Discover the 3 forms of our world. Learn what is it made of. What is the nature of the 5 elements & what are the mutual relations b/n them?
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मन, प्राण और जड़ -इन तीन रूपों वाला यह त्रिभुवन परमेश्वर की चेतन शक्ति से बना है, यह शक्ति न केवल इन तीनों अवस्थाओं को व्याप्त किये हुए है बल्कि इन तीनों से परे चौथी अवस्था - जिसे गुरु नानक ने करमखंड कहा है - में भी है। आदिग्रंथ में इस शक्ति को शब्द (sound) कहा गया है, यह संज्ञा बताती है कि यह शक्ति स्पंदनशील (vibratory) है। शब्द सूक्ष्मतम कम्पन है जो अपने से स्थूल कम्पन को उत्पन्न करता और उसे नियंत्रित करता है। इस सूक्ष्मतम स्पंदन की उपस्थिति से इस जगत् और इसकी प्रत्येक वस्तु में स्पंदन, गति, कर्म, काल इत्यादि सुनिश्चित हो जाते हैं। अब शब्द करमखंड में भी है जो ब्रह्म, शुद्ध चैतन्य अथवा निर्वाण की अवस्था है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या त्रिलोकी से परे शुद्ध चैतन्य अवस्था में भी स्पंदन, गति, कर्म व काल उपस्थित है? इसका उत्तर यह है कि ब्रह्म की शक्ति होने के कारण शब्द करमखंड में भी है, किन्तु वहाँ वह स्पन्दरहित, शांत, मौन स्वरूप लिये हुए है। इसका अर्थ है कि वहाँ करमखंड वाली ब्रह्म की शुद्ध चैतन्य अवस्था में शब्द (sound) तो है किन्तु उसकी तरंगदैधर्य (wave length) अनंत और आवृति (frequency) शून्य होगी जिससे स्पंदन व ध्वनि शून्य हो जायेगी। बाणी में इसीलिए करमखंड को ‘सुन्न मंडल’ (The Realm of Silence) व ‘सुन्न सहज’ (Eternal Silence) भी कहा गया है। करमखंड से नीचे त्रिलोकी के तीन खंड हैं, यहाँ यह चेतन शक्ति जगत् रचना के कर्म में प्रवृत होती है। इन तीन खंडों में पहले खंड की संज्ञा सरमखंड है। यहाँ स्पंदन, ध्वनि, गति, कर्म व काल सब कुछ है। इस प्रकार यहाँ अरूप प्रभु ‘रूप’ को धारण करते हैं किन्तु वह रूप, जैसा कि हमने पीछे देखा है, काल व देश से निरपेक्ष होगा। वह रूप जगत् की कालावधि पर्यंत बना रहेगा। कारण, जिस स्पंदन ने उसे निर्मित किया है, वह जगत् की कालावधि पर्यंत जस-का-तस रहता है। इसका अर्थ हुआ कि करमखंड की तुलना में सरमखंड में रचनात्मक शब्द (sound) की तरंगदैधर्य (wave length) ‘लगभग अनंत’ और आवृति (frequency) ‘लगभग शून्य’ होगी जिससे स्पंदन व ध्वनि भी ‘लगभग शून्य’ हो जायेगी लेकिन ‘पूर्ण रूप से शून्य’ नहीं होगी। शब्द के इसी रूप को मध्यकालीन संतों की वाणियों में ‘अनहद’ = ‘असीम’ शब्द कहा गया है। शब्द और ओंकार की अभिन्नता सुप्रमाणित है। बाणी में जिस प्रकार जगत् की रचना शब्द से मानी गई है उसी प्रकार ओंकार से भी मानी गई है : ओअंकारि सभ स्रिसटि उपाई ॥(3-1061) अभी हमने देखा है कि शब्द के दो रूप हैं - एक करमखंड में है तो दूसरा सरमखंड में है; एक कर्म से निवृत है तो दूसरा कर्म में प्रवृत है; एक में ध्वनि ‘शून्य’ है तो दूसरे में ‘लगभग शून्य’ है। वेद में इन्हीं को ओंकार के क्रमशः ‘पर’ और ‘अपर’ रूप कहा गया है।
