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Writer's pictureGuru Spakes

Kartapurush ep21 - कर्तापुरुष ep21

Updated: Sep 10, 2023

In the last chapter of the Bhagavad Gita, Arjuna says: "O Krishna! By Your grace, my delusion is destroyed and memory is gained through Your grace. I stand firm, with my doubts dispelled. (18.73) It mentions three things, namely delusion, memory and doubt. If the world is a tree, then the doubt of 'who I am' is the seed of this tree of the world; 'I am this man, woman etc.- this ignorance is the strong stem of this tree; This house, family, caste, country, etc. are mine - these are the leaves of this world tree that keep it green all the time. To learn about the nature of ignorance and its various forms and the reasons for their origin, read Karta Purusha 21.


भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में अर्जुन कहता है : ‘हे अच्युत! आपकी कृपा से, त्वत्प्रसादात्, मेरा मोह नष्ट हो गया है.. नष्ट: मोह:, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, मया स्मृति: लब्धा । मैं संदेहरहित होकर स्थित हूँ, गतसंदेह: स्थित: अस्मि ।(18.73) इसमें मोह, स्मृति और संदेह -तीन का उल्लेख है। यदि जगत् एक वृक्ष है तो ‘मैं कौन हूँ’ -यह संदेह इस जगत् रूपी वृक्ष का बीज है; ‘मैं यह (पुरुष, नारी, आदि-आदि) हूँ’ -यह अज्ञानता इस वृक्ष का मजबूत तना है; यह (घर, परिवार, जाति, देश आदि-आदि) मेरा है -ये इस संसार-वृक्ष के पत्ते हैं जो इसे नित्यप्रति हरा-भरा रखते हैं। अज्ञानता के स्वरूप और इसके भिन्न-भिन्न रूपों के बारे में और इनकी उत्पत्ति के कारणों के बारे में जानने के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 21.

Kartapurush ep21
Kartapurush ep21
 

Read the previous article▶️Kartapurush ep20

 

हउमै अज्ञानता है और इस अज्ञानता के परिणाम बहुविध होते हैं। इसका पहला और मूल आयाम यह है कि पुरुष (जीव) को यह ज्ञान नहीं रहता कि 'मैं क्या हूं?' यहाँ पर 'मैं क्या हूं?' से आश्य यह है कि उसमें निजस्वरूप को लेकर एक असमंजस या ऊहापोह या संशय होता है। बाणी में कई स्थानों पर संशय को संसृति का मूल बताया गया है :

संसा इहु संसारू है सुतिआ रैणि विहाइ ॥(3-36)

सहसा इहु संसारू है मरि जंमै आइआ जाइआ ॥(2-138)

संसा इहु संसारू है जनम मरण विचि सबाइआ ॥(भाइ गुरदास 1.1)


यह संशय ही आत्मा में इस अज्ञान का बीज बनता है कि ‘मैं यह (पुरुष, नारी, आदि-आदि) हूँ’। ध्यान रहे कि ‘मैं यह (पुरुष, नारी, आदि-आदि) हूँ’ -यह अज्ञानता एक प्रकार का स्मृतिलोप है जबकि ‘मैं कौन हूँ’ -यह संशय है। संशय स्मृतिलोप का बीज है। भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में अर्जुन कहता है : ‘हे अच्युत! आपकी कृपा से, त्वत्प्रसादात्, मेरा मोह नष्ट हो गया है.. नष्ट: मोह:, मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, मया स्मृति: लब्धा । मैं संदेहरहित होकर स्थित हूँ, गतसंदेह: स्थित: अस्मि ।(18.73) इसमें मोह, स्मृति और संदेह -तीन का उल्लेख है। यदि जगत् एक वृक्ष है तो ‘मैं कौन हूँ’ -यह संदेह इस जगत् रूपी वृक्ष का बीज है; ‘मैं यह (पुरुष, नारी, आदि-आदि) हूँ’ -यह अज्ञानता इस वृक्ष का मजबूत तना है; यह (घर, परिवार, जाति, देश आदि-आदि) मेरा है -ये इस संसार-वृक्ष के पत्ते हैं जो इसे नित्यप्रति हरा-भरा रखते हैं। इनमें से अज्ञानता अथवा स्मृतिलोप को ही वेदान्त में भेदभ्रम कहा गया है। यहां भ्रम या अज्ञानता का अर्थ इस निश्चय से है कि परमात्मा से मेरी भिन्न स्थिति है। वास्तव में वह भिन्न नहीं है। गुरू नानक लिखते हैं : सो प्रभु दूरि नाही प्रभु तूं है ॥(1-354) इस तरह यह अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है। यह मिथ्या ज्ञान है। हम इसे स्वरूपहानि कह सकते हैं। इस संदर्भ में देखें तो ज्ञान का अर्थ होगा - स्वयं की परमात्मा से अभिन्नता का ज्ञान। इसी ज्ञान की महिमा करते हुए भक्त कबीर जी लिखते हैं :

