In our physical world, electromagnetism, strong nuclear force, weak nuclear force and gravity are the four great forces without which the existence of the world and the living beings of the world is impossible. If the Sarmakhand, told by Guru Nanak Dev, is the causal world of our Universe, then these four forces should exist there. Can any evidence of their existence be found in Sarmakhand? Read on Karta Purush 26 to know more about this.
हमारे भौतिक जगत् में विद्युत चुम्बकत्व, प्रबल नाभिकीय बल, दुर्बल नाभिकीय बल और गुरुत्वल चार महान बल हैं जिनके बिना जगत् और जगत् के जीवों का अस्तित्व असंभव है। यदि गुरु नानक देव द्वारा बताया गया सरमखंड हमारे जगत् का कारण मंडल है तो इन चारों बलों का अस्तित्व वहाँ होना चाहिए। क्या सरमखंड में इनके अस्तित्व के कोई प्रमाण खोजे जा सकते हैं? यह जानने के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 26.
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बुद्धि महत् है अर्थात यह महान तत्त्व है। यह सांख्योक्त अव्यक्त प्रकृति का पहला विकार है। इस अवस्था में प्रकृति के तीनों गुण मिश्रित अवस्था में होते हैं जिससे प्रकृति की तुलना में महत् व्यक्त है। ध्यान रहे कि इसमें तीनों गुण मिश्रित तो होते हैं किन्तु उनमें असंतुलन नहीं होता है। एक तरफ सत्वगुण का प्रकाश प्रकट होता है तो दूसरी तरफ उतने ही परिमाण में तमोगुण का अंधकार भी सक्रिय होता है। इन दोनों के, और साथ ही समतुल्य परिमाण में रजोगुण के मिश्रण के कारण महत् तत्त्व की तुलना उषाकाल से की जा सकती है जब अंधकार और प्रकाश की समान मात्रा के कारण चहुं ओर अति सुंदर मन्द दीप्ति पसर जाती है। हम देख चुके हैं कि आदिग्रंथ की बाणी में अव्यक्त प्रकृति की तुलना वायु से और महत् तत्त्व की तुलना जल से की गई है। पुनः ‘वैदिक भौतिकी’ के लेखक ने महर्षि दयानंद सरस्वती के हवाले से लिखा है कि महत् तत्त्व कारण विद्युत है अर्थात महत् तत्त्व विद्युत का सूक्ष्मतम रूप है। इससे पता चलता है कि महत् तत्त्व ब्रह्मांड में - और ‘ब्रह्मांड’ से हमारा संकेत केवल भौतिक जगत् से ही नहीं अपितु इसके कारणभूत प्राणिक (astral) और मानसिक जगत् से भी है - सर्वत्र फैले एकरस व अविक्षुब्ध जल के समान है जो अव्यक्त प्रकृति के घने अंधकार की अवस्था के विपरीत अवर्णनीय दीप्ति से युक्त होता है। महत् तत्त्व के इसी महान, प्रशान्त और प्रदीप्त रूप में अनंत ब्रह्म प्रतिबिंबित होता है जिसे ईश्वर/शब्दब्रह्म कहा जाता है। तत्पश्चात यही शब्दब्रह्म महत् तत्त्व के अल्प रूप में प्रतिबिंबित होता है जिसे जीव कहा जाता है। इस अवस्था में ब्रह्म/नाम और ईश्वर/शब्द में तो भेद उपस्थित हो जाता है किन्तु ईश्वर और जीव में भेद उपस्थित नहीं होता है। ब्रह्म/नाम की अवस्था ‘सः अहं अस्मि’ (I am That) की है, ईश्वर/शब्द की अवस्था ‘इदं अहं अस्मि’ (I am This) की है। हाँ, यह ‘इदं’ (This) व्यक्तिगत (particular) नहीं अपितु सार्वभौमिक (universal) ‘सर्वं इदं’ (All-This) है। दूसरी ओर जीव यद्यपि महत् तत्त्व के अल्प रूप में प्रतिबिंबित होता है तो भी, स्वरूप की शक्ति के लिहाज से तो नहीं लेकिन स्वरूप के लिहाज से जीव व ईश्वर/शब्द समान होते हैं। फिर जीव को यह ज्ञान होता है कि उसके सीमित रूप के पीछे प्रभु के महान रूप/ईश्वर की ही महिमा है। यह ज्ञान इसी शुद्ध बुद्धि, महत्, के कारण है। यदि हम सरम खंड को आत्मा के उत्थान के दृष्टिकोण से देखें तो इस पउड़ी की अंतिम पंक्ति इसी विषय के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचना देती है। आप कहते हैं :
