Maya originates from God, God originates from Brahman & Brahman originates from the Paramatma. Read Kartapurush ep33 to know the mutual relationship b/n Brahman, God, Maya & Paramatma.
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ब्रह्म/नाम और ईश्वर/शब्द के स्वरूप के ज्ञान के लिये भगवद्गीता का निम्नलिखित श्लोक प्रासंगिक है, हालांकि श्रीभगवान् ने इस श्लोक में ब्रह्म/नाम के स्वरूप पर ही ध्यान केंद्रित किया है किन्तु चूंकि हम जानते हैं कि ईश्वर/शब्द ब्रह्म/नाम का विपर्यय (antithesis) है, अतः हम इस श्लोक से ईश्वर/शब्द की विशेषताओं का अनुमान भी लगा सकते हैं। श्रीभगवान् ने कहा :
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिंत्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ॥ (8.9)
इस श्लोक में ब्रह्म/नाम की आठ विशेषताएं बताई गई हैं। ये इस प्रकार हैं :
‘कविम्’ - इस शब्द के दो अर्थ - दृष्टा और सर्वज्ञ - लिये जाते हैं। ब्रह्म/नाम ईश्वर/शब्द का दृष्टा है जबकि ईश्वर/शब्द माया का दृष्टा है। दृष्टा-दृश्य संबंध में अनेक अन्य अर्थ-छायाएं जैसे उत्पत्तिकर्ता-उत्पन्न होने वाला, भोक्ता-भोग्य, पर-अपर, प्रकाशक-प्रकाश्य, व्यापक-व्याप्त, कारण-कार्य, सूक्ष्म-स्थूल, अंशी-अंश, श्रेष्ठ-कनिष्ठ, नियंत्रक-नियंत्रित भी सन्निहित हैं। जिस तरह विषय इंद्रियों के द्वारा देखे जाते हैं उसी तरह मन इंद्रियों को देखता है, मन को बुद्धि देखती है, बुद्धि का दृष्टा जीव है, जीव का दृष्टा ईश्वर/शब्द है और इसका दृष्टा ब्रह्म/नाम है। प्रत्येक स्तर पर दृष्टा दृश्य की अपेक्षा सूक्ष्म, बलवान, पर, श्रेष्ठ, व्यापक आदि है और दृश्य दृष्टा की तुलना में स्थूल, निर्बल, अपर, कनिष्ठ, गौण, व्याप्य, भोग्य आदि है। ब्रह्म/नाम सबका उत्पत्तिकर्ता, भोक्ता (enjoyer), सबका कारण, सबसे सूक्ष्म, सबका नियंत्रक है। ‘कविम्’ शब्द का दूसरा अर्थ सर्वज्ञ किया जाता है। ‘सर्वज्ञ’ शब्द में दो अर्थ-छायाएं हैं, यथा सर्वज्ञान (All-knowledge) और सर्वज्ञाता (All-knowing)। ब्रह्म/नाम सर्वज्ञ है, ऐसा कहने का अर्थ है कि वह सर्वज्ञान (All-knowledge) है। ईश्वर/शब्द सर्वज्ञ है, ऐसा कहने का अर्थ है कि वह सर्वज्ञाता (All-knowing) है। ब्रह्म/नाम को सर्वज्ञान कहने से पता चलता है कि ब्रह्म सर्व-चैतन्य (All-Consciousness) है जबकि ईश्वर में अनात्म (Other than the Self) तत्त्व उपस्थित है।
‘पुराणम्’ - ब्रह्म/नाम पुराणम् अर्थात अनादि है। ब्रह्म और ईश्वर दोनों को अनादि कहेंगे। किन्तु दोनों में अंतर यह है कि ब्रह्म/नाम काल से अतीत है जबकि ईश्वर/शब्द काल का प्रकाशक है।
‘अनुशासितारम्’ - ब्रह्म/नाम सबका परम प्रकाशक, परम आश्रय और परम प्रेरक है। ईश्वर/शब्द भी सबका आश्रय है। दोनों में अंतर यह है कि ईश्वर/शब्द के आश्रय से जीव को सद्गति प्राप्त होती है लेकिन उसका जीवत्व नहीं छूटता है। दूसरी ओर ब्रह्म/नाम के आश्रय से जीव को परमगति प्राप्त होती है और उसका जीवत्व छूट जाता है।