देखौ भाई ज्ञान की आई आंधी ॥

सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥

दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेंडा टूटा ॥

तिसना छावि परी घर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥

आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥

कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥(कबीर-331)


'हे भाई! देखो, ब्रह्मज्ञान की ऐसी आंधी आई है कि भ्रम का छप्पर पूरी तरह उड़ गया है और माया के बंधन भी अब नहीं बचे हैं। दुविधा भाव के दोनों फंदे (संकल्प-विकल्प) गिर गये हैं और मोह का शहतीर टूट गया है। तृष्णा रूपी घासफूस की छत धरती पर गिर पड़ी है और दुर्मति का बर्तन फूट गया है। इस आंधी के बाद बरसने वाले प्रेम जल से तेरा दास पूरी तरह से भीग गया है और कबीर कहता है कि जब मैंने ज्ञान के सूर्य को चढ़ते हुए देख लिया तो मेरा मन प्रकाशमान हो उठा।'


इस तरह निजस्वरूप की अज्ञानता या निजस्वरूप की स्मृति का लोप या भेदभ्रम वह मूल पाप है जिससे शेष सभी प्रकार के भ्रम, त्रैगुणी माया के बंधन, द्वैतभाव, मोह, तृष्णा, कुबुद्धि आदि जीवात्मा को जकड़ लेते हैं। इस मूल भ्रम से चार प्रकार के भ्रम आगे और उत्पन्न होते हैं। पहला वह है जिसे वेदान्त में विकारभ्रम कहा गया है। जिस प्रकार अंधकार के कारण रस्सी सांप प्रतीत होती है, वास्तव में वह रस्सी है, सांप नहीं है। अंधकार के हटने पर रस्सी का यथार्थ स्वरूप दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार मूल अज्ञानता रूपी अंधकार की उपस्थिति के कारण आत्मा को त्रैगुणी माया अपने वास्तविक स्वरूप से इतर प्रतीत होती है। रस्सी में सांप का भ्रम होने से सांप के रूप में प्रतीत हो रही रस्सी, रस्सी का कार्य नहीं है, यह दृष्टा में निहित अज्ञानता का कार्य है। इसी प्रकार जीवात्मा को मिथ्या व जड़ माया की सत्‌ व चेतन के रूप में होने वाली प्रतीती जीवात्मा का अपना भ्रम है। निजस्वरूप की अज्ञानता के कारण जीव जगत्‌ के साथ अपने सम्बन्धों को समुचित रीति से समझ नहीं पाता।


दूसरा, हउमै की उत्पत्ति से पहले विषयी पक्ष में आत्मा व विषय पक्ष में त्रैगुणी माया अर्थात्‌ पुरुष व प्रकृति दोनों ही समष्टिगत तत्त्व होते हैं। आत्मा का मूल दिव्य है और इसका अनुभव सार्वभौमिक प्रकृति का है। दूसरी ओर प्रकृति व उससे उत्पन्न महत्‌ तत्त्व भी वैश्विक हैं। लेकिन हउमै की उत्पत्ति इन परिस्थितियों को बदल देती है। श्री अरविंद लिखते हैं, "अहं का स्वभाव है बाकी लीला की ओर से ऐच्छिक अज्ञान द्वारा चेतना का अपने आपको सीमित कर लेना और एक ही रूप में, प्रवृत्तियों के एक ही समवाय में, ऊर्जाओं की गतिविधि के एक ही क्षेत्र में उसकी एकांतिक तल्लीनता।"(दिव्य जीवन, पृ-59) अहं का मूल तथ्य सत्ता का परिसीमन, चेतना का सिकुड़ना, संकुचित हो जाना है। हउमै विश्वसत्ता के आधारभूत ऐक्य से विचलन है। हउमै से ही सत्ता के सागर में एक व्यष्टिगत केंद्र का निर्माण होता है जिससे बहुरूपों वाले इस जगत्‌ का निर्माण होता है। वेदान्त में इसे ही संगभ्रम कहा गया है। जिस तरह एक ही आकाश सर्वत्र परिपूर्ण है पर घड़े में जो आकाश है अलग प्रतीत होता है। उसकी उत्पत्ति घड़े से नहीं और घड़े के टूट जाने पर उसका नाश भी नहीं होता। घड़े के धर्म को आकाश का धर्म मानना भ्रम है। इसी प्रकार देह के धर्मों को आत्मा के धर्म मान लेना कि मैं ब्राह्मणादि हूं, काला या गोरा हूं, संन्यासी या गृहस्थ हूं, इत्यादि, ये सब संगभ्रम के उदाहरण हैं और इस भ्रम का कारण है चेतना का संकुचन।


