The root of the world is called ego according to Sankhya philosophy, Adhyas according to Vedanta and Haumai according to Adi Granth, and these three are different names of the same element. The true companion of the soul is God, while we seek our shelter in the false world. That's what it is. Therefore, Haumai is basic ignorance and this ignorance is double. First of all, it is a form of forgetfulness of the atma-tattva. I don't know who I am and that's why I don't even know who mine is. For more information about Haumai or ego, read Karta Purush 20.
जगत् का मूल सांख्य दर्शन के अनुसार अहंकार, वेदान्त के अनुसार अध्यास और आदिग्रंथ के अनुसार हउमै कहा गया है, और ये तीनों एक ही तत्त्व के भिन्न-भिन्न नाम हैं। आत्मा का सच्चा साथी परमात्मा है जबकि हम अपना आश्रय मिथ्या जगत् में तलाश करते हैं। यही हउमै है। अतः हउमै मूल अज्ञानता है और यह अज्ञानता दुहरी है। सर्वप्रथम यह आत्मतत्त्व की स्वरूप विस्मृति है। मुझे पता नहीं कि 'मैं कौन हूं' (अहम्) और इसी कारण मुझे यह भी नहीं पता कि 'मेरा कौन है' (मम्)। हउमै अथवा अहंकार के संबंध में और अधिक जानकारी के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 20.
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हम पहले ही लिख चुके हैं कि गुरु नानक देव जी द्वारा जपुजी में वर्णित पाँच खंडों में एक ‘सरमखंड’ कारण सृष्टि है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि अहंकार, जो जीव को प्रभु की अनंतता व एकता से वियुक्त करके उसके लिए महाविपत्ति का कारण बनता है, का जन्म सरमखंड में ही हो। सरमखंड का वर्णन करने वाली 36वीं पउड़ी की 7वीं पंक्ति में गुरू नानक लिखते हैं :
तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥
‘सुरत’ आत्मा है, यह चेतन तत्त्व है जबकि मन व बुद्धि आत्मा के उपकरण हैं और ये जड़ हैं। ‘मति’ वह शक्ति है जो इन परस्पर विरोधी चेतन व जड़ तत्त्वों के बीच सेतु है। ‘मति’ और ‘बुद्धि’ में भेद है। "बुद्धि एक बर्तन की तरह है जबकि मति (understanding) उसकी अंतर्वस्तु है। मति बुद्धि का अहंपदवाच्य तत्त्व है अर्थात मति बुद्धि का यह बोध है कि 'मैं हूं' (I exist)। बुद्धि एक सामान्य चेतना है, मति इस सामान्य चेतना की विशिष्ट अभिव्यक्ति है। बुद्धि मेधामात्र है, यह जड़-चेतन को उपलब्ध एक सामान्य तथ्य है, उनकी जानने, समझने और समझ के अनुकूल ढल जाने की क्षमता है। दूसरी ओर मति अहंकार है जिसका कार्य अभिमान, अपने को जताना (self-assertion), अपने को प्रकट करना है।"(Catalina Francois V. 'A Study of the Self Concept of Sankhya Yoga Philosophy' राम सिंह द्वारा उद्धरत) यह हमारे अंतःकरण की वह विशेषता है जो एक पहचान (identity) को धारण करके जगत् को 'मैं' व 'मेरे' में बांटती है। जब इंद्रियों के माध्यम से मन संस्कारों को ग्रहण करता है तो यह मति या बोध (understanding) है जिसके कारण हम उन संस्कारों को राग (Like) या द्वेष (Don't like) में वर्गीकृत करते हैं, किंतु यह वर्गीकरण सर्वथा निर्दोष व हानिरहित नहीं रहता, यह तत्काल हमारे अस्तित्व, हमारी 'मैं' का भाग बन जाता है क्योंकि यह 'मैं' हूं जो उस अनुभव को पसंद या नापसंद कर रहा हूं। इस तरह मति अथवा अहंकार द्वारा आगत अनुभव का वर्गीकरण ही नहीं किया जाता, यह हमारे इर्द-गिर्द एक छद्म पहचान का भी निर्माण करती है। इस तरह हम स्वयं को राग या द्वेष से एकमेक कर लेते हैं। जब अहंकार टेनिस के खेल के अनुभव को पसंद करता है (I like) तो वह यहीं तक सीमित नहीं रहता। धीरे-धीरे हमारा अहंकार स्वयं को टेनिस के खिलाड़ी के रूप में देखता है। इस तरह I like Tennis क्रिया (verb) ही नहीं रहता है, वह एक संज्ञा (I am a Tennis player) बन जाता है। जब भी हम किसी गतिविधि को देर तक करते हैं तो उस गतिविधि से स्वयं को तदरूप कर लेते हैं। चित्रकला का आनंद लेते-लेते हम चित्रकार बन जाते हैं। रोगियों की सेवा-संभाल की कला सीखते-सीखते हम नर्स या डॉक्टर बन जाते हैं। हम मां, बाप, पुत्र, पति, वकील, छात्र, खिलाड़ी आदि बन जाते हैं। 