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What is the root of Ego? Kartapurush ep24 - कर्तापुरुष ep24

Updated: May 20, 2023

It is important to know what is the root of this disease of ego and affection (in other words maya and infatuation, me and mine)? There are four stages of ego – ahm asmi, sah aham asmi, idam aham asmi and ego. The first stage is 'ahm asmi', 'I am', that is, acceptance, it signifies pure consciousness. Here the 'ego' is Brahman and this is the state of Sachkhand. This 'ego' is one, and this 'ego' is the cause of plurality. After that, the form of ego in Karamkhand is 'I am the same' i.e. 'Sah Aham Asmi'. Here the individual consciousness is present, but it is in sync with God. The third stage of ego is 'I am this'. Here, God sees its 'I' independently. This gives individuality to all the powers of the world. The fourth stage of ego is ego. This is the condition of a bonded Jeeva. To know more about ego, read Karta Purush 24.


यह जान लेना बड़ा महत्वपूर्ण है कि अहंता और ममता (दूसरे शब्दों में कहें तो माया और मोह, मैं और मेरी) के इस रोग का मूल क्या है? स्थूल रूप से अहं की चार अवस्थाएं हैं – अहं अस्मि, सः अहं अस्मि, इदं अहं अस्मि और अहंकार। प्रथम अवस्था ‘अहं अस्मि’ माने ‘मैं हूँ’ अर्थात स्वीकृति, इससे शुद्ध चेतन सत्ता का बोध होता है। यहाँ ‘अहं’ ब्रह्म है और यह सचखंड की अवस्था है। यह ‘अहं’ एक है, और यह एक ‘अहं’ ही बहुलता का हेतु है। उसके बाद करमखंड में अहं का स्वरूप ‘मैं वही हूँ’ अर्थात ‘सः अहं अस्मि’ है। यहाँ व्यष्टि चेतन उपस्थित है किन्तु उसकी स्थिति परमात्मा के साथ एकत्व व लय वाली है। अहं की तीसरी अवस्था ‘मैं यह हूँ’ है। यहाँ परमात्म-सत्ता अपनी ‘मैं’ को स्वतंत्र रूप से देखती है। इससे संसार की सभी सत्ताओं को व्यष्टित्व मिलता है। अहं की चौथी अवस्था अहंकार है। यह बंधनग्रस्त जीव की दशा है। अहं के बारे में विस्तार से जानने के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 24.

Kartapurush ep24
Kartapurush ep24
 

Read the previous article▶️Kartapurush ep23

 

इस संबंध में यह जान लेना बड़ा महत्वपूर्ण है कि अहंता और ममता (दूसरे शब्दों में कहें तो माया और मोह, मैं और मेरी, अज्ञानता और मोह) के इस रोग का मूल क्या है? बाणीकार महात्माओं का कहना है कि माया और मोह का यह रोग परमात्मा ने ही लगाया है :

एह माइआ मोहणी जिनि एतु भरमि भुलाइआ ॥

माइआ त मोहणी तिनै कीती जिनि ठगउली पाइआ ॥

कुरबाणु कीता तिसै विटहु जिनि मोहु मीठा लाइआ ॥(3-918)


