Maya is ignorance. The question is how a person, engrossed in Maya, gets divine knowledge.
The Adi Granth, like all other Indian scriptures, asserts that this transformation is brought about by the Guru. The Guru blesses the disciple with Guru-Mantra. But the Mantra, being just a name, in itself is Maya.
How the remembrance of the Guru-Mantra can induce divine knowledge in the practitioner? Read the very interesting Kartapurush 39 to know the answer.
The text aims to clarify the role of the Guru and the Guru-Mantra in attaining divine knowledge. It emphasizes that despite being a mere name, the Guru-Mantra holds profound power to transform the practitioner's consciousness and lead them towards divine knowledge.
Here's how this text can help its readers:
Understanding the True Nature of Maya: It challenges the conventional perception of Maya as merely external illusion and highlights its influence on our inner perception. This understanding helps in recognizing Maya's role in obscuring our potential for divine knowledge.
Recognizing the Role of the Guru: It underscores the crucial role of the Guru in imparting divine knowledge. The Guru acts as a guide and facilitator, helping the disciple transcend the limitations of Maya and access their true spiritual potential.
Appreciating the Power of the Guru-Mantra: It dispels the notion of the Guru-Mantra as a mere name and reveals its profound transformative power. The repeated remembrance of the Guru-Mantra serves as a tool for self-transformation, gradually purifying the mind and aligning it with divine consciousness.
Motivating Spiritual Practice: It encourages readers to seek guidance from a true Guru and diligently practice the Guru-Mantra. By doing so, they can embark on a journey of spiritual growth, shedding the veil of Maya and attaining divine knowledge.
In essence, the text serves as a beacon of hope for those seeking spiritual enlightenment, emphasizing the transformative power of the Guru and the Guru-Mantra in guiding them towards divine knowledge.
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सनातन धर्म के सभी अन्य सद्ग्रंथों के समान आदिग्रंथ में भी ज्ञान की बड़ी महिमा की गई है। यह कहा गया है कि चंचल मन ज्ञान से ही स्थिर होता है :
गिआन का बधा मनु रहै ......॥(1-469)
सारी सृष्टि ज्ञान से खाली है, इसलिए आवागमन में फंसी हुई है :
गिआन विहूणी भवै सबाई ॥(1-1034)
यदि जीव ज्ञान रूपी महारस का पान कर ले तो फिर उसे पदार्थों की भूख नहीं लगती :
गिआन महारसु भोगवै बाहुड़ि भूख न होई ॥(1-20)
चौथे गुरू रामदास जी मन को उपदेश देते हैं कि हे मन! ऊंट की तरह बेलगाम न बन, ज्ञान रूपी रत्न को सम्हाल और बड़भागी बन जा :
मन करहला बडभागीआ तूं गिआनु रतनु समालि ॥(4-234)