‘अणो: अणीयांसम्’ - सत्य स्वरूप परमात्मा सति को एक साथ सूक्ष्म और स्थूल कहा गया है : तूं सूखमु होआ असथूली ॥(1-102) परमात्मा की सत्ता ब्रह्म/नाम सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्म है जबकि परमात्मा की शक्ति ईश्वर/शब्द स्थूल अर्थात महान से भी महान है।
‘सर्वस्य धातारम्’ - ब्रह्म/नाम सबको धारण करने वाला और सबका भरण-पोषण करने वाला है। हमारा यह विविधतामय इंद्रियगोचर जगत् त्रिगुणात्मिका माया के एक बीज से हुआ है। ईश्वर/शब्द इस एक बीज को प्राणवान बनाने वाली चेतन शक्ति है जिसके कारण वह बीज पुष्पित-पल्लवित होता है। ब्रह्म/नाम वह चैतन्य सत्ता है जहां से माया रूप बीज को प्राणवंत करने वाली चेतन शक्ति का निस्सरण होता है।
‘अचिंत्य रूपम्’ - ब्रह्म/नाम का स्वरूप मन-बुद्धि आदि के चिंतन का विषय नहीं है। दूसरी ओर जो भी स्वरूप मन-बुद्धि के दायरे में हैं वे सभी ईश्वर/शब्द ने धारण किये हैं, अतएव हम किसी का भी चिंतन कर रहे हों, ईश्वर का ही चिंतन कर रहे होते हैं, लेकिन वह चिंतन उत्तम परिणाम में इसलिए फलीभूत नहीं हो पाता क्योंकि जीव उस स्वरूप को तत्त्व से नहीं जानते।
‘आदित्यवर्णम्’ - ब्रह्म/नाम सूर्य के समान है जबकि ईश्वर/शब्द चंद्रमा के समान है। दोनों का स्वरूप प्रकाश अथवा चैतन्यता है। दोनों में अंतर यह है कि ब्रह्म/नाम सूर्य के समान सर्वत्र समरूप है जबकि ईश्वर/शब्द चंद्रमा के समान भिन्न-भिन्न सत्ताओं में घटता-बढ़ता रहता है।
जगत्-क्रीडा में ब्रह्म और ईश्वर के अतिरिक्त तीसरा पात्र त्रिगुणात्मिका माया है। ईश्वर ब्रह्म के विपरीत स्वभाव वाला है तो माया इन दोनों से विपरीत स्वभाव वाली है। यह बड़े आश्चर्य का विषय है कि माया ईश्वर से उत्पन्न होती है, ईश्वर ब्रह्म से उत्पन्न होते हैं, और ब्रह्म का उद्गम सत्य स्वरूप परमात्मा सति से हैं अतएव ये तीनों परमात्मा सति से उत्पन्न होते हैं। इसके बावजूद ये तीनों एक-दूसरे से विपरीत स्वभाव वाले हैं। इस तथ्य को समझने के लिये हम विज्ञान से एक उदाहरण ले सकते हैं।(प्रस्तुत उदाहरण श्री एन. सी. पंडा ने एक भिन्न संदर्भ में दिया है) कण भौतिकी के अनुसार नूट्रान पहला महत्वपूर्ण कण है और यह आवेशरहित और उदासीन होता है जो आगे धनात्मक आवेश वाले प्रोटॉन और ऋणात्मक आवेश वाले इलेक्ट्रान में विभाजित होता है। नूट्रान प्रोटॉन और इलेक्ट्रान का जनक है। नूट्रान और प्रोटॉन का आवेश (charge) तो भिन्न-भिन्न होता है किन्तु दोनों का भार (mass) एक समान होता है। आवेश के अंतर के कारण धनात्मक प्रोटॉन और ऋणात्मक इलेक्ट्रान एक दूसरे की ओर आकर्षित होते और हाइड्रजन अणु का निर्माण करते हैं। यदि हम इस उदाहरण को वेदान्त के सृष्टि शास्त्र पर लागू करें तो हम आवेशरहित और उदासीन कण नूट्रान की तुलना सत्य स्वरूप प्रभु सति से कर सकते हैं। हमने बार-बार लिखा है कि सति में पुरुष-प्रकृति एक हैं जिसके कारण उसे नपुंसक लिंग ‘तत्’ से संबोधित किया गया है, इसी कारण उसे ‘अर्धनारीश्वर’ भी कहा गया है। पुरुष-प्रकृति संयुक्त सत्ता सति से पुरुष/नाम