This article is about Guru Nanak Dev Ji’s poem Japu and its 35th stanza.
It describes Gyankhand, a subtle world of happiness, peace, power and strength. The creator of Gyankhand is a life force that is above matter but below mind.
Read Kartapurush ep43 for more details about Guru Nanak Dev Ji’s spiritual insights.
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हमने देखा कि धर्मखंड के पश्चात गुरू नानक देव जी ने 35वीं पउड़ी की तीसरी पंक्ति से दसवीं पंक्ति तक केते पद की पुनरावृत्ति के द्वारा ज्ञानखंड का एक विराट बिम्ब प्रस्तुत किया है। आप लिखते हैं, ''इस खंड में कई प्रकार के पवन, जल, अग्नि तथा कृष्ण जी जैसे कई अवतार और शिव जी जैसे कई महान देवता हैं, यहां कितने ही ब्रह्मा हैं जिनका निर्माण हो रहा है और जिनके कई प्रकार के रूप, रंग व वेश हैं। यहां कितनी ही कर्मभूमियां, कितने ही सुमेरू पर्वत, कितने ही ध्रुव भक्त और कितने ही उन्हें उपदेश करने वाले हैं। यहां कितने ही इन्द्र देवता, चंद्रमा, कितने ही सूर्य, कितने ही तारामंडल और कितने ही देश हैं। यहां कितने ही सिद्ध, बुद्ध, कितने ही योगी और भिन्न-भिन्न वेशों वाली कितनी ही देवियां हैं। कितने ही देवता और दैत्य हैं, कितने ही ऋषि, मुनि, कितने ही प्रकार के रत्न और समुद्र हैं। कितने ही जीवन के स्रोत, कितनी ही प्रकार की वाणियां हैं, कितने ही प्रकार के राजा और कितने ही पातशाह हैं। कितने ही प्रकार के ध्यान और कितने ही सेवक हैं। गुरू नानक देव जी फरमाते हैं कि इस खंड में किसी चीज़ का बिल्कुल अंत ही नहीं है।''
इन पंक्तियों की व्याख्या करते हुए हमें आधुनिक मन की उन संश्यशील प्रवृत्तियों से बचना होगा जिनके कारण आज का मानव अपनी आध्यात्मिक विरासत पर दावा करने से कतराता है। हम पहले ही कह आये हैं कि ज्ञानखंड का ज्ञान बुद्धि द्वारा जगत् के सम्बन्ध में एकत्र किये गये ढेर सारे तथ्यों को जानना भर नहीं है। बुद्धि केवल कांटछांट करती है, यह जीवनमूल्य प्रदान नहीं करती। हमारे जीवनमूल्यों का स्रोत मन है। मन की मति जैसी होगी वैसी ही मनुष्य की गति होगी। हउमैग्रस्त मन प्रत्येक जगह विभाजन पैदा करेगा, हउमै से रहित मन समस्त विभाजन को एकता के व्यापक नियम के अधीन रखने को उत्सुक होगा। ज्ञानखंड में ज्ञान परमात्मा-शक्ति शब्द है जिससे हउमै का दंश समाप्त होता है। यह शब्द एक तरफ तो मन के समस्त अंधेरे कोनों को एक पवित्र प्रकाश से भर कर उसे अकथनीय आनंद से भर देता है, दूसरी ओर उसका परिचय एक ऐसे जगत् से कराता है जो अपनी सूक्ष्मता व विशालता में हमारे स्थूल जगत् से कहीं अधिक भव्य व विस्मयकारी है, जहां जीवन के नियम त्रैलोकी में व्याप्त देश व काल, कर्म व पुनर्जन्म के व्यापक नियमों के अंतर्गत रहते हुए, हमारी दृश्य सृष्टि से भिन्न हैं और जिसके संपर्क में आकर मानव मन में से जीवन के मूलभूत प्रयोजन अर्थात् प्रभू-भक्ति व उसके सच्चे स्वरूप के सबंध में समस्त संश्य छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
