Guru Nanak Dev Ji writes that the universe has come out of Nothingness. He has also described two forms of the Nothingness, namely ਓੱ and सति. This universe has been created not by the ਓੱ but by the सति. These two forms of the Nothingness are polar opposite to each other, yet they are two forms of the ONE and SAME reality.
बाणी में शून्य के दो अर्थ हैं - अभावरूप ब्रह्म ਓੱ और भावरूप ब्रह्म सति । सृष्टि का रचयिता ਓੱ नहीं सति है। ਓੱ शून्य है, सति एकम् है; ਓੱ निरंकार है, सति एकंकार है; ਓੱ नेति-नेति है, सति इति-इति है; ਓੱ जगत् के प्रत्येक रूप व आकार से रिक्त है, सति में जगत् का प्रत्येक रूप व आकार एक संभावना के रूप में मौजूद होता है; ਓੱ निष्क्रिय सत्ता है, सति सक्रिय सत्ता है। किंतु फिर भी न केवल हमारे सामान्य अनुभव की दृष्टि से ये दोनों शून्य अर्थात् अभावरूप हैं बल्कि तात्त्विक दृष्टि से भी एक ही हैं। शून्य के अर्थ को विस्तारपूर्वक जानने के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 3.
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गुरू नानक देव ने सचखंड का वर्णन 37वीं पउड़ी की 11वीं पंक्ति से शुरू किया है, जो इस प्रकार है :
सचखंड वसै निरंकारु ॥ (11)
करि करि वेखै नदरि निहाल ॥ (12)
तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ (13)
जे को कथे त अंत न अंत ॥ (14)
तिथै लोअ लोअ आकार ॥ (15)
जिव जिव हुकमु तिवे तिव कार ॥ (16)
वेखै विगसै करि वीचारु ॥ (17)
नानक कथना करड़ा सारु ॥(1-8) (18)
'सचखंड में निरंकार का निवास है जो रचना करता है, रची गई रचना को देखता है, कृपादृष्टि करता और निहाल होता है। उसमें अनगिनत खंड, मंडल व ब्रह्मांड हैं। वहां भांति-भांति के लोक व आकृतियां हैं। यदि कोई कथन करने लगे तो अंत ही नहीं होता। उस विशाल सृष्टि के जीवों को जैसा-जैसा हुक्म होता है, वे वैसे ही कर्म करते हैं। वह निरंकार उनको देखता है और विचार करके प्रसन्न हो रहा है। गुरू नानक देव जी का कथन है कि इस सबका वर्णन करना लोहे की तरह करड़ा है अर्थात् बड़ा कठिन है।'
इस वर्णन में ध्यान देने वाला पहला तथ्य यह है कि ‘सचखंड में निरंकार का निवास है’। सच या सत् का अर्थ है - अस्तित्व। दूसरी ओर निरंकार पद के दो अर्थ हैं। वैश्विक (immanent) सत्ता अर्थात नाम के संदर्भ में इसका अर्थ निराकार है जबकि विश्वोत्तर (transcendent) सत्ता अर्थात ਓੱ के संदर्भ में निरंकार पद का निः+अहंकार के रूप में संधि विच्छेद करके अर्थ होगा – अनस्तित्व, असत्, शून्य (nothingness)। यहाँ अहंकार विकार रूप नहीं अपितु आधार रूप है जो सत्ता को सत्त्व प्रदान करता है, अतः अहंकार के निषेध से सत्ता का ही निषेध हो जाता है। सचखंड का अर्थ है - सत्यस्वरूप परमात्मा सति