The text delves into the fundamental question of how life arose from non-living matter, exploring the scientific and Vedantic perspectives on this profound mystery.
The emergence of infinitesimally small living cells on our planet, when its age was about 1.0 to 1.3 billion years, poses a significant scientific question: whether life arose through mechanical processes or through a purposeful design by a conscious power.
The question is how those living cells evolved from the non-living matter? Did the life evolved mechanically or there was a higher purpose designed by a conscious power?
Furthermore, the fundamental question of defining life remains unresolved. The distinction between living and non-living matter is debated, raising questions about whether this distinction is truly rational or arbitrary.
Science and Vedanta offer different perspectives on these questions. Science seeks to understand the mechanisms of life's origins, while Vedanta emphasizes the role of consciousness in the universe, suggesting that life may have a deeper purpose beyond mere mechanical processes.
Kartapurush ep35 invites readers to explore these questions further for a more detailed discussion.
The text delves into the fundamental question of how life arose from non-living matter, exploring the scientific and Vedantic perspectives on this profound mystery. It highlights the ongoing debate surrounding the definition of life and the distinction between living and non-living entities.
The text prompts readers to contemplate the complexities of life's emergence and the role of consciousness in the universe.
Other objectives of the text are as follows:
Encourage consideration of diverse perspectives: It presents both scientific and Vedantic viewpoints on the origins of life, inviting readers to engage with different approaches to understanding this enigma.
Foster a broader understanding of life's origins: By exposing readers to scientific and Vedantic insights, the text encourages a more comprehensive exploration of the factors that have shaped the existence of life.
In essence, the text serves as an invitation to embark on a journey of intellectual exploration, examining the profound questions surrounding the origins of life and the nature of consciousness through the lenses of science and Vedanta.
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हमने कहा कि सृष्टि रचना के दूसरे चरण में जगत् में केवल अनात्मीय पिंड ही होते हैं। इसके पश्चात धीरे-धीरे इस अनात्मिक पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति होनी शुरू होती है। यहाँ पर प्रश्न उठता है कि रचना के दूसरे चरण में जब चारों ओर अनात्मिक पदार्थ ही पसरा होता है तो वहाँ से रचना के तीसरे चरण का प्रारंभ कैसे होता है अर्थात जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति कैसे होती है? ध्यान रहे कि ‘जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति किस प्रकार होती है’ यह एक गौण प्रश्न है और यह गौण प्रश्न इस मुख्य प्रश्न का उपांग मात्र है कि ‘क्या पृथ्वी पर जीवन किसी विशिष्ट शक्ति की प्रेरणा से प्रेरित है अथवा जीवन की उत्पत्ति स्वतः होती है?’ दूसरे शब्दों में ‘वह कौन-सी सत्ता है जिसकी अभिव्यक्ति जीवन के रूप में होती है?’ यह मुख्य प्रश्न है और ‘जीवन की उत्पत्ति कैसे होती है?’ यह हमारे समक्ष मुख्य प्रश्न का गौण अंग मात्र है। जहां तक मुख्य प्रश्न का संबंध है, विज्ञान में इस संबंध में दो सिद्धांत दिए जाते हैं। पहले सिद्धांत को जीववाद (vitalism) कहा जाता है जबकि दूसरे सिद्धांत को यंत्रवाद (mechanism) कहा जाता है। जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति के संबंध में इन दो सिद्धांतों के बीच बहुत अधिक वाद-विवाद है। जीववाद में माना जाता है कि समस्त जन्तु और वानस्पतिक पदार्थ एक विशिष्ट प्राणशक्ति की प्रेरणा से प्रेरित होकर उत्पन्न होते हैं। दूसरी ओर यंत्रवाद सिद्धांत के समर्थक मानते हैं कि जगत् एक यंत्र है और यह यंत्र बिना किसी कारीगर के अपने-आप निर्मित हुआ और अपने-आप चल रहा है। दूसरी ओर इस गौण प्रश्न कि ‘जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति कैसे होती है?’ के उत्तर में दो सिद्धांत दिये जाते हैं। ये दो सिद्धांत हैं - अजीवात् जनन (spontaneous generation) और जीवात् जनन (parental generation)। चूँकि हम पहले ही कह चुके हैं कि ‘क्या पृथ्वी पर जीवन किसी विशिष्ट शक्ति की प्रेरणा से प्रेरित है?’ इस वृहद प्रश्न का ही उपांग यह प्रश्न है कि ‘जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति कैसे होती है?’ तो ऐसे में हमारे लिये यही समीचीन होगा कि हम जीववाद (vitalism) बनाम यंत्रवाद (mechanism) विवाद पर चर्चा करने से पहले अजीवात् जनन (spontaneous generation) और जीवात् जनन (parental generation) -इन दो प्रत्ययों को समझ लें।
यह आम तौर पर देखा जाता है कि यदि पकाया हुआ चावल, रोटी, केला और ऐसे ही अन्य पदार्थों को प्राकृतिक परिस्थितियों में लम्बे समय के लिये रखा जाये तो वे किण्वन (fermentation) और पूयन (putrefaction) की प्रक्रिया में से गुजरते हैं। खमीर, रोगाणु, कृमि, कीड़े निर्जीव पदार्थों में से ही उत्पन्न हो जाते हैं। “किसी अतिप्राकृतिक रचनात्मक शक्ति की क्रिया के बिना ही निर्जीव पदार्थ से सप्राण जीवों की इस कथित उत्पत्ति को अजीवात् जनन (spontaneous generation) कहा जाता है।”(N.C. Panda कृत ‘Cyclic Universe’, पृ -465) अजीवात् जनन का सिद्धांत पिछले दो हजार वर्षों से चला आ रहा है। यूरोप में उन्नीसवीं सदी में इस सिद्धांत को लुइस पाश्चर ने चुनौती दी। उसके प्रयोगों ने दर्शाया कि किसी पदार्थ में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्मजीवियों की उत्पत्ति उस पदार्थ विशेष से नहीं होती अपितु वे वातावरण में पाए जाते सूक्ष्मजीवियों से आते हैं।
