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What is the proper meaning of Brahman? Kartapurush ep32 - कर्तापुरुष ep32

Updated: May 22, 2023

What are the 3 important words in Vedic cosmology? What is the proper meaning of 'Brahman'? & How is growth & expansion related to Brahman? Read Kartapurush ep32 to know.

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Kartapurush ep32
 

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इसके साथ ही आदिग्रंथ में - और सनातन धर्म के अन्य सद्ग्रंथों में भी - प्रस्तुत सृष्टि चित्रण समाप्त होता है। यद्यपि इसके बाद भी गुरु नानक देव ने सृष्टि वर्णन करते हुए जपुजी में दो और पउड़ियाँ लिखीं हैं तथापि उनमें सृष्टि रचना की विधि का नहीं अपितु सृष्टि की प्रकृति का वर्णन प्रधान विषय है। हम आगे उन दो पउड़ियों का अध्ययन उसी दृष्टिकोण से करेंगे। किन्तु उससे पहले हमारे लिये यह उचित होगा कि हम इस विस्तृत अध्ययन को सार रूप में यहाँ इस प्रकार प्रस्तुत कर दें जिससे एक तो पाठकवृन्द थोड़े शब्दों में इस विषय को ग्रहण कर लें, साथ ही सृष्टि चित्रण की इस प्रणाली पर अतार्किकता या अवैज्ञानिकता के किसी भी संभावित आरोप का यथासंभव रूप से प्रत्याख्यान किया जा सके।


ब्रह्मांड के उद्भव, विकास और भविष्य के बारे में कई प्रकार के विचार प्रचलित हैं। एक विचार यह है कि ब्रह्मांड शाश्वत है। न तो कभी इसकी रचना हुई थी और न ही कभी इसका अंत होगा। सभी प्रकार के भौतिकवादी और मार्क्सवादी दार्शनिक इसी विचारधारा के अनुयायी हैं। ब्रह्मांड के बारे में दूसरी धारणा यह है कि इसका प्रारंभ तो हुआ था किन्तु इसका अंत कभी नहीं होगा। बाइबल में कहा गया कि ईश्वर ने शून्य पदार्थ से मात्र छह दिनों में ब्रह्मांड की रचना कर दी। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान कुछ वैज्ञानिकों ने भी ऐसे ही ब्रह्मांड की अवधारणा प्रस्तुत की जो शून्य पदार्थ से निर्मित हुआ था और जिसमें सदैव क्रमविकास होता रहेगा। प्राचीन भौतिक विज्ञान (classical physics) के अनुसार ब्रह्मांड शाश्वत, सत् और बहुल (plural) है। किन्तु आधुनिक ब्रह्मांड विज्ञान में ब्रह्मांड को शाश्वत नहीं माना जाता। क्वांटम भौतिकी में जगत् की सत्यता की धारणा को भी त्याग दिया गया है। हाइजनबर्ग का अनिश्चितता सिद्धांत आचार्य शंकर के समान जगत् की मायावी प्रकृति पर बल देता है। बीसवीं सदी की भौतिकी में बहुलतावाद को छोड़ कर सजातीय अखंड समग्र एकल अधिष्ठान को स्वीकार किया गया है।


भारत में वेदान्त ने एक चक्रीय ब्रह्मांड की अवधारणा को प्रस्तुत किया। “इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्मांड का आरंभ हुआ है और इसका अंत भी होगा; ब्रह्मांड का क्रमविकास होता है जिसमें यह अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आता है, उत्तरोत्तर रूप से इसका अनावरण होता है, फिर यह विपरीत क्रम में विकसित होता है, और अंत में अपने मूल स्रोत में लय हो जाता है। रचना, पालन और संहार के तीन चरणों से एक चक्र का निर्माण होता है। ऐसे ब्रह्मांडीय चक्र संख्या में अनन्त हैं; वे अतीत में भी अनन्त थे और भविष्य में भी अनन्त होंगे। वैदिक सृष्टिशास्त्र और ब्रह्मांड विज्ञान में शुद्ध चैतन्य अद्वैत सत्ता ब्रह्म का केन्द्रीय स्थान है। सृष्टि का स्वरूप प्रकाश, क्रमविकास और लय की सभी ब्रह्मांडीय प्रक्रियाएं ईश्वर की अध्यक्षता के कारण संभव होती हैं।” (N.C.Panda कृत Cyclic Universe, पृ -742)