हमने कहा कि शब्द चेतन शक्ति है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘शब्द चेतन है’ (Shabad is conscious) या ‘शब्द में चेतना है’ (Shabad has consciousness), इसका अर्थ है कि ‘शब्द चैतन्य है’ (Shabad is Consciousness)। यह वक्तव्य ऐसे ही है जैसे हम कहें कि ‘क = क’; जल = नीर। इस प्रकार ‘शब्द चैतन्य है’ -एक तत्समक वक्तव्य (identity statement) है। ‘शब्द चेतन शक्ति है’ -इस वक्तव्य का अर्थ है कि शब्द में चेतना मूलभूत (fundamental) है। शब्द के विपरीत मन, बुद्धि, अथवा जड़ शरीर में जो चेतना दिखती है वह अनुभवजन्य (empirical) है, वहाँ यह किसी सृजित सत्ता का प्रयोजनमूलक गुण है। शब्द में चेतना उसके मूलभूत स्वभाव के रूप में है जबकि मन, बुद्धि, प्राण आदि में चेतना शब्द की प्रेरणा से है। इसी प्रकार तामसिक अहंकार में भी शब्द की प्रेरणा से ही स्पंदन होता है। शब्द के सक्रिय होने पर चारों ओर फैले जड़ मायिक पदार्थ में एक विशेष परिमाण की आवृति वाला स्पंदन होगा जिससे उसमें किसी विशेष गुण व स्वभाव वाली तन्मात्रा की उत्पत्ति होगी जो आगे तदनुरूप विशेषता वाले महाभूत को उत्पन्न करेगा। इस प्रकार पांचों तन्मात्राओं और पांचों महाभूतों की उत्पत्ति के लिये पाँच मुख्य प्रकार के स्पंदन होंगे और स्पंदन के इन पांचों प्रकारों का कारण प्रभु की चेतन शक्ति शब्द होगा।
हमने कहा कि ‘तन्मात्र’ (That Measure या Its own Measure) शब्द का अर्थ स्पंदन के एक विशेष माप से है जिसकी उत्पत्ति परमात्मा की चेतन शक्ति शब्द द्वारा होती है। शब्द गतिशील (dynamic) चैतन्य सत्ता है, वह जड़ माया के पदार्थ में गति को प्रेरित (induce) करता है जिससे उसमें स्पंदन, गति की उत्पत्ति हो जाती है। शब्द द्वारा जड़ माया में उभाड़ा गया यह स्पंदन सप्रयोजन है क्योंकि इसी से वह जड़ पदार्थ एक विशेष महाभूत में परिणत हो जाता है। लेकिन यदि ऐसा है तो तन्मात्रा की भूमिका केवल महाभूतों की उत्पत्ति में ही सहायक नहीं होगी अपितु प्रकृति के विकास के प्रत्येक चरण में अर्थात प्रकृति से महान बुद्धि, उससे आगे अहंकार, मन व प्राण की उत्पत्ति में भी स्पंदन का एक विशेष माप अर्थात एक ‘तन्मात्र’ होगा। ऐसे में केवल पाँच महाभूतों की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी तत्त्व को ही तन्मात्र क्यों कहेंगे? दूसरे, क्या ‘तन्मात्र’ का अर्थ केवल ‘स्पंदन का एक विशेष माप’ ही है? यदि ऐसा है तो ‘तन्मात्र’ की गणना जड़ प्रकृति से उत्पन्न तेईस तत्त्वों में नहीं होनी चाहिये। इन प्रश्नों का उत्तर यही हो सकता है कि ‘तन्मात्र’ का शाब्दिक अर्थ तो ‘स्पंदन का विशेष माप’ ही है किन्तु यह अनन्य रूप से यही नहीं