हमने यह जान लिया है कि नाम प्रभू सति का पूर्ण ज्ञान है जबकि शब्द प्रभू सति का आंशिक ज्ञान है जबकि माया में पूर्ण अज्ञान है। ‘शब्द से नाम की प्राप्ति होती है’, ‘ज्ञान’ के संदर्भ में ऐसा कहने का अभिप्राय है कि अज्ञानी जीव की यात्रा प्रभू के आंशिक ज्ञान से पूर्ण ज्ञान की ओर होती है। किन्तु प्रश्न उठता है कि माया में लिप्त जीव को शब्द की प्राप्ति कैसे होती है? माया अज्ञान है, शब्द ज्ञान है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं। यह ठीक है कि शब्द में ज्ञान आंशिक रूप में है किन्तु यह आंशिकता तो नाम के संदर्भ में है। इस प्रश्न को ऐसे भी पूछा जा सकता है कि माया में स्थित जीव तो बुझे दीपक के समान है, जबकि शब्द में स्थित जीव एक प्रज्ज्वलित दीपक के समान है, अतः जीव का यह रूपांतरण कैसे होता है? ध्यान रहे कि शब्द के समान ही नाम में स्थिर जीव भी एक प्रज्ज्वलित दीपक के समान ही है किन्तु दोनों में अंतर यह है कि शब्द की ज्योति धुएं सहित ज्योति है जबकि नाम की ज्योति धुएं रहित ज्योति है, ज्योति निर्धूमक: । शब्द की ज्योति माया के अंधकार के दाग सहित है जबकि नाम की ज्योति में अंधकार का दाग नहीं है।
माया में स्थित अज्ञानी जीव को प्रभू के ज्ञान (Gnosis, शब्द) की प्राप्ति कैसे होती है? समस्त सनातनी सद्ग्रंथों के समान आदिग्रंथ में भी इस प्रश्न का उत्तर यही है कि यह रूपांतरण गुरू की कृपा से होता है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :
गाफल गिआन विहूणिआ गुर बिनु गिआनु न भालि जीउ ॥(1-751)
‘हे गाफिल हुए ज्ञानहीन जीव! गुरू की शरण पड़े बिना परमात्मा के ज्ञान की आशा करनी व्यर्थ है।’ यह एक अत्यंत महवपूर्ण विषय है और इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा ‘गुरप्रसादि’ अध्याय में की गई है किन्तु ‘ज्ञान’ के संदर्भ में यहाँ इस विषय पर संक्षिप्त चर्चा अत्यावश्यक है। इस विषय के अध्ययन हेतु हमने राग टोडी में सम्मिलित चौथे गुरू रामदास जी के एक शब्द का चयन किया है।
रागु टोडी महला 4 घरु 1 ॥
हरि बिनु रहि न सकै मनु मेरा ॥
मेरे प्रीतम प्रान हरि प्रभू गुरू मेले बहुरि न भवजलि फेरा ॥1॥ रहाउ॥
‘हे भाई! मेरा मन परमात्मा के बिना नहीं रह सकता। यदि गुरू मुझे मेरे प्रियतम हरि से, मेरे प्राण प्रभू से मिला दे तो मुझे भवसागर में दोबारा नहीं आना पड़ेगा।’
मेरै हीअरै लोच लगी प्रभ केरी हरि नैनहु हरि प्रभ हेरा ॥
सतिगुरि दइआलि हरि नामु द्रिड़ाइआ हरि पाधरु हरि प्रभ केरा ॥1॥
‘हे भाई! मेरे हृदय में प्रभू (के मिलाप) की तमन्ना लगी हुई थी, (मेरी इच्छा थी कि) मैं (अपनी) आँखों से हरि-प्रभू को देख लूँ। दयालु गुरू ने परमात्मा का नाम मेरे दिल में दृढ़ कर दिया- यही है हरि-प्रभू (को मिलने) का सपाट रास्ता।’ परमात्मा का ज्ञान गुरू से होता है। गुरू शिष्य को नाम-मंत्र देता है। इस मंत्र का दृढ़तापूर्वक स्मरण ही परमात्मा से मिलाप का राजमार्ग है। यहाँ पूछा जा सकता है कि गुरू-मंत्र तो एक लफ़्ज मात्र, ‘नाम’ अर्थात संज्ञा (noun) होने के कारण माया है और माया अज्ञानता है। ऐसे में गुरू-मंत्र का जप परमात्मा के ज्ञान का साधन कैसे हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में दो बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं। पहला, निराकार परमात्मा और साकार सद्गुरू एक हैं, अरूप परमतत्त्व ने ही भक्तों के कल्याण हेतु रूप धारण किया है :
एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा ॥
ब्यापक बिसवरूप भगवाना । तेहिं धरि देहु चरित कृत नाना ॥(रा. 1-13-3,4)
प्रस्तुत पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास ने नेतिवाचक पदों ‘अनीह अरूप अनामा’ का प्रयोग करके परमात्मा के निर्गुण ਓੱ रूप का, ‘अज सच्चिदानंद पर धामा’ कहकर नेतिवाचक और इतिवाचक पदों के सम्मिलित प्रयोग द्वारा परमात्मा के निर्गुण-सगुण सति रूप का, ‘ब्यापक’ कहकर सति की सत्ता नाम का और ‘बिसवरूप’ कहकर सति के शक्ति रूप शब्द का संकेत किया है। अंत में यह कहकर कि ‘वही परमात्मा देह धारण करके नाना प्रकार के चरित्र करता है’ आपने परमात्मा और सद्गुरू की एकता का वर्णन कर दिया है। सद्गुरू देह में अवश्य हैं किन्तु देह नहीं हैं। उसी प्रकार उनका दीक्षा स्वरूप दिया हुआ मंत्र भी लफ़्जों में अवश्य है किन्तु लफ़्ज मात्र नहीं है। गुरू प्रदत्त नाम-मंत्र को बाणी में गुरू-मंत्र, ज्ञान-मंत्र, बीज-मंत्र, महा-मंत्र भी कहा गया है :
गुरदेव दाता हरि नामु उपदेसै गुरदेव मंतु निरोधरा ॥(5-250)
‘गुरू प्रभू के नाम (-मंत्र) का उपदेश देने वाला दाता है, गुरू का (नाम-) मंत्र अमोघ है।’ प्रथम दृष्ट्या गुरू द्वारा दिया गया नाममंत्र परमात्मा के अन्य नामों की तरह ही एक अक्षर मात्र है। कोई अक्षर ऐसा नहीं है जो मंत्र नहीं है, अमंत्रं अक्षरं नास्ति। किसी भी नाम का जप करें उससे लाभ ही होगा किन्तु ये मंत्र अनिरुद्ध नहीं हैं, इनका निरोध किया जा सकता है। इन मंत्रों की शक्ति तुलनात्मक होती है और यह इनका जप करने वाले अभ्यासी के प्रयासों पर निर्भर करती है। दूसरी ओर पूर्ण गुरूदेव द्वारा दिया गया मंत्र अनिरुद्ध या अमोघ (infallible) है। कारण, गुरूमंत्र में निहित शक्ति अभ्यासी के प्रयासों पर निर्भर नहीं करती अपितु गुरूमंत्र में निहित शक्ति गुरू की शक्ति होती है। गुरू निरपेक्ष सत्ता परब्रह्म का रूप है :
खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु को जापै हरि मंत्रु जपैनी ॥
गुरू सतिगुरू पारब्रहमु करि पूजहु नित सेवहु दिनसु सभ रैनी ॥(4-800)
पूर्ण गुरू द्वारा प्रदत्त मंत्र को चुनौती नहीं दी जा सकती। यदि दो ऐसे अभ्यासियों के बीच तुलना की जाए जिनमें से एक ने वेद-पुराण-स्मृतियाँ आदि ये सारी हिन्दू धर्म की पुस्तकें और साथ ही कुरान, अंजील आदि ये सारी सामी धर्मों की पुस्तकें श्वास-श्वास के साथ पढ़ कर रट ली हों और दूसरे ने गुरू से प्राप्त मंत्र का केवल एक बार ही जप किया हो तो ऐसे दूसरे मनुष्य की लोक-परलोक में पवित्र शोभा बन जाती है :
बेद कतेब सिम्रिति सभि सासत इन्ह पड़िआ मुकति न होई ॥
एकु अखरु जो गुरमुखि जापै तिस की निरमल सोई ॥(5-747)
पूर्ण गुरू द्वारा दिए गए मंत्र का जप अभ्यासी को एक ऐसी शक्ति से संयुक्त कर देता है जो निरपेक्ष रूप से शुभ है। इसी कारण से गुरूमंत्र को ‘महामंत्र’ भी कहा जाता है। गुरू अर्जुन देव जी लिखते हैं :
