In Sankhya philosophy, three forms of conscience are described – intellect, ego and mind. In Kashmiri Shaiva philosophy too, these three parts of conscience are considered. But in Vedanta, there is a discussion of the four forms of conscience. The intellect is a determining action, the mind is a process of resolution and choice, pride is separated from these two and it is called ego. By considering memory as the fourth instinct, there are four types of conscience. In Patanjali's yoga philosophy, the Chitt has been given an important status. Thus, since tradition, there has been a lack of consensus on the constituent elements of the conscience. Even in the Adi Granth, there is a state of confusion about the Chitt. Guru Nanak, in his description of Sarmakhand, did not specifically describe the Chitt in the same way as intellect, ego and mind. But when we study the Adi Granth, we find that the Chitt is described, but its references are a few. What could be the final decision in this regard? What is the relationship between mind and Chitt? Read on Karta Purush 28 to know more about this subject.
सांख्य दर्शन में अंतःकरण के तीन रूप बताये गये हैं - बुद्धि, अहंकार और मन। कश्मीरी शैव दर्शन में भी अन्तःकरण के यही तीन अंग माने गए हैं। किंतु वेदांत में अन्तःकरण चतुष्टय की चर्चा है। बुद्धि निश्चय करने वाली क्रिया है, मन संकल्प-विकल्प करने वाली क्रिया है, इन दोनों से अभिमान को पृथक् मानकर उसकी करणभूत इन्द्रिय को अहंकार कहते हैं। अनुसंधान या स्मरण को चौथी वृत्ति मानने से, जिसे चित्त कहते हैं, अन्तःकरण चार प्रकार का हो जाता है। पतंजलि के योग दर्शन में भी चित्त को अंतःकरण में एक महत्त्वपूर्ण दर्जा दिया गया है। इस प्रकार परंपरा से ही अंतःकरण के संघटक तत्त्वों के संबंध में मतैक्य का अभाव रहा है। आदिग्रंथ में भी चित्त को लेकर एक ऊहापोह की स्थिति ही मिलती है। गुरू नानक ने सरमखंड के अपने वर्णन में चित्त का वर्णन उसी प्रकार विशेष रूप से नहीं किया जैसे बुद्धि, अहंकार व मन का। किंतु जब हम आदिग्रंथ का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि चित्त का वर्णन हुआ अवश्य है, लेकिन उसकी मात्रा अत्यल्प है। इस संबंध में अंतिम निर्णय क्या हो सकता है? मन व चित्त के पारस्परिक संबंध क्या हैं? यह जानने के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 28.
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हमने देखा है कि बुद्धि, अहंकार व मन तीनों की उत्पत्ति सरम खंड में होती है। यदि हम सांख्य दर्शन के मत का अवलम्बन करें तो इन तीनों से हमें अंतःकरण की प्राप्ति इसी खंड में हो जाती है क्योंकि सांख्य दर्शन में अन्तःकरण को त्रिविध ही कहा गया है। कश्मीरी शैव दर्शन में भी अन्तःकरण के यही तीन अंग माने गए हैं। किंतु वेदांत में अन्तःकरण चतुष्टय की चर्चा है। बुद्धि निश्चय करने वाली क्रिया है, मन