है। पाँच तन्मात्राएं पाँच सूक्ष्म तत्त्व ही हैं। ये प्रकृति के तमोगुण से उत्पन्न जड़, समरूप व अक्रिय पदार्थ को प्राप्त वे पाँच रूप (mode) हैं जिनके कारण यह पदार्थ पाँच ज्ञानेन्द्रियों की विषय-वस्तु के रूप में प्रस्तुत हो पाता है। पदार्थ के ये समस्त रूप स्पंदनात्मक हैं किन्तु प्रत्येक रूप के स्पंद का अपना माप (measure) है जिससे पदार्थ उन विशिष्ट गुणों व लक्षणों को ग्रहण करता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध नाम वाली ये पाँच तन्मात्राएं क्रमशः श्रवण, त्वचा, दृष्टि, स्वाद तथा नासिका -इन पांच ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषय हैं। जैसे श्रवण एक ज्ञानेन्द्रिय है और इसका विषय शब्द (sound) है। इसी तरह त्वचा का विषय स्पर्श, दृष्टि का विषय रूप, स्वाद का विषय रस और नाक का विषय गंध है। विकास की अगली अवस्था में पदार्थ के ये पांचों रूप आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी नामक पाँच महाभूतों को उत्पन्न करते हैं।
इन पाँच महाभूतों के संबंध में एक अत्याधिक प्रचलित भ्रांत धारणा यह है कि ये पदार्थ के स्थूल रूप हैं जो प्रत्यक्ष रूप से सर्वसुलभ हैं। किन्तु ऐसा नहीं है। हमारे विचार में ये पाँच महाभूत (Great Becoming Entities) वे पाँच चरण हैं जिनके द्वारा जगत् के मूल द्रव्य (substance) का अहंकार से विभाजित और तामसिक रूप क्रमिक रूप से हमारे अनुभव में आने वाले स्पर्शगोचर पदार्थ में मूर्त होता है। उदाहरण के लिये हम इन पाँच महाभूतों की सूची के अंत में परिगणित होने वाले ‘पृथ्वी’ तत्त्व को देख सकते हैं। हमारे विचार में ‘पृथ्वी’ का अर्थ भूमि, मृदा आदि नहीं है, अपितु ‘पृथ्वी’ पद से मूल द्रव्य के उस पार्थिव रूप का संकेत होता है जिसे विज्ञान और दर्शन शास्त्र में ‘परमाणु’ कहा गया है और जिसे सर्वसम्मत रूप से प्राकृत पदार्थ की लघुतम इकाई कहा गया है। निश्चित रूप से यह पूछा जा सकता है कि यदि ‘पृथ्वी’ पद से ‘परमाणु’ का संकेत होता है तो परमाणु के घटक यथा नाभिक व इसका निर्माण करने वाले प्रोटॉन तथा नूट्रान और नाभिक के बाहर स्थित इलेक्ट्रान क्या हैं? क्या उन्हें सांख्य की शब्दावली के अनुसार ‘पृथ्वी’ कहा जायेगा अथवा ‘जल’ कहा जायेगा जो पृथ्वी का पूर्ववर्ती महाभूत है या इनकी पहचान इन दोनों के किसी मध्यवर्ती रूप में होगी? पुनः यदि हम आधारभूत रूप से प्राथमिक स्तर के कणों की चर्चा करें तो हमें पूछना होगा कि प्रोटॉन और नूट्रान से भी सूक्ष्म क्वारक्स (quarks) ‘पृथ्वी’ तत्त्व है या कुछ और? निश्चित रूप से ये प्रश्न टेढ़े हैं किन्तु ज्ञान-विज्ञान के वर्तमान स्तर पर हम यही कह सकते हैं कि पदार्थ के सर्वाधिक पार्थिव रूप क्वारक्स और इलेक्ट्रान ही हैं क्योंकि आधारभूत रूप से प्राथमिक स्तर के कण यही हैं। यहाँ ध्यान रहे कि तंत्री सिद्धांत (String Theory) के