सुनत जपत हरि नाम जसु ता की दूरि बलाई ॥
महा मंत्रु नानकु कथै हरि के गुण गाई ॥(5-814)
‘हे भाई! (सद्गुरू) नानक (देव जी ने हमें) हरि के गुणगान के निमित्त सबसे बड़ा मंत्र बताया है। (जो भी मनुष्य उस) हरि-नाम मंत्र (का) जप करता है (और परमात्मा के चारों ओर प्रसृत दिव्य) यश का श्रवण करता है उस मनुष्य की हरेक विपदा दूर हो जाती है।’ अन्यत्र गुरू जी ने इसे ज्ञानमंत्र कहा है :
मन महि सतिगुर धिआनु धरा ॥
द्रिड़्हिओ गिआनु मंत्रु हरि नामा प्रभ जीउ मइआ करा ॥(5-701)
‘हे भाई! परमात्मा ने (मेरे पर) मेहर की, मैंने (गुरू प्रदत्त) ज्ञान-मंत्र का, हरि के नाम का दृढ़तापूर्वक सिमरन किया (और) मन में सद्गुरू के स्वरूप का ध्यान धर लिया।’ ‘गुरू से ज्ञान लेना’, ‘गुरू से उपदेश लेना’, गुरू से मंत्र-दीक्षा लेना’, ‘गुरू से नाम लेना’ -एक ही आध्यात्मिक तथ्य के भिन्न-भिन्न विधि से किये गये विवरण मात्र हैं। तीनों लोकों में गुरू ही ज्ञान प्रदान करने वाला दीपक है : गुरू दाता गुरू हिवै घरु गुरू दीपकु तिह लोइ ॥(1-137) गुरू अपने शिष्य को यह ज्ञान मंत्र के रूप में देता है। अतः गुरू ज्ञान-रूप है तो मंत्र भी ज्ञान-रूप है। गुरूमंत्र ज्ञान का बीज है, गुरूमंत्र बीजमंत्र है :
बीज मंत्रु सरब को गिआनु ॥ चहु वरना महि जपै कोऊ नामु ॥
जो जो जपै तिस की गति होइ ॥ साधसंगि पावै जनु कोइ ॥(5-274)
‘बीजमंत्र का ज्ञान सभी जीवों को प्राप्त करना चाहिए। कोई भी जीव हो, चाहे वह चारों वर्णों में से किसी से भी संबंध रखता हो, उसके लिये उपदेश यह है कि वह नाम का जप करे। जो भी जीव नाम का जप करता है वह उत्तम गति को प्राप्त करता है। इस बीजमंत्र की प्राप्ति साधु की संगत करने से होती है।’ गुरूमंत्र को बीजमंत्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि गुरूमंत्र मन को भयमुक्त करने वाली शक्ति का बीज है। यह बीज सांत है इसका फल शक्ति अनंत है।
गुरूमंत्र को बीजमंत्र कहना एक अन्य दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। ‘बीज’ संज्ञा आकार की होती है किन्तु हम जानते हैं कि बीज की महिमा उस आकार के कारण नहीं अपितु आकार में निहित एक अव्याख्यायित शक्ति के कारण है। उस शक्ति के कारण ही वह बीज पुष्पित-पल्लवित होता है। जैसे बाहरी दृष्टि से एक सक्षम बीज अक्षम बीजों के समान ही होता है किन्तु धरती में रोपे जाने पर दोनों में अंतर का ज्ञान हो जाता है। वैसे ही बाहरी दृष्टि से गुरूमंत्र अन्य अक्षरों के समान ही है किन्तु दोनों के अभ्यास से उनमें अंतर का ज्ञान हो जाता है। गुरू, गुरूमंत्र और परमेश्वरी शक्ति तीनों सच हैं : सचु मंत्रु तुमारा अम्रित बाणी ॥(5-562) शक्ति ही देह धारण कर गुरू बनी है; शक्ति ही अक्षर बन कर मंत्र में विराजमान हुई है। शक्ति सर्वत्र है किन्तु हमें उससे तब तक लाभ नहीं होता जब तक गुरू के पास न जाएँ; गुरू की संगति से लाभ तब तक नहीं होता जब तक उसके दिए हुए गुरूमंत्र का जप न किया जाए; मंत्र जप का लाभ तब तक नहीं होता जब तक उसका दान गुरू द्वारा शिष्य को न किया जाए। शक्ति गुरू है और गुरू शक्ति है; शक्ति मंत्र है और मंत्र शक्ति है; गुरू मंत्र है और मंत्र गुरू है। शक्ति जब देह स्वरूप में साक्षात दिखती है तो उसे गुरू कहते हैं; शक्ति जब मंत्र में विराजमान होती है तो उसे ‘गुर-शब्द’ कहते हैं; जब वह अरूप व चारों ओर विद्यमान दिव्य ध्वनि रूप होती है तो उसे ‘शब्द-गुरू’ कहते हैं। यह गुरू, गुर-शब्द और शब्द-गुरू की त्रिपुटी है : घटि घटि रमईआ रमत राम राइ गुर सबदि गुरू लिव लागे ॥