और प्रकृति/शब्द की उत्पत्ति होती है जिनके युग्म से समस्त सृष्टि की उत्पत्ति होती है। नाम पुरुष है, इसे संस्कृत साहित्य में ‘सः’ कहा गया है जबकि शब्द प्रकृति है, इसे ‘सा’ कहा गया है। नाम और शब्द दोनों परमात्मा के ही दो पक्ष हैं, पहला उसकी सत्ता है तो दूसरा उसकी शक्ति है। नाम सति की सत्ता (Essence) है, यह वक्तव्य बताता है कि सति और नाम समान हैं। यदि पूछा जाए कि परमात्मा से ही माया की उत्पत्ति भी होती है, ऐसे में इस तथ्य की व्याख्या इस उदाहरण से कैसे होगी तो यह कहा जा सकता है कि नूट्रान से प्रोटॉन और इलेक्ट्रान ही नहीं एंटी-न्यूट्रीनो (इलेक्ट्रान-एंटी-न्यूट्रीनो) की भी उत्पत्ति होती है। यह एंटी-न्यूट्रीनो नूट्रान और उसके समानधर्मा प्रोटॉन से तो विमुख होता है किन्तु इलेक्ट्रान से अविमुख होता है। ऐसे ही माया भी परमात्मा की ही शक्ति है लेकिन यह परमात्मा से विमुख व प्रति-शक्ति है और प्रभु की चेतन शक्ति के साथ रहती हुई जगत् की रचना करती है।
हमने बार-बार यह लिखा है कि ईश्वर/शब्द माया का कारण नहीं है और माया ईश्वर/शब्द का कार्य नहीं है। इन दोनों का कारण ब्रह्म/नाम है। फिर अभी-अभी ऊपर यह लिख दिया गया कि माया ईश्वर/शब्द से उत्पन्न होती है। किन्तु इन दोनों कथनों में कोई विरोधाभास नहीं है। ईश्वर/शब्द और माया के बीच संबंधों को समझने के लिये समुद्री जल और नमक का उदाहरण लिया जा सकता है।(प्रस्तुत उदाहरण श्री एन. सी. पंडा ने एक भिन्न संदर्भ में दिया है) सागर के जल को सुखाकर नमक प्राप्त किया जाता है किन्तु फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि नमक जल का परिणाम है और जल नमक में परिवर्तित हो गया है। जल और नमक दोनों भिन्न-भिन्न हैं। जल H2O है जबकि नमक NaCL है। किन्तु यह भी सच है कि नमक का स्रोत सागर का जल ही है। ऐसे ही ईश्वर/शब्द की उपस्थिति ही यह सुनिश्चित कर देती है कि माया का अस्तित्व भी होगा क्योंकि माया से सीमित चैतन्य तत्त्व को ही ईश्वर कहा जाता है। यदि चैतन्य तत्त्व माया से सीमित नहीं होगा तो उसे ब्रह्म कहा जायेगा। माया से निर्मित यह समस्त ब्रह्मांड ब्रह्म के लिये उपाधि (limiting adjunct) के रूप में कार्य करता है जिससे वह ईश्वर के रूप में परिवर्तित होता है। उसी प्रकार माया से निर्मित पिंड ब्रह्म के लिये उपाधि के रूप में कार्य करता है जिससे वह जीव बनता है।
सत्य स्वरूप परमात्मा सति, उसकी परमेश्वरी शक्ति शब्द और त्रिगुणात्मिका माया के मध्य संबंधों को स्पष्ट करते हुए श्वेताश्वतर की श्रुति कहती है :
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
तस्य अव्यवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ।।(4.10)