तिथै घड़िऐ सुरा सिधा की सुधि ॥
'वहां घड़ी जाती है वह दिव्य बुद्धि जो देवताओं व सिद्ध पुरुषों को सुलभ होती है।' यह ‘सुधि’ इसी महत् के कारण है। यह जीव की अहं रहित व एकरस, अखंड ज्ञान की अवस्था है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :
जौं सबके रहे ग्यान एकरस । ईश्वर जीवहि भेद कहहु कस ।।(रामo 7/78-5)
‘जब जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान अडोल रूप से हो जाता है तो उसमें और ईश्वर में अभेद हो जाता है।’ ऐसे में वह साधारण मनुष्य न रहकर देवता और सिद्ध पुरुषों के समान हो जाता है। उसकी चेतना का नवनिर्माण होता है और वह पूर्णता का दर्जा प्राप्त कर लेती है, लेकिन चूंकि यहाँ ईश्वर और ब्रह्म में भेद भी होता है अतः इस पूर्णत्व में एक गहन अधूरापन छिपा हुआ है। साधक व परमात्मा में प्रकृति के इस शुद्ध रूप का ही सही लेकिन एक पर्दा शेष है। यह पर्दा परमात्मा की कृपा से दूर होता है। यह कृपा प्रभु की स्वतंत्र व स्वच्छंद इच्छा से आती है। राम सिंह लिखते हैं, “कृपा तो प्रभु की इच्छा से आयेगी। जिन पर यह कृपा हो जाये, वही करमखंड के यात्री बन सकते हैं, पहले कभी नहीं, चाहे वे कितने भी उच्च दर्जे के सिद्ध, सुर या साधक बन जायें। 'सुर' शब्द में अत्यंत पावन संस्कार जुड़े हुए हैं, यदि कोई व्यक्ति 'सुरों' जैसा पवित्र भी हो जाये, अर्थात् पांच विकारों, हउमै व माया के प्रभाव से मानव सामर्थ्य की अंतिम सीमा तक निकल आये, वह कृपा के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। 'सुरा' व 'सिद्धा' जैसी चेतना पैदा करके सरमखंडी साधक एक ऐसे अनुपम ढांचे में ढला है जिसका रूप अकथ है, पर फिर भी कृपा करम के बिना उसका कोई मोल नहीं। कृपा का मूल्य सभी पवित्रात्माओं से अनेक गुणा अधिक है और यह निरोल दात है।'' (राम सिंह, 'जपुजी दे पंज खंडां दा बहुपखी अध्ययन' पृ-244)
प्रकृति के तीनों गुण मिश्रित अवस्था में होने के कारण यह पदार्थ सत्व गुण के कारण संयोग और तमोगुण के कारण वियोग के गुणों से युक्त होता है अर्थात इसमें आकर्षण और विकर्षण की शक्तियां अपने बीज रूप में होती हैं किन्तु अहं का अभाव होने के कारण यह पदार्थ अविक्षुब्ध होता है जिससे ये गुण पदार्थों का निर्माण नहीं करते हैं। यह पदार्थ सृष्टि में उत्पन्न प्रथम पदार्थ है जो बल, क्रिया आदि का बीजरूप है और सभी पदार्थों को नियंत्रित करने, धारण करने और संरक्षित करने में सक्षम होता है। इस पदार्थ को विद्युत का सूक्ष्मतम रूप कहा गया है। जहां विद्युत होती है वहाँ चुंबक के गुण भी अवश्य ही होंगे। हमारे भौतिक जगत् में प्रवाहित इलेक्ट्रान चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण करते हैं और प्रचक्रित (spinning) चुंबक विद्युत धारा के प्रवाह को सुनिश्चित करती है। इन दो महत्वपूर्ण बलों की परस्पर संक्रिया को विद्युत चुम्बकत्व (electromagnetism) कहते हैं। इसी बल के कारण भौतिक जगत् में आणविक गोले (atomic shell) में इलेक्ट्रान आणविक न्यूक्लाइ से जुड़े रहते हैं; नाभिकीय प्रोटॉन और कक्षीय इलेक्ट्रान अंतःक्रिया करते हैं; और रासायनिक व जैव रासायनिक अभिक्रियाएं होती हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि महत् तत्त्व में अन्य अनेक लक्षणों के साथ-साथ हमारे भौतिक जगत् के निर्माण के लिये अपरिहार्य विद्युत चुम्बकीय बल के मानसिक सदृश होने का लक्षण भी है। मानसिक जगत् सरमखंड में महत् तत्त्व में निहित ऐसे ही बल के कारण चैतन्य तत्त्व इसकी ओर आकर्षित होता और इससे जुड़ता है जिससे प्रकृति के भावी क्रमविकास के लिये आधारशिला तैयार होती है।
महत् तत्त्व के पश्चात अव्यक्त प्रकृति का दूसरा विकार अहंकार कहलाता है। अहंकार विविधता का नियम है। इस चरण में प्रकृति की एकरसता भंग हो जाती है और विविधता उत्पन्न हो जाती है। इस विविधता के दो आयाम हैं। पहला आयाम चैतन्य तत्त्व से संबंधित है। जहां महान बुद्धि के चरण में जीव और ईश्वर/शब्द की चेतना का प्रधान लक्षण ‘इदं अहं अस्मि’ (I am This) का होता है और यह ‘इदं’ (This) व्यक्तिगत (particular) नहीं अपितु सार्वभौमिक (universal) ‘सर्वं इदं’ (All-This) होता है, वहीं इस नवीन चरण में जीव की चेतना का लक्षण तो ‘इदं अहं अस्मि’ (I am this) का ही रहता है किन्तु यह ‘इदं’ (this) सार्वभौमिक (universal) न रहकर व्यक्तिगत (particular) हो जाता है। इसमें जीव को ईश्वर/शब्द से अपनी भिन्नता का अज्ञान हो जाता है। अतएव यह माया/प्रकृति द्वारा जीव के निज-स्वरूप के ज्ञान के अपहरण की दशा है, मायया अपहृतज्ञाना । विविधता का दूसरा आयाम प्रकृति से संबंधित है। जहां महान बुद्धि के चरण में प्रकृति के तीनों गुण मिश्रित और संतुलन की अवस्था में थे जिससे वह तत्त्व सम्पूर्ण अवकाश रूप आकाश में एकरस होकर भरा रहता है अर्थात उसमें कोई उतार-चड़ाव नहीं होता। वहीं अहंकार तत्त्व प्रकृति को सत्व, रजस् और तमस् की प्रधानता से क्रमशः सात्विक अहंकार, राजसिक अहंकार और तामसिक अहंकार नाम वाले तीन भागों में बाँट देता है। सत्व गुण में आकर्षण की प्रधानता है, तमोगुण में विकर्षण की प्रधानता है जबकि रजोगुण दोनों में से किसी एक गुण के साथ रहकर उसकी शक्ति को बड़ाता और दूसरे गुण की शक्ति को कम करता है, अतएव इस चरण में प्रकृति में संयोग-वियोग के गुण सक्रिय हो जाते हैं। महत् कामना अर्थात आकर्षण बल से युक्त है और उसकी कामना सर्वग्राही (All-this) होगी किन्तु अहंकार में आकर्षण-विकर्षण, राग-द्वेष दोनों बल होंगे। हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि हमारे भौतिक जगत् में प्राप्त होने वाले प्रबल नाभिकीय बल (strong nuclear force) और दुर्बल नाभिकीय बल (weak nuclear force) के मानसिक सदृश इसी चरण में उत्पन्न होते हैं। हम जानते हैं कि प्रबल नाभिकीय बल के कारण ही प्रोटॉन और नूट्रान कणों का निर्माण होता है; परमाणु के नाभिक का अस्तित्व सुनिश्चित होता है; और क्वारक्स (quarks) प्रोटोन और नूट्रान को बनाये रखते हैं। दूसरी ओर, दुर्बल नाभिकीय बल के कारण सूर्य में दाह क्रिया होती है जिससे प्रकाश और ताप की उत्पत्ति होती है। ब्रह्मांड में इतने महत्वपूर्ण बलों का बीज इसी कारण जगत् (causal world) में प्राप्त होता है।