'मैं ..... हूं' के बीच के खाली स्थान में कुछ भी भरा जा सकता है। इस खाली स्थान को ‘मति’ भरती है। इसी को ‘अहंकार’ (I-maker) कहा गया है। बाणी में इसे 'आपाभाव' कह कर शत्रु के समान माना गया है और इसका वध करने का संदेश दिया गया है। इसका कारण यह है कि हम मां, बाप, पुत्र, वकील, मैनेजर आदि कुछ नहीं। ये सब लेबल हैं। सद्वस्तु कुछ और ही है। ये लेबल अस्थायी है, नश्वर हैं किंतु जो वास्तव में हमारी 'मैं' है वह अनश्वर है, सत् है।
इस तरह ‘मति’ अहंकार है जिससे जीव को विशिष्ट व्यक्तित्व मिलता है। यही वह तत्त्व है जो सृष्टि में जन्म-मरण का मूल है, जीवात्मा का मूल पाप है, हमारे अस्तित्व पर माया के अनगिनत भर्मों के पर्दे डाल कर हमसे हमारे एकमात्र मित्र परमात्मा को बिछोड़ता है और हमें असंख्य शत्रुओं के मध्य ला कर खड़ा कर देता है :
हे जनम मरण मूलं अहंकारं पापातमा ॥
मित्रं तजंति सत्रं द्रिड़ंति अनिक माया बिसीतरनह ॥
आवंत जावंत थकंत जीआ दुख सुख बहु भोगणह ॥
भ्रम भयान उदिआन रमणं महा बिकट असाध रोगणह ॥
बैदं पारब्रह्म परमेश्वर आराधि नानक हरि हरि हरे ॥ (5-1358)
डा0 प्रेम प्रकाश सिंह लिखते हैं, "बाणी में अहंकार के दो स्वरूप दिखाए गये हैं। पहला स्वरूप मन का विकार है। गुरूकवि जब कामादि के साथ अहंकार को शामिल करके इन पांचों को पांच दोष, पांच किसान, पांच शरीक, पांच विकार, दूत, तस्कर, चोर, डाकू, ठग आदि संज्ञाओं के साथ वर्णन करते हैं तो अहंकार एक मनोवृत्ति या मनोविकार के रूप में हमारे सामने आता है ......... अहंकार का दूसरा स्वरूप तात्त्विक है। इस प्रयोजन के लिए कवि हउमै या हउं शब्द का प्रयोग अधिक करते हैं। अहंकार का यह स्वरूप सांख्य दर्शन के अहंकार से मेल खाता है जो उसके 25 तत्त्वों में से एक तत्त्व है। सांख्य दर्शन में अहंकार शब्द का प्रयोग विशेषकारी तत्त्व (individuating principle) के रूप में होता है जिसका कार्य सृष्टि की एकता में अनेकता, वियोग को उत्पन्न करना है।“ किन्तु हमें लगता है कि इस संबंध में स्थिति अधिक जटिल है। उदाहरण के लिये इस पंक्ति को देखें :
ऐसो गुनु मेरो प्रभ जी कीन ॥
पंच दोख अरु अहं रोग इह तन ते सगल दूरि कीन ॥(5-716)
यहाँ पर गुरु जी ने सांख्य दर्शन के विशेषकारी तत्त्व के लिये ‘अहं’ शब्द का ही नियोजन किया है और यह पाँच विकारों में सम्मिलित ‘अहंकार’ - जिसका साधारण अर्थ pride, गर्व, अभिमान होता है - से भिन्न है। दूसरे, यह ठीक है कि बाणीकार महात्माओं द्वारा ‘अहंकार’ शब्द का प्रयोग प्रधान रूप से पाँच विकारों में से एक के रूप में हुआ है और सांख्य के विशेषकारी तत्त्व के लिये उनका प्रिय शब्द ‘हउमै’ है, किन्तु हमारा मानना है कि ‘अहंकार’ शब्द को सांख्य के विशेषकारी तत्त्व के रूप में अर्थात ‘हउमै’ के अर्थ में लेने पर अधिक मौलिक और चमत्कारिक अर्थों का उद्भास होता है। अपने इस मत के औचित्य का वर्णन हम यथास्थान करेंगे।
बुद्धि व मन सहित अहंकार अंतःकरण का एक भेद है जिससे पदार्थों के साथ हमारा संबंध होता है। अहंकार हमारे मन का वह ममत्व या लगाव है जो किसी पदार्थ या कर्म के प्रति उत्पन्न होता है और जिसकी अनुपस्थिति में हमें इस सृष्टि में बांधने वाली कोई शक्ति नहीं रहती। ‘जगत् की उत्पत्ति अहंकार के कारण होती है’, ऐसा कहने का अर्थ होता है कि ‘जगत् का बंधन अहंकार के कारण होता है’। जगत् का मूल सांख्य दर्शन के अनुसार अहंकार, वेदान्त के अनुसार अध्यास और आदिग्रंथ के अनुसार हउमै कहा गया है, और ये तीनों एक ही तत्त्व के भिन्न-भिन्न नाम हैं। जब योगियों ने गुरू नानक देव से पूछा कितु कितु बिधि जगु उपजै पुरखा (1-946) तो उनका प्रश्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संबंध में (cosmological) नहीं था। वे योगी व्यावहारिक थे और उनका प्रयोजन जगत् के अध्यास से छूटकर जन्म-मरण से मुक्ति थी। उनका प्रश्न यह है कि जगत् का बंधन या अध्यास कैसे होता है? और गुरू साहिब का उत्तर भी इसी संदर्भ में है : हउमै विचि जगु उपजै पुरखा ॥(1-946) जगत् का बंधन हउमै के कारण होता है। यह हउमै भयानक रोग है, द्वैतभाव को उत्पन्न करने वाला है, जन्म-मरण, पाप-पुण्य, नरक-स्वर्ग सब इसी के कारण होते हैं :
