Darwin's evolution theory was limited only to the evolution of species. But the science of the twentieth century has expanded the concept of evolution by making promising advances in cosmology, astrophysics, particle physics, molecular biology, etc. Today's science talks about the evolution of the entire universe. Sankhya and Vedanta also presented the same idea. Shankaracharya says that this universe is made gradually and not simultaneously. Just as the universe originated sequentially, so has the origin of the body gradually. Not only is the method of creation of both the same, but the building blocks of both is also the same. Also, both the universe and the body originate simultaneously. Neither intellect nor ego are merely internal elements nor mind. These three elements are both universal and individual. For a thorough discussion on this topic, read Karta Purush 25.
डार्विन का क्रमविकास सिद्धांत केवल प्रजातियों के विकास तक ही सीमित था। किन्तु बीसवीं सदी के विज्ञान ने ब्रह्मांड विज्ञान, खगोल भौतिकी, कण भौतिकी, आण्विक जीवविज्ञान आदि में आशातीत प्रगति करके क्रमविकास की धारणा को विस्तृत कर दिया है। आज का विज्ञान समस्त ब्रह्मांड के विकास की बात करता है। सांख्य और वेदान्त ने भी इसी विचार को प्रस्तुत किया था। शंकराचार्य का कहना है कि यह ब्रह्मांड क्रमिक रूप से बना है न कि युगपत् रूप से। जिस प्रकार ब्रह्मांड की उत्पत्ति क्रमिक रूप से हुई है वैसे ही पिंड की उत्पत्ति भी क्रमिक रूप से ही हुई है। न केवल दोनों की रचना की विधि एक समान है अपितु दोनों की रचना की उपादान सामग्री भी एक ही है। साथ ही, ब्रह्मांड और पिंड दोनों की उत्पत्ति युगपत् रूप से होती है। न तो बुद्धि और अहंकार केवल आंतरिक तत्त्व हैं और न ही मन है। ये तीनों तत्त्व वैश्विक भी हैं और व्यक्तिगत भी हैं। इस संबंध में विस्तृत चर्चा के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 25.
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'जपुजी' की विचाराधीन 36वीं पउड़ी की कुल आठ पंक्तियों में से छह पंक्तियां सरमखंड का वर्णन करती हैं जिनमें से तीन में गुरु नानक देव जी ने किन्हीं पदार्थों के घड़े जाने की बात की है। ये हैं :
1. तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुत अनूपु ॥ (4)
अर्थः वहां बहुत सारी परम सुंदर घाड़तें अर्थात आकृतियाँ घड़ी जाती हैं।
2. तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥ (7)
अर्थः वहां आत्मा, बुद्धि, अहंकार व मन को घड़ा जाता है।
3. तिथै घड़ीऐ सुरा सिधा की सुधि ॥ (8)
अर्थः वहां घड़ी जाती है वह दिव्यबुद्धि जो देवताओ व सिद्ध पुरुषों को प्राप्त होने वाली वस्तु है।
हमारा यह सुनिश्चित मत है कि आठवीं पंक्ति जीवात्मा के आध्यात्मिक उत्थान के क्रम को बयान करती है, जबकि चौथी व सातवीं पंक्ति की विषयवस्तु सृष्टि में बढ़ती यौगिकता (involution) है। अतः ये दोनों पंक्तियां हमारी चर्चा के लिए हमारे समक्ष महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती हैं। इन दोनों पंक्तियों में से भी अभी तक हमने सातवीं पंक्ति पर ध्यान केंद्रित करके बुद्धि, अहंकार और मन की रचना का यथासंभव रूप से अध्ययन किया है जिसमें हमने अन्य ग्रंथों व दार्शनिक प्रणालियों विशेषरूप से सांख्य दर्शन की भरपूर सहायता ली है। यहाँ यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि ब्रह्म के संदर्भ में जो महत्व सति, नाम और शब्द के त्रिक का है, माया के संदर्भ में वही महत्व बुद्धि, अहंकार और मन के त्रिक का है। जैसे चैतन्य सत्ता सति सर्वोपरि और परम यथार्थ सत् है, नाम उसका अहं पक्ष है जबकि शब्द उसका मम पक्ष है; वैसे ही जड़ माया के संदर्भ में महत् अर्थात महान बुद्धि का स्थान सर्वोपरि है, अहंकार उसका अहं पक्ष है जबकि मन उसका मम पक्ष है। जिस प्रकार परमात्मा के संदर्भ में जगत् का समस्त खेल प्रभु सति का खेल है, वैसे ही माया के संदर्भ में जगत् का समस्त खेल बुद्धि का खेल है : चंचल चपल बुद्धि का खेलु ।।