ऊपर उल्लिखित उद्धरण में दो पद ध्यान देने योग्य हैं, पहला, ब्रह्म और दूसरा, ईश्वर। इसके साथ ही वैदिक सृष्टिशास्त्र और ब्रह्मांड विज्ञान में तीसरा महत्वपूर्ण शब्द माया है, जिसे इस उद्धरण में छोड़ दिया गया है। वस्तुतः माया का प्रत्यय ब्रह्म से उतना ही अभिन्न है जितना ईश्वर का प्रत्यय से अभिन्न है। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

प्रभु आपि सुआमी आपे रखा आपि पिता आपि माइआ ॥ (5-783)


यहाँ ‘स्वामी’ पद का प्रयोग सति के लिये है जो ब्रह्म का निर्गुण-सगुण रूप है; ‘पिता’ पद का प्रयोग ब्रह्म के निर्गुण रूप के लिये है जिसे नाम कहा गया है; ‘रखा’ अर्थात ‘रक्षित’ पद का प्रयोग ब्रह्म के सगुण रूप के लिये है, यही शब्द/ईश्वर है; चौथी सत्ता माया है। निर्गुण-सगुण रूप ब्रह्म सति सृष्टि रचना हेतु निर्गुण ब्रह्म नाम व सगुण ईश्वर शब्द में विभक्त होता है, जबकि माया, जो उसी की परछाई है, का प्रयोग एक उपकरण के रूप में करता है। अतएव जब तक हम माया, ईश्वर और ब्रह्म -इन तीन प्रत्ययों को और उनके पारस्परिक संबंधों को नहीं समझ लेते तब तक इस विषय के संबंध में हमारे विचार अतार्किक, एकांगी व त्रुटिपूर्ण रहेंगे।


हमारे देश में वैदिक काल से ही परमसत्ता को ब्रह्म कहा गया है। ‘बृह’ धातु के साथ मनिन् प्रत्यय लगाकर ब्रह्म शब्द निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है - विशाल, अनंत। यह अनंतता निरपेक्ष कोटि की है जिससे उस अनंतता में छिपा रहस्य मानव बुद्धि के लिए अबूझ व अज्ञेय बन जाता है। वैदिक साहित्य में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जो ब्रह्म को निरपेक्ष रूप से अज्ञेय घोषित कर देते हैं। ब्रह्म के बारे में यह कथन तो बुद्धिगम्य है कि न मन, न ही इंद्रियाँ ब्रह्म तक पहुँच सकती हैं तथा वाणी उसका वर्णन करने के प्रयास में निष्फल होकर लौट आती है। किन्तु उसके बारे में यह भी कहा गया कि “इसके लक्षणों का वर्णन केवल नकारात्मक भाषा में ही किया जा सकता है और इसको परिभाषित करने के हर दुस्साहस का सच्चा उत्तर ‘नेति’ ‘नेति’ ही है अर्थात ‘यह’ यह नहीं है, ‘यह’ यह नहीं है। ब्रह्म अनिर्देश्य है, अनिर्वचनीय है, बुद्धि से अज्ञेय है।“(श्रीअरविन्द, केन एवं अन्यान्य उपनिषद, पृ-33) ब्रह्म अज्ञात और अज्ञेय है, और उसके बारे में हम अज्ञानी हैं और अज्ञानी ही रहेंगे।