“लुइस पाश्चर के प्रयोगों ने यह भी सिद्ध किया कि जनक सूक्ष्मजीवी अपनी ही प्रजाति के सूक्ष्मजीवियों को पैदा कर सकते हैं। इससे जीवात् जनन (parental generation) की संकल्पना का जन्म हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार सप्राण जीव निर्जीव पदार्थ से जन्म नहीं ले सकते, और प्रत्येक सप्राण जीव के अपनी ही किस्म के एक या एक से अधिक जनक (parent) होते हैं। यदि एक डिब्बे को, उसमें पड़ी वस्तुओं सहित, समुचित रूप से वंध्यकृत (sterilise) करके उस डिब्बे को ऐसे बंद कर दिया जाये कि उससे विषाणु, बैक्टीरिआ, प्रोटोज़ोआ, कवक (fungi) और सभी प्रकार के सप्राण जीवों को विवर्जित कर दिया जाये तो उस डिब्बे में पड़ी वस्तुओं को सुरक्षित रखा जा सकता है और उस निर्जीव पदार्थ से जीवन का प्रादुर्भाव नहीं होगा। अलैंगिक प्रजनन के माध्यम से जन्म लेने वाले प्राणी एक ही जनक से उत्पन्न होते हैं जबकि लैंगिक प्रजनन वाले प्राणियों के - एक पुरुष और एक स्त्री - दो जनक होते हैं। जीवात् जनन का सिद्धांत अजीवात् जनन के सिद्धांत को अस्वीकृत कर देता है।”(वही, पृ -466)
जीवात् जनन (parental generation) का सिद्धांत एक सीमा तक ठीक है। मेंडक का जन्म मेंडक से ही होता है, सांप का जन्म सांप से ही होता है, और दोनों का जन्म कीचड़ से असंबद्ध है। जीवात् जनन का सिद्धांत इस संदर्भ में ठीक है। लेकिन यदि हम पृथ्वी के इतिहास को देखें तो पृथ्वी पर अति सूक्ष्म सजीव कोशिकाओं का विकास तब हुआ जब हमारे इस ग्रह की आयु 1.0 से 1.3 खरब वर्ष हो चुकी थी। इन सजीव कोशिकाओं का जन्म निर्जीव पदार्थ से कैसे हुआ? इस संबंध में कई सिद्धांत दिये गये हैं जिन्हें मुख्यतः दो वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला, निर्जीव पदार्थ से जीवन का पृथ्वी पर (terrestrial) उद्भव; और दूसरा, बाह्य अंतरिक्ष (extra-terrestrial) से सूक्ष्म जीवों के रूप में जीवन की उत्पत्ति। किन्तु इनमें से कोई भी सिद्धांत संतोषजनक रीति से यह नहीं बता पाता कि निर्जीव पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई। यदि हम इस प्रश्न पर आदिग्रंथ और वेदान्त पर किये गये अपने अध्ययन के आलोक में विचार करें तो इस प्रश्न का समाधान अजीवात् जनन (spontaneous generation) और जीवात् जनन (parental generation) -इन दोनों सिद्धांतों के संयोग में मिल जाता है। हमने देखा है कि ब्रह्मांड में मिलने वाला प्रत्येक भौतिक कण एक पिंड (body) है और प्रत्येक पिंड अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए है। हम कण के केवल भौतिक रूप को देखते हैं और जीवन की व्याख्या उसी के स्तर पर करने का प्रयास करते हैं। लेकिन कण के उस भौतिक रूप के भीतर, उसी रूप जैसे और श्रेष्ठता के बढ़ते अनुक्रम में, प्राणिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप भी विद्यमान हैं। उस कण का आध्यात्मिक रूप प्रभु की पराशक्ति ने धारण किया है जबकि उसके मानसिक, प्राणिक और भौतिक रूप प्रभु की अपराशक्ति ने धारण किये हैं। प्रभु की पराशक्ति और अपराशक्ति -दोनों सर्वत्र हैं। चूंकि पराशक्ति अपराशक्ति को नियंत्रित करती है अतएव वह पराशक्ति उस कण को भी प्रत्येक स्तर पर नियंत्रित करती है। अपराशक्ति में भी उसका मानसिक रूप प्राणिक रूप का और प्राणिक रूप भौतिक रूप का नियंत्रण करता है। जिस प्रकार पराशक्ति अपराशक्ति को उत्पन्न करती और चलाती है उसी प्रकार अपराशक्ति में श्रेष्ठ स्तर निम्न स्तर को उत्पन्न करता और चलाता है। जब लगभग 1 खरब वर्ष पूर्व हमारे