सॉफ्टवेयर होगा उसी प्रकार की हमारी चेतना, मन, भाव, शरीर आदि का व्यवहार होगा। इस प्रकार कर्म वह है जो विराट आत्मा के रूप में हमारी असीम संभावनाओं को सीमित करता है जिससे ससीम सत्ताओं के इस ससीम जगत् का निर्माण और संचालन होता है। इस तरह कर्म सिद्धांत सारी सृष्टि के लिए सच है न कि केवल धर्मखंड के लिये।
कर्म का सिद्धांत ही नहीं कृपा का सिद्धांत भी सारी सृष्टि के लिये सच है। गुरू नानक देव जी धर्मखंड का वर्णन करने वाली 34वीं पउड़ी की 6वीं पंक्ति में लिखते हैं : करमी करमी होइ वीचारु॥ फिर, 9वीं पंक्ति में लिखते हैं : नदरी करमि पवै नीसाणु॥ इसमें ‘करमी करमी’ का अर्थ ‘जीवों के किए हुए कर्मों अनुसार’ और ‘नदरी करमि’ का अर्थ ‘अकाल-पुरुष की कृपा से’ किया गया है। हमारे विचार में यह व्याख्या बालोचित है और इसमें छिपे बारीक भेदों को समझने की जरूरत है। 6वीं पंक्ति ‘करमी करमी होइ वीचारु॥’ का संबंध माया में निवास कर रहे उन जीवों से है जिनके बारे में गुरू जी ने 4थी व 5वीं पंक्ति में लिखा कि ‘इस जगत् में भांति-भांति के जीव (और उनके जीवन के लिए भांति-भांति की जीवन-)युक्तियाँ (रची गई हैं।) वे (जीव संख्या में) असंख्य हैं और उनके नाम अनेक हैं।’ 9वीं पंक्ति ‘नदरी करमि पवै नीसाणु॥’ का संबंध परमात्मा की पराशक्ति शब्द से युक्त साधकों और परमात्मा की सत्ता नाम में लीन सिद्ध पुरुषों से हैं जिनके बारे में गुरू जी ने 7वीं और 8वीं पंक्ति में लिखा कि ‘(इस विशाल ब्रह्मांड का रचयिता व इसे निश्चित विधान के अनुसार चलाने वाला परमात्मा) आप सच्चा है और उसका दरबार भी सच्चा है जहां प्रभू द्वारा अनुमोदित संतजन सुशोभित होते हैं। (उन संतों पर) करम (प्रभू की सहेतुक कृपा का) और नदर (प्रभू की अहेतुक कृपा) का निशान पड़ता है।’ ‘करमी करमी’ में यमक अलंकार है, इस पद्यांश में पहला ‘करमी’ पद संस्कृत के ‘कर्म’ शब्द का तद्भव रूप है और दूसरा ‘करमी’ पद अरबी भाषा से आया है जिसका अर्थ कृपा है। ‘करमी करमी’ पद्यांश बताता है कि माया में निवास कर रहे और सकाम भाव से कर्म करने वाले जीवों के भविष्य का निर्णय उनके कर्मों के अनुसार, करमी, होता है किन्तु कर्मफल को लागू करने वाली शक्ति की दृष्टि दंडात्मक (punitive) नहीं होती, वह दृष्टि कृपापूर्ण (gracious) होती है। वह शक्ति जीव के प्रति सदाशय है। उसका ध्येय जीवों का कल्याण होता है। जीवों के कर्मों का निपटान, वीचारु, करते समय वह शक्ति जो भी विधान बनाती है वह उसके कृपापूर्ण स्वभाव से रंजित होती है। फिर, 9वीं पंक्ति में पुनः ‘करम’ पद आया है, नदरी करमि, इन दोनों पदों का अर्थ कृपा है किन्तु कृपा के इन दोनों रूपों के कारण व परिणाम भिन्न-भिन्न हैं। ‘करमि’ में कृपा का वह रूप है जो माया में निवास कर रहे उन जीवों को मिलती है जो निष्काम भाव से कर्म करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनका प्रभू की अपराशक्ति माया से वियोग और प्रभू की पराशक्ति शब्द से संयोग होता जाता है। ‘नदरि’ में