किन्तु ऊपर जो कथन किया गया वह केवल ब्रह्म के परम निरपेक्ष स्वरूप पर ही लागू होता है। वैदिक ग्रंथ बताते हैं कि ब्रह्म का एक अभिव्यक्त आयाम भी है और वह आयाम हमारे ज्ञान का एकमात्र सच्चा विषय है। सनातन सभ्यता की विशाल साहित्य राशि में ब्रह्म के इस अभिव्यक्त रूप की धारणा को तीन-तीन शब्दों की दो पदावलियों में प्रस्तुत किया गया है – “सच्चिदानंद” अर्थात सत्, चित्, आनंद; एवं “सत्यम्, ज्ञानम्, अनंतम्” अर्थात सत्य, ज्ञान एवं अनंतता। डायसन अपनी पुस्तक The Philosophy of Upanishads में लिखते हैं कि ब्रह्म के लिये ‘सच्चिदानंद’ शब्द बादरायण व शंकर के साहित्य में नहीं है, केवल अर्वाचीन उपनिषदों में ही मिलता है। हाँ, इस प्रत्यय के बीज प्राचीनतम उपनिषदों में मिल जाते हैं। वृहदारण्यक(3.9.28) में ब्रह्म को विज्ञानम्‌ आनंदम कहा गया है। पुनः इसी पुस्तक में ब्रह्म को सत्यम्‌, प्रज्ञा व आनंद कहा गया है।(4.1) अतः सत्‌, चित्‌ व आनंद के निकटतम पर्याय आर्ष साहित्य में उपलब्ध हैं। पुनः तैत्तिरीय उपनिषद(2.1) में ब्रह्म के लिए सत्यम्‌, ज्ञानम्‌, अनंतम कहा गया है। अर्वाचीन उपनिषदों में से नरसिंहोत्तरतापनीय,(4.6.7) रामपूर्वतापनीय(92) व रामोत्तरतापनीय(2.4.5) में ब्रह्म को सत्‌, चित्‌, आनंद कहा गया है। सर्वोपनिषदसार(21) में ब्रह्म के चार गुण बताये गये हैं - सत्यम्‌, ज्ञानम्‌, अनंतम, आनंदम। यहाँ तैत्तिरीय व वृहदारण्यक में दी गई विशेषताओं को मिला दिया गया है।


ब्रह्म को सत् कहने का अर्थ है कि वह ‘अस्तित्व’ है। “वह ‘अस्तित्व’ है क्योंकि ‘वही’ एकमात्र ‘है’। उसके अलावा ऐसा कुछ नहीं है जिसकी कोई आत्यन्तिक सत्यता हो अथवा ऐसी कोई सत्ता हो जो ‘उसकी’ आत्माभिव्यक्ति से स्वतंत्र हो। और ‘वह’ ‘परमोच्च’ ‘अस्तित्व’ है, कारण, एकमात्र ‘वही’ है और वास्तव में अन्य कुछ भी विद्यमान नहीं है।“(श्रीअरविन्द, केन एवं अन्यान्य उपनिषद, पृ-41 ) ब्रह्म को चित् कहने का अर्थ है कि वह जड़त्व से पूरी तरह रहित विशुद्ध चेतना है। “उसकी चेतना ‘उसी’ से है और उसकी ‘सत्ता’ के समान ‘उसी’ की है क्योंकि उससे अलग और उसके अलावा और कुछ है ही नहीं।“(श्रीअरविन्द, केन एवं अन्यान्य उपनिषद, पृ-44 ) अन्ततः ब्रह्म आनंद है। जिस प्रकार सत् चित् से अभिन्न है उसी प्रकार सत् और चित् आनंद से अभिन्न हैं। “जिस प्रकार ‘सत्’ ‘चित्-शक्ति’ है तथा ‘चित्-शक्ति’ से उसे अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार ‘सचेतन सत्ता’ आनंद है तथा उसे ‘आनंद’ से पृथक नहीं किया जा सकता।“(श्रीअरविन्द, केन एवं अन्यान्य उपनिषद, पृ-45) श्रीअरविन्द आगे लिखते हैं, “पुनरपि दूसरी त्रयी है – सत्यम्, ज्ञानम्, अनंतम्। यह त्रयी प्रथम से भिन्न नहीं है, केवल उसकी वस्तुपरक अभिव्यक्ति है। ब्रह्म सत्यम् है, ‘सत्य’ अथवा वास्तविक है। ………ब्रह्म परम अस्तित्व होने के नाते परम सत्य भी है और परम वास्तविक भी। अन्य सभी वस्तुएं सापेक्ष रूप में ही सत्य हैं ……….ब्रह्म ज्ञानम् भी है ……..ब्रह्म परम ज्ञान है, सीधा, स्वतः विद्यमान, आदि, मध्य अथवा अन्त रहित, जिसमें ‘ज्ञाता’ स्वयं ‘ज्ञान’ भी है और ‘ज्ञात’ भी। अन्त में ब्रह्म अनंतम् है ………..काल के दृष्टिकोण से देखने पर ब्रह्म शाश्वतता अथवा अमरत्व है; देश के दृष्टिकोण से देखने पर अनंतता अथवा विश्वात्मकता है; कारणत्व के दृष्टिकोण से देखने से वह परममुक्ति है। एक शब्द में कहें तो वह है अनंतम् – अर्थात अंतहीनता, सीमाओं से पूर्णत्या मुक्ति।“(श्रीअरविन्द, केन एवं अन्यान्य उपनिषद, पृ-47)