का धाम (Realm of the Truth)। सति में आधार रूप अहंकार है अतः सति सत्तावान है। किन्तु उसमें विकार रूप अहंकार नहीं है जिससे विविधता उत्पन्न होती है, अतः सति सत्तावान है और यह सत्ता एक या एकम् या एकंकार (एक+अहंकार) है। इससे पता चलता है कि मूलमंत्र में परमात्मा के जिन स्वरूपों के कथन के लिए ਓੱ व सति शब्दों का प्रयोग किया गया है, बाणी में उन्हीं स्वरूपों के कथन के लिए निरंकार व एकंकार शब्दों का प्रयोग किया गया है। ਓੱ निरंकार है, यह एक रहस्यमय प्रभुसत्ता है जो सदैव ऐसे धुंधलके में रहती है जिसे गुरु नानक देव जी ने धुँधुकारा कहा है। सति एकंकार है, इसका निवास सदा-सदा सचखण्ड में रहता है। सचखंड एकंकार का धाम है, यह निरंकार का धाम नहीं है। फिर भी गुरु नानक सचखंड वसै निरंकार -ऐसा कह रहे हैं। निरंकार असत्, शून्य व निर्गुण सत्ता है जबकि सति सच, एकम् व सगुण सत्ता है, ऐसे में सति अथवा सत्पुरुष के धाम सचखंड में निरंकार अथवा ਓੱ का निवास क्यों होगा? गुरु नानक ‘शून्य’ व ‘एकम्’ की स्पष्ट भिन्नता को धुंधला क्यों कर रहे हैं? क्या निर्गुण व सगुण अथवा शून्य व एकम् एक ही हैं? इसके लिये हमें गुरु नानक देव जी के मारू राग में सम्मिलित एक शब्द का अध्ययन करना चाहिए। गुरु नानक देव जी लिखते हैं :
सुंन कला अपरंपरि धारी ॥ आपि निरालमु अपर अपारी ॥
आपे कुदरति करि करि देखै सुंनहु सुंनु उपाइदा ॥1॥
पउणु पाणी सुंनै ते साजे ॥ स्रिसटि उपाइ काइआ गड़ राजे ॥
अगनि पाणी जीउ जोति तुमारी सुंने कला रहाइदा ॥2॥
सुंनहु ब्रहमा बिसनु महेसु उपाए ॥ सुंने वरते जुग सबाए ॥
इसु पद वीचारे सो जनु पूरा तिसु मिलीऐ भरमु चुकाइदा ॥3॥
सुंनहु सपत सरोवर थापे ॥ जिनि साजे वीचारे आपे ॥
तितु सत सरि मनूआ गुरमुखि नावै फिरि बाहुड़ि जोनि न पाइदा ॥4॥
सुंनहु चंदु सूरजु गैणारे ॥ तिस की जोति त्रिभवण सारे ॥
सुंने अलख अपार निरालमु सुंने ताड़ी लाइदा ॥5॥
सुंनहु धरति अकासु उपाए ॥ बिनु थमा राखे सचु कल पाए ॥
त्रिभवण साजि मेखुली माइआ आपि उपाइ खपाइदा ॥6॥
सुंनहु खाणी सुंनहु बाणी ॥ सुंनहु उपजी सुंनि समाणी ॥
उतभुजु चलतु कीआ सिरि करतै बिसमादु सबदि देखाइदा ॥7॥
सुंनहु राति दिनसु दुइ कीए ॥ ओपति खपति सुखा दुख दीए ॥
सुख दुख ही ते अमरु अतीता गुरमुखि निज घरु पाइदा ॥8॥
साम वेदु रिगु जुजरु अथरबणु ॥ ब्रहमे मुखि माइआ है त्रै गुण ॥
ता की कीमति कहि न सकै को तिउ बोले जिउ बोलाइदा ॥9॥
सुंनहु सपत पाताल उपाए ॥ सुंनहु भवण रखे लिव लाए ॥
आपे कारणु कीआ अपरंपरि सभु तेरो कीआ कमाइदा ॥10॥
रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥ जनम मरण हउमै दुखु पाइआ ॥
जिस नो क्रिपा करे हरि गुरमुखि गुणि चउथै मुकति कराइदा ॥11॥
सुंनहु उपजे दस अवतारा ॥ स्रिसटि उपाइ कीआ पासारा ॥
देव दानव गण गंधरब साजे सभि लिखिआ करम कमाइदा ॥12॥