प्रकृति में अहं की उत्पत्ति के पश्चात मोह उत्पन्न होता है। हम देख चुके हैं कि मोह मन में किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान के प्रति अनुराग का भाव मात्र नहीं है, मोह वस्तुतः वास्तविकता की विपरीत, विकृत समझ है। धर्मग्रंथों में कहीं तो बुद्धि के मोहग्रस्त होने का कथन किया गया है और कहीं मन के मोहग्रस्त होने की बात कही गई है। इस विषय में यह जान लेना चाहिए कि बुद्धि की गति अहंकार है और अहंकार की गति मन है। अहंकार के कारण बुद्धि के अशुद्ध स्वरूप को मन कहा गया है और बुद्धि की अशुद्धता के कारण उसमें उत्पन्न विपर्यय (antithesis, reversal, opposite) को मोह कहा गया है। हम यह भी कह सकते हैं कि अहंग्रस्त बुद्धि को अहंकार कहा गया है जबकि मोहग्रस्त बुद्धि को मन कहा गया है। इसलिए बुद्धि का मोहग्रस्त होना और मन का मोहग्रस्त होना एक ही बात है। एक बार फिर से बता दें कि महत्, अहंकार और मन -इन तीनों रूपों में बुद्धि ही होती है। अहं से रहित विशुद्ध बुद्धि को महत् कहते हैं; अहंग्रस्त बुद्धि को अहंकार कहते हैं; मोहग्रस्त बुद्धि को मन कहते हैं। बुद्धि के चंचल होने से जीव अहं/अविद्या/माया के पाश से बँधता है जबकि अहं के चंचल होने से जीव मोह/मम/ममत्व के पाश से बँधता है। मन और मोह पर्यायवाची शब्द हैं। मोह मन का स्वरूप है। मन और मोह एक ही तत्त्व अर्थात अहंग्रस्त बुद्धि के दो भिन्न-भिन्न नाम मात्र हैं।
हमने लिखा है कि मन/मोह के उत्पन्न होने पर जीव की वास्तविकता की समझ विपरीत हो जाती है। ऐसा क्यों होता है? इसका उत्तर बीसवीं सदी में भौतिक विज्ञान में हुईं खोजों ने भली प्रकार दिया है। आइन्सटाइन के सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार समय और स्थान (time and space) निरपेक्ष नहीं हैं। वे दृष्टा (observer) और दृश्य वस्तु (thing being observed) के सापेक्ष हैं। दृष्टा और दृश्य वस्तु की गति के अनुसार समय-स्थान में परिवर्तन आता है। ब्रह्मांड में प्रकाश की गति सर्वाधिक है और हम इस गति को छू भी नहीं पाते हैं किन्तु जितना अधिक प्रयत्न करते हैं, दृष्टा (observer) के लिये उतने अधिक विरूपित होते जाते हैं। इस सिद्धांत को स्पष्ट करने के लिये बर्ट्रांड रुसेल ने एक प्रसिद्ध उदाहरण दी थी। उसके अनुसार यदि कोई 100 गज लंबी ट्रेन प्रकाश की गति के 60 प्रतिशत तक अर्थात 1,80,000 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति से चल रही हो तो प्लेटफॉर्म पर खड़े व्यक्ति को वह ट्रेन केवल 80 गज लंबी दिखाई देगी और उस ट्रेन में रखी हुई प्रत्येक वस्तु भी उसे उसी अनुपात में सम्पीड़ित (compressed) प्रतीत होगी। यदि वह ट्रेन के यात्रियों की आवाज सुन सके तो उसे वे आवाजें भी अस्पष्ट (slurred) और मंथर (sluggish) सुनाई देंगी जैसे किसी रिकॉर्ड को बड़ी धीमी गति से बजाया जा रहा हो। उसे उनकी गतिविधियां भी श्रमसाध्य (ponderous) प्रतीत होंगी। यहाँ तक कि ट्रेन में रखी घड़ियाँ भी अपनी सामान्य गति के 80 प्रतिशत धीमे चल रही प्रतीत होंगी।