इस प्रकार ‘बृह’ धातु से निर्मित ब्रह्म पद का अर्थ अनंत है और इस अनंतता की दो कोटियाँ हैं। एक अनंतता परमकोटि की है, इसमें झाँकने पर हमें ‘कुछ नहीं’ (nothingness) प्राप्त होता है अतः हम इसे ‘परम ब्रह्म’ अथवा ‘परब्रह्म’ संज्ञा द्वारा अभिहित कर सकते हैं। दूसरी अनंतता भी पहले के समान निरुपाधिक, अव्यक्त, कल्पनातीत व परमकोटि की है किन्तु इस अनंतता में वह सब कुछ सम्मिलित है जो हमारे अस्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है, अतः हम इसे ‘पूर्णब्रह्म’ कह सकते हैं। इतना ही नहीं, अनंतता की पहली कोटि के बारे में जहां हम बौद्धिक रूप से निरापद रहते हुए इतना भर कह सकते हैं कि ‘वह यह नहीं है’ (नेति, नेति); वहीं अनंतता की दूसरी कोटि के बारे में हम निश्चिंत होकर यह कह सकते हैं कि ‘वह यह है’ (इति, इति)। यह ‘एक’ ब्रह्म विश्व के विकास के लिए उन्मुख होता है; वह जगत को रचने वाला ‘करतार’, इसका महान कारण ‘प्रभु’ या ‘स्वामी’ है। बाणी में ब्रह्म के इन दोनों रूपों के वर्णन के लिए निम्नलिखित पंक्तियाँ देखें :

पारब्रह्म पूरन ब्रह्मु निरंकारि आकारु बणाइया ॥(भाई गुरदास, 16.18)

पारब्रह्म पूरन ब्रह्मु निरगुण सरगुण अलख लखाइया ॥(भाई गुरदास, 25.1)

पारब्रह्म प्रभु एकु है दूजा नाही कोइ ॥(5-45)

इक पछाणु जीअ का इको रखणहारु ॥

x x x x x

तिस सरणाइ सदा सुखु पारब्रह्म करतार ॥(5-45)

पारब्रह्म प्रभु सेवदे मन अंदरि एकु धरे ॥(5-136)

समरथ पुरखु पारब्रह्म सुआमी ॥(5-187)

पारब्रह्म परमेसरो सभ बिधि जानणहार ॥(5-300)


इस तरह ब्रह्म अर्थात अंतहीन, विशाल सत्ता ‘एक’ है किन्तु इस अनंतता के दो भेद हैं। एक परब्रह्म है, ऐसा परमोच्च अस्तित्व जहां सत्ता अस्तित्वहीन है; दूसरा परमात्मा है, ऐसा परमोच्च अस्तित्व जहां सत्ता परिपूर्ण है। आदिग्रंथ के मूलमंत्र में पहले स्वरूप को ਓੱ कहा गया है जबकि दूसरे स्वरूप को सति कहा गया है। पहला निर्गुण है, दूसरा सगुण है। किन्तु यह सगुणता जगत के सापेक्ष नहीं है, केवल निर्गुण के सापेक्ष है। अतएव यह सगुण सत्ता हम जीवों के लिए सगुण व निर्गुण एक साथ है। सति निर्गुणों-गुणी है।