‘प्रकृति को माया जानों। माया के अधिपति को महेश्वर जानों। यह समस्त जगत् उन सत्ताओं से व्याप्त है जो उस (महेश्वर) के अंश हैं।’ वैदिक प्रणाली में और सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों में प्रकृति और माया -ये दो शब्द बहुप्रयुक्त हैं, इनका प्रयोग प्राय भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता रहा है जिससे अत्यधिक भ्रम की गुंजायश हो जाती है। ‘माया’ शब्द का सबसे पहला प्रयोग ऋग्वेद में हुआ है। वहाँ कहा गया है : ….इन्द्रो मायाभि: पूरुरूप ईयते …..॥(6.47.18) ‘इन्द्र अपनी माया से अनेक रूपों को धारण करता है’। यहाँ माया का अर्थ ‘रूप धारण करने की शक्ति’ है। परमात्मा अनंत है, इसीलिए अरूप है। हमारा यह जगत् सांत रूपों की समष्टि है। इन सांत रूपों के निर्माण के लिये अनंत का सांत हो जाना जरूरी है। माया परमात्मा में निहित वह सक्षमता है जिससे वह अनंत होते हुए भी इन सांत रूपों में प्रकट होता है। इस तरह ‘माया’ शब्द का मौलिक अर्थ ‘परमात्मा की जगत् का निर्माण करने वाली शक्ति’ था। अब चूँकि जगत् के ये सांत रूप, इंद्रियों की सीमित क्षमता के कारण, एक व अनंत परमात्मा के गुणों व लक्षणों को परिलक्षित नहीं करते हैं जिससे जीव-मात्र को इन रूपों के स्वतःनिर्मित होने और इनके स्वतंत्र होने का भ्रम हो जाता है, इस कारण माया का उत्तरवर्ती अर्थ धोखा या इंद्रजाल हो गया। ‘जगत् माया है’, इस वक्तव्य का प्रधान अर्थ हुआ कि जगत् परमात्मा की शक्ति की दिव्य क्रीड़ा है; पुनः ‘जगत् माया है’, इस वक्तव्य का गौण अर्थ हुआ कि जगत् ब्रह्म द्वारा प्रकाशित सत्यता से इतर असत् है, एक स्वप्न या आँख का धोखा है। ‘माया’ शब्द के इन दो अर्थों के कारण ही उत्तरकालीन वेदान्त में इन्हें ‘विद्या माया’ और ‘अविद्या माया’ कहा गया। स्थिर को विद्यमान कहेंगे, अस्थिर को अविद्यमान कहेंगे। परमात्मा की शक्ति परमात्मा के समान स्थिर अथवा विद्यमान है, अतः वह ‘विद्या माया’ है। उस शक्ति का गौण रूप अस्थिर, चलायमान अथवा अविद्यमान है, अतः वह ‘अविद्या माया’ है। शाक्त परंपरा में माया के इन्हीं दोनों रूपों को क्रमशः ‘महामाया’ और ‘माया’ भी कहा गया है। ध्यान रहे कि ‘जगत् माया है’, इस वक्तव्य का गौण अर्थ हमने किया है कि यह जगत् एक मिथ्या धारणा (illusion) है किन्तु प्रभु की माया शक्ति के गौण रूप द्वारा प्रक्षेपित यह जगत ‘भ्रम’ (illusion) रूप ही है, ‘विभ्रम’ (hallucination) नहीं है। ‘भ्रम’ किसी यथातथ्य संवेदी निविष्टि (sensory input) के गलत अर्थ निरूपण को कहते हैं। विभ्रम ऐसे बोध की संज्ञा है जिसका आधार संवेदी निविष्टि नहीं है। हमें रस्सी के स्थान पर सांप का भ्रम हो सकता है। इस संदर्भ में रस्सी अधिष्ठान है। जब कोई अधिष्ठान ‘अ’ किसी वस्तु मानों ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ आदि में प्रतीत होता है लेकिन ‘अ’ के रूप में ज्ञात नहीं होता है तो उस प्रतीति को हमारा भ्रम कहा जायेगा। इसके विपरीत विभ्रम में कोई अधिष्ठान नहीं होता है। विभ्रम की रचना हमारा मन वस्तुओं और घटनाओं के अनुभवों अथवा कल्पना (phantasy) से इकठ्ठा की गई स्मृति के भंडार से करता है। शंकर के अनुसार जगत् भ्रम (illusion) है। इसमें ब्रह्म ‘ब’ अधिष्ठान है जो ‘ज1’, ‘ज2’, ‘ज3’ (ज = जगत्) के रूप में प्रतीत होता है। यह प्रतीति परमात्मा की माया के गौण या अविद्या