गुरू नानक देव द्वारा प्रस्तुत सूक्ष्म जगत् की इस छोटी-सी झांकी को देख कर तीन निष्कर्ष निकलते हैं। पहला, सूक्ष्म जगत् अति विशाल है। दूसरा, यहां सुख व शांति का साम्राज्य है। तीसरा, यहां साधक को अपार शक्ति व सामर्थ्य की प्राप्ति होती है। विशालता के तथ्य को गुरू नानक ने केते पद की पुनरावृत्ति द्वारा व्यंजित किया है। लेकिन ज्ञानखंड के संदर्भ में विशालता का वही भाव नहीं है जो इस स्थूल जगत् के निवासी की चेतना में होता है। पृथ्वी निवासी भी स्थूल जगत् की विशालता को लेकर भली-भांति सचेत होता है किंतु जीवन की विविधता के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान अभी तक हुई विज्ञान की आशातीत प्रगति के बावजूद निराशाजनक रूप से आधा-अधूरा है। दूसरी ओर ज्ञानखंड में विशाल सूक्ष्म जगत् की समस्त विविधता साधक के लिए एक खुली किताब की तरह होती है। इस सम्बन्ध में स्वामी योगानंद द्वारा लिखित पुस्तक An Autobiography of A Yogi में The Resurrection of Shri Yukteshwar Ji नामक अध्याय में बड़े विस्तारपूर्वक सूचना दी गई है। हमने इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद से सहायता ली है। उस अध्याय में शिष्य द्वारा यह पूछे जाने पर कि, 'पूज्य गुरूदेव! सूक्ष्म जगत् के बारे में मुझे और बताईए।' गुरूदेव उत्तर देते हैं :
"अनेक सूक्ष्म लोक हैं जिनमें सूक्ष्म देहधारी प्राणी वास करते हैं। ये सूक्ष्मलोकवासी एक ग्रह से दूसरे ग्रह जाने के लिए सूक्ष्म विमानों या प्रकाश के पिंडों का उपयोग करते हैं जो विद्युतशक्ति या रेडियोधर्मी शक्तियों से भी अधिक गति से जाते हैं। प्रकाश और रंगों के सूक्ष्म स्पन्दनों (vibrations अर्थात् नाद) से बना सूक्ष्म जगत् भौतिक सृष्टि से सैंकड़ों गुणा बड़ा है। सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि सूक्ष्म जगत् के विशाल तेजोमय गुब्बारे के नीचे एक छोटी-सी ठोस टोकरी के समान लटकी हुई है। जिस तरह अंतरिक्ष में अनेक सूर्य और तारे भ्रमण कर रहे हैं, उसी तरह सूक्ष्म जगत् में भी अनेक सूक्ष्म सौरमंडल और सूक्ष्म नक्षत्रमंडल हैं। वहां के ग्रहों के भी सूक्ष्म सूर्य और सूक्ष्म चंद्र हैं, जो भौतिक सृष्टि के सूर्य-चन्द्रों से कहीं अधिक सुंदर हैं।"
इस विशाल जगत् में जीवन की विविधता के बारे में गुरूदेव ने वहां फरमाया, "सूक्ष्म जगत् में करोड़ों जीव रहते हैं जो कम अधिक नये नये ही पृथ्वी से वहां आये हुए होते हैं। इसके अतिरिक्त वहां असंख्य परियां, मत्स्य कन्याएं, मछलियां, पशु, बौने, भूत-प्रेत और उपदेवता भी रहते हैं। ये सब अपने अपने कर्मों के गुणवत्ता स्तर के अनुसार सूक्ष्म जगत् के विभिन्न ग्रहों पर रहते हैं।"
यह काफी महत्त्वपूर्ण सूचना है। गुरू नानक देव ने लिखा है कि ज्ञानखंड में कितने ही देवता व दानवों का निवास है। देवता उत्तम प्रकृति की आत्माएं हैं जबकि दानव अधम प्रकृति की। यह असंभव है कि दोनों का निवास एक ही स्थान पर हो और दोनों के लिए अस्तित्व के नियम एक समान हों। इसी तथ्य की सूचना देते हुए गुरूदेव ने फरमाया, "अच्छी और बुरी आत्माओं के लिए विभिन्न दैवी प्रासाद या स्पन्दनात्मक क्षेत्रों की व्यवस्था है। अच्छी आत्माएं मुक्त रूप से संचार कर सकती हैं, परन्तु बुरी आत्माएं सीमित क्षेत्र में ही संचार कर सकती हैं।........ विभिन्न सूक्ष्म लोकों से निष्कासित होकर आये हुए पतित देवताओं के बीच संघर्ष और युद्ध होता है ......... ये जीव हीन सूक्ष्म जगत् के अंधकाराच्छन्न लोकों में रहते हैं और वहां अपने बुरे कर्मों का फल भोगते हैं।"