गुरमुखि समझै रोगु न होई ॥ इह गुर की पउड़ी जाणै जनु कोई ॥
जुगह जुगंतरि मुकति पराइण सो मुकति भइआ पति पाइदा ॥13॥
पंच ततु सुंनहु परगासा ॥ देह संजोगी करम अभिआसा ॥
बुरा भला दुइ मसतकि लीखे पापु पुंनु बीजाइदा ॥14॥
ऊतम सतिगुर पुरख निराले ॥ सबदि रते हरि रसि मतवाले ॥
रिधि बुधि सिधि गिआनु गुरू ते पाईऐ पूरै भागि मिलाइदा ॥15॥
इसु मन माइआ कउ नेहु घनेरा ॥
कोई बूझहु गिआनी करहु निबेरा ॥
आसा मनसा हउमै सहसा नरु लोभी कूड़ु कमाइदा ॥16॥
सतिगुर ते पाए वीचारा ॥ सुंन समाधि सचे घर बारा ॥
नानक निरमल नादु सबद धुनि सचु रामै नामि समाइदा ॥17॥(1-1037)
अपरंपर = वह प्रभु जो परे से परे है, जिससे परे और कुछ भी नहीं। ‘अपरंपर’ पद संस्कृत के ‘परात्पर’ का समकक्ष है, इसका अर्थ superior to the best है। ‘सुंन’ = शून्य, अभावरूप, जिसमें किसी भी गुण, लक्षण, विशेषता आदि का अभाव है। इससे यह अर्थ निकला कि ‘अपरंपर सुंन’ पदों से ‘अभावरूप निर्गुण ब्रह्म’ का संकेत किया गया है। यह ऐसी प्रभुसत्ता है जिसके बारे में ‘कौन’, ‘कब’, ‘कहाँ’, ‘कैसे’ इत्यादि सभी प्रकार के प्रश्न निर्मूल हो जाते हैं। हम भलीभांतिपूर्वक यह देख चुके हैं कि ये सभी लक्षण उसी प्रभुसत्ता पर लागू होते हैं जिसे मूलमंत्र में ਓੱ कहा गया है। अब कहते हैं, ‘अपरंपर सुंन ने अपनी कला को धारण किया।’ यदि हम गुरु नानक द्वारा प्रयोग किये गये पद ‘कला’ का अनुसरण करें तो कहेंगे कि वह ਓੱ ‘निष्कल’ से ‘स-कल’ (कला-सहित) हो गया। इसी प्रकार यदि हम गुरु नानक द्वारा प्रयोग किये गये पद ‘शून्य’ का अनुसरण करें तो कहेंगे कि वह ‘शून्य’ से ‘एक’ बन गया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ‘स-कल’ व ‘एक’ के रूप में उत्पन्न होने पर उसका अभाव, निष्कल, शून्य रूप समाप्त हो गया या उसका ‘स-कल’ रूप ‘निष्कल’ रूप से अथवा ‘एकम्’ रूप ‘शून्य’ रूप से भिन्न था। गुरु नानक कहते हैं कि वह ‘निष्कल’ से ‘स-कल’ हो गया किन्तु इसके बावजूद वह ‘निरालम्ब’ व ‘अपरंपर’ ही बना रहा अर्थात ‘शून्य’ से ‘एकम्’ रूप की उत्पत्ति हुई किन्तु उसका ‘एकम्’ व ‘स-कल’ रूप भी ‘निरालम्ब’ व ‘अपरंपर’ ही था। अभावरूप ब्रह्म और भावरूप ब्रह्म, ਓੱ व सति, शून्य व एकम् एक ही परमात्मा के दो रूप हैं। ऐसे में यह कहना बिल्कुल उचित होगा कि उसका ‘निष्कल’ से ‘स-कल’ होना, ‘शून्य’ से ‘एक’ बन जाना ऐसे था जैसे ‘शून्य से शून्य की ही उत्पत्ति हो गई हो’।