संकल्प-विकल्प करने वाली क्रिया है, इन दोनों से अभिमान को पृथक् मानकर उसकी करणभूत इन्द्रिय को अहंकार कहते हैं। अनुसंधान या स्मरण को चौथी वृत्ति मानने से, जिसे चित्त कहते हैं, अन्तःकरण चार प्रकार का हो जाता है। पतंजलि के योग दर्शन, जो वैचारिक रूप से सांख्य दर्शन का करीबी है, में भी चित्त को अंतःकरण में एक महत्त्वपूर्ण दर्जा दिया गया है। वहां योगाभ्यास का एकमात्र लक्ष्य चित्त में उठती वृत्तियों को निरुद्ध करना बताया गया है।
इस प्रकार परंपरा से ही अंतःकरण के संघटक तत्त्वों के संबंध में मतैक्य का अभाव रहा है। आदिग्रंथ में भी चित्त को लेकर एक ऊहापोह की स्थिति ही मिलती है। गुरू नानक ने सरमखंड के अपने वर्णन में चित्त का वर्णन उसी प्रकार विशेष रूप से नहीं किया जैसे बुद्धि, अहंकार व मन का। यदि हम वहां आई एक पंक्ति तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुतु अनूपु में बहुतु को घाड़ति संज्ञा के लिए प्रयोग किया गया संख्यावाचक विशेषण मान लें तो उसमें चित्त की उत्पत्ति की सूचना का समाहार कर लेने से समस्या सुलझ जाती है। किंतु जब हम आदिग्रंथ का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि चित्त का वर्णन हुआ अवश्य है, लेकिन उसकी मात्रा अत्यल्प है और अन्तःकरण के अन्य अंगों की तुलना में इसका कम वर्णन खटकता है। समस्या तब और भी बढ़ जाती है जब हम चित्त का वर्णन ऐसे संदर्भों में देखते हैं जिन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए हम गुरू अमरदास द्वारा लिखित निम्न पंक्तियों को देखें :
हउं सतिगुरू सेवी आपणा इक मनि इक चिति भाइ ॥
सतिगुरू मन कामना तीरथु है जिस नो देइ बुझाइ ॥
मन चिंदिआ वरु पावणा जो इछै सो फलु पाइ ॥
नाउ धिआईऐ नाउ मंगीऐ नामे सहजि समाइ ॥(3-26)
ये पंक्तियां साधना के दृष्टिकोण से बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें अन्तःकरण के चारों अंगों का वर्णन हुआ है। आप फरमाते हैं, "मैं एकाग्र मन से, एकाग्र चित्त से और प्रेमपूर्वक अपने सद्गुरु की सेवा करता हूं। कारण, सद्गुरु मन की कामनाओं को पूरा करने वाला तीर्थ है, उससे मनवांछित फल की प्राप्ति होती है, जो भी इच्छा करें वही फल मिलता है। पर सद्गुरु की सेवा के बदले सद्गुरु से नाम ही मांगना चाहिए, नाम प्राप्त करने के उपरांत नाम का ही ध्यान करना चाहिए। नाम की भक्ति करने से आत्मिक अडोलता की प्राप्ति होती है।"
यहां पहली पंक्ति में आये तीन पद महत्त्वपूर्ण हैं : मन, चित्त व भाइ अर्थात् प्रेम। चित्त हमारे अंतःकरण की वह क्षमता है जिससे हम किसी को स्मरण करते हैं। यह स्मृतियों का भंडार है, यह हमारे अंतःकरण की संग्रहण करने की क्षमता है। हमारी सभी आदतें, कामनाएं, राग, द्वेष, स्मृतियां चित्त में संग्रहित होती हैं। स्वामी राम लिखते हैं, "यद्यपि चित्त को मन भी कहा जाता है तथापि पतंजलि का चित्त शब्द से वही आश्य नहीं जिसे आधुनिक मनोविज्ञान में मन कहा जाता है। वह इस शब्द का प्रयोग मानसिक कार्यप्रणाली की समग्रता के अर्थ में करता है। चित्त वह भूमि या क्षेत्र है जिसमें मन का शेष भाग कार्य करता है।"