गुरु साहिब द्वारा ऐसा कहे जाने के ठोस आधार हैं। हम जानते हैं कि आदिग्रंथ के मूलमंत्र में वर्णित आदि सत्ता ਓੱ को आदिग्रंथ में अन्यत्र और साथ ही भाई गुरदास की बाणी में ‘निरंकार’ कहा गया है। यह पद ‘निः + अहंकार’ के योग से बना है। ਓੱ को ‘निरंकार’ कहने का अर्थ यह है कि इसमें अहं की स्वीकृति नहीं है। जहां अहं नहीं होगा वहाँ अस्तित्व, व्यक्तित्व व आकार भी नहीं होगा क्योंकि अहं से अस्तित्व मिलता है जो व्यक्तित्व और आकार का कारण बनता है। अतएव ਓੱ को असत्, अनस्तित्व (Not-Being), निरपेक्ष (Absolute) व निराकार ब्रह्म कहना उचित है। इसके विपरीत सति को एकंकार कहा गया है। प्रस्तुत संदर्भ में हम कह सकते हैं कि यह पद ‘एक + अहंकार’ के योग से बना है। सति को एकंकार कहने का अर्थ है कि इसमें अहं की स्वीकृति है लेकिन यह अहं ‘एक अहं’ है, एकोहं । जहां अहं होगा वहाँ अस्तित्व, व्यक्तित्व व आकार भी होगा। अतएव सति को ‘है’ (सत्; है है आखां कोटि कोटि कोटी हू कोटि कोटि॥(1-1241)), साकार ब्रह्म (आपि अकारु आपि निरंकारु ॥(5-863)) भी कहा गया है। सति ‘साकार ब्रह्म’ है किन्तु यहाँ जिस आकार की स्वीकृति है वह ‘एक आकार’ है। जिस तरह मेरे जगत् को प्रकट करने में मेरा अहं हेतु है उसी प्रकार परमात्मा के जगत् को, इस निखिल ब्रह्मांड को प्रकट करने में परमात्मा सति का अहं हेतु है। पुनः यह पहले ही बताया जा चुका है कि अहम्‌ और मम अर्थात्‌ ‘मैं’ और ‘मेरा’ में गूढ़ संबंध हैं और इन दोनों में 'मैं' मुख्य, केन्द्रीय, प्राथमिक व आंतरिक तत्त्व है जबकि ‘मेरा’ गौण, परिधीय (peripheral), बाहरी व दूसरे दर्जे की वस्तु है। ये दोनों एकसाथ रहते हैं। यदि अहं से हम अस्तित्व पाते हैं तो मम से कर्म में हमारा प्रवर्तन होता है। यही सत्य जगत् के संबंध में भी लागू होता है। भगवद्गीता में कहा गया है कि ‘मैं ही सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मेरे से ही सब जगत् चेष्टा करता है’ : अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।(10.8) यहाँ पर ‘अहं’ और ‘मत्तः’ पद क्रमशः प्रभु सति के अस्तित्व (मैं) और व्यक्तित्व (मेरा) के बोधक हैं। इन्हें ही बाणी में क्रमशः नाम और शब्द कहा गया है। प्रभु सति के धाम सचखण्ड में प्रभु की ‘मैं’ व ‘मेरा’ अर्थात उनका अस्तित्व व व्यक्तित्व एक समुच्चय का निर्माण करते हैं। किन्तु करमखंड में ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। यह भी पहले बताया जा चुका है कि यदि अहं को मम से अलग करने का प्रयत्न किया जाएगा तो इसकी वैयक्तिकता भी समाप्त हो जायेगी क्योंकि अहं की वैयक्तिकता का स्रोत तो मम ही था। इसलिये करमखंड में प्रभु सति के अहं वाले पक्ष अर्थात नाम में अहं, व्यक्तित्व और आकार समाप्त हो जाएंगे। बाणी में इसीलिए नाम को भी ‘निरंकार’ कहा गया है। दूसरी ओर प्रभु के मम वाले पक्ष अर्थात शब्द में ‘मैं हूँ’ (अहं अस्मि) का भाव अवश्य होगा क्योंकि इसी के कारण ही तो सचखण्ड में अहं को व्यक्तित्व मिला था, किन्तु यहाँ करमखंड में अहं और मम के विभाजन के कारण इस ‘मैं हूँ’ में ‘मैं वही हूँ’ (सः अहं अस्मि) की वृति प्रचंड होगी अतएव यहाँ पर समस्त अस्तित्व अनस्तित्व की ओर, अहं निःअहं की ओर, व्यक्तित्व निःव्यक्तित्व की ओर, और आकार निराकार की ओर झुका हुआ होगा। मोह व माया के दोहरे पाश से मुक्त होकर करमखंड में प्रवेश प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त करने वाली मुक्त आत्मा के लिये ‘सः अहं अस्मि’ की यह दशा सभी भ्रमों व भेदों से मुक्त आत्मज्ञान, सुख, प्रकाश व प्रगाढ़ चैतन्यता की होगी। गोस्वामी तुलसीदास जी इस अवस्था के बारे में लिखते हैं :

सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा ॥ दीप सिखा सोई परम प्रचंडा ॥

आतम अनुभव सुख सुप्रकासा ॥ तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥(राo 7/118-1,2)