यह सिद्धांत मोह/मन की उत्पत्ति की समझ के लिये उपयोगी है। हम जान चुके हैं कि मोह जीव की बुद्धि में उत्पन्न ‘वास्तविकता का विपरीत बोध’ है। महत् की अवस्था में ब्रह्मांड में शब्द/ईश्वर दृष्टा है। शब्द/ईश्वर के समान ही जीव भी दृष्टा है जबकि महत् तत्त्व दृश्य है और यह अचंचल है जिससे भ्रम की गुंजायश नहीं होती। जब जीव अहंग्रस्त होगा अर्थात वह दृश्य प्रकृति में स्थित होगा तो शब्द/ईश्वर को एक प्रेक्षक (observer) के समान देखेगा। अब शब्द/ईश्वर प्रकृति से अधिक गतिशील है। श्रुति कहती है कि वह मन से भी ज्यादा गतिमान है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उस गतिशील सत्य की जीव की समझ विकृत ही होगी। वह समझ कितनी विकृत होगी इसके बारे में हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं। हम केवल यह कह सकते हैं कि ज्यों-ज्यों जगत् का क्रमविकास होगा, शब्द की गति तो अक्षुण्य रहेगी किन्तु प्रकृति की गति, उसके निरंतर स्थूल होते जाने के कारण, निरंतर कम होती जाएगी। इसका अर्थ हुआ कि जगत् के क्रमिक विकास के साथ-साथ मोह बढ़ता चला जाएगा और हमारे इस भौतिक जगत् में यह सर्वाधिक प्रचंड होगा।
इस संबंध में ध्यान रहे कि उपर्युक्त विचार सरणि के अनुसार मोह/मन का संबंध केवल जीव से ही सिद्ध होता है। जीव गतिशील शब्द को देखता है, सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार उसमें वास्तविकता की गलत समझ अर्थात मोह की उत्पत्ति होती है जिससे मन, मनोमय पुरुष की उत्पत्ति होती है जो आगे पिंड में प्राणमय पुरुष - जो पिंड में ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों को उत्पन्न करता है - और तदुपरांत अन्नमय पुरुष - जो स्थूल काया का निर्माण करता है - को उत्पन्न करता है। किन्तु मन का संबंध केवल पिंड से ही नहीं है, इसका संबंध ब्रह्मांड से भी है। मनोमय पुरुष पिंड और ब्रह्मांड दोनों में होता है और ऐसा होना अनिवार्य भी है क्योंकि दोनों की योजना एक ही है, ‘जो ब्रह्मांडे सोई पिंडे’। ऐसे में प्रश्न उठता है कि पिंड में तो जीव की वास्तविकता की गलत समझ के कारण मोह की उत्पत्ति होती है जिससे पिंड में मनोमय पुरुष का निर्माण होता है किन्तु ब्रह्मांड में ब्रह्मांडीय मनोमय पुरुष का निर्माण कैसे होता है? इस समस्या का समाधान भी सापेक्षता सिद्धांत में ही है। दृश्य प्रकृति में स्थित और अहंग्रस्त जीव ही शब्द/ईश्वर को एक दृष्टा के रूप में नहीं देखेगा अपितु शब्द/ईश्वर भी समस्त ब्रह्मांड में फैली प्रकृति को एक दृष्टा के रूप में देखेगा। हम ट्रेन की उदाहरण को फिर देखें। प्लेटफॉर्म पर खड़े व्यक्ति को वह ट्रेन, उसमें सवार यात्री और उसमें रखी प्रत्येक वस्तु तो सम्पीड़ित, विकृत दिखाई देगी किन्तु ट्रेन में सवार लोगों को इस विरूपण (distortion) का कोई आभास नहीं होगा। उन्हें सब कुछ वैसा ही दिखाई देगा जैसा वह वास्तव में है। दूसरी ओर उन्हें प्लेटफॉर्म पर खड़े लोग विचित्र प्रकार से सम्पीड़ित और सुस्त लगेंगे। कारण, वास्तविकता (reality) की हमारी समझ गतिशील वस्तु के सापेक्ष हमारी स्थिति पर निर्भर करती है। अतएव, प्रकृति के दृष्टा शब्द/ईश्वर के प्रेक्षण कर्म (act of observation) के कारण समस्त प्रकृति तत्त्व में मन की उत्पत्ति होगी। यही ब्रह्मांडीय मनोमय पुरुष है जो आगे ब्रह्मांडीय प्राणमय और अन्नमय पुरुष को उत्पन्न करता है। यहाँ इस बात को स्मरण रखने की आवश्यकता है कि शब्द/ईश्वर द्वारा प्रकृति के प्रेक्षण कर्म के दौरान दृष्टा को दृश्य वस्तु के अवास्तविक रूप की प्रतीति होगी किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि शब्द/ईश्वर अपनी ज्ञानमयी स्थिति से च्युत हो जाएगा। शब्द/ईश्वर अच्युत है, वह अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता क्योंकि वह अल्प बुद्धि में नहीं अपितु महान बुद्धि, महत्, में आभासित हो रहा है। शब्द/ईश्वर इस प्रेक्षण कर्म का प्रयोग सृष्टि के सृजन कर्म के लिए करता है। इससे बाणी के इन वक्तव्यों की सत्यता सिद्ध होती है कि जीव को अहं और मोह का रोग परमात्मा ने ही लगाया है।