कृपा का वह रूप है जो शब्द में निवास कर रहे उन जीवों को मिलती है जो निष्काम भाव से कर्म करते और प्रभू की शरण में आ जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे प्रभू की पराशक्ति शब्द से पार उतरते और प्रभू की सत्ता नाम में लीन हो जाते हैं। ‘नदरि’ प्रभू की अहेतुकी (gratuitous) कृपा है; ‘करमि’ प्रभू की सहेतुकी कृपा है, यह योग्यता के आधार पर मिलती है। प्रभू की अहेतुकी कृपा के पात्र विरले जीव होते हैं, ये किनको और किस आधार पर मिलती है, कोई नहीं जानता। प्रभू की सहेतुकी कृपा से कोई भी वंचित नहीं है। इसका अधिकतम लाभ हम तब उठा पाते हैं जब हम कर्ता व भोक्ता भाव का परित्याग कर अपने सभी कर्मों को सेवा भाव से प्रभू के अर्पण कर देते हैं।
गुरू साहिब चौंतीसवीं पउड़ी की तीसरी पंक्ति में लिखते हैं, तिसु विचि धरती थापि रखी धरमसाल । धरमसाल = धर्मशाला। इस शब्द के तीन अर्थ किए गये हैं। पहला अर्थ वह है जो उस समय जनसामान्य में खूब प्रचलित था और आज भी प्रयुक्त किया जाता है। इस अर्थ के अनुसार धर्मशाला एक ऐसा स्थान है जहां यात्रीगण अपनी यात्रा के दौरान थोड़ी देर आराम कर लेते हैं। धर्मशाला पर यात्रियों का कोई दावा नहीं होता। ऐसे ही संसार एक धर्मशाला है जिसमें जीवात्मारूपी यात्री थोड़ी देर के लिए निवास करता है और फिर आगे की यात्रा पर चल पड़ता है। यहां कोई भी अस्तित्व स्थायी नहीं, परिवर्तन का नियम सर्वव्यापी है। किंतु यह अर्थ यहां पर लागू नहीं हो सकता क्योंकि आप पहले ही कह आये हैं कि जगत् कालगति के प्रबंध में है, राती रुती थिती वार । धर्मशाला पद के इन अर्थों से पुनरुक्ति का दोष उत्पन्न होता है, अतः यह अर्थ अमान्य है। ‘धर्मशाला’ शब्द का दूसरा अर्थ यह है कि यहां हर घटना धर्म अर्थात् निश्चित, शाश्वत नियम के अनुसार होती है। इसमें 'धर्म' पद के अर्थ वैदिक 'ऋत' के अनुसार किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में जगत् में प्रत्यक्ष दीखती अव्यवस्था सिर्फ ऊपरी है, भीतर से एक गहन नियमबद्धता है और वह नियम है, 'जैसा करोगे वैसा भरोगे।' लेकिन यह अर्थ भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि यह अर्थ करमी करमी होइ वीचार पंक्ति में अलग से आ गया है।
हमारे विचार में 'धरमसाल' पद का वही अर्थ है जो 'पाठसाल' का है। पाठसाल अर्थात् पाठशाला वह स्थान है जहां छात्र पाठ का अभ्यास करते, विद्यार्जन करते हैं। ऐसे ही धरमसाल अर्थात् धर्मशाला वह स्थान है जहां साधक ‘नाम’ का अभ्यास करते हैं। 'धरमसाल' का यह अर्थ बाणी में किए गये इस शब्द के प्रयोग पर आधारित है। गुरू अर्जुन देव जी लिखते हैं :
मैं बधी सचु धरमसाल है ॥ गुरसिखा लहदा भालि कै ॥(5-73)
'गुरू के सिखों को मैं यत्नपूर्वक ढूंढ कर मिलता हूं। उनकी संगति को मैंने धर्मशाला बनाया है, जहां मैं सत्यस्वरूप प्रभू की भक्ति करता हूं।' अर्थात् धर्मशाला वह स्थान है जहां प्रभू की भक्ति की जाए या धर्म की कमाई की जाए। ‘धर्म’ शब्द का यह अर्थ इस शब्द के धातु 'धृ' से निर्धारित होता है, जिसका अर्थ ‘धारण करना’ है। यह कहा गया है कि धर्म वह है जो समस्त जड़-चेतन सृष्टि का आधार है, उसे धारण किए हुए है। जड़-चेतन सृष्टि को धारण करने वाली सत्ता नाम है। गुरू अर्जुन देव लिखते हैं :