हउमै वडा रोगु है भाइ दूजै करम कमाइ ॥(3-589)
हउमै वडा रोगु है मरि जंमै आवै जाइ ॥(3-592)
हउमै वडा रोगु है सिरि मारे जम कालि ॥(3-1258)
हउमै को समझने के लिए तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा लिखित निम्नलिखित शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है :
वडहंस महला 3 ॥
हउमै नावै नालि विरोधु है दुइ न वसहि इक ठाइ ॥
हउमै विचि सेवा न होवई ता मनु बिरथा जाइ ॥1॥
हरि चेति मन मेरे तू गुर का सबदु कमाइ ॥
हुकमु मंनहि ता हरि मिलै ता विचहु हउमै जाइ ॥रहाउ॥
हउमै सभु सरीरु है हउमै ओपति होइ ॥
हउमै वडा गुबारु है हउमै विचि बुझि न सकै कोइ ॥2॥
हउमै विचि भगति न होवई हुकमु न बुझिआ जाइ ॥
हउमै विचि जीउ बंधु है नामु न वसै मनि आइ ॥3॥
नानक सतगुरि मिलिऐ हउमै गई ता सचु वसिआ मनि आइ ॥
सचु कमावै सचि रहै सचे सेवि समाइ ॥4॥(3-560)
गुरु जी कहते हैं कि हउमै और नाम का परस्पर विरोध है। दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। जहां सूर्य का प्रकाश होगा वहां अंधकार का निवास नहीं रह सकता, ऐसे ही जहां नाम का निवास होगा वहां हउमै नहीं टिक सकती। जहां हउमै होगी, वहां नाम का निवास नहीं होगा। इसका यह भाव नहीं कि उस हृदय से नाम अनुपस्थित हो जायेगा। नाम अक्षर ब्रह्म है, सदैव हमारे अंदर रहता है, पर हउमै की अवस्था में यह गुप्त हो जाता है जैसे काले घने बादलों के कारण सूर्य समाप्त नहीं होता, केवल अदृश्य हो जाता है और हम उसकी गर्मी व प्रकाश से वंचित रह जाते हैं। इसी प्रकार हउमैग्रस्त मनुष्य के अंदर नाम तो रहता है, पर नाम से प्राप्त होने वाले शुभत्व से, उत्तम कल्याणकारी प्रकृति से वह मनुष्य वंचित हो जाता है।
हउमै दो शब्दों - ‘हउ + मैं’ - के मेल से बना एक शब्द है। इन दोनों के संस्कृत रूप हैं - अहम् + मम्, जिनके अर्थ हैं - मैं, मेरा। हम पहले 'मैं' अथवा अहम् को लें। हम सबसे ज्यादा इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। पर 'मैं' का अर्थ क्या है? अहम् (ego) क्या है? इसे कैसे परिभाषित करें? यह बड़ा कठिन है। ऐसी कोई भी परिभाषा नहीं दी जा सकती जिसके द्वारा यह बता सकें कि अहं (ego) यह है और जो भी उस परिभाषा के दायरे से बाहर है वह अहं नहीं है (no-ego)। पश्चिम में 'मैं' या अहं को परिभाषित करने का सबसे पहला प्रयत्न डैकार्ट ने किया। उसके अनुसार ‘अहं एक विचारशील सत्ता (Thinking Thing) है’। इस परिभाषा के अनुसार विचार एक गुण या विशेषता है जो सत्ता में है। लेकिन यह सत्ता क्या है? डैकार्ट के अनुसार यह एक ऐसी वस्तु है जिसका अस्तित्व स्वयंसिद्ध है, यह अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं है। डैकार्ट की परिभाषा से यह तथ्य उभरता है कि सत्ता मूल तत्त्व है, परम स्वतंत्र है, यह विचार रहित है लेकिन जब यह विचारशील होती है तो अहं का निर्माण होता है। विचारशील होना हउमै है। हमें विचार की एक लहर मात्र से भी रहित होकर अपनी शुद्ध 'मैं' में स्थिर होना है और यही निजस्वरूप का ज्ञान है। इस परिभाषा के अनुसार गुरु साहिब के कथन का आशय यह निकलेगा कि नाम प्रभु-चेतना है, एक सागर के समान है, आत्मा उसका एक अंश है। लेकिन जब तक हमारे अंदर विचारों, संकल्पों की लहरें हैं, हम अपने स्वरूप को जान नहीं सकते। नाम का पूर्ण प्रकाश हमारे भीतर नहीं होता। इस तरह अब तक के हमारे अध्ययन के अनुसार हउमै का स्वरूप है - हमारे शुद्ध स्वरूप (अहम्) का चंचल हो जाना जिससे स्वरूप विस्मृति हो जाती है और माया के पदार्थों, रिश्ते-नातों में ‘मेरा-मेरी’ की वृत्ति उत्पन्न होती है।