(1-142) भगवान् कृष्ण ने कहा है कि यह समस्त जगत् अहं से उत्पन्न होता है और मम से प्रवृत होता है। आपका यह कथन जगत् के दिव्य और अदिव्य दोनों पक्षों पर लागू होता है। नाम प्रभु सति का अहं है और नाम कारणब्रह्म अथवा जगत् की कारणावस्था है; शब्द प्रभु सति का मम पक्ष है और शब्द कार्यब्रह्म अथवा जगत् की कार्यावस्था है। ठीक ऐसा ही स्थान माया के अध्यास के संबंध में अहं/मैं/हउमै और मम/मोह/मन का है। बुद्धि में स्थित चैतन्य को हउमै के कारण जगत् का अध्यास होता है :
हउमै विचि जगु उपजै पुरखा ……।।(1-946)
और, मोह के कारण जगत् के कार्यों में उसकी प्रवृति होती है :
मोह कुटंबु मोहु सभ कार ॥(1-356)
जगत् में जिस प्रकार शब्द के उत्पन्न होने पर जगत् का दिव्य मूल उपस्थित हो जाता है जिसने अब काल की गति में अवश्य ही विकसित होना है वैसे ही मन के उत्पन्न हो जाने पर जगत् का अदिव्य मूल उपस्थित हो जाता है जिसको उचित समय आने पर देश-काल में अवश्य ही विस्तार पाना है। पुनः शब्द प्रभु सति की ज्ञानमयी करयत्री शक्ति है जो इसके समस्त कर्म को प्रभु के लिये सम्पन्न करती है, वैसे ही मन प्रकृतिस्थ जीव के हाथ में ज्ञान और कर्म का उपकरण है यद्यपि मन का ज्ञान वस्तुतः नाम-रूप का ज्ञान है और असल में अज्ञान ही है। इसी अज्ञानता के कारण मन का समस्त कर्म माया के पदार्थों के लिये होता है और जीव को जन्म-मरण का दंश झेलना पड़ता है।
इस तर्क से सरमखंड में बुद्धि, अहंकार और मन के त्रिक की उत्पत्ति की सूचना देकर गुरु साहिब ने जगत् के मूल की उत्पत्ति की सूचना दे दी है। इसके आगे ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियों, पाँच तन्मात्राओं व पाँच स्थूल तत्त्वों की उत्पत्ति का ही नहीं, आधुनिक वैज्ञानिक संकल्पनाओं के अनुरूप चार मूलभूत बलों, तरंगाणु, सूक्ष्म कणों, आकाशगंगाओं, तारों, ग्रहों, उपग्रहों, तत्त्वों, अणुओं आदि के विकास को भी हमें सांख्य दर्शन, वेदान्त, आधुनिक वैज्ञानिक खोजों व उसके साथ-साथ गुरबाणी में अन्यत्र दिये गये प्रमाणों के आधार पर जानना होगा।
सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल और उनके अनुयायिओं को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने अत्यंत प्राचीन काल में दुनिया में पहली बार यथार्थवादी और बहुलतावादी दृष्टिकोण अपनाकर उस समय जगत् के क्रमविकास (evolution) के विचार को प्रस्तुत किया जब जगत् की रचना के संबंध में मनुष्यों के विचार विचित्र प्रकार के थे। यहाँ ध्यान रहे कि इस अध्याय के प्रारम्भ में हमने एक चैतन्य व अरूप तत्त्व से अनेक जड़-चेतन रूपों की उत्पत्ति की प्रक्रिया को यौगिकता (involution) की संज्ञा दी थी जबकि यहाँ इस प्रक्रिया को क्रमविकास (evolution) कहा है। यौगिकता से हमारा आशय सृष्टि में क्रमिक बढ़ती जटिलता (the process of involving, an entanglement, intricacy) से है और यही अर्थ क्रमविकास का भी है। श्रीअरविन्द के अनुसार यौगिकता (involution) और क्रमविकास (evolution) दोनों भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं हैं। उनके अनुसार सच्चिदानंद ब्रह्मांड के रूप में उत्पन्न होने के लिये यौगिक (involutes) होता है और ब्रह्मांड क्रमिक रूप से विकसित (evolve) होकर अपनी मौलिक अवस्था में लौट आता है। किन्तु हमारे विचार में प्रकृति में बढ़ती यौगिकता ही ब्रह्मांड के क्रमविकास की गाथा है। सांख्य की प्रकृति भौतिक विज्ञान वाली प्रकृति नहीं है अर्थात यह प्रकृति केवल हमारे भौतिक जगत् का ही मूल नहीं है, अपितु यह जगत् के मानसिक और प्राणिक लोकों का भी उपादान है। यह प्रकृति ज्यों-ज्यों सरल से जटिल अवस्था की ओर प्रवृत होती है त्यों-त्यों ब्रह्मांड का विकास होता जाता है। यदि हम इस भौतिक जगत् को