लेकिन समग्र रूप से सूक्ष्म जगत् स्थूल जगत् की तुलना में उत्तम स्थान है। गुरू नानक देव लिखते हैं कि वहां सदैव विनोद, कोड व आनंद रहता है। गुरूदेव ने भी स्वामी योगानंद को यही बताया, "सूक्ष्म जगत् असीम सुन्दर, स्वच्छ, शुद्ध और सुव्यवस्थित है। वहां कोई निर्जीव ग्रह या बंजर भूमि नहीं है। खरपतवार, बैक्टीरिया, कीड़े-मकोड़े, साँप आदि पृथ्वी के अभिशाप वहां नहीं हैं। सूक्ष्म जगत् में पृथ्वी की भांति परिवर्तनशील और अनिश्चित जलवायु और ऋतु नहीं है। वहां सदैव चिर वसंत ऋतु की समशीतोष्ण जलवायु रहती है और यदा-कदा ज्योतिर्मय हिमपात होता तथा बहुरंगे प्रकाश की वर्षा होती है। सूक्ष्म जगत् के ग्रहों पर स्फटिकजल की झीलें, उज्जवल समुद्र तथा इंद्रधनुषी नदियां बहुतायत में हैं।"
सूक्ष्म जगत् की तीसरी विशेषता यह है कि यहां साधक को अपार शक्ति, सामर्थ्य की प्राप्ति होती है। राम सिंह लिखते हैं, "ज्ञानखंड मे निरंकार के बेअंत गुणों में सबसे अधिक उसकी शक्ति का गुण प्रकट होता है। कान्ह महेस बरमे आदि दिव्यशक्ति के प्रतीक हैं; केते पात नरिंद पद्यांश में राजकीय शक्ति है; रतन समुंद में आर्थिक शक्ति है; केते सिद्ध बुद्ध नाथ केते पद्यांश में ऋद्धियों सिद्धियों के रूप में मानसिक शक्ति का सुझाव है; और केतीआ सुरती सेवक केते में बौद्धिक शक्ति का।" सूक्ष्म जगत् में शक्ति के तथ्य पर श्रीयुक्तेश्वर जी ने भी प्रकाश डाला है। आप फरमाते हैं, "सूक्ष्म जगत् की प्रत्येक वस्तु मुख्यतः ईश्वर की इच्छा और अंशतः सूक्ष्म जगतवासियों की इच्छा के आह्वान से प्रकट होती है। .......... पृथ्वी पर किसी ठोस पदार्थ को द्रव पदार्थ में या किसी दूसरे रूप में केवल प्राकृतिक या रासायनिक प्रक्रियाओं के द्वारा ही परिवर्तित किया जा सकता है, परन्तु सूक्ष्म जगत् के ठोस पदार्थ वहां के वासियों की इच्छा मात्र से द्रव पदार्थों, वायुओं या ऊर्जा में तत्क्षण रूपांतरित हो जाते हैं।"
गुरूदेव ने आगे कहा, "अवकाशयुक्त त्रिआयामी भौतिक जगत् का ज्ञान केवल पंचेन्द्रियों द्वारा ही हो सकता है, परन्तु सूक्ष्म लोकों का ज्ञान सर्वसमावेशक छठी इंद्रिय अर्थात् अंतर्ज्ञान से होता है। ...... सूक्ष्म शरीरधारियों के भी कान, नाक, आंखें, जीभ और त्वचा ये सारी बाह्येन्द्रियां होती हैं, परन्तु वे शरीर के किसी भी हिस्से से कोई भी संवेदन प्राप्त कर सकते हैं और इसके लिए वे केवल अंतर्ज्ञान का उपयोग करते हैं। .........सूक्ष्म जगत् के उच्च लोकों में तब आनन्दोत्सव मनाये जाते हैं, जब आध्यात्मिक उन्नति द्वारा कोई जीव सूक्ष्म जगत् से मुक्त होकर उसके स्वर्ग अर्थात् कारण जगत् में प्रवेश करने योग्य हो जाता है।