फिर फरमाते हैं, हउमै विचि सेवा न होवई, यहां सेवा का अर्थ प्रभु-भक्ति है। भक्ति भज् धातु से बना है जिसका अर्थ है सेवा। यहां आप कह रहे हैं हउमै विचि सेवा न होवई । आगे चलकर आपने कहा है, हउमै विचि भगति न होवई । सेवा का अर्थ भक्ति करने से दोनों पंक्तियों में अर्थसाम्य स्पष्ट हो जाता है। फिर बाणीकार महात्मा जब भी भक्ति शब्द का प्रयोग करते हें तो अर्थ समझना चाहिए, नाम की भक्ति । इस तरह यह दूसरी पंक्ति पहली पंक्ति का स्वाभाविक निष्कर्ष बन जाती है क्योंकि पहले कहा कि हउमै और नाम का परस्पर विरोध है और दूसरी पंक्ति में कहा कि हउमैग्रस्त होकर (नाम-) भक्ति नहीं हो सकती। परिणामस्वरूप, ता मनु बिरथा जाइ । जीवात्मा को प्राप्त मन - ज्ञान की मूल प्रेरक शक्ति - व्यर्थ ही चला जाता है। 84 लाख योनिओं में मनुष्य की श्रेष्ठता इसी कारण है कि हमारे पास भलीभांति विकसित मन है। मन के कारण ही मनुष्य में ज्ञान की अपार लालसा व क्षमता आती है जिससे हमारे लिए भौतिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति के द्वार खुल जाते हैं। निचली योनिओं में मन अविकसित दशा में है जिससे उनमें ज्ञान की लालसा व क्षमता नहीं होती। उनमें ऐसी संतुष्टि होती है जोकि वस्तुतः तामसिक अकर्मण्यता है जिससे वे प्रभुप्राप्ति के योग्य नहीं रहते। इस तरह मनुष्य के पास मन के रूप में एक शक्तिशाली उपकरण है जो हउमै के कारण और प्रभु-भक्ति के अभाव में व्यर्थ ही चला जाता है अर्थात् हम अपने विकास का मार्ग ऐसी दशा में खोज लेते हैं जो हमें प्रभु से दूर ले जाता है।
हउमै से मुक्ति का उपाय क्या है? रहाउ की पंक्ति में गुरू साहिब कहते हैं, ‘हे मेरे मन! तूं हरि को चेत भाव हरि के नाम का स्मरण कर। किंतु मनमर्ज़ी से प्रभु के किसी भी नाम का स्मरण नहीं करना, गुर का सबदु कमाइ । गुरू द्वारा दीक्षा के रूप में दिए गए शब्दमंत्र की कमाई कर।‘ जिस तरह स्तम्भ भवन को थाम लेता व उसे स्थिर रखता है, वैसे ही गुरू के शब्द मंत्र का स्मरण चंचल मन को थाम लेता है : जिउ मंदर कउ थामै थंमनु ॥ तिउ गुर का सबदु मनहि असथंमनु ॥(5-282) जिसको भी गुरू हरि का नाममंत्र देता है, वही माया की अग्नि से उबरता है : जा कउ गुरू हरि मंत्रु दे ॥ सो उबरिआ माइआ अगनि ते ॥(5-211) इसलिए फरमाते हैं कि तुम गुरू के हुक्म को मानो, फिर अंदर से हउमै निकल जायेगी और तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी।
शब्द की पहली पंक्ति के आधार पर हमने हउमै का अर्थ निश्चित किया था अहम् (आत्मतत्त्व) का मम् (विचार) में आ जाना। पातंजलयोग में योग की परिभाषा है - योगश्चितवृत्तिनिरोध। योग की अवस्था तब होती है जब चित्त में विचार लहरियां थम जाती हैं। चित्त में विचारों की उपस्थिति अ-योग, अ-युक्त दशा है। यही हउमै की दशा सिद्ध होती है। दूसरी ओर चित्त में वृत्तियों के प्रवाह को निरुद्ध कर देना अर्थात तत्त्वरूप आत्मा को विचार से, अहम् को मम् से रिक्त कर देना ही योगयुक्त हो जाने की दशा है। लेकिन यहां रहाउ की कड़ी में हउमै के इलाज को बताते हुए आप यह परामर्श नहीं दे रहे कि अपने अंतर में चल रहे विचारों के अविरल प्रवाह को रोक दो। इसके विपरीत आप कह रहे हैं कि गुरूमंत्र का सिमरन करो। यह ठीक है कि गुरूमंत्र के स्मरण या सिमरन की सलाह मन में बवंडरों के रूप में अनियंत्रित रूप से उठते विचारों की तुलना में अधिक अनुशासित वस्तु है किंतु सिमरन स्वयं ही विचार की एक धारा है। हमारी मूल समस्या हउमै है और यदि इस हउमै का वही अर्थ है जो हमने पहली पंक्ति में निर्धारित किया तो उसका समाधान यह बताना चाहिए कि अभ्यासी अपने मन को विचारों से शून्य कर दे। लेकिन आप यह समाधान नहीं बता रहे। आपके कथन का आशय केवल इतना ही है कि मन में जो जगत् और इसके पदार्थों के संबंध में विचारों की लहरें उठती हैं, उसके स्थान पर प्रभु से संबंधित विचार को स्थान दो। इसका अर्थ निकला कि डैकार्ट के पीछे-पीछे चलकर हमने हउमै का जो अर्थ निर्धारण किया, और जिसका शास्त्रीय आधार हमने पातंजलयोग में ढूंढा, वह गुरू जी के आश्य के अनुकूल नहीं। हम रोग को पकड़ ही नहीं पाए। हमें एक बार फिर से डैकार्ट को देखना होगा।