देखें तो प्रारंभ में यह सरल (featureless) और समरूप (homogeneous) था। सरल रूप धीरे-धीरे जटिल होते गये और समरूपता विविधता में बदलती गयी। निर्माण की प्रक्रिया में समरूपता (symmetry) का ध्वंस एक मूलभूत प्रेरक बल है। ज्यों-ज्यों ब्रह्मांड का क्रमविकास होता है त्यों-त्यों समरूपता कम होती जाती है और जटिलता बढ़ती जाती है। ज्यों-ज्यों ब्रह्मांड का लय होता है त्यों-त्यों समरूपता व सरलता बड़ती जाती है। अभी तक हमने प्रकृति में जो बुद्धि, अहंकार और मन की उत्पत्ति का अध्ययन किया है वह एक ओर तो प्रकृति में क्रमशः बढ़ती यौगिकता को दर्शाता है तो दूसरी ओर ब्रह्मांड के क्रमविकास को मानचित्रित करता है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि यौगिकता और क्रमविकास अपनी अनन्यता (exclusiveness) को खो कर एक-दूसरे से गड्डमड्ड हो जाएं अर्थात एक ही अर्थ को संप्रेषित करें। दूसरे, सांख्य का विकासीय अनुक्रम केवल व्यक्ति के विकास के संदर्भ में ही नहीं है, अपितु ब्रह्मांड व पिंड दोनों के निर्माण के संदर्भ में है। यद्यपि ऊपरी दृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि सांख्य और वेदान्त के ग्रंथों में दिये गये विवरणों में ब्रह्मांड के विकास पर सीमित रूप से ध्यान दिया गया है। अहंकार से सोलह विकासज (evolute) उत्पन्न होते हैं जिनमें से ग्यारह आंतरिक हैं और पाँच बाह्य हैं। आंतरिक विकासजों में से ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियाँ और एक मन है जबकि बाह्य विकासजों में पाँच तन्मात्राएं हैं जिनसे से प्रत्येक तन्मात्रा पदार्थ के पाँच स्थूल तत्त्वों में से एक का स्रोत बनती है। यदि हम इस क्रम को सतही रूप से देखें तो यह आधुनिक वैज्ञानिक संकल्पनाओं के अनुरूप नहीं है। इससे यह पता नहीं चलता कि चार मूलभूत बलों, तरंगाणु, सूक्ष्म कणों, आकाशगंगाओं, तारों, ग्रहों, उपग्रहों, तत्त्वों, अणुओं, आदि का विकास कैसे हुआ। श्री एन. सी. पंडा लिखते हैं, “यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अहंकार के ग्यारह आंतरिक विकासजों का न तो निर्जीव जगत् से कोई संबंध है और न ही सजीव जगत् के निम्न प्राणधारियों से कोई संबंध है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्ययों के संदर्भ में पाँच तन्मात्राओं और उनसे पदार्थ के पाँच स्थूल तत्त्वों का उत्तरवर्ती विकास कुछ ज्यादा ही सरल (oversimplified) और अनगढ़ लगता है।”(Cyclic Universe, पृ -27) इस दृष्टिकोण से देखें तो यही त्रुटि आदिग्रंथ की सृष्टि रचना प्रक्रिया में भी खोजी जा सकती है। किन्तु अहं और मोह के ऊपर किये गये अध्ययन से पता चलता है कि ब्रह्मांड और पिंड के क्रमविकास को भिन्न-भिन्न नहीं किया जा सकता है, और सांख्य दर्शन ने, और साथ ही वेदान्त ने भी, ऐसी भूल नहीं की है। डार्विन का क्रमविकास सिद्धांत केवल प्रजातियों के विकास तक ही सीमित था। किन्तु बीसवीं सदी के विज्ञान ने ब्रह्मांड विज्ञान (cosmology), खगोल भौतिकी (astrophysics), कण भौतिकी (particle physics), आण्विक जीवविज्ञान (molecular biology) आदि में आशातीत प्रगति करके क्रमविकास की धारणा को विस्तृत कर दिया है। आज का विज्ञान समस्त ब्रह्मांड के विकास की बात करता है। सांख्य और वेदान्त ने भी इसी विचार को प्रस्तुत किया था। शंकराचार्य का कहना है कि यह ब्रह्मांड क्रमिक रूप से बना है न कि युगपत् रूप से।(मांडूक्य उपनिषद 1.1.8; क्रमेण न युगपत्) जिस प्रकार ब्रह्मांड की उत्पत्ति क्रमिक रूप से हुई है वैसे ही पिंड की उत्पत्ति भी क्रमिक रूप से ही हुई है। न केवल दोनों की रचना की विधि एक समान है अपितु दोनों की रचना की उपादान सामग्री भी एक ही है। साथ ही, ब्रह्मांड और पिंड दोनों की उत्पत्ति युगपत् रूप से होती है। न तो बुद्धि और अहंकार केवल आंतरिक तत्त्व हैं और न ही मन है। ये तीनों तत्त्व वैश्विक भी हैं और व्यक्तिगत भी हैं।
(शेष आगे)
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