To understand the theory of creation as presented in the Adi Granth, the description of the five realms by Guru Nanak Dev Ji in his celebrated poem Japuji supplies us the basic study material. It is our opinion that these five realms, namely Dharmkhand, Gyankhand, Saramkhand, Karamkhand and Sachkhand are REAL worlds. In this part of the Karta Purush, we have given an introductory account of these five realms.
आदिग्रंथ में वर्णित सृष्टि-रचना के सिद्धांत को समझने के लिए गुरू नानक देव जी की महानतम कृति 'जपुजी' में किया गया पांच खंडों या लोकों का वर्णन मूलभूत आधार सामग्री प्रस्तुत करता है। ये 5 लोक हैं - धर्मखंड, ज्ञानखंड, सरमखंड, करमखंड व सचखंड। ये खंड यथार्थ किंतु सूक्ष्म भौतिक, प्राणिक, मानसिक, चेतन व महाचेतन जगत् हैं। कर्ता पुरुष के इस भाग में इन पांच खंडों का परिचयात्मक अध्ययन किया गया है।
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मूलमंत्र के अनुसार परमात्मा ‘कर्ता’ अर्थात सृष्टि का रचयिता है। लेकिन आदिग्रंथ में सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में दिए गये सिद्धांतों में इतनी विविधता है कि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि इस पुस्तक के आधार पर सृष्टि रचना का कोई सिद्धांत निर्मित नहीं किया जा सकता। आदिग्रंथ में सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में दिए गये कारणों की सूची से यह भली-भांति ज्ञात हो जायेगा :
ओंकार से उत्पत्ति :
ओंकार उतपाती ॥ कीआ दिनसु सभ राती ॥(5-1003)
2. शून्य से उत्पत्ति :
पउण पाणी सुंने ते साजे ॥ स्रिसटि उपाइ काइआ गढ़ राजे ॥(1-1057)
3. हुकम से उत्पत्ति :
हुकमै दीसै जगतु उपाइआ ॥(1-1037)
4. शब्द से उत्पत्ति :
उतपति परलउ सबदे होवै ॥(3-117)
5. कवाउ से उत्पत्ति :
एक कवावै ते सभि होआ ॥(5-1003)
6. नाम से उत्पत्ति :
नामै ही ते सभु किछ होआ ........ ॥(3-753)
7. नूर से उत्पत्ति :
अवलि अलह नूर उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ।
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥(कबीर जी -1349)
8. माहो (महत्) से उत्पत्ति :
गई बुलावन माहो ॥ घर छोडिऐ जाइ जुलाहो ॥(कबीर जी -335)
(जब जीव रूपी जुलाहा देह रूपी घर को छोड़ने लगा तो महत् अर्थात् महान बुद्धि इसके लिए वस्त्र अर्थात् शरीर बुनने लगी।)
9. सत्यस्वरूप परमात्मा सति द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करना :
तूं करता सचिआर मैंडा सांई ॥(4-11)
10. हउमै से उत्पत्ति :
हउमै विचि जगु उपजै पुरखा ...........॥(1-938)
लेकिन सिद्धांतों की यह विविधता या अव्यवस्था सिर्फ ऊपरी है। आगे चल कर हम देखेंगे कि आदिग्रंथ में सृष्टि-रचना के संबंध में एक महान सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है जो जितना शास्त्रीय व पुरातन है, उतना ही नवीन व वैज्ञानिक भी है।