नाम के धारे सगले जंत ॥
नाम के धारे खंड ब्रह्मांड ॥
नाम के धारे सिमरित बेद पुरान ॥
नाम के धारे सुनन गिआन धिआन ॥
नाम के धारे आगास पाताल ॥
नाम के धारे सगल आकार ॥
नाम के धारे पुरीआ सभ भवन ॥
नाम के संगि उधरे सुनि स्रवन ॥(5-284)
‘नाम ही सभी जीवों का आधार है। नाम ने ही खंडों-ब्रह्मांडों को धारण किया हुआ है। नाम ही स्मृतियों, वेदों व पुराणों का आधार है अर्थात् सद्ग्रंथों का लेखन नाम के अभ्यास से होता है। नाम के आश्रय से ही श्रवण, ज्ञान व ध्यान है। नाम के धारण किए हुए ये आकाश व पाताल हैं। सभी आकृतियां नाम की ही धारण की हुई हैं। सभी पुरियों व भवनों को नाम ने ही धारण किया हुआ है। जिन्होंने नाम का श्रवण किया और उसे श्रवण करके उससे जुड़ गये, उनका उद्धार हो गया।' गुरू जी ने यहाँ ‘नाम’ पद का प्रयोग शब्द के लिये किया है।
धर्म शब्द का यही अर्थ जपुजी की 16वीं पउड़ी में गुरू नानक ने लिखा है। आप लिखते है :
जे को कहै करै वीचारु ॥ करते कै करणै नाही सुमारु ॥
धौल धरमु दइआ का पूतु ॥ संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति ॥
जे को बुझै होवै सचिआरु ॥ धवलै उपरि केता भारु ॥
धरती होरु परै होरु होरु ॥ तिस ते भारु तलै कवणु जोरु ॥(1-26)
'अकालपुरुष की रची सृष्टि का अंत नहीं पाया जा सकता, भले ही कोई विचार करे और वर्णन करके देख ले। (लेकिन मनुष्य आम तौर पर इसी उद्यम की ओर लग जाता है जो न तो उसके जीवन का प्रयोजन है और न ही उसकी सीमित बुद्धि में आ सकता है, और इस उद्यम में लग कर अनेक प्रकार के भद्दे सिद्धांत भी प्रस्तुत किए गए जिनमें एक यह था कि हमारी धरती को एक बैल ने अपने सींगों पर धारण किया हुआ है। ऐसे सिद्धांत सृष्टा व उसकी सृष्टि की अनंतता का वस्तुतः निषेध ही कर देते हैं।) धर्म ही वह बैल है (जिसने सृष्टि को धारण कर रखा है।) यह धर्म दया का पुत्र है (अर्थात् यह सत्स्वरूप प्रभू की कृपा से उत्पन्न है, यह प्रभू की मूर्तिमान दया ही है।) इस धर्म ने संतोष को रस्सी बना कर जगत् को टिका कर रखा है। (यहां संतोष का अर्थ मर्यादा है। पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पांचों तत्त्व एक दूसरे के शत्रु हैं किंतु शब्द ने उन्हें मर्यादित करके रखा है।) यदि कोई इस धर्म अर्थात् शब्द के रहस्य को बूझ ले तो वह सत्यस्वरूप हो जायेगा (क्योंकि शब्द सत्यस्वरूप प्रभू की अपनी कला है। लेकिन यदि कोई कहे कि यथार्थ में ही कोई बैल है तो विचार करो कि) बैल के ऊपर धरती का कितना भार है! (वह बेचारा इतना भार कैसे उठा सकता है? दूसरा तर्क यह भी है कि उस बैल को सहारा देने के लिए) उसके नीचे और एक धरती होनी चाहिए और उस धरती के नीचे एक और बैल, उससे नीचे फिर और धरती और फिर एक और बैल, इस तरह अंतिम बैल के नीचे किसका आसरा होगा।'