(समाधि, पृ -28) इसी तरह अन्यत्र आप लिखते हैं, "चित्त अचेतन मन के क्रियाकलापों (unconscious mind stuff) का भंडार है जिसमें इंद्रियों द्वारा बटोरे गये संस्कारों को डाल दिया जाता है और जिसके गहन तलों में से ये संस्कार निकल कर बेतरतीब, आकस्मिक व निरुद्देश्य विचारों और संबंधों की स्थायी धारा का निर्माण करते हैं।"(Royal Path, पृ -123) अपनी पुस्तक ‘समाधि’ के पृ0 41 पर आप लिखते हैं, ‘‘जिस तरह नदी एक तल के बिना नहीं रह सकती, उसी तरह विचारों को भी प्रवाहित होने के लिए एक तल की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार चित्त मन की गूढ़ अवस्था है जबकि मन चित्त की सतही अवस्था है।‘’ चित्त एक तिजोरी की तरह है जिसमें संस्कारों का भंडार जमा रहता है। ये संस्कार ही मन को कच्चा माल प्रस्तुत करते हैं। भारत में योग और वेदान्त दर्शन में जो संस्कार और वासना के बीच अंतर किया गया है, उसके मूल में वस्तुतः मन और चित्त का अंतर ही है। “संस्कार मन पर अंकित मानसिक विन्यास हैं। वासना चित्त पर अंकित संस्कारों को कहते हैं।”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe, पृ -729) वासना गहन, अचेतन विचारों की संज्ञा है। संस्कार उन वासनाओं का नाम है जिनके विपाक (fruition) का समय आ गया है और जो सक्रिय प्रवृत्तियों के रूप में सतह पर आ गई हैं। सतही मन गहराई में पड़ीं इन वासनाओं के अनुसार ही इच्छा करता व कल्पना करता है।
चित्त का प्रधान गुण स्मृति है तो मन का प्रधान गुण कल्पना है। ध्यान करने की प्रक्रिया में कल्पना का महत्त्व स्वयंसिद्ध है, मन ध्यान करने के उद्देश्य से कल्पना की सहायता से तस्वीर को घड़ता है। अतः यह तस्वीर को घड़ने वाला उपकरण (picture making instrument) है किंतु यह उसी की तस्वीर घड़ेगा जो कच्चे माल के रूप में चित्त उपलब्ध करायेगा। इस प्रकार चित्त हमारे अन्तःकरण की वह क्षमता है जिससे हम स्मरण या सिमरन करते हैं जबकि मन अन्तःकरण की वह क्षमता है जिससे हम स्मरण की जा रही वस्तु का ध्यान करते हैं। जिसका भी स्मरण और ध्यान हम करेंगे हमारी बुद्धि उसी के रंग में रंगने लग जायेगी, उसके प्रति हममें ममता, लगन, अनुराग पैदा होगा। साधारण अवस्था में हम इस जागतिक अनेकता का स्मरण करते हैं, इसी अनेकता का ध्यान करते हैं और इसी अनेकता से प्यार करते हैं, जिससे हम इसी अनेकता का हिस्सा बने रहते हैं। गुरू साहिब लिखते हैं कि ‘मैं एकाग्र चित्त से, एकाग्र मन से और प्रेमपूर्वक सद्गुरु की सेवा करता हूं’ अर्थात् चित्त से जो बेतरतीब, आकस्मिक व विविध प्रकार की स्मृतियों के बवंडर उठते हैं, मैं उन्हें नियंत्रित करके उनके स्थान पर सद्गुरु द्वारा प्रदत्त गुरूमंत्र का स्मरण करता हूं, यही एकाग्र चित्त से सद्गुरु की सेवा है। अब मन चित्त की ही सतही अवस्थ है अर्थात् मन व चित्त दोनों एक गहरी नदी के समान हैं जिसमें चित्त उस नदी का अंतस्तल है तो मन उसी का ऊपरी तल है। अतः यह स्वाभाविक है कि जिसे चित्त स्मरण करेगा मन उसी का ध्यान करेगा। यदि साधक को यह लगे कि उससे सद्गुरु के स्वरूप का ध्यान नहीं हो रहा है तो उसे समझ लेना चाहिए कि उसका सिमरन कच्चा व अधूरा है, उसमें एकाग्रता व निरंतरता का अभाव है। जब सिमरन में एकाग्रता व निरंतरता आयेगी तो ध्यान भी ठहर जायेगा, तब बुद्धि में सद्गुरु के प्रति तीव्र अनुराग का संचार होगा। सद्गुरु की एकाग्र चित्त, एकाग्र मन व प्रेमपूर्वक सेवा करने का यही अर्थ है।