इस ग्रह पर चारों ओर निर्जीव पदार्थ होगा तो वह प्राणशक्ति से विहीन नहीं होगा। इस प्रकार हमारी राय जीववाद (vitalism) सिद्धांत के अनुकूल है जिसके अनुसार ब्रह्मांड में एक जीवन-तत्त्व (life principle) का अस्तित्व है और किसी भी प्रकार के सजीव पदार्थ को निर्जीव पदार्थ और जीवन-तत्त्व के मिश्रण के रूप में देखा जाना चाहिये। जीववाद सिद्धांत में यह भी स्वीकार किया जाता है कि इस जीवन-शक्ति की व्याख्या किसी भौतिक रासायनिक शक्ति के रूप में नहीं की जा सकती और, साथ ही, यह जीवन-शक्ति जैव रूपों को नियंत्रित करती है। पुनः उस निर्जीव पदार्थ से जीवन के आदिम व सरल रूपों की उत्पत्ति सहज तरीके से अजीवात् ही होती होगी। हमारे विचार में लुइस पाश्चर के प्रयोग अजीवात् जनन के सिद्धांत को असिद्ध नहीं करते हैं। किसी बंद डिब्बे में निहित पदार्थ की सुरक्षा के संबंध में हमें यह ध्यान में रखना है कि उस पदार्थ से सप्राण जीवों का सम्पूर्ण विवर्जन कर दिया जाता है और फिर उस डिब्बे के पदार्थ को इस प्रकार सीलबंद कर दिया जाता है कि उसमें बाहरी वातावरण से सप्राण जीव प्रवेश न कर पाएं। इसके बावजूद उस पदार्थ में सहज रूप से जीवन की उत्पत्ति की संभावना को अनंत काल के लिये नहीं केवल एक सीमित अवधि के लिये ही टाला जा सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि निर्जीव कहे जाने वाले पदार्थ में जीवन की संभावना को रद्द नहीं किया जा सकता।
इस संदर्भ में हम इस मूलभूत प्रश्न पर विचार कर सकते हैं कि ‘जीवन क्या है?’ श्री एन. सी. पंडा लिखते हैं कि निर्जीव वस्तुओं की तुलना में सजीव रूपों की कुछ मूलभूत विशेषताएं बताई जा सकती हैं, जैसे, गति (locomotion), संवेदनशीलता (irritability), प्रजनन (reproduction), चयापचय (metabolism), वृद्धि (growth), क्षय (decay), मृत्यु (death), विशिष्ट संगठन (characteristic organisation) और समग्रात्मक व्यवहार (holistic behaviour)। यदि इन कसौटियों पर जड़ कहे जाने वाले पदार्थ को परखा जाए तो पता चलता है कि ‘निर्जीव’ और ‘सजीव’ की हमारी परिभाषाएं पर्याप्त रूप से मनमानी और कामचलाऊ हैं। पशु एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाते हैं। पशु कोशिकाओं में चार प्रकार की गति होती है - अमीबीय (amoeboid), पक्ष्माभिकी (ciliary), कशाभ (flagellar), मांसपेशीय (muscular)। पशुओं के विपरीत पादपों में गति न के बराबर या फिर सीमित होती है। लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि निर्जीव वस्तुएं स्थावर होती हैं? नहीं। इस ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु सदैव गतिशील रहती है। ऊर्जा, तरंगाणु, लघुकण, कण, परमाणु, अणु, तारे, ग्रह, उपग्रह सबकुछ सदैव गतिशील रहता है। सजीव प्राणियों में संवेदनशीलता अर्थात भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक उत्तेजन (stimulation) के प्रति अनुक्रिया करने की सामर्थ्य होती है। स्थूल रूप से देखा जाए तो निर्जीव वस्तुओं में यह सामर्थ्य नहीं होती है किन्तु सूक्ष्म रूप से देखा जाये तो ब्रह्मांड में कुछ भी असंवेद्य नहीं है। कम्पास की सूई चुंबकीय क्षेत्र के प्रति और इलेक्ट्रान प्रोटॉन के प्रति संवेद्य होते हैं। “यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु उद्दीपन के प्रति गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से उपयुक्त अनुक्रिया को प्रदर्शित करती है।”