(4-172) शक्ति ज्ञान है। यह ज्ञान जब देह स्वरूप में साक्षात दिखता है तो उसे गुरू कहते हैं; जब यह ज्ञान मंत्र में विराजमान होता है तो उसे ‘गुर-ज्ञान’ कहते हैं; जब यह ज्ञान सर्वत्र विद्यमान दिव्य ध्वनि रूप होता है तो उसे ‘ज्ञान-गुरू’ कहते हैं। यह गुरू, गुर-ज्ञान और ज्ञान-गुरू की त्रिपुटी है : अंधिआरै दीपक आनि जलाए गुर गिआनि गुरू लिव लागे ॥(4-172) ध्यान रहे कि उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में दिये गये पद्यांशों यथा ‘गुर सबदि गुरू’ और ‘गुर गिआनि गुरू’ में प्रमुख पद क्रमशः ‘सबदि’ और ‘गिआनि’ हैं और इनका प्रयोग देहरी दीपक अलंकार के रूप में हुआ है। ‘गुरू सबदि गुरू’ का अन्यव ‘गुर शब्द’ और ‘शब्द गुरू’ होगा जबकि अर्थ क्रमशः ‘गुरू द्वारा दिया गया शब्द-मंत्र’ और ‘वह गुरू जिसका स्वरूप शब्द है’ होगा। इसी प्रकार ‘गुरू गिआनि गुरू’ का अन्यव ‘गुर ज्ञान’ और ‘ज्ञान गुरू’ होगा जबकि अर्थ क्रमशः ‘गुरू द्वारा दिया गया ज्ञान-मंत्र’ और ‘वह गुरू जिसका स्वरूप ज्ञान (Gnosis) है’ होगा। गुरू, मंत्र और परमात्मा की चेतन शक्ति में पूर्ण तादात्म्य है। पूर्ण गुरू द्वारा प्रदत्त मंत्र के जप से शिष्य के भीतर प्रभू-शक्ति का संचार होने लगता है, इसके परिणामों के बारे में गुरू जी आगे लिखते हैं।
हरि रंगी हरि नामु प्रभ पाइआ हरि गोविंद हरि प्रभ केरा ॥
हरि हिरदै मनि तनि मीठा लागा मुखि मसतकि भागु चंगेरा ॥2॥
‘हे भाई! (हरि के नाम-मंत्र के जप से हमें) हरि प्रभू गोबिंद के उस हरि-नाम की प्राप्ति हुई जिसका स्वरूप अनेक कौतुकों वाला है। ऐसे मनुष्य के हृदय में, उसके मन में, शरीर में, परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है; उसके मस्तक पर, मुँह पर अच्छे भाग्य जाग पड़ते हैं।’ ‘रंग’ का अर्थ यहाँ पर नाटक, कौतुक, लीला आदि है। ‘रंगी’ अर्थात कौतुक, लीला, चोज करने वाला। प्रभू के जिस नाम को ‘रंगी’ अर्थात चोजी, कौतुकी, लीलाधर कहा जा रहा है, यह प्रभू की शक्ति है, इस शक्ति का स्वभाव लीलामय है, शक्ति की अनेक कौतुकों से भरपूर लीला ही जगत् की विविधता में परिणत होती है। प्रभू के इस ‘रंगी’ नाम अर्थात उसकी लीलाधर शक्ति के दिव्य दर्शन से अभ्यासी का मन प्रभू के असीम प्रेम से भर जाता है।
लोभ विकार जिना मनु लागा हरि विसरिआ पुरखु चंगेरा ॥
ओइ मनमुख मूड़ अगिआनी कहीअहि तिन मसतकि भागु मंदेरा ॥3॥
‘इसके विपरीत, हे भाई! जिन मनुष्यों के मन लोभ आदि विकारों में मस्त रहते हैं, उनको कल्याणस्वरूप परमात्मा भूला रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले वे मनुष्य अज्ञानी और मूढ़ कहे जाते हैं। उनके माथे पर बुरी किस्मत (उघड़ी हुई समझ लो)।’ मनमुख होना बुरी किस्मत की निशानी है। अज्ञानता अहंग्रस्तता है, इसके कारण मोह की उत्पत्ति होती है। मूढ़ता मोहग्रस्तता है। अज्ञानता के कारण हमारा रिश्ता परमात्मा से टूटता है। मोह के कारण हमारा रिश्ता जगत् से जुड़ता है जिससे जीव को काम, क्रोध, लोभ आदि विकार घेर लेते हैं।