ਓੱ से सति के रूप में उत्पन्न होने पर परमात्मा ने सृष्टि की रचना की। गुरु नानक लिखते हैं, आपे कुदरति करि करि देखै । ‘कुदरति’ पद स्त्रीलिंग में है, यह प्रभु की शक्ति है और यह शक्ति ही रचना के अनगिनत रूपों में प्रकट हुई है। परमात्मा एक ओर ‘कुदरति’ = ‘रचना के अनगिनत रूपों’ को प्रकट करता है तो दूसरी ओर इन अनगिनत रूपों के दृष्टा पक्ष को भी प्रकट करता है। इस प्रकार आपे कुदरति करि करि देखै पद्यांश से अपरंपर परमात्मा द्वारा अपनी सत्ता/नाम और शक्ति/शब्द द्वारा जगत् की रचना का उल्लेख किया गया है। परमात्मा की शक्ति जगत् की इस विविधता के रूप में प्रकट होती है जबकि परमात्मा की सत्ता जगत् के दृष्टा के रूप में गुप्त रहती है। जगत् की यह विविधता वाला पक्ष और इस विविधता का एक दृष्टा वाला पक्ष दोनों ‘अपरंपर’ ‘शून्य’ परमात्मा ही है।
पहली पंक्ति में परमात्मा के स्वरूप और उसके द्वारा जगत् की रचना का वर्णन करने के पश्चात शेष पंक्तियों में गुरु नानक ने परमात्मा द्वारा जगत् की रचना के विषय का विस्तार किया है। हम देख चुके हैं कि अभावरूप ब्रह्म ਓੱ और भावरूप ब्रह्म सति दोनों को गुरु नानक ने ‘शून्य’ कहा है। दूसरी ओर जगत् की यह विविधता वाला पक्ष और इस विविधता का एक दृष्टा वाला पक्ष दोनों ‘अपरंपर’ ‘शून्य’ परमात्मा ही है। अतएव गुरु साहिब कहते हैं कि सारी सृष्टि ‘शून्य’ परमात्मा ने ‘शून्य’ से ही उत्पन्न की है। शरीर रूपी गढ़ और इस गढ़ का राजा ‘जीव’ जो प्रभु की निज-ज्योति है; पवन = सांख्य वाली मूल प्रकृति; पानी = महत् तत्त्व; आकाश आदि पांचों तत्त्व; ब्रह्म = सत्वगुण; विष्णु = रजोगुण; शिव = तमोगुण; सप्त सरोवर = पुराणों में वर्णित सात लोक, नामतः भूः, भूर्व:, स्वः, महा, जन, तापस व सत्यलोक; सूर्य, चंद्रमा आदि नक्षत्र मंडल, आकाश व धरती, जीवों की उत्पत्ति के चार प्रकार और उनकी वाणी के चार प्रकार, दिन व रात्रि, दस अवतार, आदि सबकुछ शून्य से उत्पन्न होता है, शून्य से कायम रहता है और अंततः शून्य में ही लीन हो जाता है।
पीछे ਓੱ अध्याय में हमने देखा कि ‘शून्य’ का अर्थ आस्तिक अभाव है। वहां जिस प्रभुसत्ता को ‘शून्य’ पद से इंगित किया गया वह निष्क्रिय सत्ता है। वह कर्ता नहीं है। सृष्टि का कर्ता सति है और सति शून्य अथवा अभाव नहीं है। वह इति इति है, नेति नेति नहीं। लेकिन गुरु नानक दोनों को ‘शून्य’ ही कह रहे हैं। यह प्रश्न यदि अभी भी एक पहेली लग रहा हो तो हम ‘शून्य’ शब्द के अर्थ-विकास को देख सकते हैं। ਓੱ का अध्ययन करते हुए हमने देखा कि महायान साधकों ने शून्य शब्द का प्रयोग आस्तिक अभाव के अर्थ में किया था। महायान साधकों के पश्चात् तांत्रिक बौद्धों में शून्य की धारणा आस्तिक के साथ-साथ भावात्मक होती चली गयी। वहां से यह शब्द नाथ सम्प्रदाय में आया। गोरखनाथ ने इसे समाधि की अवस्था माना। अतः शून्य अब अभावरूप ब्रह्म नहीं रह गया था। सिद्धों व नाथों के अनुकरण पर कबीर ने इस शब्द का प्रयोग भावरूप ब्रह्म के अर्थ में किया। आप लिखते हैं : अरध उरध मुखि लागो कासु ॥ सुंन मंडल महि करि परगासु ॥