तीसरे, जगत्‌ में व्याप्त प्रभुसत्ता नाम/कादर विषयी (subject) है जबकि शब्द/कुदरत विषय (object) है। नाम एक या एकम्‌ है, शब्द द्वितीय या दूजा है। शब्द व कुदरत की एकता को भलीभांति सिद्ध किया जा चुका है। बाणी कुदरत को स्पष्ट रूप से दुई (दूजी) कहती है। इसका कारण है कि यह कादर अथवा नाम द्वारा देखी (perceived or witnessed) जाती है। सम्बन्धों का यही सत्य जीवात्मा व त्रैगुणी माया के मध्य है। जीव विषयी है जबकि त्रैगुणी माया विषय है। हउमै से रहित अवस्था में जीवात्मा या तो अपने मूल नाम में लीन होगी और वह त्रैगुणी माया से अलग रहेगी, यह उसकी मुक्त दशा होगी या फिर वह शब्द से जुड़ी होगी जिससे वह त्रैगुणी माया को देखेगी लेकिन उसमें विषयी व विषय के भेद का ज्ञान होगा, यहाँ उसकी आंशिक मुक्ति की दशा होगी। लेकिन हउमै द्वारा ग्रसे जाने पर आत्मा की तादात्म्यता त्रैगुणी माया से होगी। विषयी स्वयं विषय ही बन जायेगा। बाणी में हउमैग्रस्त आत्मा को इसीलिए 'दूजे भाव से ग्रस्त' कहा गया है। इसकी तुलना वेदान्त मे वर्णित जगत्‌ में सत्यत्व भ्रम से की जा सकती है। जीव इस भ्रम के कारण जगत्‌ को सत्य मानता है। धार्मिक भाषा में कहें तो जीवात्मा अंतर्मुख न रहकर बहिर्मुख हो जाती है। यह दूजा भाव अनीति है, बुरी आदत है और प्रभु के दास, संतजन, इसे पसंद नहीं करते :

दुतीआ भाउ बिपरीति अनीति दासा नह भावए जीउ ॥(5-80)


जिनके मन में द्वैतता के प्रति प्यार है उनके भोजन पर धिक्कार है, उनके वस्त्रों पर भी धिक्कार है, वे विष्ठा के कीड़े हैं, विष्ठा में ही उनका निवास है, वे जन्म-मरण में पड़े रहते हैं और अपमानित होते हैं :

ध्रिगु खाणा ध्रिगु पैनणा जिना दूजै भाइ पिआरु ॥

बिसटा के कीड़े बिसटा राते मरि जंमहि होहि खुआरु ॥(3-1346)


चौथा, आत्मा स्थिर है जबकि माया गतिशील है। हउमै से रहित अवस्था में आत्मा अडोल, स्थिर, अपरिवर्तनशील, काल व देश तथा कर्म व उसके बंधनों से मुक्त स्वरूप लिए हुए होगी जबकि हउमैग्रस्त होने पर उसकी तादात्म्यता त्रैगुणी माया से होगी जिसके परिणामस्वरूप उसका अनुभव चंचलता, परिवर्तनशीलता, देश, काल व कर्म के बंधनों का होगा। आत्मा का नैसर्गिक अकर्ता स्वरूप तिरोहित हो जायेगा और उसमें कर्ता होने का भाव उत्पन्न हो जायेगा जिससे बंधन उत्पन्न होगा :

मनमुख करम करे अहंकारी सभु दुखो दुखु कमाइ ॥(3-87)

पवन झुलारे माइआ देह ॥ हरि के भगत सदा थिरू सेइ ॥(5-80)

वेदान्त में इसे कर्तृत्व भ्रम कहा गया है। जिस प्रकार श्वेत मणि के पास लाल फूल पड़ा हो तो मणि लाल प्रतीत होती है, उसी तरह बुद्धि की समीपता के कारण कर्तृत्व व भोक्तृत्व या दुख-सुख आदि जो बुद्धि के धर्म हैं, वे आत्मा के प्रतीत होते हैं।


(शेष आगे)

 

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