अब आप फरमाते हैं कि ‘इस सेवा से सेवक को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है क्योंकि सद्गुरु मन की सभी कामनाओं को पूरा करने वाले तीर्थ हैं। लेकिन आप सावधान करते हैं कि नाम के अभ्यास स्वरूप इस सेवा के बदले सद्गुरु से केवल नाम मांगना चाहिए।’ यदि सेवक यह कहे कि इस सेवा के बदले मुझे कोई दुनियावी पदार्थ चाहिए तो इससे उसके अहंकार का ही संवर्धन होगा जो उसके लिए अहितकर है। नाम के अभ्यास का लक्ष्य अहंकार का निमज्जन है, आपा-भाव को खोना है न कि उसे और मज़बूत करना। अतः सेवक को सिर्फ नाम ही मांगना चाहिए, नाम की भक्ति से ही अडोलता की प्राप्ति होती है। इससे पता चलता है कि बाणी में जहां भी ‘मन’ पद आए उसमें ‘चित्त’ का समाहार समझना चाहिए। गुरू साहिब सरमखंड में मन के निर्माण की सूचना देते हैं तो चित्त उसमें अंतर्वलित समझना चाहिए। जब मन घड़ा जायेगा तो चित्त का निर्माण अवश्य होगा। जब धन बटुए में आयेगा तो उसका कुछ भाग तिजोरी में भी जाएगा। अतः अंतःकरण तीन प्रकार का ही होता है, केवल सूक्ष्म दृष्टिकोण से उसके चार अंग दिखाई देते हैं।
लेकिन इतने भर से चित्त के संबंध में हमारी समस्याओं का समाधान नहीं होता। उपनिषदों में ‘कारण शरीर’ को ‘कर्माशय’ (the receptacle or substratum of Karma) कहा गया है। दूसरी ओर योग दर्शन के अनुसार कर्मों के कारण निर्मित वासनाओं और संस्कारों के भंडार चित्त में रहते हैं। इससे यह भ्रम भी पैदा हुआ है कि ‘कारण शरीर’ और ‘चित्त’ एक ही सत्ता के दो नाम हैं। श्री एन. सी. पंडा लिखते हैं, “कारण शरीर चित्त को ऐसे कैन्वस के रूप में संघटित करता है जिस पर कर्मों के चिन्ह अंकित होते हैं, और जिस पर जीवात्मा अध्यक्ष के रूप में विराजमान होता है। चित्त संरचना विकास, अपेक्षित आनुवंशिक उत्परिवर्तनों और जन्मजात व्यवहार हेतु कार्यक्षेत्र (field) का निर्माण करता है।”(N.C.Panda कृत Cyclic Universe, पृ -729) किन्तु हमारी समझ के अनुसार यह विचार उचित नहीं है। मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार -ये चारों अंतःकरण का भाग हैं और अंतःकरण सूक्ष्म अथवा लिंग शरीर का निर्माण करता है। अतः चित्त का संबंध सूक्ष्म शरीर से है न कि कारण शरीर से। सूक्ष्म शरीर में स्थित यह चित्त ही समस्त सूचना का संचय करता है और इस सूचना को मानसिक रूपों और व्यक्तिगत व जातिगत व्यवहार में अनूदित करने के लिये अपेक्षित कार्यक्षेत्र को तैयार करता है। जहां तक कारण शरीर का प्रश्न है, उपनिषदों में कारण शरीर को ‘कर्माशय’ (substratum of Karma) कहा गया है। वहाँ ‘कर्म’ का अर्थ त्रिगुणात्मिका माया है। माया की परिभाषा उपनिषदों में ‘नाम, रूप और कर्म’ के रूप में दी गई है। गुरु नानक देव जी ने भी माया को कर्म कहा है : नानकु माइआ करम बिरखु …….॥