(कबीर-1162) यहां सुंन का अर्थ ऐसी नीरवता से है जहां माया का शोर नहीं है और जहां परगासु अर्थात् नाम की ज्योति विद्यमान है। इस प्रकार परम्परा से ही शून्य के दो अर्थ विकसित हो चुके थे - अभावरूप ब्रह्म व भावरूप ब्रह्म। और यह विकास बिल्कुल स्वाभाविक भी था। परमसत्ता अज्ञेय है और हमारे भौतिक अस्तित्व के लिए अभावरूप है, असत् या शून्य है। बाल गंगाधर तिलक अपनी पुस्तक ‘गीता रहस्य’ में लिखते हैं, ''सत्य शब्द का साधारण अर्थ है - जो आंखों से प्रत्यक्ष दिखाई दे। इसी अर्थ को लेकर वृहदारण्यकोपनिषद (1.6.3) में नामरूपात्मक बाह्य पदार्थों को सत्य और उससे आच्छादित द्रव्य को अमृत कहा गया, तदेतदमृतं सत्येनच्छनं ।” अब यदि सत्य वह है जो आंखों से दिखाई पड़ता है तो जो आंखों के लिए अगोचर है, उसे असत् अर्थात शून्य कहेंगे। अब परमात्मा असत्, शून्य या कहें कि अज्ञेय है, लेकिन इस शून्यता अथवा अज्ञेयता की दो कोटियां हैं। पहली, निर्गुण, शाश्वत रूप से अज्ञेय, और दूसरी, सगुण, इन मायिक नेत्रों के लिए अज्ञेय। अतः यह स्वाभाविक था कि 'शून्य' शब्द का प्रयोग निर्गुण सत्ता के लिए करने के साथ-साथ सगुण सत्ता के लिए भी किया जाता। यह प्रक्रिया कबीर के समय तक पूरी हो चुकी थी, यथा : सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥(कबीर-1103) गुरू नानक ने भी 'सुंन' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है, जैसे : अंतरि सुंनुं बाहरि सुंनं त्रिभवण सुनंम सुंन ॥ चउथे सुंनै जो नरु जाणै ता कउ पापु न पुंन ॥(1-943) 'जीवों के अंदर शून्य है, बाहर भी शून्य है। त्रिलोकी में सर्वत्र शून्य ही पसरा हुआ है। जो मनुष्य शून्यता के इस रहस्य को चौथे पद, तुरीयावस्था में समझ लेता है, वह पाप-पुण्य से अतीत हो जाता है।' इसी तरह घटि घटि सुंन का जाणै भेउ पंक्ति में घट-घट में व्याप्क प्रभुसत्ता को शून्य कहा गया है। पुनः सिधगोसटि में सिद्धों ने गुरू नानक देव जी से पूछा कि सृष्टि रचना से पूर्व आदि काल की क्या स्थिति थी और ‘शून्य’ कहां बसता था : आदि कउ कवन बीचार कथीअले सुनं कहा घर वासो ॥(1-940) तो उत्तर में गुरू जी ने बताया कि सृष्टि के पूर्वकाल का विचार विस्मयकर ही कहा जा सकता है, उस समय चारों ओर बिना किसी अंतराल के शून्य का ही निवास था : आदि कउ बिसमादु बीचारु कथीअले सुंन निरंतरि वासु लीआ ॥(1-940) अर्थात् परमात्मसत्ता के दोनों लक्षण - नाम व शब्द - अथवा ज्योति व नाद जो क्रमशः उसकी सत्ता और विभूति हैं, गुप्त थे। अतः वह अवस्था निविड़ अंधकार व नीरवता की थी जो अनगिनत युगों तक रही। सृष्टि के निर्माण से पूर्व की इस अवस्था को गुरू नानक ने सुन्न (शून्य) कहा है। अतः बाणी में शून्य के दो अर्थ हैं - अभावरूप ब्रह्म ਓੱ और भावरूप ब्रह्म सति । सृष्टि का रचयिता ਓੱ नहीं सति है। ਓੱ शून्य है, सति एकम् है; ਓੱ निरंकार है, सति एकंकार है; ਓੱ नेति-नेति है, सति इति-इति है; ਓੱ जगत् के