बिबेक बुधि सतिगुर ते पाई गुर गिआनु गुरू प्रभ केरा ॥
जन नानक नामु गुरू ते पाइआ धुरि मसतकि भागु लिखेरा ॥4॥(4-711)
‘हे दास नानक! जिस मनुष्यों के माथे पर धुर से लिखे अच्छे भाग्य उघड़ आए, उन्होंने गुरू से परमात्मा का ‘गुर गिआनु’ अर्थात गुरू-मंत्र प्राप्त किया; फिर उन्होंने गुरू से परमात्मा का ‘गिआनु गुरू’ अर्थात प्रभू की दिव्य शक्ति को प्राप्त किया। इस ज्ञान की बरकत से उनके मोह का नाश हो गया और उन्हें विवेक-बुद्धि की प्राप्ति हुई; तदुपरांत उन्हें गुरू की कृपा से नाम/ब्रह्म/अक्षर सत्ता की प्राप्ति हुई।’
प्रस्तुत शब्द में गुरू जी ने ‘नाम’ के तीन भेदों का वर्णन किया है। इन तीनों में से जिस नाम का उल्लेख आप जी ने अंतिम पंक्ति में किया है, उसी को बाणी में अन्यत्र ‘केवल नाम’ भी कहा गया है। यह नाम ब्रह्म सत्ता है जो चैतन्यघन है, निरंजन है अर्थात यहाँ माया (other than the Self) का अभाव है, जिससे यहाँ ‘ज्ञान’ का पूर्ण परिपाक होता है। दूसरी पंक्ति में प्रभू के जिस नाम को ‘रंगी’ अर्थात चोजी, कौतुकी, लीलाधर कहा गया है वहाँ माया के कारण उत्पन्न बहुलता और प्रभूतत्त्व के कारण उत्पन्न एकता एक साथ है, यहाँ ‘ज्ञान’ है लेकिन आंशिक रूप में है। अस्तित्व का अंतिम स्तर माया है, जिसमें हम निवास करते हैं। यहाँ जिस ‘नाम’ से हमारा परिचय होता है, वह ‘नाम-रूप’ है, माया है। यहाँ केवल बहुलता है जिसकी गति सदैव विनाश की ओर रहती है। यहाँ अज्ञानता का दुर्निवार साम्राज्य है। किन्तु यहाँ भी पूर्ण सद्गुरू व उनके द्वारा दिया गया नाममंत्र ज्ञान के स्रोत होते हैं। इस तरह नाम के तीन रूप सिद्ध होते हैं - मंत्र रूप, शक्ति रूप और सत्ता रूप। गुरू अमरदास जी लिखते हैं :
गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥
नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥(3-603)
इस उद्धरण की दूसरी पंक्ति में नाम के दो रूप बताए गये हैं, नाउ तुलहड़ा और नाउ बेड़ा । ‘तुलहड़ा’ छोटे जहाज या नौका को कहते हैं; ‘बेड़ा’ बड़े जहाज को कहते हैं। पुराने समय में समुद्र यात्रा के लिये जब यात्री जहाज पर सवार होते थे तो वे पहले छोटे जहाज या नौका पर बैठ कर गहरे सागर में पहुंचते जहां बड़ा जहाज लंगर डाले खड़ा होता था। फिर वे उस बड़े जहाज के जरिये समुद्र पार कर लेते थे। यहाँ गुरू जी ने गुरू-मंत्र को छोटा जहाज कहा है, गुरू-मंत्र का जप माया से उद्धार के लिये प्राथमिक साधन है : गुर मंत्रड़ा चितारि नानक दुखु न थीवई ॥(5-521); इस गुरू-मंत्र के जप से साधक के अंतःकरण में प्रभू-शक्ति उत्पन्न होती है, यह प्रभू-शक्ति है जितु लगि पारि जन पाइ । भवसागर से पार उतरने वाले की अवस्था क्या है, आप फरमाते हैं, राम नामि लिव लाइ ॥ यह नाम सत्य स्वरूप प्रभू की सत्ता है, यह केवल नाम है अर्थात यह माया से अतीत है। यहाँ पर साधक की यात्रा पूर्ण हो जाती है और वह पूर्णत्व को प्राप्त हो जाता है।
(शेष आगे)
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Deep analysis.
very good.