इस प्रकार जगत् को धर्मशाला कहने का अर्थ है कि जगत् के निर्माण का उद्देश्य शब्द का अभ्यास है। जगत् की रचना के इस प्रयोजन का उल्लेख बाणी में अन्यत्र भी कई स्थानों पर किया गया है, यथा :
गुरमुखि धरती साचै साजी ॥ तिस महि ओपति खपति सु बाजी ॥(1-941)
हरि सिमरनि धारी सभ धरना ॥ सिमरि सिमरि हरि कारन करना ॥
हरि सिमरनि कीउ सगल अकारा ॥ हरि सिमरन महि आपि निरंकारा ॥(5-262)
इससे पता चलता है कि 'धरमसाल' पद को धरती पद का विशेषण मान कर उसके संकुचित अर्थ करना गलत है। यह समस्त त्रिलोकी ही एक धर्मशाला है जिसमें धरती भी स्थापित है। तीनों लोक, न कि केवल हमारा धर्मखंड, 'धर्म' अर्थात् शब्द की कमाई के लिए है। इसलिए धर्मशाला व धर्मखंड दोनों पर्यायवाची शब्द नहीं हैं यद्यपि, जैसा कि हम आगे चल कर देखेंगे, दोनों शब्दों के अर्थों में अतिव्याप्ति अवश्य है। धर्मखंड शब्द में धर्म का मूल अर्थ कर्मों की परख से संबंधित है इसीलिए गुरू साहिब 35वीं पउड़ी की पहली पंक्ति में इतना ही लिखते हैं, धरमखंड का एहो धरमु । आपका आश्य यही है कि जो कुछ ऊपर त्रिलोकी के संबंध में कहा गया है उसे ही धर्मखंड का लक्षण समझना चाहिए।
त्रिलोकी का मूल लक्षण कर्मों की परख है। 34वीं पउड़ी में इसकी आवश्यकता को दर्शाने के साथ ही उस परख के लिए एक दरबार या न्यायालय का बिंब निर्मित किया गया है। मध्यकालीन न्यायालयों के समान इसके तीन अंग हैं : (क) पातशाह जो न्यायाधीश है; (ख) उसका दरबार जो न्यायालय है; और (ग) पातशाह की आज्ञा या कानून। ऐसे ही दरबार का एक बिंब सचखंड का वर्णन करने वाली पउड़ी संख्या 37 की 11वीं से 18वीं पंक्ति में भी है। अब सचखंड सृष्टि का मूल या प्रथम खंड है जबकि धर्मखंड सृष्टि का अंतिम खंड है। 34वीं पउड़ी की अंतिम दो पंक्तियों, कच पकाई ओथै पाई ॥ नानक गइआ जापै जाइ ॥, में ओथै पद से सचखंड का संकेत लेना ठीक नहीं। यह मानना असंभव है कि पृथ्वी पर किसी जीव की मृत्यु की दशा में उसे सचखंड ले जाया जाएगा जहां उसके कर्मों का विचार होगा। वस्तुतः यह मानना अधिक युक्तिसंगत है कि सम्पूर्ण सृष्टि में लोकों का एक अनुक्रम है जिसमें निम्न लोकों के निवासियों को मृत्योपरान्त उच्चतर लोकों में जाना पड़ता है। जिस प्रकार हमारे जगत् में जीवात्मा को बार-बार जन्म-मरण से गुजरना पड़ता है उसी प्रकार ऐसी उन्नत आत्माएं होंगी जो स्थाई रूप से सूक्ष्म जगत् की निवासी होंगी और जिन्हें सूक्ष्म जगत् में बार-बार पुनर्जन्म की प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता होगा और यही अवस्था कारण जगत् में निवास करने वाली आत्माओं की भी होगी। इसी तथ्य को श्रीयुक्तेश्वर ने अपने शिष्य योगानंद को बताया, "जिस प्रकार कर्मों से मुक्ति पाने में मनुष्यों की सहायता करने के लिए संतों और सद्गुरूओं को इस संसार में भेजा जाता है, उसी प्रकार ईश्वर ने एक सूक्ष्म लोक में, वहां रहने वाले लोगों की मुक्त होने में सहायता करने का आदेश मुझे दिया