प्रत्येक रूप व आकार से रिक्त है, सति में जगत् का प्रत्येक रूप व आकार एक संभावना के रूप में मौजूद होता है; ਓੱ निष्क्रिय सत्ता है, सति सक्रिय सत्ता है। किंतु फिर भी न केवल हमारे सामान्य अनुभव की दृष्टि से ये दोनों शून्य अर्थात् अभावरूप हैं बल्कि तात्त्विक दृष्टि से भी एक ही हैं। सचखंडि वसै निरंकार कथन हमें इसलिए चौंका देता है क्योंकि हम ਓੱ को सति से, निरंकार को एकंकार से, निर्गुण को सगुण से, शून्य को एकम् से भिन्न करके देखते हैं, जबकि ये दोनों एक हैं : आपहि सुन्न आपहि सुख आसन॥(5-250) निरंकार ਓੱ निर्गुण है और जगत् से निरपेक्ष है, एकंकार सति सगुण है और जगत् के सापेक्ष है, किंतु इससे सति सीमित व लघु नहीं हो जाता। महर्षि अरविन्द लिखते हैं, "निरपेक्ष से हमारा मतलब होता है कोई ऐसी चीज जो हमसे बहुत बड़ी है, हम जिस विश्व में रहते हैं उससे भी बड़ी, उस परात्पर सत्ता की चरम वास्तविकता जिसे हम भगवान् कहते हैं। कोई ऐसी चीज जिसके बिना हम जो कुछ देखते हैं, .... वह हो ही न पाती ....। भारतीय विचारधारा उसे ब्रह्म कहती है और यूरोपीय विचारधारा निरपेक्ष क्योंकि वह स्वयंभू है और सापेक्षता के सभी बंधनों से मुक्त है ...... यहां तक कोई कठिनाई और अस्तव्यस्तता नहीं होनी चाहिए। प्रंतु मन की जो विरोधों की आदत है ...... उसके वशीभूत हम उसके बारे में न केवल यह कहने को प्रवृत्त होते हैं कि वह सापेक्ष की सीमाओं से बंधा नहीं है, बल्कि यह भी कि वह सीमाओं से अपने आपको मुक्त कर देने में भी बंधा हुआ है, संबंधों की सारी शक्ति से असाध्य रूप से रीता है और अपने स्वभाव में उनके लिए असमर्थ है। उसकी सारी सत्ता में कोई ऐसी चीज है जो सापेक्षता के विरुद्ध है और शाश्वत रूप से उसके विपरीत है। अपने तर्क के इस गलत कदम की वजह से हम एक अंधी गली में जा पहुंचते हैं....... इससे हम एक ऐसे निरपेक्ष तक जा पहुंचते हैं जो सापेक्षता में असमर्थ है और ..... हमें यह मानना पड़ता है कि जगत् एक भ्रांति है।"(दिव्य जीवन, पृ -374) लेकिन सच यह है कि निरंकार परम नास्ति ही नहीं, परम अस्ति भी है। प्राचीन ऋषियों ने निस्संदेह यह कहा कि ब्रह्म नेति-नेति है लेकिन वे यहीं नहीं रूके क्योंकि ऐसा करने का अर्थ निरपेक्ष को एक परिभाषा की सीमा में बांधना होता। इसलिए उन्होंने यह भी कहा कि यह सब कुछ ब्रह्म है। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। इस तरह सचखंडि वसै निरंकार कथन का अर्थ यह है कि सति में ਓੱ अंतर्निहित है। एकम् में शून्य भी है। सति इति-इति है और उसमें निरंकार, जो नेति-नेति है, छिपा हुआ है। इस प्रकार हर इति के साथ एक नेति है। यह नेति का ही अस्तित्व है जो इति के सत्य के बारे में हमारे प्रत्येक कथन को अपूर्ण कथन बना देता है। इस प्रकार सचखंडि वसै निरंकार का भाव है कि, ''इति और नेति न केवल साथ-साथ रहते हैं बल्कि एक दूसरे के साथ संबंध में और एक दूसरे के द्वारा रहते हैं। वे एक दूसरे की पूर्ति करते हैं और उस समग्र दृष्टि में, जिसे सीमित मन नहीं पा सकता, एक दूसरे की व्याख्या करते हैं।"(दिव्य जीवन, पृ 376)
इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म 'निरंकार' ही सगुण ब्रह्म 'एकंकार' के रूप में प्रकट होकर सचखंड में अपना तख्त जमाता है। निरंकार का एकंकार में रूप परिवर्तन सृष्टि रचना की दिशा में प्रथम प्रस्थान है। परमसत्ता के स्वभाव में आये इस परिवर्तन को आदिग्रंथ की निम्नलिखित पंक्तियों में बयान किया गया है :
आपणा आपु उपाइअनु तदहु होरु न कोई ॥(3-509)
केतड़िआ जुग धुंधूकारो ॥ ताड़ी लाई सिरजणहारे ॥(1-1023)
रचना का दूसरा प्रस्थान सति द्वारा सृष्टि रचना का उद्यम किया जाना है। बाणी में कई स्थानों पर सृष्टि रचना को ‘एक’ या ‘ठाकुर’ का खेल कहा गया है :
आपन खेलु आपि करि देखै ॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥(5-292)
अपना खेलु आपि करि देखै ठाकुरि रचनु रचाइआ ॥(5-748)
'एक' (1) से वह प्रभुसत्ता अभिप्रेत है, जो 'शून्य' (0) के पश्चात् है। इसी को वैदिक साहित्य एकराट् कहता है जबकि बाणी ठाकुर, सुलतान आदि कहती है। यह 'एक' सति है, जबकि 'शून्य' ਓੱ है। शून्य व एक के संबंधों के बारे में डा0 शेर सिंह अपनी पुस्तक 'गुरूमत दर्शन' में लिखते हैं, "शून्य निर्गुण है, अलख, अगोचर है। शून्य का विस्तार हुआ तो एक बना। लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि एक, शून्य से बड़ा है। शून्य असीम है, वह कुछ भी हो सकता है। इस लिहाज़ से उसका 'एक' बनना असीम का सीमा में आ जाना है। शून्य एक (1) में है, लेकिन पूर्ण रूप से नहीं। शून्य में अनन्त संभावनाएं हैं, इसलिए उसका 'एक' बनना एक संभावना का अमल में आना है।" इस प्रकार 'एक' 'शून्य' का विस्तार भी है और संकुचन भी। 'शून्य' में निहित ऊर्जा की अनंतता ही उस आद्य-अव्यवस्था (primordial chaos) को उत्पन्न करती है जो साधक को अपार आनंद व विस्मय से आक्रांत कर देती है और केवल 'वाह! वाह!!', 'सुबहान अल्ला', 'वंडरफुल लार्ड' या 'नेति-नेति' का उच्चारण ही उस अनुभूति के एकमात्र प्रमाण के रूप में शेष रह जाता है। इस तर्क से देखें तो हम श्रीअरविंद के शब्दों में सत्यस्वरूप परमात्मा सति को 'आदि आत्मसंकेन्द्रीकण' कह सकते हैं। सति ही अपूर्व शक्ति व सामर्थ्य का स्वामी है, बडपुरख ; जगत् रूपी बगीचे का माली है, इहु जगु वाड़ी मेरा प्रभु माली ; जगत् का स्वामी है, प्रभु, ठाकुर, सुलताण ; जगत् रूपी विशाल खेत में अनगिनत जीवों रूपी पौधों को बोने, पालने-पोसने व काटने वाला किसान है, वडा किरसाणु ।
(शेष आगे)
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