अनुसार प्रत्येक क्वारक एक तंत्री (string) है। इसी प्रकार प्रत्येक इलेक्ट्रान भी एक तंत्री है। इस प्रकार हम अपने जगत् को भिन्न-भिन्न आवृतियों में स्पंदित हो रहीं तंत्रियों (strings) की सिम्फ़नी कह सकते हैं। चूँकि एक प्रोटॉन तीन क्वारक्स से बना है अतएव हम एक प्रोटॉन को तीन स्पंदित तंत्रियों के समुच्चय के रूप में देख सकते हैं। तंत्री सिद्धांत का सुझाव है कि इलेक्ट्रान और क्वारक वस्तुतः ऊर्जा की अत्यंत सूक्ष्म स्पंदित गांठें (minuscule vibrating loops of energy) हैं। इसका अर्थ हुआ कि इलेक्ट्रान और क्वारक का निर्माण करने वाले पदार्थ का यथार्थ रूप ‘पार्थिव’ नहीं अपितु तरंगायित (wavy) ऊर्जा है, अतएव हम सांख्य दर्शन की भाषा में पदार्थ के उस रूप को ‘आपः’ अथवा ‘जल’ कह सकते हैं। इसी प्रकार से पदार्थ के और अधिक सूक्ष्म रूपों को ‘अग्नि’, ‘वायु’ और ‘आकाश’ कहा जाना चाहिए। ध्यान रहे कि ‘वैदिक भौतिकी’ के यशस्वी लेखक के अनुसार ‘अणु’ पृथ्वी तत्त्व है; आयन एवं परमाणु ‘आपः’ अथवा जल है; मूलकण व तरंगाणु (quanta) ‘अग्नि’ है; जबकि वायु व आकाश इनसे भी अधिक सूक्ष्म तत्त्व हैं। यहाँ पर हम सरलमति पाठकों को बताना चाहेंगे कि जब प्रकाश कण रूप में व्यवहार करता है तो उसे प्रकाशाणु (Photon) कहते हैं और जब प्रकाश के अतिरिक्त कोई भी अन्य तरंग कण रूप में व्यवहार करती है तो उसे तरंगाणु (Quanta) कहते हैं, प्रकाशाणु और तरंगाणु आदि प्रकाशित कण हैं, इनका अपना प्रकाश होता है, शायद इसीलिए उस लेखक ने इन्हें अग्नि तत्त्व कहा है। ‘वैदिक भौतिकी’ में व्यक्त विचारों से हमारा मत इस सीमा तक मिलता है कि हम भी इन पाँच महाभूतों को स्थूल व सर्वसुलभ तत्त्व मानने के पक्ष में नहीं हैं। किन्तु सांख्य दर्शन में वर्णित इन पांचों तत्त्वों की संगति पदार्थ के किस रूप से बिठाई जाये इसके बारे में हमारे विचार उक्त लेखक से भिन्न हैं। सुधी पाठक समझ सकते हैं कि इस विषय में किसी विचार को अंतिम व निर्णायक मानकर प्रस्तुत करना जोखिम भरा कार्य है, अतः इस संबंध में हम इससे अधिक चर्चा उचित नहीं समझते। हम केवल इतना कह सकते हैं कि ये पांचों महाभूत यथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश प्राकृत पदार्थ की एक के बाद एक लघुतम इकाइयां हैं जिनमें पृथ्वी सर्वाधिक स्थूल है और आकाश सर्वाधिक सूक्ष्म है। अब तक की चर्चा से यह स्पष्ट हो चुका है कि पदार्थ की इन इकाइयों में से सर्वाधिक स्थूल कही गई ‘पृथ्वी’ भी साधारण मनुष्य के लिये अमूर्त ही है, ऐसे में ‘पृथ्वी’ से भी लघुतम इकाइयों पर विस्तृत चर्चा हमारे लिये दुष्कर और व्यर्थ है। अतएव इस चर्चा पर विराम लगाना ही उचित होगा।
