What is the nature of the mind? If we try to find an answer to this question, we do not find anything. In such a situation, we can say that there is no special form of mind. The answer to the question 'What is the mind?' is through the actions of the mind. Whenever the mind connects with a person, object, event, situation, action, etc., it becomes completely engrossed in it. Whatever the size or significance of the object that comes to mind's attention – whether it is a trivial particle of dust or a mountain – the mind is completely filled with it when it joins it, it becomes the same. Yes, due to the quality of playfulness, the mind does not always stick to that object. As soon as it abandons that thing, it is completely separated from it. This feature of the mind has great importance in spiritual practice. The mind connects with maya's substances, people, etc. very emotionally and gets bored with them after a period. Because, the mind desires eternity and perfection, this desire is the impression that it is the child of the Infinite. Maya assures great possibilities but is unable to make them tangible. On the other hand, when the mind connects with the name of the Lord derived from Sadhguru's offerings with such emotion, it gets taste that is not only unique but also constantly new. Read Karta Purush 23 for a detailed study on this subject.
मन का स्वरूप क्या है? यदि हम इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयत्न करें तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता है। ऐसे में हम यह कह सकते हैं कि मन का कोई विशेष रूप नहीं है। ‘मन क्या है?’ इस प्रश्न का उत्तर हमें मन के कार्यों के द्वारा होता है। मन जब भी किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदि से जुड़ता है तो पूरी तरह उसमें तल्लीन हो जाता है। मन के ध्यान में आने वाली वस्तु का आकार या महत्व कुछ भी हो - चाहे वह धूल का एक तुच्छ कण हो या कोई पर्वत हो - मन जब उससे जुड़ता है तो पूरी तरह उससे परिपूर्ण हो जाता है, यह वही हो जाता है। हाँ, चंचलता के गुण के कारण मन उस वस्तु से सदैव चिपका नहीं रहता है। ज्यों ही यह उस वस्तु का परित्याग करता है तो पूरी तरह उससे अलग हो जाता है। मन की इस विशेषता का साधना में बड़ा महत्व है। मन माया के पदार्थों, व्यक्तियों आदि से अत्यंत भावप्रवण होकर जुड़ता है और एक अवधि के पश्चात उनसे ऊब जाता है। कारण, मन अनंतता और पूर्णत्व की कामना करता है, यह कामना इस बात की छाप है कि यह अनंत और परिपूर्ण प्रभुशक्ति की संतान है। माया बड़ी-बड़ी संभावनाओं का विश्वास दिलाती है किन्तु उन्हें मूर्त नहीं कर पाती। दूसरी ओर जब मन ऐसी ही भावप्रवणता के साथ सद्गुरु के प्रसाद से प्राप्त प्रभु के नाम से जुड़ता है तो उसे ऐसा रस मिलता है जो न केवल अपूर्व है अपितु नित्य नवीन भी है। इस विषय के विस्तृत अध्ययन के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 23.
Read the previous article▶️Kartapurush ep22