डैकार्ट ने कहा था कि हमारी सत्ता अर्थात् हमारी 'मैं' सबसे स्वतंत्र है। यह हमारी आत्मचेतना की अंतर्वस्तु है। हमारी 'मैं' यह सोचती है कि ‘मैं हूं’ (I exist) और हमने यह निष्कर्ष निकाला कि हमें इस विचार से छुटकारा पाना होगा। यही हउमै (अहम्+मम्) के विरुद्ध एक हथियार है। हमने यह भी देखा कि पातंजलयोग में इसी साधन का समर्थन भी है। लेकिन क्या अहम् को मम् से, विचारशील सत्ता को विचार से, अलग करना संभव है? विलियम जेम्स अपनी पुस्तक Textbook of Psychology में लिखते हैं, "मैं और मेरा के बीच अंतर करना बड़ा कठिन है। हम अपने स्वामित्वाधीन वस्तुओं के बारे में उसी तरह महसूस करते और काम करते हैं जैसे हम अपने बारे में महसूस करते और काम करते हैं। हम अपने यश, अपने बच्चों, अपनी कृतियों से उतना ही प्यार करते हैं जितना अपने शरीर से, और यदि उनमें से किसी के लिए भी खतरा उत्पन्न होता है तो हमारी प्रतिक्रिया एक समान होती है और फिर यदि हम इस शरीर पर ही विचार करें तो यह क्या है? क्या यह 'मैं' हूं या ‘मेरे स्वामित्व में पड़ी कोई वस्तु’? यह 'मैं हूं' या 'मेरी है'? निश्चित रूप से ऐसी भी उदाहरणें हैं जब मनुष्यों ने अपने शरीरों को केवल वस्त्र की तरह समझा और उनका स्वेच्छा से परित्याग कर दिया या उन्होंने अपने शरीरों को जेल की तरह समझा जिससे छूट कर उन्हें स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता हुई ......... इसलिए व्यापक रूप से देखा जाये तो एक व्यक्ति की 'मैं' उन सब का योग है जिसे वह 'मेरा' कहता है जिसमें न केवल उसका शरीर और उसकी मानसिक शक्तियां शामिल हैं बल्कि उसके वस्त्र, घर, पत्नी, बच्चे, पूर्वज, मित्र, उसका यश, उसकी कृतियां, भूमि इत्यादि भी शामिल हैं।"(Encyclopaedia of Religion and Ethics)
इसका अर्थ हुआ कि मेरी 'मैं' को मेरे द्वारा देखे जाते दृश्यों, महसूस किए जाते अनुभवों व तथ्यों से अलग नहीं किया जा सकता। यदि मेरी 'मैं' ‘मेरे’ जगत् को नहीं जानती तो यह 'मैं' हर प्रकार की अंतर्वस्तु (content) से रिक्त होगी। मेरी 'मैं' (अहम्) का संकोच या विस्तार ही जगत् संबंधी 'मेरे' अनुभव (मम्) का संकोच या विस्तार है। हउमै ते जगु उपजै पुरखा अथवा हउमै ओपति होइ जैसे कथनों का यही आश्य है।
इतना ही नहीं, वस्तुतः अहम् और मम् के मध्य संबंध सामान्य समझ के विपरीत (paradoxical) है। Encyclopaedia of Religion and Ethics लिखता है "It lives and grows by the dual process of appropriating all things related to it and at once distinguishing itself from them." 'अहम् अपने से संबंध रखने वाली सभी वस्तुओं से एक साथ संयोजन और वियोजन की दुहरी प्रक्रिया के द्वारा जीवित रहता व फलता-फूलता है।' यह जगत् मेरी 'मैं' का विस्तार अवश्य है किंतु मेरी 'मैं' जगत् से भिन्न रहकर, उसे 'मेरा' कहकर ही स्वयं को परिभाषित करती है। मैक्टागार्ट Studies in Hegelian Cosmology में लिखते हैं, "इस (अहम्) में क्या सम्मिलित है? वह सब कुछ -जिसके बारे में यह चेतन है। इसमें क्या सम्मिलित नहीं है? वही, वह सब कुछ -जिसके बारे में यह चेतन है। ऐसी कौन-सी वस्तु है जो इसके भीतर नहीं है? कुछ भी नहीं। ऐसी कौन-सी वस्तु है जो बाहर नही है? कुछ भी नहीं। यही एक पहेली है और इस पहेली के समाधान का कोई भी प्रयत्न अहम् (self) को समाप्त कर देगा।..........यदि इसे अन्य सभी वस्तुओं से अलग करके एक विशिष्ट व्यक्ति (individual) बनाने का प्रयत्न किया जाये तो इसमें निहित वह सब कुछ गुम हो जायेगा जिनके बारे में यह सचेतन है और इस तरह इसकी वह वैयक्तिकता भी समाप्त हो जायेगी जिसको संरक्षित करने के लिए हमने प्रयत्न किया था। दूसरी ओर यदि इस बहिष्करण (exclusion) को छोड़ दें और अंतर्वेशन (inclusion) पर बल देकर इसकी अंतर्वस्तु को सुरक्षित करने का प्रयत्न करें तो चेतना समाप्त हो जाती है और चूंकि अहम् में कोई अंतर्वस्तु नहीं है, यह सिर्फ किन्हीं विषयों की सचेतन विषयी है, इसलिए अंतर्वस्तु भी समाप्त हो जाती है।"