(1-1290) भगवद्गीता में भी दो स्थानों पर ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग ‘माया’ के लिये किया गया है। पहला उल्लेख चौथे अध्याय के सोलहवें से अठाहरवें श्लोक तक के तीन श्लोकों में कर्म, अकर्म और विकर्म की मीमांसा के संदर्भ में है। अन्यत्र हमने विस्तारपूर्वक बताया है कि वहाँ ‘कर्म’ पद का प्रयोग माया के लिये, ‘अकर्म’ पद का प्रयोग त्रिगुणातीत सत्ता नाम के लिये और ‘विकर्म’ पद का प्रयोग त्रिगुणात्मिका माया को उत्पन्न करने और इसका शासन करने वाली सत्ता शब्द के लिये हुआ है। इसी प्रकार 8.3 में प्राणियों की सत्ता को प्रकट करने वाले विसर्ग को कर्म बताया गया है, इसमें भी ‘कर्म’ का अर्थ माया ही है। ध्यान रहे कि सर्ग और विसर्ग में अंतर होता है। बुद्धि, मन, पंचमहाभूत, चार मूलभूत बलों, तरंगाणु, सूक्ष्म कणों, आकाशगंगाओं, तारों, ग्रहों, उपग्रहों, तत्त्वों, अणुओं, आदि की उत्पत्ति को सर्ग कहते हैं। दूसरी ओर जीव सृष्टि की रचना को विसर्ग कहते हैं। ‘वि+सर्ग’ से बने शब्द ‘विसर्ग’ में ‘वि’ प्रत्यय ‘विपर्यय’ का अर्थ देता है अर्थात विसर्ग की प्रक्रिया सर्ग के विपरीत होती है। सर्ग में उत्पत्ति का क्रम मन-प्राण-जड़ होता है; विसर्ग में उत्पत्ति का क्रम सर्ग के विपरीत अर्थात जड़-प्राण-मन होता है। सर्ग की प्रक्रिया के दौरान प्रत्येक सृष्टि-चक्र में ब्रह्मांड की पूर्व योजना की पुनरावृति होती है, ‘यथापूर्वमकल्पयत्’(ऋग्वेद : 10.190.3); विसर्ग की प्रक्रिया में प्रत्येक सृष्टि-चक्र में ब्रह्मांड में संयोग (chance), संभाव्यता (probability) और यादृच्छिकता (randomness) की प्रवृतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। विसर्ग में हर एक जीव की रचना उसकी अपनी वासना के अनुसार होती है, इसलिये विसर्ग में जीव के पौरुष अथवा कर्म का योगदान रहता है। इससे ‘विसर्ग’, ‘कर्म’ और ‘माया’ पदों की निकटता का पता चलता है। अतएव ‘कारण शरीर’ जिस ‘कर्म’ का आश्रय बनता है वह ‘कर्म’ ‘माया’ है। कारण शरीर ही बंधनग्रस्त आत्मा अर्थात जीव और मुक्तात्मा अर्थात ईश्वर/शब्द का निवास-स्थान है। ईश्वर/शब्द माया का आश्रय (substratum) है, माया ईश्वर/शब्द की आश्रित (substrated) है। इस तरह जीव और ईश्वर/शब्द -दोनों ही मायोपहित (conditioned by Maya) चैतन्य हैं, दोनों में अंतर यह है कि जीव माया से विमोहित हो जाता है जबकि ईश्वर/शब्द माया से उपहित (conditioned) होते हुए भी उससे मुक्त रहता है।
चित्त, मन और कर्म के पारस्परिक संबंधों को जानने के लिए गुरु नानक देव जी की निम्नलिखित पंक्ति दृष्टव्य है :
काइआ कागदु मनु परवाणा ॥ सिर के लेख न पड़ै इआणा ॥
दरगह घड़ीअहि तीने लेख ॥ खोटा कामि न आवै वेखु ॥(1-662)