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe, पृ -520) सजीव प्राणियों में जन्मजात रूप से प्रजनन क्षमता होती है। मानव प्राणी, पशु, पादप जगत्, कवक, खमीर, प्रोटोज़ोआ, बैक्टीरीया सभी प्रजनन करते हैं। आम तौर पर निर्जीव वस्तुओं जैसे पाषाण, जल, वायु आदि में यह क्षमता नहीं पाई जाती। किन्तु जैविक प्रजनन में डीएनए और आरएनए जैसे बृहत कणों का द्विगुणन एक मूलभूत प्रक्रिया है, और ये कण निर्जीव ही हैं। पुनः निर्जीव वस्तुओं में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के क्रिस्टल अपनी ही किस्म के क्रिस्टल को और अनेक सूक्ष्म कण अपनी प्रकार के सूक्ष्म कणों को निर्मित करते हैं। “एककोशिकीय या बहुकोशिकीय प्राणियों की कोशिकाओं में चयापचय एक अन्य कसौटी है जो सजीव प्राणियों को निर्जीव पदार्थ से भिन्न करती है। चयापचय प्रक्रिया के अन्तर्गत वे सभी रासायनिक प्रक्रियाएं शामिल हैं जो किसी प्राणी की एक या एक से अधिक कोशिकाओं में घटित होती हैं। इसमें उपचय (anabolism) और अपचय (catabolism) दोनों प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। ……..सजीव प्राणियों में चयापचय की एक विशेषता यह है कि ये समस्त प्रक्रियाएं पूरी तरह सुनियोजित होती हैं।”(वही) जहां तक निर्जीव जगत् का प्रश्न है, हम देखते हैं कि प्रकृति में सर्वत्र रासायनिक और नाभिकीय प्रक्रियाएं होती हैं। “यह ठीक है कि जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं में एन्ज़ाइम महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं जबकि निर्जीव जगत् में होने वाली रासायनिक प्रक्रियाओं में ऐसा नहीं होता, अन्यथा सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार की प्रणालियों में रासायनिक प्रक्रियाएं निरंतर चलती रहती हैं।”(वही) एक सजीव प्राणी विकसित होता है, क्षीण होता है और अंततः मर जाता है। लेकिन हम ऐसा नहीं कह सकते कि निर्जीव वस्तुएं सदैव एकसमान रहती हैं। तारों का निर्माण होता है; उनके आकार व जटिलता में वृद्धि होती है; धीरे-धीरे नाभिकीय ईंधन की समाप्ति के साथ-साथ वे क्षीण होते हैं और अंततः मर जाते हैं। ब्रह्मांड में कुछ भी अनादि और अनंत नहीं है। सजीव प्राणियों की प्रत्येक प्रजाति विशिष्ट संगठन का प्रदर्शन करती है। न केवल पूर्ण-विकसित प्राणियों, अपितु पादपों और एककोशिकीय जीवों के निर्माण में भी योजना और रूप-रेखा के दर्शन किये जा सकते हैं। यह विशेषता निर्जीव वस्तुओं में भी गोचर होती है यद्यपि यह उतने भव्य रूप में नहीं होती। परमाणु, उनके नाभिक, उनके भिन्न-भिन्न खोलों में प्रत्येक खोल में विशिष्ट ऊर्जा-स्तर के साथ घूमते इलेक्ट्रान, प्रकाश के रंग, विद्युत-चुंबकीय विकिरणों की तरंगदैधर्य और आवृति, इत्यादि सब कुछ सुसंगठित होता है। सजीव प्राणियों के अस्तित्व में एक समग्रता होती है। किसी भी प्रणाली के अलग-अलग भाग एक सीमा तक स्वायत होते हैं किन्तु समग्र रूप से वे उस प्रणाली के हित में कार्य करते हैं। निर्जीव वस्तुओं में यह समग्रता स्पष्ट रूप से तो नहीं दीखती लेकिन उनमें यह होती अवश्य है। उदाहरण के लिये हम हाइड्रोजन के एक परमाणु को देख सकते