इस प्रकार अज्ञानता - जिसके दो रूप अहं/अज्ञानता/मैं और मम/मोह/मेरा हैं - मन का मूल लक्षण है। इस अज्ञान में जिस ज्ञान का अभाव (अ+ज्ञान; ज्ञान अभाव) है वह सम्यक् ज्ञान है। हम यह भी कह सकते हैं कि अज्ञान की अवस्था में ज्ञान है तो सही किन्तु वह ज्ञान असम्यक् ज्ञान है। संस्कृत शब्द ‘मन’ का धात्विक अर्थ ज्ञान ही है। किंतु मन जिस ज्ञान को प्राप्त करता है वह विविधता का ज्ञान है जो सिर्फ बाहरी रूप या आकार में ही निहित है, और ये आकार सदा बदलते रहते हैं। कारण, ये आकार उस ऊर्जा द्वारा धरे जाते हैं जिसकी प्रकृति, जैसा कि हमने पीछे देखा, वायवीय या जलीय है और स्वयं वह ऊर्जा प्रभु की दिव्य ऊर्जा अथवा शब्द का ही परिवर्तित रूप है, यह प्रभु के ही सत्संकल्प से शासित है। पातालों व आकाशों में प्रभु की ही कुदरत है, यह समस्त आकार अर्थात् दृश्य जगत् प्रभु की ही कुदरत है : कुदरति पाताली आकासी कुदरति सरब आकारु ॥(1-464) यह कुदरत ही सृष्टि का वह मूल तत्त्व है जो कभी नहीं बदलता। इसी का ज्ञान वास्तविक ज्ञान है। इसीलिए भगवद्गीता में ज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा गया है, अविभक्तम् विभक्तेषु, अर्थात् ज्ञान वह है जिससे विभक्तता या निरालेपन मे अविभक्तता या एकता का बोध हो। बाणी में भी कहा गया है कि 'ज्ञान वह है जिसके उत्पन्न होने पर दुर्मति क्षीण हो जाती है' :
उपजै गिआनु दुरमति छीजै ॥(भक्त बेणी जी -974)
और 'दुर्मति वह है जिसके कारण जीवात्मा को अपनी सत्ता प्रभु से भिन्न प्रतीत होती है’ :
दूजी दूरमति आखै दोइ ॥(1-223)
इस प्रकार माया व मोह से ग्रस्त मन की यह विशेषता है कि इसमें जगत् के पदार्थों के सम्यक् ज्ञान (right knowledge) का अभाव रहता है। उदाहरण के लिए सोना एक पदार्थ है। इससे अलग-अलग रूप बने जैसे कभी कंगन, कभी अंगूठी, तो कभी कड़ा आदि। इन भिन्न-भिन्न रूपों या आकृतियों को भिन्न-भिन्न नाम दिये गये। भिन्न-भिन्न आकृतियो वाले हमारे जगत् को इसीलिए नामरूप कहा जाता है। लेकिन जो मूल पदार्थ है वह तो सोना है। वह मूल पदार्थ भिन्न-भिन्न आकृतियों में ढलता है। वह आकृति मिथ्या है किन्तु जो उस आकृति के मूल में है वह अविनाशी तत्त्व है और इसी का ज्ञान सच्चा ज्ञान है। बाल गंगाधर तिलक लिखते हैं, "व्यवहार में यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि गहना गढ़वाने में चाहे जितना मेहतनाता देना पड़ा हो, पर विपत्ति के समय जब उसे बेचने के लिए सर्राफ की दुकान पर ले जाते हैं तब वह साफ़ साफ़ कह देता है 'मैं नहीं जानता कि गहना गढ़वाने में तोले पीछे क्या उज़रत देनी पड़ी है; यदि सोने के चलते भाव में बेचना चाहते हो तो हम ले लेंगे।' वेदान्त की परिभाषा में इसी विचार को इस ढंग से व्यक्त करेंगे कि सर्राफ को गहना मिथ्या और उसका सोना सच्चा दीख पड़ता है।''(गीता रहस्य, पृ -218) हम कहेंगे कि सर्राफ के पास विवेकसम्मत ज्ञान है, उसे नाम-रूप का मोह नहीं है। उसे किसी प्रकार की गलतफ़हमी या भ्रांति नहीं है। गुरू नानक देव जी भी जीवों की व्यापारी के रूप में कल्पना करके उन्हें उपदेश देते हैं कि 'हे जीव वणजारिउ! जब व्यापार करने लगो तो सोच समझ कर कीमती वस्तु, वखरु को खरीदना। वह वस्तु खरीदना जो साथ निभ जाए क्योंकि जिस साहूकार ने तुम्हें व्यापार के लिए भेजा है वह बहुत समझदार है, वह तुमसे वस्तु को अच्छी तरह जांच परख कर खरीदेगा :
वणजु करहु वणजारिहो वखरु लेहु समालि ॥
तैसी वसतु विसाहीऐ जैसी निबहै नालि ॥
आगै साहु सुजाणु है लैसी वसतु समालि ॥(1-22)
स्पष्ट है कि मन ज्ञान का उपकरण अवश्य है किंतु इसका ज्ञान मिथ्या ज्ञान है। इसका ज्ञान पदार्थ के रंगरूप आदि गुणों का और आकृति का अर्थात् बाहरी दृश्य का है। भीतरी तत्त्वरूप द्रव्य से वह अछूता है। इसीलिए बाणी में मन को दीवाना, मूर्ख, गधा, ऊंट आदि कहा गया है। आत्मा के लिए मन का साथ ऐसा ही है जैसे किसी अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति से की गई मित्रता। 'कोई भी मनुष्य परख कर देख ले, किसी अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति से लगाई गई मित्रता कभी लाभदायक नहीं होती, क्योंकि ऐसे व्यक्ति का रवैया वैसा ही रहता है जैसी उसकी समझ होती है। ऐसे ही मूर्ख मन की मित्रता से आत्मा को कभी लाभ नहीं होता, यह मन उसे अपनी समझ के अनुसार गलत दिशा की ओर ही ले जाता है' :