रूप के कारण है। जो प्रतीति के मूल में है वह परमात्मा की माया का पर या विद्या रूप है, जिस रूप में प्रतीति हो रही है वह माया का अपर या अविद्या रूप है। मूल सत् है, प्रतीति झूठ है। इस तरह प्रत्येक वस्तु के दो स्वरूप हैं - मूल (अधिष्ठान, substratum) और प्रतीति (अधीष्ठित, substrated)। वस्तु के ये दोनों रूप - सत् और प्रतीति, अधिष्ठान और अधिष्ठित - परमात्मा की माया के दो रूपों - विद्या माया और अविद्या माया; महामाया और माया - के कारण है। परमात्मा की माया का विद्या रूप माया के अविद्या रूप का ईशान, नियंत्रण करता है, इसीलिए विद्या माया की ही दूसरी संज्ञा ‘ईश्वर’ है।
ठीक यही संबंध ‘प्रकृति’ शब्द से सूचित होते हैं। ‘प्रकृति’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘कृति से पूर्व’ (primordial state of the creation) है। यह शब्द सृष्टि के मूल उपादान पदार्थ की रचना से पूर्व ऐसी स्थिति को दर्शाता है जब वह अपनी मौलिक और यथार्थ स्थिति में होता है। यदि जगत् को हम एक पेड़ कहें तो प्रकृति की तुलना इसके बीज से की जा सकती है। बीज का यह उदाहरण बहुप्रयुक्त और अत्यंत महत्वपूर्ण है। आम धारणा के अनुसार बीज को भौतिक आकार के रूप में ही ग्रहण किया जाता है। किन्तु वस्तुतः भौतिक आकार बीज नहीं है, बीज उस आकार के अंदर व्याप्त एक शक्ति है जो भौतिक इंद्रियों द्वारा अप्राप्य और मन-बुद्धि द्वारा अव्याख्यायित ही रहती है। इस प्रकार ‘जगत् का मौलिक और यथार्थ रूप प्रकृति है’, इस वक्तव्य से प्रकृति का एक ऐसा रूप निर्दिष्ट होता है जहां वह एक अ-भौतिक शक्ति, विचार (idea), प्रारूप (draft), या युक्ति के रूप में अव्यक्त होता है। अब हम बीज के उदाहरण को फिर से देखें। बीज में निहित अ-भौतिक शक्ति बीज का सत्त्व (essence) है तो बीज का भौतिक आकार उस सत्त्व की बाह्यता (exteriority) है। बीज के निर्माण के लिये सत्त्व और बाह्यता दोनों की आवश्यकता रहती है। इस प्रकार यदि प्रकृति हमारे जगत् का बीज है तो सत्त्व और बाह्यता उस बीज अथवा प्रकृति के दो रूप हैं। भगवद्गीता में प्रकृति के इन दो रूपों को क्रमशः पराप्रकृति और अपराप्रकृति कहा गया है। इस प्रकार जिसे वेदान्त में ‘विद्या माया’ कहा गया है उसे ही भगवद्गीता में ‘पराप्रकृति’ कहा गया है; जिसे वेदान्त में ‘अविद्या माया’ कहा गया है उसे भगवद्गीता में ‘अपराप्रकृति’ कहा गया है। जब हम कहेंगे कि ‘जगत् का मौलिक और यथार्थ रूप प्रकृति है’ तो उस वक्तव्य में यह अर्थ उपलक्षित है कि जगत् के इस मूल उपादान के दो रूप हैं जिनमें से एक रूप अ-भौतिक और श्रेष्ठ है तो दूसरा रूप भौतिक व कनिष्ठ है। प्रकृति का श्रेष्ठ रूप उसके कनिष्ठ रूप को नियंत्रित करता है, अतएव प्रकृति के श्रेष्ठ रूप को ईश्वर कहा जायेगा। प्रकृति के इन दोनों रूपों को ‘अव्यक्त’ भी कहा गया है। प्रकृति के परा रूप को ‘अव्यक्त’ कहने का अभिप्राय है कि यह रूप भौतिक नेत्रों के लिये अव्यक्त है किन्तु उसका दिव्य दर्शन संभव है। प्रकृति के अपरा रूप को ‘अव्यक्त’ कहने का अभिप्राय है कि प्रकृति रूपी इस बीज में इंद्रिय जगत् वैसे ही अव्यक्त रूप से स्थित है जैसे आम के बीज में आम का पेड़ स्थित है। जो कुछ भी इंद्रियों से हम ग्रहण करते हैं वह सब कुछ प्रकृति के अपरा रूप का रूपांतरण (modification) मात्र है। प्रकृति के ये दोनों रूप मानों दो महासागर हैं जो साथ-साथ रहते हैं किन्तु इनका आपस में कभी मिलाप नहीं होता।