हैं। इसमें धनात्मक आवेश वाला एक प्रोटॉन और ऋणात्मक आवेश वाला एक इलेक्ट्रान होता है। इलेक्ट्रान के अपने अक्ष पर घूमने के कारण ही इलेक्ट्रान प्रोटॉन के आकर्षण से बचा रहता है। इसके साथ-साथ कक्षीय इलेक्ट्रान नाभिकीय प्रोटॉन के इर्द-गिर्द एक अंडाकार कक्षा में परिक्रमा भी करता है और इस परिक्रमा के दौरान वह जब भी प्रोटॉन के नजदीक आता है उसका अपने अक्ष पर घूर्णन तेज हो जाता है जिससे वह प्रोटॉन के आकर्षण से सुरक्षित रहता है। इससे पता चलता है कि हाइड्रोजन के परमाणु के अस्तित्व में एक समग्रता होती है। यह सच्चाई ब्रह्मांड में सभी निर्जीव पदार्थों पर लागू होती है।
निस्संदेह सजीव प्राणियों को निर्जीव पदार्थों से भिन्न करके देखना बड़ा सरल है और भिन्नता का यह बोध व्यावहारिक भी है किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर दोनों के बीच भेद को दर्शाने वाला कोई एक भी त्रुटिरहित लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होता। इस संदर्भ में हम विषाणुओं को देख सकते हैं जो सजीव और निर्जीव जगत् की सीमारेखा पर रहते हैं। ऐसे में हम यही कह सकते हैं कि जड़ प्रकृति में बताये जाते सजीव और निर्जीव दो प्रकार के विभाग मायिक जगत् से किया गया हमारा एक समायोजन भर है अन्यथा जड़ कहे जाने वाले पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति उतनी महान घटना नहीं है जितनी दिखती है।। प्रभु की चेतन प्रकृति सर्वत्र है। बाणी उसे ‘जगजीवन’ - ‘जगत् को जीवन देने वाला’ - और ‘जीवन रूप’ - ‘जीवन ही है रूप जिसका वह’ - कहती है। उसकी परछाई के समान जड़ प्रकृति भी सर्वत्र है और यह सदैव चेतन प्रकृति से अनुप्राणित होती है। प्रभु की चेतन शक्ति जड़ प्रकृति में आभासित होती है जिससे यह भी आनुभविक रूप से सचेतन हो जाती है। किन्तु जड़ प्रकृति के सावयव होने के कारण इसके विभिन्न संघटक उसी सीमा तक चेतन होते हैं जिस सीमा वे प्रभु की चेतन शक्ति को आभासित कर पाते हैं। मन यह कार्य सर्वोत्तम रूप से करता है जबकि जड़ में यह कार्य सबसे खराब तरीके से होता है। जड़ प्रकृति में प्रत्यक्ष रूप से दीखने वाले सजीव और निर्जीव रूपों में भेद का कारण यही है।
इस प्रकार जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति की व्याख्या के लिये जीववाद सिद्धांत पूर्णतः युक्तियुक्त है। पुनः जीववाद सिद्धांत की दोनों उपशाखाओं अर्थात अजीवात् जनन (spontaneous generation) और जीवात् जनन (parental generation) में समन्वय ही उचित है। जीवन के सरल व प्राथमिक रूपों की उत्पत्ति अजीवात् जनन (spontaneous generation) की विधि से होती है जबकि जीवन के जटिल रूपों की उत्पत्ति जीवात् जनन (parental generation) की प्रक्रिया से होती है।
इस संदर्भ में जीववाद के साथ ही दूसरा सिद्धांत यंत्रवाद है। जगत् की यांत्रिक व्याख्या में निमित्त कारण (efficient causation) पर बल दिया जाता है और उद्देश्यवाद (teleology) व प्रयोजन कारण की अवहेलना की जाती है। विज्ञान एक सजीव निकाय को एक यंत्र के रूप में देखता है। वेदान्त में भी शरीर को यंत्र के रूप में देखा गया है। भगवद्गीता (18.61) में कहा गया है कि यह जगत्, और उसके साथ ही मानव जीवन भी, एक यंत्र है और इन सभी यंत्रों का संचालन एक बुद्धिमान मिस्त्री कर रहा