(वही) इस प्रकार चेतना (अहम्) को उसके विषय (मम्) से अलग करने का प्रयास अनर्थकारी ही होगा। पातंजल योग व उससे प्रभावित साधना पद्धतियों जैसे हठयोग में मन को विचारों से रिक्त कर देने पर जोर दिया जाता है। यौगिक शब्दावली में इसे ‘मन को अ-मन करना’ या ‘मन को मारना’ कहा जाता है। किन्तु मन को मारने का वास्तविक अर्थ क्या है? इस विषय में आदिग्रंथ में कबीर जी का एक ‘चउपदा’ (चतुष्पदा) है। आप लिखते हैं :
मन का सुभाउ मनहि विआपी ॥ मनहि मारि कवन सिधि थापी ॥ 1॥
कबनु सु मुनि जो मन मारै ॥ मन मारि कहहु किसु तारै ॥ 1॥ रहाउ ॥
मन अंतरि बोलै सभु कोई ॥ मन मारे बिनु भगति न होई ॥ 2॥
कहु कबीर जो जानै भेउ ॥ मनु मधुसूदन त्रिभवन देउ ॥ 3॥(कबीर-329)
भाई वीर सिंह इस शब्द के प्राक्कथन में लिखते हैं कि किसी हठयोगी ने कहा कि जब तक मन को मार न लें तब तक सिद्धावस्था प्राप्त नहीं होती। इस प्रश्न का उत्तर इस शब्द में है। रहाउ की कड़ी में पूछते हैं कि मुझे दिखाओ तो ऐसा कौन-सा मुनि है जिसने मन को मार लिया है। जब मन को ही मार लेंगे तो बताओ उद्धार किसका होगा? मन हमारे प्राकृत घटकों का नेता है, इसके कारण ही समस्त बंधन होता है। जब तक मन को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी, आत्मा का उद्धार नहीं होगा। इसके बाद शब्द की पहली पंक्ति में लिखते हैं कि मन का स्वभाव मन में व्याप्त हो रहा है, मन को मार कर सफलता हासिल नहीं हो सकती। स्वभाव का अर्थ है - निज दशा। मन की अवस्था या स्वरूप है - ज्ञान, जानना, चिंतन करना, विचार करना। मन की इसी विशेषता के कारण जीवात्मा को परमात्मा की भक्ति करने की समझ व इसके लिए समुचित शक्तियां प्राप्त होती हैं। यदि मन को ही समाप्त कर देंगे तो सफलता कैसे मिलेगी। मन अंदर है तभी ज्ञान व कर्म की इन्द्रियां कार्य करती हैं क्योंकि मन इन इन्द्रियों रूप अश्वों के लिए लगाम है, यदि यह लगाम ढीली हो जाये तो इन्द्रियां बेलगाम हो जाती हैं, हमें इस लगाम को कसना है ताकि इंद्रियां अनियंत्रित न हों, यही मन का मारना है। अर्थात् मन को मारने का वास्तविक अर्थ मन को संयम व नियंत्रण में रखना है। कबीर जी कहते हैं कि जो इस रहस्य से परिचित हो जाता है, उसे ज्ञान हो जाता है कि मन से ही तीनों भवनों के प्रकाशस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है।
हउमै अर्थात अहं (मैं) और मम् (मेरा) के बारे में अब तक हुए अध्ययन से दो तथ्य स्पष्ट होते हैं। पहला, हम अहं (मैं) को जान नहीं सकते, और दूसरा, अहम् और मम् अर्थात् ‘मैं’ और ‘मेरा’ में गूढ़ संबंध हैं। कारण, ‘मैं’ एक ही है। ‘क’ की ‘मैं’ ‘ख’ की ‘मैं’ से भिन्न नहीं है। हम सबकी ‘मैं’ एक है और यह ‘मैं’ सत्यस्वरूप प्रभु सति की ‘मैं’ है जो हम सबकी ‘मैं’ बनी है। बाणी में इसी को नाम कहा गया है। नाम निर्गुण (attributeless), निराकार (formless), निष्क्रिय (actionless), अचल (motionless), अचर (invariable), असंबद्ध (non-relational), अकल (partless), अकाल (timeless), विशुद्ध चैतन्य (pure consciousness) है। हम अपनी इस ‘मैं’ की तलाश उस माया में करते हैं जिसे उपनिषद ‘नाम-रूप व कर्म’ कहते हैं। माया रूप है; प्रत्येक रूप का कारण और कार्य, आदि और अंत होता है; प्रत्येक रूप आयामों वाला (dimensional) होता है जो आइन्सटाइन के विशेष सापेक्षता सिद्धांत के अनुरूप सापेक्ष होता है। अतः यदि हमारे कठोर प्रयत्नों के बावजूद हमारी ‘मैं’ अपरिभाषित ही रह जाती है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। पुनः नाम सत्यस्वरूप प्रभु सति का ‘मैं’ वाला पक्ष है तो शब्द प्रभु सति का ‘मेरा’ वाला पक्ष है और इन दोनों के बीच वही संबंध हैं जो अग्नि और ताप, पुष्प और सुगंध, सूर्य और प्रकाश के बीच हैं, ये दोनों अभिन्न हैं। जो संबंध नाम और शब्द के प्रभु सति के साथ हैं वही संबंध जीवात्मा के भी नाम और शब्द के साथ हैं अर्थात नाम प्रत्येक जीव का ‘मैं’ वाला पक्ष है और शब्द प्रत्येक जीव का ‘मेरा’ वाला पक्ष है अतः जीव के लिये भी अपनी ‘मैं’ और ‘मेरा’ या ‘मेरी’ को भिन्न कर पाना असंभव है। इन दोनों में 'मैं' मुख्य, केन्द्रीय, प्राथमिक व आंतरिक तत्त्व है जबकि ‘मेरा’ गौण, परिधीय (peripheral), बाहरी व दूसरे दर्जे की वस्तु है। 