(जीवात्मा की आध्यात्मिक उन्नति के अवसर पर संतों के यूथों द्वारा मंगलगीत गाए जाने का वर्णन आदिग्रंथ में भी कई स्थानों पर किया गया है।) सूक्ष्म जगत् में रहने वालों को अपना तेजयुक्त शरीर छोड़ते समय मृत्यु के साथ कष्टकर संघर्ष नहीं करना पड़ता ......... सूक्ष्म जगत् में उपभोग स्पन्दनों के अर्थ में होता है। सूक्ष्मजगत्वासी ब्रह्माण्डों के सूक्ष्म आकाशीय संगीत का आनंद लेते हैं और यह देखकर मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं कि समस्त सृष्टि परिवर्तनशील प्रकाश की ही अनंत अभिव्यक्तियां हैं।"
श्रीयुक्तेश्वर जी ने यहां महत्त्वपूर्ण सूचनाएं दी है। 'स्पन्दन' से आपका भाव दिव्य नाद से है जो सूक्ष्म जगत् में जीवात्मा का भोजन है। यह दिव्य नाद ही ज्ञान है और बाणी में कहा गया है कि जो साधक ज्ञान के महारस का भोग करता है उसे विषयों की भूख नहीं सताती :
गिआन महारसु भोगवै बाहुड़ि भूख न होइ ॥ (1-20)
इस सारी चर्चा से पता चलता है कि सूक्ष्म जगत् ज्ञानखंड हमारे स्थूल जगत् धर्मखंड की तुलना में अति विशाल है। धर्मखंड की तुलना में ज्ञानखंड में जीवात्माओं का परस्पर व बाहरी वातावरण के साथ संघर्ष बहुत कम होता है जिससे उनके आंतरिक व बाहरी जीवन में अधिक सामंजस्य व शांति होती है। इसका कारण यहां शक्ति की प्रचुरता है जिसकी विविध पहलूओं की ओर राम सिंह ने ध्यान दिलाया है। लेकिन फिर भी, ये सारे पहलु तो शक्ति की अभिव्यक्तियां हैं, इसके परिणाम हैं। स्वयं शक्ति का स्वरूप क्या है? हमने देखा कि सरमखंड मानसिक जगत् है। यहां सारी सृष्टि एक मानसिक विचार (idea) के रूप में है। यहां हर वस्तु आपेक्षिक रूप से शाश्वत, अपरिवर्तनशील, सम्पूर्ण व समग्र रूप में है। दूसरी ओर हमारी भौतिक सृष्टि है जहां हर वस्तु सामयिक, अपूर्ण व निरंतर परिवर्तनशील रूप में होती है। इस तरह धर्मखंड व सरमखंड दो जगत् (realms) हैं; एक वस्तुओं का जगत् है जिसे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अनुभव किया जाता है, दूसरा विचारों का जगत् है जिसे मानसिक विचार द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है; एक प्रतीतियों (appearances) का जगत् है, दूसरा वस्तुओं के सारवान् रूप (essence) का। इस तरह ज्ञानखंड विचार (idea) व वस्तु (thing), ज्ञान (knowledge) व मान्यता (opinion) की मध्यवर्ती अवस्था है। यह आत्मा की वह अवस्था है जहां उसे मन की ऊर्जा (energy) तो प्राप्त है किंतु इसके स्वाभाविक परिणाम जैसे क्लांति, निर्बलता, जिनका वैश्विक प्रतिरूप हमारा यह जड़ (inert) जगत् है, अभी उजागर नहीं हुए हैं। इस तरह ज्ञानखंड मे वर्णित शक्ति मन से कनिष्ठ किंतु जड़ से वरिष्ठ है। यह शक्ति प्राण है। प्राण जीवनतत्त्व है और "प्राचीन रहस्यवादी ऋषि जीवनतत्त्व को ऐसा समझते थे कि वह एक महान शक्ति है जो सारी भौतिक सत्ता में व्याप्त है और उसकी सब चेष्टाओं का कारण है। यही विचार बाद में प्राण, जगद्व्यापक जीवनश्वास के स्वरूप में परिणत हो गया।"[वेद-रहस्य (पूर्वार्ध), पृ -447]
(शेष आगे)
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excellent.