जगत् की व्याख्या के लिये हमें अपनी चर्चा इसी निर्गुणों-गुणी सत्ता सति से आरंभ करनी होगी। परमात्मा सति का स्वरूप द्वन्द्वात्मक है। भगवद्गीता के अनुसार, “वह सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। वे परमात्मा सभी इंद्रियों से रहित हैं और सभी इंद्रियों के गुणों को प्रकाशित करने वाले हैं। वे आसक्ति रहित हैं और फिर सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं। वे निर्गुण हैं और समस्त गुणों के भोक्ता भी हैं। वे सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भी हैं और भीतर भी हैं; वे चर भी हैं और अचर भी हैं; दूर से दूर भी वही हैं और नजदीक से नजदीक भी वही हैं; अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वे जानने में नहीं आते (और स्थूल होने के कारण वे ज्ञेय भी हैं)। वे अविभक्त हैं और फिर सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह भी स्थित हैं। वे सम्पूर्ण ज्योतियों के भी ज्योति और अज्ञान (माया) से अत्यंत परे कहे गये हैं। वे ज्ञानस्वरूप (ज्ञानम्), जानने-योग्य (ज्ञेयम्) और ज्ञान से प्राप्त करने योग्य (ज्ञानगम्यम्) हैं और सबके हृदय में विराजमान हैं।”(भगवद्गीता 13.13-17) आदिग्रंथ में भी परमात्मा सति के ऐसे ही द्वन्द्वात्मक स्वरूप की व्यंजना की गई है :

आपि इकंती आपि पसारा ॥(5-108)

आपे जंत उपाइअनु आपे आधारु ॥

आपे सूखमु भालीऐ आपे पासारु

आपि इकाती होइ रहै आपे वड परवारु ॥(4-556)

तूँ निरगुनु सरगुनु सुखदाता ॥(5-102)

चेति मना पारब्रहमु परमेसरु सरब कला जिनि धारी ॥(5-248)


अब ब्रह्म का यही निर्गुणों-गुणी रूप जब जगत रचना के लिए प्रवृत्त होता है तो वह स्वयं को दो भागों में विभाजित करता है। जगत रचना के संदर्भ में ‘बृह’ धातु से निर्मित ब्रह्म पद का अर्थ होगा - ‘बड़ना’ (to grow) या ‘विकसित होना’ (to evolve)। ब्रह्म वह है जो स्वाभाविक और व्यवस्थित ढंग से विकसित होता है और जगत्‌ के रूप में पुष्पित-पल्लवित होता है, 'बृंहति इति ब्रह्म'। लेकिन ब्रह्म केवल वही नहीं जो विकास या विस्तार को प्राप्त होता है, ब्रह्म वह भी है जो विकास या विस्तार का कारण बनता है, 'बृंहयति इति ब्रह्म'। अतः सत्य स्वरूप परमात्मा सति जगत् रचना के निमित्त जिन दो सत्ताओं का प्रक्षेपण करते हैं उनमें से एक सत्ता जगत्-कार्य के रूप में प्रकट होती है जबकि दूसरी सत्ता इस जगत्-कार्य के पीछे कारण के रूप में प्रच्छन्न या गुप्त रहती है। निस्संदेह सत्ता के ये दो रूप परमसत्ता के ही दो रूप हैं, अतः हम कह सकते हैं कि पूर्णब्रह्म सति ही जगत्-कार्य के कारण अर्थात कारण-ब्रह्म और जगत्-कार्य अर्थात कार्य-ब्रह्म हैं। गुरु अर्जुन देव लिखते हैं : सफल जनमु होआ मिलि साधू एकंकारु धिआए राम ॥(5-782) ‘साधू से मिलकर एकंकार का ध्यान किया, जन्म सफल हो गया।’ एकंकार के स्वरूप व महिमा का वर्णन क्या है : जपि एक प्रभू अनेक रविआ सरब मंडलि छाइआ ॥(5-782) ‘उस प्रभु को जप के - जो एक है; अनेक होकर सभी मंडलों में रमण कर रहा है; और सभी मंडलों में जिसकी छाया है - यह जान लिया’ कि : ब्रहमो पसारा ब्रहमु पसरिआ सभु ब्रहमु द्रिसटी आइआ ॥(5-782) ‘यह सारा पसारा ब्रह्म से है; और, यह सारा पसारा ब्रह्म ही है। एकंकार को ब्रह्म कह रहे हैं। ‘यह सारा पसारा ब्रह्म से है’, ऐसा कहकर बताया कि एकंकार कारणब्रह्म है; फिर ‘यह सारा पसारा ब्रह्म ही है’, ऐसा कहकर बताया कि एकंकार कार्यब्रह्म है। कारणब्रह्म एक है; कार्यब्रह्म अनेक रूपों में है। इस प्रकार जप से यह ज्ञान हुआ कि यह सब ब्रह्म ही है, इससे द्वैतबुद्धि समाप्त हो गई।