है....... (उस) लोक के अधिकतर निवासी आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत उन्नत हैं। उन सब ने इस पृथ्वी पर अपने आखिरी जन्म में मृत्यु के समय सचेत रहते हुए जड़ देह का त्याग करने की ध्यानप्रदत्त सामर्थ्य प्राप्त कर ली थी।......... (उस) लोक के वासी उन साधारण सूक्ष्म लोकों से पहले ही पार हो चुके होते हैं जहां पृथ्वी के प्रायः सभी वासियों को मृत्योपरान्त जाना पड़ता है। वहां उन्होंने सूक्ष्मलोकों के अपने गतकर्मों के बीज नष्ट कर डाले होते हैं।......... और तब अपनी आत्मा को सूक्ष्म जगत् के कर्मों के शेष रहे लवलेशों से मुक्त करने के लिए इन साधकों को विधि के विधान के अनुसार हिरण्य लोक में, जो सूक्ष्म लोकों का सूर्य या स्वर्ग है, सूक्ष्म शरीर धारण कर जन्म लेना पड़ता है।'' आप आगे लिखते है, "अविकसित मनुष्य को तीनों शरीरों से बाहर निकलने के लिए पृथ्वी पर और सूक्ष्म जगत् में तथा कारण जगत् में असंख्य जन्म लेने पड़ते हैं।'' यदि जन्म होगा तो मृत्यु भी होगी, मृत्यु होगी तो आगे उसके कर्मों का हिसाब भी होगा और उन कर्मों के अनुसार उसे कच्चा पाए जाने पर निम्न लोकों में वापिस भेजा जाएगा या फिर पक्का (परिपक्व) पाए जाने पर उन्नत लोकों में प्रवेश की अनुमति मिल जाएगी। यह त्रिलोकी कितनी बड़ी है, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। "इसमें भांति-भांति के जीव हैं और उनके जीवन के लिए भांति-भांति की जीवन-युक्तियां रची गई हैं। ये जीव असंख्य हैं और उनके नाम अनेक हैं।'' इतनी विशालता व विविधता वाले इस जगत् में कर्मों के नियम को अचूक, दोषरहित रीति से, बिना किसी भय व पक्षपात के लागू करने के लिए कर्ता में महान सामर्थ्य, तेज, न्यायिकता, सत्यवादिता जैसे गुणों की आवश्यकता है जिनका प्रमाण प्रस्तुत करते हुए गुरू साहिब ने इसी पउड़ी में प्रभू के दरबार का बिंब प्रस्तुत करके इस प्रभू पातशाह व उसके दरबार अर्थात् उसकी सत्ता को 'सचा' कहा है। भाव यह है कि सृष्टि के संचालन में छल या चूक की संभावना शून्य है।
‘आसा दी वार’ में गुरू नानक देव ने धर्मराय, उसकी कचहरी और उसमें जीवों के कर्मों की परख के संबंध में एक पूरी पउड़ी लिखी है, जिस पर यहाँ थोड़ा विचार करना दिलचस्प होगा। आप लिखते हैं :
नानक जीअ उपाइ कै लिखि नावै धरमु बहालिआ ॥
ओथै सचे ही सचि निबड़ै चुणि वखि कढे जजमालिआ ॥
थाउ न पाइनि कूड़िआर मुह काल्है दोजकि चालिआ ॥
तेरै नाइ रते से जिणि गए हारि गए सि ठगण वालिआ ॥
लिखि नावै धरमु बहालिआ ॥(1-463)
‘हे नानक! जीवों को पैदा करके परमात्मा ने धर्मराय को (उनके सिर पर) स्थापित किया हुआ है कि जीवों के किए कर्मों का लेखा लिखता रहे। धर्मराय की कचहरी में केवल सत्य द्वारा (जीवों के कर्मों का) निबेड़ा होता है (भाव, वहां निर्णय का माप ‘केवल सच’ है, जिनके पल्ले ‘सच’ होता है उनको आदर मिलता है और) बुरे कामों वाले जीव चुन के अलग कर दिए जाते हैं। झूठ-ठगी करने वाले जीवों को वहाँ ठिकाना नहीं मिलता; काला मुंह करके उन्हें नरक में धकेल दिया जाता है। (हे प्रभू!) जो मनुष्य तेरे नाम में रंगे हुए हैं, वे (यहाँ से) बाजी जीत के जाते हैं और ठगी करने वाले मनुष्य (मानव जनम की बाजी) हार के जाते हैं। (तूने हे प्रभू!) धर्मराय को (जीवों के किए कर्मों का) लेखा लिखने के लिए (उन पर) नियुक्त किया हुआ है।’ धर्मराय की कचहरी में जीवों के भाग्य का निर्णय उनके कर्मों के आधार पर होता है। धर्मराय के पास कानून की पोथी है - सच। भाई वीर सिंह लिखते हैं, “यहाँ ‘निबडै’ पद क्रिया है। पर यह क्रिया कर्तृ वाच्य या कर्मणि वाच्य नहीं, पर कर्म कर्तृ प्रक्रिया है। ‘मनुष्य वृक्ष काटता है’, यह कर्तृ वाच्य है; ‘मनुष्य द्वारा वृक्ष काटा जाता है’, यह कर्मणि वाच्य है; पर ‘वृक्ष कटता है’, यह कर्म कर्तृ प्रक्रिया है। यह अंग्रेजी का reflexive verb है। ‘सचे’ करण कारक है, अर्थ है - सच द्वारा; ‘सचि’ कर्ता कारक है; ‘निबडै’ पद कर्म कर्तृ प्रक्रिया है। ‘वहाँ सच द्वारा सच (अपने आप) निबड़ता है।’ ‘सच’ मानों वहाँ एक माप है जिसके द्वारा जगत् में कमाया हुआ ‘सच’ अपने आप का निबेड़ा करता है। जैसे एक सर्राफ है, उसके पास सोने को परखने वाला कंडा है। जब सोना उस पर रखा जाता है तो उसकी विशिष्ट घनत्व से तुरंत पता चल जाता है कि वह कितना खरा या खट्टा है। ऐसे ही धर्मराय के पास एक आदर्श (standard) ‘सच’ है, जब जीव उसके समक्ष खड़ा होता है तो सारे जीवन में किये गये कर्मों से निर्मित मनोवृतियाँ आईने की तरह प्रकट हो जाती हैं।” कहने का अभिप्राय है कि कर्मों के नियम के संबंध में रत्ती मात्र भी चूक की गुंजायश नहीं है।
कर्मों के भुगतान के संबंध में गुरू जी द्वारा प्रस्तुत यह प्रतिकार सिद्धांत सनातनी परंपरा के अनुकूल है। जीव जो भी अच्छे या बुरे कर्म इस लोक में करते हैं धर्मराय के यहाँ उनका विचार होता है और फिर उन कर्मों का भुगतान स्वर्ग या नरक में कराया जाता है। लेकिन इस संदर्भ में यह आपत्ति उठाई गई है कि सनातनी धर्मग्रंथों जैसे उपनिषदों, पुराणों, आदिग्रंथ आदि में वर्णित प्रतिकार सिद्धांत दुहरा है। अच्छे और बुरे कर्मों का भोग स्वर्ग व नरक के रूप में भी होता है और पुनर्जन्म के परिणामस्वरूप सुख व दुख के भोग के रूप में भी होता है। यदि स्वर्ग व नरक अच्छे या बुरे कर्मों के भोग के रूप में होते हैं तो फिर इस धरती पर कर्मों का परिणाम सुख या दुख के रूप में क्यों होता है? इस आपत्ति के उत्तर में हम तैत्तिरीय उपनिषद को देख सकते हैं। वहाँ आधा दर्जन से भी अधिक लोकों का वर्णन करके उनका सोपानक्रम उनमें मिलने वाले सुख की मात्रा के अनुसार निर्धारित किया गया है। यह कहा गया है कि मनुष्य लोक से श्रेष्ठ लोक में मिलने वाले सुख का परिमाण मनुष्य लोक के सुख की तुलना में सौ गुणा अधिक है और उससे भी श्रेष्ठ लोक में मिलने वाले सुख का परिमाण पिछले लोक में मिलने वाले सुख की तुलना में सौ गुणा अधिक है, और इसी क्रम में उनसे श्रेष्ठ लोक हैं। इसे हम ऐसे देख सकते हैं जैसे मनुष्य लोक में 100 रुपए