'मेरा' 'मैं' से उत्पन्न होता है। अतएव मेरे लिये 'मैं' (I) यद्यपि अत्यन्त साधारण शब्द है तो भी मेरे इस शब्द के अंदर मेरे जगत् की चाबी छिपी है। इस शब्द 'मैं' के अन्दर प्रत्येक अन्य शब्द और उन शब्दों द्वारा व्यक्त अनुभवों का सारतत्त्व कैद है। मिखाईल नईमी लिखता है, "तुम्हारा 'मैं' अस्तित्व की तुम्हारी चेतना-मात्र है, मूक और देह-रहित अस्तित्व की, जिसे वाणी और देह दे दी गई है। यह तुम्हारे अंदर का अश्रव्य है जिसे श्रव्य बना दिया गया है, अदृश्य है जिसे दृश्य बना दिया गया है।" अर्थात् मेरी देह एक साधन-मात्र है जो मुझे अर्थात् मेरी 'मैं' को मेरे व दूसरों के लिए दृश्य, श्रव्य इत्यादि बनाते हैं। 'मैं' वह हूं जो दृष्टा है, श्रोता है, विचारक है, जबकि मेरी देह इत्यादि सब कुछ दृश्य, श्रव्य व विचार है। और चूंकि इस 'मैं' को 'मेरा' से भिन्न नहीं किया जा सकता अतः 'मैं' दृष्टा ही नहीं दृश्य भी है, श्रोता ही नहीं श्रव्य भी है, विचारक ही नहीं विचार भी है। मेरा जो कुछ है वह मेरी 'मैं' से उत्पन्न हो रहा है। मिखाईल नईमी लिखता है, "यदि तुम्हारे विचार ऐसे हैं जो चुभते, काटते या नोचते हैं तो समझ लो कि तुम्हारे अंदर के 'मैं' ने ही उन्हें डंक, दांत और पंजे प्रदान किये हैं।........ यदि तुम्हारे हृदय में कंटीली झाड़ियां हैं, तो जान लो कि तुम्हारे अन्दर के 'मैं' ने ही उन्हें वहां लगाया है।...... यदि तुम्हारी सृष्टि में कुछ हौए है, तो जान लो कि तुम्हारे अन्दर के 'मैं' ने ही उन्हें अस्तित्व दिया है।...... एक मूलस्रोत है 'मैं' जिसमें से सब वस्तुएं प्रवाहित होती हैं और जिसमें वे वापस चली जाती हैं। जैसा मूल स्रोत होता है, वैसा ही होता है उसका प्रवाह भी।........ 'मैं' तुम्हारे जीवन का केन्द्र है जिसमें से वे वस्तुएं निकलती हैं जिनसे तुम्हारा संपूर्ण संसार बना है, ........ यदि यह स्थिर है तो तुम्हारा संसार भी स्थिर है; ऊपर या नीचे की कोई भी शक्ति तुम्हें दायें या बायें नहीं डुला सकती। यदि यह चलायमान है तो तुम्हारा संसार भी चलायमान है; और तुम एक असहाय पत्ता हो जो हवा के क्रुद्ध बवंडर की लपेट में आ गया है।"
हमने लिखा कि ‘मेरा’ ‘मैं’ से जन्म लेता है। प्रत्येक जीवन का केन्द्र यह ‘मैं’ ही है। जब तक हम अपने केन्द्र से परिचित नहीं हैं, परिधि हमारे लिए भूल-भूलैया बनी रहेगी। अर्थात् जब तक मुझे मेरी 'मैं' का ज्ञान नहीं होता तब तक मुझे यह भी पता नहीं चलेगा कि ‘मेरा’ कौन है। मेरी ‘मैं’ आत्मा है और मेरी यह आत्मा वही बना है जो सबकी आत्मा बना है, यह नाम अथवा अशब्दब्रह्म है। इस नाम/अशब्दब्रह्म से प्रभु ने शब्द/शब्दब्रह्म की रचना की। यह शब्द प्रभु का शब्द है और इसमें प्रभु ने अपनी 'मैं' को ही, अपने आपको ही प्रकट किया है। ठीक वैसे ही, जैसे हम अपनी कृतियों में अपनी 'मैं' को ही स्वरूप देते हैं। शब्द प्रभु का 'मेरा' वाला पक्ष है, बाणी इसे तेरा सबदु कहती है। यह उसकी एकमात्र कृति है जिसका सृजन प्रभु के 'मैं' वाले पक्ष से होता है जिसे आदिग्रंथ में नाम कहा गया है। जब प्रभु ने शब्द को रचा तो कुछ भी अनरचा नहीं रहा गया। देखे गये लोक और अनदेखे लोक; जन्म ले चुकी वस्तुएं और जन्म लेने की प्रतीक्षा कर रही वस्तुएं; बीत रहा समय और अभी आने वाला समय सब, सब कुछ ही इसी शब्द के द्वारा प्रकट होता है और यह सब कुछ बहुत सुंदर रीति से निर्मित ‘सुकृत’ है। मनुष्य भी इस प्रभु की सन्तान है और मनुष्य भी अपने पिता की तरह स्रष्टा है। मनुष्य भी अपने संसार की रचना अपनी 'मैं' से करता है। लेकिन मनुष्य का संसार एक चकरा देने वाली पहेली है, अनिश्चित है, अनित्य है। कारण, वह अपनी सच्ची 'मैं' को नहीं जानता। 'मैं' की यह उलझन 'मेरा' की उलझन पैदा करती है। आत्मा का सच्चा साथी शब्द है जबकि हम अपना आश्रय मिथ्या जगत् में तलाश करते हैं। यही हउमै है। अतः हउमै मूल अज्ञानता है और यह अज्ञानता दुहरी है। सर्वप्रथम यह आत्मतत्त्व की स्वरूप विस्मृति है। मुझे पता नहीं कि 'मैं कौन हूं' (अहम्) और इसी कारण मुझे यह भी नहीं पता कि 'मेरा कौन है' (मम्)। गुरू अमरदास जी एक स्थान पर लिखते हैं :
हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥(3-601)
'हे भाई! सारा जगत् मैं, मेरी में उलझा हुआ है, वैसे कोई किसी का नहीं है।' ध्यान रहे कि 'मैं' 'मेरी' में, आत्मतत्त्व संकल्प-विकल्प में नहीं उलझा। जगत् के समस्त जीव 'मैं' 'मेरी' में उलझे हैं। अर्थात् जीव नहीं जानता कि मैं कौन हूँ? यह मूल अनुत्तरित प्रश्न है जिससे यह उलझन उत्पन्न होती है कि मेरा कौन है? इस तरह हउमै निजस्वरूप की अज्ञानता है जिससे हम जगत् में अपने सम्बन्धों को सम्यक् रीति से परिभाषित नहीं कर पाते। इसके परिणाम भयानक होते हैं। हम सारा जीवन किसी न किसी को अपना बनाकर जीते हैं, लेकिन आप कहते हैं कोइ न किस ही केरा, कोई किसी का नहीं है। हम आत्मा है और हमारा सिर्फ परमात्मा है और यह परमात्मा वही है जो आत्मा बना है और साथ ही यह बाहरी जगत् भी, जिसमें हम रहते हैं। यही हउमै से उत्पन्न प्रश्नों के उत्तर हैं। अतः पूर्ण गुरू ऐसा कोई साधन नहीं बताता जैसा कि योग की अन्य विधियों में बताया गया है कि मन को विचारों से खाली कर दो। विचार का परिणाम ऊर्जा है और ऊर्जा का परिणाम द्रव्य है और ये तीनों प्रभु के दिव्य संकल्प से उत्पन्न हैं। विचार अदिव्य नहीं, अनियंत्रित विचार अदिव्य है। अतः गुरू बताता है कि गुरूस्वरूप का ध्यान करते हुए गुरूमंत्र का स्मरण करो :
गुर की मूरति मन महि धिआनु ॥ गुर कै सबदि मंत्र मनु मान ॥(5-864)
गुरू देह-मात्र नहीं है, गुरू का तात्त्विक रूप शब्द है और शब्द अंतःस्थ प्रभुसत्ता है। यह शब्द ही हमारा सच्चा सखा है। पुनः यह शब्द कुछ और नहीं नाम से निस्सृत दिव्य शक्ति है जो हमारा मूल स्रोत, हमारी सच्ची ‘मैं’ है। अतः स्मरण और ध्यान दोनों विधियां संयुक्त रूप से हमें एकमेव सत्ता शब्द और फिर नाम की ओर ले जाती हैं। स्मरण और ध्यान से हमें पता चलता है कि हम तो उस आत्मा के साथ एकमेक हैं जो सबकी आत्मा है; और हमारा तो सिर्फ हरि है। यही हउमै की अचूक औषधि व हमारी समस्याओं का समाधान है।
उसी शब्द में आगे गुरू अमरदास जी लिखते हैं, 'हउमै से ही जगत् की उत्पत्ति होती है, हउमै से ही सभी शरीरों अर्थात रूपों व आकृतियों की उत्पत्ति होती है।' यह पंक्ति सांख्य व वेदांत के इस विचार के अनुरूप है कि अहं विश्व के आविर्भाव की अनिवार्य स्थिति है। हमने देखा कि सांख्य दर्शन में बताई गई प्रकृति में यह जगत् अव्यक्त अवस्था में था। प्रकृति से महत् की उत्पत्ति की दशा में यह सृजन के लिए अधिक नमनशील व अनुकूलनशील पदार्थ का रूप ग्रहण कर लेता है। प्रकृति का यही रूप पुरुष (जीव) देखता है। पुरुष के द्रष्टा होने का अर्थ है कि इस प्रक्रिया में वह अपने मूल स्वरूप से भिन्न रूप में भासित होता है। इस प्रकार जगत् वह है जो पुरुष द्वारा देखा जाता है (perceived and witnessed)। बुद्धि वह चंचल पदार्थ है जिसमें पुरुष अपने आपको आभासों के एक विराट दृश्य या चित्रावलि के रूप में देखता है और यह चित्रावलि ऐसी प्रतीत होती है मानों वह सचेतन हो। इससे दोहरी अज्ञानता उत्पन्न होती है। '’पहली, मैं कौन हूं? पुरुष, जो द्रष्टा है या आभासों की वह चित्रमाला जिसे मैं देख रहा हूं? दूसरी, मेरे द्वारा देखा जाता यह विराट दृश्य क्या है? केवल आभासों की एक चित्रमाला या सचेतन सत्ताओं का समूह।’'(Perspectives on Guru Nanak, पृ-47) वाणी में इस दोहरी अज्ञानता को हउमै कहा गया है।
(शेष आगे)
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