पूर्णब्रह्म सति के इन दोनों रूपों को ‘कारण-ब्रह्म’ और ‘कार्य-ब्रह्म’ कहे जाने से पता चलता है कि कारण-ब्रह्म सति का श्रेष्ठ रूप है जबकि कार्य-ब्रह्म उसका कनिष्ठ रूप है। कारण-ब्रह्म सति का सार (essence) या उसकी तात्त्विकता है जबकि कार्य-ब्रह्म उस सार (essence) से उद्भूत सति की महिमा (magnificence) है। पूर्णब्रह्म सति का सार सति स्वयं है, जैसे सति ब्रह्म है वैसे ही सति का सार (essence) भी ब्रह्म है। दूसरी ओर सति की महिमा सति के लिये है, यह सति का सामने का पक्ष है जिसे देखकर पूर्णब्रह्म सति उसी प्रकार हर्षित होता है जैसे कोई व्यक्ति आईने में अपने ही प्रतिबिंब को देखकर मुग्ध होता है। निश्चित रूप से सति की महिमा भी सति ही है तो भी यह सति से भिन्न है, ठीक वैसे ही जैसे आईने में निर्मित मेरा प्रतिबिंब मैं स्वयं हूँ किन्तु फिर भी ‘मैं वह प्रतिबिंब नहीं हूँ’ अपितु ‘वह प्रतिबिंब मेरा अथवा मुझसे है’, सति के इस रूप को ईश्वर कहा गया है। बाणी में पूर्णब्रह्म सति के इन दोनों रूपों को नाम और शब्द कहा गया है। बृंहति इति ब्रह्म' से अर्थ होता है कि ब्रह्म वह है जो विस्तार को प्राप्त होता है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर हम ईश्वर/शब्द को ब्रह्म कहेंगे क्योंकि ईश्वर/शब्द ही जगत् के रूप में विकसित होता है। दूसरी ओर 'बृंहयति इति ब्रह्म' से अर्थ निकलता है कि ब्रह्म वह जो विस्तार का कारण है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर हम नाम को ब्रह्म कहेंगे क्योंकि शब्द के जगत् के रूप में विकसित होने के पीछे नाम ही कारण है। 'करे-कराए' समास की व्याख्या में हम देख चुके हैं कि नाम कारण ब्रह्म है, जबकि शब्द कार्य ब्रह्म है, और सृष्टि का कर्तार सति ही सृष्टि के कारण अर्थात नाम व कार्य अर्थात शब्द दोनों पक्षों के रूप में प्रकट होते हैं : आपे करता करे कराए ॥(3-125) अतः ब्रह्म पद सति, नाम शब्द तीनों को अपने में समेट लेता है। ब्रह्म के विपरीत परब्रह्म (ਓੱ) ब्रह्म का वह रूप है जो सदा शून्य-समाधि में लीन रहता है।


(शेष आगे)

 

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Divyansh
Divyansh
Mar 10, 2023
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Great Content.

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RK25
RK25
Mar 07, 2023

Fantastic

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