नालि इआणे दोसती कदे न आवे रासि ॥
जेहा जाणै तेहो वरतै वेखहु को निरजासि ॥(1-474)
‘जिस तरह एक बर्तन में कोई नयी वस्तु तभी डाली जा सकती है जब उसमें से पहले पड़ी हुई वस्तु को बाहर निकालें, ऐसे ही यह जीवात्मा प्रभु से तभी जुड़ेगी जब इसे विषयों से विरक्त किया जाएगा अर्थात् मन का स्वभाव बहिर्मुखी है, मन अंतर्मुख हो, तभी शब्द से जुड़ेगा। यही प्रभु का विधान है, उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार करने से ही सफलता मिलेगी, लेकिन यदि मन के कहे मुताबिक जीवन जीते रहे तो परिणाम दुःख होंगे क्योंकि ठगी का काम करके मनुष्य ठग ही बनता है, मन मे उत्साह तो प्रभुभक्ति से ही आता है’ :
वसतू अंदरि वसतु समावै दूजी होवै पासि ॥
साहिब सेती हुकमु न चलै कही बणै अरदासि ॥
कूड़ि कमाणै कुड़ो होवै नानक सिफति विगासि ॥(1-474)
हमने देखा कि मन जीवात्मा की इस कामना का परिणाम है कि अहं की दीवार के बाहर अनात्म को जाना जाये ताकि उससे उपयोगी पदार्थों को प्राप्त किया जा सके। ऐसे में यह कहना उचित होगा कि मन प्रभुशक्ति की वह अवस्था है जहां उसमें कामनाएं उत्पन्न होती हैं। मन कामनाओं का केंद्र या स्रोत है और इसमें ये कामनाएं अनंत होती हैं क्योंकि यह उस प्रभुशक्ति की क्रिया का परिणाम है जो स्वयं अनन्त है।
तीसरे, मन में कामना अवश्य होती है किंतु उसमें यह कामना समस्त वस्तुओं के लिए एक समान नहीं होगी। वह कुछ चीजों को अन्यों की तुलना में अधिक वरीयता देगा जबकि कुछ से स्वयं को दूर रखना चाहेगा। कारण, वह अहं की संतान है जिसका कार्य ही विभाजन करना है। मन का पहला काम है पृथक् करना, दरारें पैदा करना। "अपने सारतत्त्व में मन एक ऐसी चेतना है जो नापती, सीमित करती, अविभाज्य समग्र से वस्तुओं के रूप काटती और उन्हें इस तरह धारण करती है मानों उनमें से प्रत्येक एक अखंड वस्तु हो।''(दिव्य जीवन, पृ -162) हउमैग्रस्त मन सब चीज़ों को केवल अपने ही दृष्टिकोण से देखता है और इस तथ्य की उपेक्षा करता है कि अन्य सब भी उसी के समान हैं। "वस्तुतः वह अनंत के सारे सच्चे भाव का बहिष्कार करके ही हमारी चेतना में यह कार्य करता है। इसलिए मन महान अज्ञान की ग्रंथि है क्योंकि वही मूल रूप से विभक्त और वितरित करता है।''(वही, पृ-163)
चौथे, हमने देखा कि मन उस अवस्था में उत्पन्न होता है जब जीव दृष्टा के रूप में त्रैगुणी माया से अपनी पृथकता को बरकरार नहीं रखता बल्कि माया के दृश्यप्रवाह से तदात्म हो जाता है, ऐसे में यह स्वाभाविक है कि न केवल जीवात्मा अपने स्वरूप को विस्मृत करके माया की चंचलता को ही अपना गुण-धर्म समझ ले बल्कि मन भी वैसी ही दुर्घर्ष चपलता का प्रदर्शन करे। मन की चंचलता के तथ्य पर धर्मग्रंथों ने मुहर लगाई है। भगवद्गीता में अर्जुन कहता है, 'हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल है, प्रमथनकारी स्वभाव वाला है (अर्थात् व्यक्ति के अंतर्जगत को मथ डालने वाला है), हठी और बलवान है, मैं इसे वश में करना तूफानी हवा को रोकने की तरह अति दुष्कर मानता हूं।''(6.34) आदिग्रंथ में भी कहा गया है कि मन भ्रमित होकर क्षण-क्षण अनेक दिशाओं की ओर दौड़ता है, दोनों भौहों के मध्य विश्राम नहीं करता :
मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु धरि नहीं वासा पाईऐ ॥(4-1179)
यह मन अति चंचल है, वश में नहीं आता। दुविधा के कारण दशों ही दिशाओं में दौड़ता रहता है :
इहु मनु चंचलु वसि न आवै ॥ दुविधा लागै दह दिसि धावै ॥(3-127)
मुनि वही है जो मन की दुविधा, उसकी संकल्प-विकल्प में रहने की आदत को मार ले और ऐसा करके परमात्मा को मन में बसा ले :
सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे ॥ दुबिधा मारि ब्रह्म बीचारे ॥(3-1127)
मन का जगत् चलायमान, अनिश्चित व अनंत अस्तव्यस्तता का जगत् होता है। यह क्षणिक लक्ष्यों का अंतहीन सिलसिला होता है जो अंत में इसे कहीं नहीं पहुंचाता।
पांचवां, गति का विलोम है स्थिरता। स्थिरता नैश्कर्मण्यता है जबकि गति कर्म है। इस तरह यदि मन का जगत् गतिमान होगा तो मन का स्वरूप भी कर्मण्यता का होगा। गुरू नानक लिखते है : इहु मनु करमा.........॥(1-415) कर्मशीलता मन का प्रमुख लक्षण है। योगवशिष्ठ में कहा गया है, "कर्म आत्मा के कारण नहीं होता अपितु मनस् के कारण होता है। मानसिक संकल्प-विकल्प से ही कर्म होता है। ........कर्म और मनस् एक अर्थ में एक ही वस्तु है..........मनस् साररूप में कर्म अथवा स्पंदन ही है और स्पंदन का बंद होना ही मनस् का नाश होना है (कर्मनाशे मनोनाशः) जैसे उष्णता अग्नि से अथवा कृष्णता अंजन से पृथक् नहीं की जा सकती उसी तरह से स्पंदन और क्रिया मनस् से पृथक् नहीं की जा सकती।''(भारतीय दर्शन का इतिहास, खंड -2)
मन का स्वरूप क्या है? यदि हम इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयत्न करें तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगता है। कई बार यह कह दिया जाता है कि हमारे अंतःकरण में विचार की जो अविच्छिन्न लड़ी चल रही है, यही मन है। किन्तु सच यह है कि विचार मन नहीं है, विचार तो मन का कार्य है। ऐसे में हम यह कह सकते हैं कि मन का कोई विशेष रूप नहीं है। ‘मन क्या है?’ इस प्रश्न का उत्तर हमें मन के कार्यों के द्वारा होता है। मन जब भी किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदि से जुड़ता है तो पूरी तरह उसमें तल्लीन हो जाता है। मन के ध्यान में आने वाली वस्तु का आकार या महत्व कुछ भी हो - चाहे वह धूल का एक तुच्छ कण हो या कोई पर्वत हो - मन जब उससे जुड़ता है तो पूरी तरह उससे परिपूर्ण हो जाता है, यह वही हो जाता है। किसी क्षण विशेष में जब मन किसी वस्तु से जुड़ता है तो उस क्षण में यह उस वस्तु के रूप और रंग को ग्रहण कर लेता है, यह उसी के रंग में रंग जाता है। हाँ, चंचलता के गुण के कारण मन उस वस्तु से सदैव चिपका नहीं रहता है। ज्यों ही यह उस वस्तु का परित्याग करता है तो पूरी तरह उससे अलग हो जाता है। मन की इस विशेषता का साधना में बड़ा महत्व है। मन माया के पदार्थों, व्यक्तियों आदि से अत्यंत भावप्रवण होकर जुड़ता है और एक अवधि के पश्चात उनसे ऊब जाता है। कारण, मन अनंतता और पूर्णत्व की कामना करता है, यह कामना इस बात की छाप है कि यह अनंत और परिपूर्ण प्रभुशक्ति की संतान है। माया बड़ी-बड़ी संभावनाओं का विश्वास दिलाती है किन्तु उन्हें मूर्त नहीं कर पाती। दूसरी ओर जब मन ऐसी ही भावप्रवणता के साथ सद्गुरु के प्रसाद से प्राप्त प्रभु के नाम से जुड़ता है तो उसे ऐसा रस मिलता है जो न केवल अपूर्व है अपितु नित्य नवीन भी है। प्रभु का नाम ही इस मन के लिये मजीठ (Indian madder, मंजिष्ठा) है जिससे इस पर एक स्थाई रंग चढ़ता है और यह सदा के लिये प्रभु-भक्ति को समर्पित हो जाता है : तेरा एको नामु मँजीठड़ा रता मेरा चोला सद रंग ढोला ॥(1-729)
(शेष आगे)
Continue reading▶️Kartapurush ep24
Comments