आइन्सटाइन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत में दिये गये सभी प्रत्ययों में सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण प्रत्यय यह है कि समय स्थान (space) का एक भाग है। समय स्थान (space) के तीन आयामों से संबंधित है। अर्थात स्थान (space) की लंबाई, चौड़ाई और गहराई है और समय (Time) इसके साथ बड़े विचित्र आयाम के साथ जुड़ा हुआ है। इस प्रकार समय और स्थान दो नहीं अपितु एक ही हैं जिसे समय-स्थान अथवा दिक्-काल (space-time) कहा गया है। यदि हम ब्रह्मांड को एक गद्दा कहें तो समय और स्थान को इसका ताना-बाना (warp and woof) कहेंगे। ब्रह्मांड रूपी इस गद्दे में जो भी स्थूल (massive) वस्तुएं हैं वे अपने द्रव्यमान के अनुरूप गड्डा बनाती हैं जिससे ब्रह्मांड रूपी गद्दे में अनियमितता पैदा होती है और गुरुत्वबल पैदा होता है। इस तरह गुरुत्वबल कोई बल (force) नहीं बल्कि यह दिक्-काल की वक्रता का उप-उत्पाद है। यह कहा गया है कि गुरुत्वबल का कोई अस्तित्व ही नहीं है, दिक्-काल में वक्रता ही ग्रहों और तारों को अग्रसर करती है।
अब यदि हमारे भौतिक जगत्, जिसे गुरु नानक देव ने धर्मखंड कहा है, में दिक्-काल की वक्रता (curvature) ही गुरुत्वबल है और दूसरी ओर सरमखंड, जो धर्मखंड का कारण है, में दिक्-काल की वक्रता ही ‘मोह’ है तो ऐसा सुझाव देना अनुचित नहीं होगा कि भौतिक मंडल धर्मखंड में जो गुरुत्वबल है, मानसिक मंडल सरमखंड में वही ‘मोह’ है। ‘मोह’ गुरुत्वबल का मानसिक समकक्ष है। ‘मोह’ एक मानसिक विकृति मात्र नहीं, यह एक ‘पदार्थ’ है जो सरमखंड में सदवस्तु को एक मरोड़ देता है जिसके परिणामस्वरूप भ्रम की सृष्टि होती है। हमारे भौतिक मंडल में यदि गुरुत्व बल नहीं होगा तो आकाशगंगाओं, ग्रहों और उपग्रहों का निर्माण नहीं होगा। यहाँ तक कि मानव शरीर का निर्माण भी नहीं होगा क्योंकि गुरुत्वबल के अभाव में कोशिकाएं और उप-कोशिकीय घटक इधर-उधर बिखर जाएंगे। ऐसे ही यदि ‘मोह’ नहीं होगा तो ‘अहं’ भी नहीं होगा और तब पिंड भी नहीं होगा। जीव की अलग सत्ता नहीं होगी और यह विविधतापूर्ण जगत् भी नहीं होगा।
झोल खाते गद्दे की इस उदाहरण में केवल त्रिविमीय आकाश को ही परिगणित किया गया है, काल (time) के चौथे आयाम के प्रभाव को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया। यदि भौतिक जगत् में दिक् व काल अत्यंत पेचीदा रीति से परस्पर गूँथित हैं और हमारी बुद्धि इनके पारस्परिक संबंधों के बारे में और वास्तविकता (reality) पर काल के प्रभाव के बारे में अनुमान लगा पाने में असमर्थ है तो सरमखंड और ज्ञानखंड जैसे दिव्य मंडलों के संबंध में यह असमर्थता कितनी तीव्र होगी इसका अनुमान सहजे ही लगाया जा सकता है। ऐसे में यही बेहतर है कि इस विषय में विचार को यहीं रोक दिया जाये।
(शेष आगे)
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