किन्तु इन पांचों में से थोड़ी चर्चा ‘आकाश’ तत्त्व पर अवश्य ही समीचीन होगी। प्राचीन यूनानी दर्शन में ‘आकाश’ की व्याख्या ‘शाश्वत शून्यता’ (eternal void) के रूप में की गई थी। इस विचार के अनुसार आकाश प्रत्येक वस्तु का पात्र (container) है किन्तु स्वयं यह ‘कुछ नहीं’ है। उसी दर्शन के प्रभाव के कारण पश्चिमी दर्शन और प्राचीन (classical) विज्ञान ने गलती से आकाश (space) को अकृत, अक्रिय, अ-भौतिक शून्यता के रूप में स्वीकार किया। आकाश को अक्रिय कहने का अर्थ है कि जगत् की वस्तुओं और घटनाओं में आकाश की उतनी ही भूमिका है जितनी एक चित्र में कैन्वस की होती है। किन्तु वैदिक और वेदांती साहित्य के अनुसार आकाश (space) एक कृत पदार्थ है; इसका जन्म हुआ है; इसका विकास होता है; इसका शमन होता है; और अंततः यह मृत्यु को प्राप्त होता है। यह पदार्थ का अत्यंत सूक्ष्म रूप है। जन्म के समय से ही इसका प्रसरण शुरू हो जाता है। यह अभी भी प्रसृत हो रहा है। श्री एन. सी. पंडा लिखते हैं, “आकाश शून्यता में प्रसृत नहीं होता है। यह स्वयं प्रसृत होता है। यह स्वयं शून्यता नहीं है न ही यह शून्यता में निहित है। आकाश से परे कोई शून्यता नहीं है। ‘आकाश से परे’ (beyond space) एक अर्थहीन अभिव्यक्ति है।”(Cyclic Universe, पृ -390) अतः “रिक्त आकाश, आकाश में ईथर, आकाश की वक्रता पश्चिम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में आकाश की गलत अवधारणा के कारण उत्पन्न हुई छद्म समस्याएं हैं।”(वही) पुनः क्वांटम यांत्रिकी और कण भौतिकी में हुए प्रयोगों के अनुकूल वेदान्त में भी यह स्वीकार किया गया है कि आकाश सभी कणों, अणुओं, परमाणुओं का स्रोत है। यह पदार्थ का सूक्ष्मतम रूप है और पदार्थ के स्थूल रूपों को धारण किये रहता है। संस्कृत शब्द ‘आकाश’ का अर्थ है - चमकना, चमकाना (to shine), दिखना, दिखाना। आकाश के कारण वस्तुएं प्रकाशित, दृष्टिगोचर होतीं हैं। कुछ भारतीय विद्वान पश्चिमी दर्शन विशेषकर अरस्तू के प्रभाव में ‘आकाश’ शब्द का अनुवाद ईथर (ether) के रूप में करते हैं। किन्तु यह एक भ्रांति है, वेदांती प्रत्यय ‘आकाश’ और अरस्तू द्वारा दिये गये प्रत्यय ‘ईथर’ में कोई संबंध नहीं है। भारतीय दर्शन में ‘आकाश’ (space) और ‘दिक्’ (dimension) -दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। आकाश पदार्थ है जिसके लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई आदि आयाम हैं। इन सभी में क्रिया, अनुक्रम व घटना के संबंध में काल की अवधारणा आती है। आकाश को धारण करने वाली वस्तु प्रभु की पराशक्ति/शब्द है और आकाश का समस्त प्रसरण शब्द के भीतर हो रहा है। पराशक्ति चैतन्य है जबकि आकाश सर्वाधिक सूक्ष्म जड़ पदार्थ है जो स्थूल पदार्थ को धारण किये रहता है। जब प्रभु की इच्छा होगी तो पराशक्ति में संकुचन आरंभ हो जायेगा जिससे आकाश में भी संकुचन होगा। अंततः आकाश का समस्त विस्तार एक आयामरहित बिन्दु बन जायेगा जो माया में विसर्जित हो जायेगा।
(शेष आगे)
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