इस प्रकार ‘माया’ और ‘प्रकृति’ एक ही तथ्य के वर्णन के लिये प्रयोग की जातीं दो संज्ञाएं हैं। श्वेताश्वतर की ऊपर उद्धरत श्रुति में इस समानांतर पदावली को एक साथ नियोजित कर दिया गया है। ‘प्रकृति को माया जानों’ -इस कथन में ‘प्रकृति’ शब्द का प्रयोग माया/अविद्या माया/अपराप्रकृति के अर्थ में किया गया है और ‘माया’ शब्द का प्रयोग महामाया/विद्या माया/पराप्रकृति के अर्थ में किया गया है। ऋषि का अभिप्राय है कि इंद्रियों द्वारा ग्रहीत इस जड़ जगत् (प्रकृति) को प्रभु की रूप ग्रहण करने वाली चेतन शक्ति (माया) का प्रकाशन समझो। ध्यान रहे कि ऋषि ने जिस तर्क का प्रयोग किया है उसके अनुसार प्रकृति ‘प’ है और माया ‘म’ है, दोनों भिन्न-भिन्न व स्वतंत्र हैं और दोनों में से किसी एक के भी अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। किन्तु इन दोनों में एक प्रगाढ़ रिश्ता भी है जिसे श्रुति में दिए गये तर्क के अनुसार ‘प’=’म’ के रूप में दर्शाया जा सकता है। हम प्रकृति के किसी भी रूप को देख रहे हों, हम सदैव ध्यान रखें कि वह रूप प्रभु की रूप धारण करने की माया शक्ति द्वारा निर्मित एक चैतन्य स्वरूप की सटीक प्रतिलिपि है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं : देखै सुणे न जाणई माइआ मोहिआ अंधु जीउ ॥(5-760) ‘जीव प्रभु की चेतन शक्ति को ही देखते, सुनते, चखते, स्पर्श आदि करते हैं किन्तु जड़ माया के कारण अज्ञानी और मोहित हुए यह नहीं जानते कि यह सब कुछ परमात्मा ही है।’ प्रभु की माया शक्ति द्वारा निर्मित वह चैतन्य स्वरूप शुद्ध, यथार्थ, वास्तविक और सच्चा है जबकि प्रकृति द्वारा निर्मित व जड़ इंद्रियों द्वारा गोचर जड़ रूप उस वास्तविक व सच्चे रूप की छाया मात्र है और उसकी तुलना में तुच्छ व निस्सार है। इस तरह जगत् में हम जो भी रूप, घटना, क्रिया, परिस्थिति आदि देखते हैं, उसका दर्शन करते हुए स्मरण रखें कि वह सब कुछ प्रभु की चेतन शक्ति का ही विलास है। बाणी में इस सिद्धांत का समर्थन किया गया है :
सभु इको सबदु वरतदा जो करे सु होई ॥(3-654)
सभु तेरा सबदु वरतै उपावणहारिआ ॥(4-642)
श्रुति ने जगत्-लीला के दर्शन हेतु पहला सुझाव दिया कि ‘प्रकृति को माया जानों।’ इस संबंध में उसका दूसरा सुझाव है कि ‘माया के अधिपति को महेश्वर जानों।’ महेश्वर = महान+ईश्वर = The Great Lord. बाणी में ‘महेश्वर’ के स्थान पर ‘परमेश्वर’ = परम+ईश्वर = The Great Lord पद का प्रयोग हुआ है, यह पद सत्य स्वरूप परमात्मा सति के लिये हुआ है। इस तरह ‘महेश्वर’ और ‘परमेश्वर’ -दोनों शब्दों का शाब्दिक अर्थ एक ही है और ये दोनों एक ही सत्ता के द्योतक हैं। पीछे हमने तीन तथ्यों का वर्णन किया है। पहला, श्वेताश्वतर की उपर्युक्त श्रुति में ‘माया’ पद का प्रयोग ‘विद्या माया’ के लिये हुआ है। दूसरा, विद्या माया ‘ईश्वर’ है। तीसरा, ईश्वर ब्रह्म/नाम पर आश्रित है अर्थात ईश्वर का अधिपति ब्रह्म (Absolute) है। किन्तु यहाँ श्रुति बता रही है कि माया अर्थात ईश्वर के अधिपति ब्रह्म/नाम नहीं अपितु महेश्वर अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा सति हैं। इस विरोधाभास का समाधान यह है कि सति को ‘परमेश्वर’ ही नहीं ‘पूर्णब्रह्म’ भी कहा गया है। सति केवल सगुण नहीं हैं वे ‘निर्गुण-सगुण’ एक साथ हैं। जगत् की रचना के निमित्त सति दो सत्ताओं को निस्सृत करते हैं जिनमें से एक निर्गुण ब्रह्म/नाम है तो दूसरी सगुण ईश्वर/शब्द है। नाम सति का सृष्टि रचना का संकल्प/रजा/भाणा है तो शब्द उस संकल्प/रजा का परिणाम है। बाणी के अनुसार प्रभु सति की रजा/नाम प्रभु स्वयं है : तेरा भाणा तू है…….॥(5-747) अतएव परमेश्वर सति को माया/ईश्वर/शब्द का अधिपति कहना और ब्रह्म/नाम को माया/ईश्वर/शब्द का अधिपति कहना एक ही बात है, नाम सति की सत्ता (essence) है, नाम सति ही है। दूसरे, जब यह कहा गया कि ‘(विद्या) माया/ईश्वर/शब्द के अधिपति महेश्वर सति हैं’ तो उस कथन में यह उपलक्षित है कि ‘(विद्या माया के अपर रूप) अविद्या माया के अधिपति भी महेश्वर सति हैं’। कारण, अविद्या माया विद्या माया/ईश्वर/शब्द के आश्रित है और प्रभु सति का शब्द प्रभु स्वयं है : तेरा सबदु तूं है……….॥(3-162) तीसरे, अविद्या माया/अपरा प्रकृति और विद्या माया/पराप्रकृति, दोनों प्रभु सति के संकल्प के अनुसार चलती हैं, ऐसे में प्रश्न उठता है कि जगत्-क्रीड़ा में जीव/प्रकृतिस्थ पुरुष की क्या भूमिका है? क्या जीव प्रभु सति और उसकी माया के दोनों रूपों के हाथों में एक असहाय खिलौना मात्र है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रकृति का समस्त कर्म पुरुष के अर्थ होता है। ब्रह्मांड में प्रकृति/माया का समस्त कर्म ब्रह्मांडीय पुरुष/ब्रह्म/नाम के लिये सम्पन्न किया जाता है। इसी प्रकार ब्रह्मांड के लघु रूप पिंड में प्रकृति/माया का समस्त कर्म पिंड में आबद्ध ब्रह्म के लघु रूप जीव के लिये सम्पन्न किया जाता है। गुरु अर्जुन देव लिखते हैं कि कृपालु प्रभु पिता का प्रकृति के प्रति यह आदेश हुआ है कि जीव रूपी बालक जो मांगे उसे देना है :
पिता क्रिपालि आगिआ इह दीनी बारिकु मुखि मांगै सो देना ॥(5-1266)
अपनी अल्प बुद्धि के कारण यह जीव कभी सांप को पकड़ना चाहता है, कभी आग में हाथ डालता है और परिणामस्वरूप दुख भोगता है :
चंचल मति बारिक बपुरे की सरप अगनि कर मेलै ॥(वही)
जीव के लिये सबसे उत्तम यही मांग है कि वह प्रभु से प्रभु को मांगे, अपने-आपको प्रभु के चरणों में समर्पित करे और अपने संकल्पों को प्रभु के संकल्प से एकसुर कर ले :
नानक बारिकु दरसु प्रभ चाहै मोहि ह्रिदै बसहि नित चरना ॥(वही)
(शेष आगे)
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Superb analysis.