है। कठोपनिषद में शरीर की उपमा रथ से दी गई है। इस शरीर रूपी रथ के सभी अंग, उपांग, ऊतक, कोशिकाएं कमोबेश स्वायत्त हैं। किन्तु जहां विज्ञान के अनुसार इस यंत्र का संचालक कोई नहीं है वहीं वेदान्त के अनुसार इस रथ का सारथी परमात्मा है। इन इंद्रियों के लिये वह सारथी अदृश्य है किन्तु उसके अस्तित्व और कार्यों का अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर रूपी यह यंत्र जड़ है जबकि सारथी शुद्ध चैतन्य है। बाणी उसे ‘जगजीवन’ - ‘जगत् को जीवन देने वाला’ - और ‘जीवन रूप’ - ‘जीवन ही है रूप जिसका वह’ - कहती है। सजीव प्राणियों में यह शुद्ध चैतन्य तत्त्व ही चेतना को प्रवृत करता है, उनके लिये यह असीम जीवन (Universal Life) है। निर्जीव वस्तुओं में यह शुद्ध चैतन्य तत्त्व ही विद्युत-चुम्बकत्व को प्रवृत करता है, उनके लिये यह असीम चुंबक (Universal Magnet) है। इन इंद्रियों के लिये वह अदृश्य है किन्तु उसके कार्यों से उसका अनुमान लगाया जा सकता है। जो कुछ भी, जहां पर भी, जैसी भी परिस्थिति में है, वह उसी से है। वह यत्र-तत्र-सर्वत्र है और चेतना व उत्प्रेरण का हेतु है। यह शुद्ध चैतन्य जब निर्जीव सत्ता में होता है तो उसे भूतात्मा कहा गया है; जब यह सजीव सत्ता में होता है तो उसे जीवात्मा कहा गया है। अतएव जिस प्रकार जड़ पदार्थ से जीवन की उत्पत्ति के संबंध में जीववाद सिद्धांत की दोनों उपशाखाओं अर्थात अजीवात् जनन (spontaneous generation) और जीवात् जनन (parental generation) में समन्वय उचित है, उसी प्रकार जड़ पदार्थ में जीवन को प्रेरित करने वाले तत्त्व के संदर्भ में जीववाद (vitalism) और यंत्रवाद (mechanism) सिद्धांतों में समन्वय ही उचित है। जीवन कोई विशेष सत्ता नहीं है जो कहीं तो उपस्थित है और कहीं नहीं है। जीवन शुद्ध चैतन्य के कारण है और वह सर्वत्र है। हाँ, ब्रह्मांड के क्रमविकास में सजीव प्राणियों की उत्पत्ति एक महान घटना है, इसका कथानक परमात्म-सत्ता द्वारा लिखा जाता है जिससे पदार्थ स्वयं को विशेष गुणों को प्रदर्शित करते हुए और विशेष प्रकार्यों को संपादित करते हुए संघटित करता है और हम उसे ‘सजीव’ कहने लगते हैं। ब्रह्मांड का प्रत्येक अभिव्यक्त रूप एक यंत्र के समान कार्य करता है क्योंकि यह प्रभु की यांत्रिक शक्ति का प्रकटन है किन्तु यह यांत्रिक शक्ति प्रभु के दिव्य संकल्प के प्रकटन का उपपरिणाम मात्र है।
इस संदर्भ में हम जर्मन जीववैज्ञानिक हाँस द्रीसच (1867-1941) के प्रयोगों का हवाला दे सकते हैं। उसने समुद्री साही (sea urchin) के अंडों से दो कोरकखंडों (blastomeres) को लेकर उन्हें अलग-अलग कर दिया। उसने देखा कि दोनों कोरकखंड दो स्वतंत्र डिंभ बन गये। फिर उसने दो युवा भ्रूणों को कृत्रिम रूप से जोड़ दिया। तब वे दो भ्रूण एक (single) सामान्य समुद्री साही में विकसित हो गये। इसके आधार पर द्रीसच ने तर्क दिया कि जैविक प्रक्रियाओं में पूर्ण (whole) अंश (part) में विद्यमान है, और जीव का एक दोषहीन और पूर्ण प्रत्यय पहले से ही विद्यमान होता है। उसके अनुसार सभी जैविक प्रणालियों के भीतर एक मूल योजना (blueprint) होती है जिसे जैवप्रभाविता (Entelechy) द्वारा कार्य रूप में परिणत कर दिया जाता है।
(शेष आगे)
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Excellent