जिस तरह एक हुक्म होता है, दूसरा कागज होता है जिस पर हुक्म लिखा जाता है, तीसरा महकूम है जिसने हुक्म के अधीन चलना है। महकूम जीव है, मन हुक्म है और शरीर मानों कागज है। जीव ने जो कुछ भी किया उसे लिखा जा चुका है; जीव जो कुछ भी कर रहा है उसे लिखा जा रहा है; जीव ने जो कुछ भी करना है वह लिखा जा चुका है। ये तीन प्रकार के लेख ही संचित, क्रियामाण और प्रारब्ध के लेख हैं जिन्हें दरगाही नियम के अनुसार लिखा जाता है। जो भी संचित और क्रियामाण कर्म हैं वे चित्त में रिकॉर्ड होते हैं। यदि हम इन कर्मों को बीज कहें तो चित्त को उपजाऊ भूमि कहेंगे जो एक भी बीज को व्यर्थ नहीं जाने देती। समय आने पर ये बीज अंकुरित होते हैं जिनकी फसल जीव को काटनी होती है, ऐसे अंकुरित कर्म प्रारब्ध बनते हैं। ऐसे प्रारब्ध कर्म चित्त से निकल कर सतह पर मन में आ जाते हैं और अपनी प्रकृति के अनुकूल मन को ढाल लेते हैं। चूंकि शरीर मन का परिणाम मात्र है अतः जीव को उन कर्मों के भुगतान के अनूकूल ही शरीर भी प्राप्त हो जाता है। इससे गुरु जी के इस कथन की पुष्टि होती है कि काया कागज है और मन इस कागज पर लिखा गया हुक्म है। गुरु जी के कथन से यह भी पता चलता है कि भले ही कर्म और फल के सिद्धांत की प्रकृति प्रतिशोधात्मक (retributive) प्रतीत होती है किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। किस कर्म का क्या फल मिलेगा इसमें केवल कर्म की प्रकृति नहीं अपितु विधाता की इच्छा निर्णायक होती है। परमात्मा की शक्ति कर्मों के अनुसार विधान बनाती है, यह शक्ति निश्चित करती है कि किस कर्म के अनुरूप किस फल का विधान होना चाहिए, किस विधान को कब समाप्त करना है और कब क्या नया विधान लिखना है, इस विषय में यह शक्ति निरंकुश है। बाल बुद्धि वाला जीव इन लेखों से अनजान है, मनमति करता है और भूल जाता है कि खोटे सिक्कों के समान खोटे कर्म भी किसी काम नहीं आते। जीव के लिए उचित यह होगा कि उसे जो भी सुख-दुख, हानि-लाभ आदि प्राप्त हुआ है वह उसे अपने कर्मों का और प्रभु की कृपा का परिणाम समझे।
चित्त की तुलना एक ब्रह्मांडीय दृश्य-श्रव्य टेप से की जा सकती है जिस पर जीव की समस्त वासनाएं अभिलिखित होती रहती हैं। यह वासना-पिंड कोई अपरिवर्तनशील अभिलेख नहीं है। यह एक संचयी अभिलेख है जिसमें पुराने चिन्ह लुप्त होने और नये चिन्ह उत्कीर्ण होने की प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है। चित्त वासना पिंड है, मन संस्कार पिंड है। वासना पिंड में उन अनंत कर्मों का ढेर रहता है जिनके भोग का अवसर भविष्य में कभी आयेगा; संस्कार पिंड में वे कर्म रहते हैं जिनके भुगतान का अवसर अब निकट आ गया है। बाणी में इस प्रक्रिया को ‘पूर्व कर्मों का अंकुर प्रकट होना’ या ‘पूर्व कर्मों के लेख उघड़ना’ कहा गया है। जब तक चित्त अथवा वासना पिंड कायम है तब तक जीव को परमगति तो क्या सद्गति भी नहीं मिलती, उसकी ऊंची-निचली योनियों में जाने की विवशता बनी रहती है। निरंतर साधन-अभ्यास के परिणामस्वरूप इस वासना-पिंड का नाश हो जाता है, यह जीव की सद्गति की अवस्था है, कर्मों का ऋण समाप्त हो जाने के कारण अब उसकी निचली योनियों में जाने की संभावना समाप्त हो जाती है। किन्तु इतने पर भी कारण-शरीर ज्यों-का-त्यों कायम रहता है जिससे जीव का माया से आश्लेषण और जन्म-मरण बना रहता है और परमगति सुलभ नहीं हो पाती है। यह कार्य प्रभु की अहेतुकी कृपा से, उसके प्रसाद से होता है।
(शेष आगे)
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Good reading.