का सुख ही मिल सकता है जबकि उससे श्रेष्ठ स्वर्ग लोक में मनुष्य लोक से सौ गुणा अर्थात 10000 रुपए तक का सुखभोग मिल सकता है जबकि उससे भी श्रेष्ठ स्वर्ग लोक में उससे भी सौ गुणा अर्थात 10,00,000 रुपए तक का सुखभोग मिल सकता है। अब मान लें कि एक जीव के द्वारा अपने जीवन-काल में किए गए कर्म अपनी शुभ प्रकृति के कारण कर्ता के लेखे में 15,00,000 रुपए के पुण्य को जोड़ते हैं तो ऐसे में उसे ऊपर बताए गए लोकों में से तीसरे वर्ग के श्रेष्ठ लोक में भेज दिया जाएगा लेकिन वह वहाँ तभी तक रह पाएगा जब तक उसके लेखे में 10,00,000 रुपए के मूल्य से अधिक के पुण्य शेष रहेंगे। ज्यों ही उसके लेखे में इससे कम मूल्य के पुण्य रह जाएंगे उसे निम्न कोटि के स्वर्ग में भेज दिया जाएगा। वहाँ भी वह तभी तक रह पाएगा जब तक उसके लेखे में 10000 रुपए के मूल्य से अधिक के पुण्य शेष रहेंगे। ज्यों ही उसके लेखे में इससे कम मूल्य के पुण्य रह जाएंगे उसे मनुष्य लोक में किसी कुलीन व धनी परिवार में जन्म मिल जाएगा। यही स्थिति पाप के परिणामस्वरूप मिलने वाले दंड और नरकवास पर लागू होगी। इससे स्पष्ट होता है कि प्रतिकार सिद्धांत में ‘दो बार दंड’ (double jeopardy) वाला दोष नहीं है।
ऊपर की गई चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरू नानक ने 34वीं पउड़ी में सृष्टि के प्रबंधन में मूलभूत सिद्धांतों को संक्षेप रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे आगे होने वाले सृष्टि वर्णन की भूमिका के रूप में लिखा है। इस भूमिका से यह पता चलता है कि 'नामों व रूपों की अपार विविधता वाला यह जगत् परमात्मा की पराशक्ति और अपराशक्ति के संयोग से निर्मित है तथा देश व काल के अधीन है। यहां कुछ भी स्थायी नहीं। यह त्रैलोकी एक धर्मशाला के समान है जहां जीवों ने धर्म का पाठ पढ़ना है, धर्म का अभ्यास करना है। इस विशिष्ट प्रयोजन से रची गई रचना के संचालन का मूलभूत नियम यह है कि जो जैसा करेगा वह वैसा पाएगा। कर्मों के फल का नियम अटल है जिसमें राई-भर चूक की गुंजाइश नहीं है। जो जीव यहां प्रभू के हुकम के अनुसार नाम-भक्ति करते हुए जीवन बिताते हैं उन पर कृपालु प्रभू की कृपा का निशान पड़ता है अर्थात् वे नाम से एकमेक हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य पांचों मंडलों को जय करने वाले पंच हैं, वे प्रभू के दरबार में शोभा पाते हैं। इसलिए जगत् की नज़रों में छोटा या बड़ा होना महत्त्वहीन है। तुच्छता और महानता का पता तो आगे जाने पर ही चलता है जब जीवात्मा के कर्मों का हिसाब होता है।'
यह कहना गलत न होगा कि ये तथ्य सृष्टि के उस भाग पर भी लागू होते हैं जिसमें हम निवास करते हैं और जिसे अगली पउड़ी में धर्मखंड कहा गया है। इसीलिए गुरू साहिब धर्मखंड के संबंध में इतनी ही सूचना देते हैं, धरमखंड का एहो धरमु, अर्थात ‘धर्मखंड का यही लक्षण है (जिसे अभी पहले बयान किया गया है)’।
(शेष आगे)
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excellent.