करमखंड से नीचे त्रिलोकी में अहं का स्वरूप बदल जाता है। करमखंड में यह स्वरूप ‘सः अहं अस्मि’ (मैं वह हूँ, I am That) था, यहाँ अस्मि के साथ परमात्मा का एकत्व था लेकिन त्रिलोकी के पहले खंड सरमखंड में यह ‘इदं अहं अस्मि’ (मैं यह हूँ, I am This) होता है। ‘इदं अहं अस्मि’ (मैं यह हूँ) की अवस्था ‘सः अहं अस्मि’ (मैं वही हूँ) की तुलना में स्खलन की अवस्था है और यह स्खलन बुद्धि के कारण होता है। यहाँ तत्त्व रूप शब्द परमतत्त्व से वियुक्त और माया से संवलित हो जाता है जिसके कारण वह मानों खंड-खंड होकर अनंत रूपों में विभक्त हुआ-सा प्रतीत होता है। यहाँ व्यष्टिगत सत्ता अपने रूप के साथ ‘मैं’ को जोड़ती और अपने-आपको उन अनंत रूपों के द्वारा परिभाषित करती है जो उसी के द्वारा ही धारण किये गये हैं। इसलिये यह ‘इदं’ (This) वस्तुतः ‘सर्वं इदं’ (All This) होता है। दूसरी ओर यहाँ अनंत जीवात्माओं की भी सृष्टि होती है। शब्द और जीव दोनों बुद्धि में आभासित होते हैं इसलिये दोनों में अहं शुद्ध न रहकर माया संवलित ही होता है। शब्द और जीव दोनों ऐसे हैं मानों एक विराट् अग्नि है और दूसरा चिंगारी है। इस अंतर के कारण इन दोनों में माया का अध्यारोपण भिन्न-भिन्न परिमाण में होता है। शब्द महान बुद्धि में आभासित होता है; जीव अल्पबुद्धि में आभासित होता है। इसी कारण शब्द विराट् सत्ता है जबकि जीव लघु सत्ता है। शब्द ब्रह्मांड का ईश्वर है; जीव पिंड का ईश्वर है। शब्द और जीव दोनों में व्यष्टि भाव है किन्तु शब्द चूंकि विराट् बुद्धि में आभासित होता है अतः शब्द में ज्ञान से विचलन नहीं है। शब्द में विस्मृति नहीं होती, वहाँ ज्ञान एकरस, अखंड रहता है। शब्द माया के कारण उपलब्ध वैश्विक मन, प्राण व जड़ का उपयोग प्रभु की सेवा के लिये करता है। किन्तु जीव चूंकि अल्प बुद्धि में आभासित होता है अतः उसमें ज्ञान से विचलन की पूरी संभावना रहती है। यदि जीव जीवत्व के सभी स्रोतों अर्थात मन, बुद्धि आदि को शब्द को, और उसके माध्यम से सत्यस्वरूप प्रभु को अर्पण किये रखे तो उसका जो कुछ होता है सब प्रभु का ही होता है :

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥(गीता 8.7)


और साथ ही, जो कुछ प्रभु का होता है वह सब कुछ उसका होता है :

जो किछु ठाकुरु का सो सेवक का सेवकु ठाकुर ही संग जाहरु जीउ ॥(5-101)


ऐसा जीव अपने जीवत्व अर्थात लघुत्व को त्याग कर प्रभु के समान ही लोक-परलोक में यश पाता है। किन्तु यदि जीव अहं को अलग कर ले तो तो वह हर्ष-विषाद, ज्ञान-अज्ञान आदि द्वन्द्वात्मक रूप वाली माया के बंधन में पड़ जाता है। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं :

हरष विषाद ग्यान अग्याना । जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥(रा0 1/116-7)


यहाँ ‘अहमिति’ और ‘अभिमान’ का जो प्रयोग है उसमें एक अहं है और दूसरा अभिमान। एक ‘मैं’ का स्रोत है और दूसरा ‘मेरा’ का स्रोत है। इन दोनों के वश में पड़ा जीव सदैव हर्ष-विषाद को सहता है।


इस प्रकार स्थूल रूप से अहं की चार अवस्थाएं हैं – अहं अस्मि, सः अहं अस्मि, इदं अहं अस्मि और अहंकार। ‘स्थूल रूप से’ कहने का अर्थ यह है कि हमारे प्रस्तुत विषय के संदर्भ में अहं का विश्लेषण इतना ही पर्याप्त है। प्रथम अवस्था ‘अहं अस्मि’ माने ‘मैं हूँ’ अर्थात स्वीकृति, इससे शुद्ध चेतन सत्ता का बोध होता है। यहाँ ‘अहं’ ब्रह्म है और यह सचखंड की अवस्था है। यह ‘अहं’ एक है, और यह एक ‘अहं’ ही बहुलता का हेतु है। उसके बाद करमखंड में अहं का स्वरूप ‘मैं वही हूँ’ अर्थात ‘सः अहं अस्मि’ है। यहाँ व्यष्टि चेतन उपस्थित है किन्तु उसकी स्थिति परमात्मा के साथ एकत्व व लय वाली है। अहं की तीसरी अवस्था ‘मैं यह हूँ’ है। यहाँ परमात्म-सत्ता अपनी ‘मैं’ को स्वतंत्र रूप से देखती है। इससे संसार की सभी सत्ताओं को व्यष्टित्व मिलता है। अहं की चौथी अवस्था अहंकार है। अहंकार शरीर से बंधे हुए चेतन का अवबोधक है। अहं ज्यों ही शरीर से बंधता है उसमें मम या ममता उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार जगत् में अहं के दो रूप हैं। एक से ब्रह्मांडीय चेतना का अवबोधन होता है, दूसरे से पिंडीय चेतना का अवबोधन होता है। एक शब्द की अवस्था है; दूसरी जीव की अवस्था है। शब्द ब्रह्मांड का ईश्वर है और स्ववश है; जीव शरीर का ईश्वर है, यह स्ववश भी रह सकता है और परवश भी हो सकता है। शब्द अपने अहं को प्रभु के आश्रित रखता और अपने आप को कृतार्थ करता है। जीव अपने अहं के लिये माया का दास बन जाता है।


(शेष आगे)

 

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