आदिग्रंथ में वर्णित सृष्टि-रचना के सिद्धांत को समझने के लिए गुरू नानक देव जी की महानतम कृति 'जपुजी' में किया गया पांच खंडों का वर्णन मूलभूत आधार सामग्री प्रस्तुत करता है। इन खंडों का विस्तृत अध्ययन श्री राम सिंह द्वारा लिखित शोधग्रंथ 'जपुजी दे पंजा खंडां दा बहुपखी अध्ययन' में किया गया है जिससे यह लेखक बहुत लाभान्वित हुआ है। राम सिंह की पुस्तक के अतिरिक्त हमने आदिग्रंथ में अन्यत्र दिये गये प्रमाणों व संकेतों के साथ-साथ सनातनी साहित्य जैसे वेद, उपनिषद्, गीता, वेदांत, सांख्य के प्रमाणों व रहस्यवाद पर पूर्व व पश्चिम के चिंतकों की सहायता भी ली है जिनमें प्रसिद्ध पारसी संत मेहर बाबा की पुस्तक God Speaks भी शामिल है। इसके अतिरिक्त कश्मीरी शैव दर्शन व तद्संबंधी प्राचीन व अर्वाचीन साहित्य, महर्षि अरविंद की पुस्तकों, श्री एन सी पंडा कृत Cyclic Universe, स्वामी योगानंद प्रणीत An Autobiography of a Yogi से तथा अनेक अन्य लेखकों से भी लाभ उठाया है।
जपुजी की पउड़ी संख्या 34 से 37 तक आये इन पांच खंडों को गुरू नानक देव ने साधक की क्रमागत उन्नति को ध्यान में रखकर संयोजित किया है। पउड़ी संख्या 34 स्थूल भौतिक जगत् धर्मखंड का वर्णन करती है जिसके उपरांत ज्ञानखंड, सरमखंड, करमखंड व सचखंड का वर्णन है। लेकिन चूंकि इस अध्याय में हमारा सरोकार साधक की क्रमागत उन्नति से नहीं बल्कि सृष्टि में क्रमशः बढ़ती यौगिकता (involution) से है इसलिए हम अपने अध्ययन के लिए सर्वप्रथम पउड़ी संख्या 37 में वर्णित सचखंड से आरम्भ करके पीछे की ओर पउड़ी 34 में वर्णित धर्मखंड की ओर आयेंगे। ऐसा दृष्टिकोण हमारे प्रयोजन के लिए लाभदायक है क्योंकि इसमें हम अपनी यात्रा को ऐसी एकता से आरम्भ करके, जहां सृष्टि की समस्त विविधता एक संभावना के रूप में मौजूद है, उस विविधता की ओर बढ़ेंगे, जहां वह संभावना उत्तरोत्तर रूप से संभव व मूर्त्त होती जाये। साथ ही इस अध्ययन में हम गुरू नानक के दृष्टिकोण् अर्थात् साधक की चेतना का बहुलता से एकता की ओर क्रमशः विकास और अपने घोषित प्रयोजन अर्थात् परमसत् का अविभाज्य व अविभाजनीय एकता से इस विस्मयकारी अनेकता में प्रकटन, इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच मिलान व तुलना भी करते रहेंगे ताकि हम विषयवस्तु को बेहतर तरीके से समझ सकें।
'खंड' शब्द के अर्थों के संबंध में एक राय नहीं है। इसका कोशगत अर्थ ‘टुकड़ा’ है। भाई काहन सिंह नाभा ने 'महान कोश' में इस शब्द के अन्य अर्थों के साथ-साथ काँड, भूमिका, दरज़ा, मंज़िल आदि अर्थ किए हैं। जपुजी के अंग्रेजी अनुवादकों ने इस शब्द का अनुवाद realm, domain, sphere आदि किया है। यदि हम पारिभाषिक अर्थों पर बहुत अधिक आग्रह न करें तो हिंदी में ‘खंड’ शब्द के पर्याय के रूप में ‘मंडल’ या ‘लोक’ शब्द उपयुक्त हैं। गुरू नानक ने खंडों की पउड़ियों में स्थानवाचक क्रियाएं व क्रियाविशेषण प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त की हैं, जैसे तिथै, ओथे, वसै आदि। किंतु यदि इन स्थानवाचक शब्दों का अर्थ उस देश व काल के अर्थ में किया जाये, जो हमारे मन को समझ में आता है तो उससे बहुत बड़ा भ्रम पैदा होगा। आध्यात्मिक साहित्य में 'जो ब्रहमंडे सो पिंडे' का सिद्धांत बहुप्रचलित है इसलिए इन पांच खंडों को समझने के लिए वेदान्त के पांच कोषों पर किंचित दृष्टिपात करना अनुचित नहीं होगा। मनुष्य के अस्तित्व को पांच कोषों में विभक्त किया जाता है लेकिन इन कोषों का देशकालगत संदर्भ एक नहीं। प्रत्येक कोष एक संकेन्द्रित वृत्त है जिसके अंदर दूसरा व क्रमिक रूप से तीसरा, चौथा व पांचवां वृत्त है लेकिन चौथे वृत्त का मूल पांचवां वृत्त है, चौथा वृत्त तीसरे को उत्पन्न करता है और इसी तरह तीसरा वृत्त दूसरे को व दूसरा वृत्त पहले को उत्पन्न करते हुए पांचों मिलकर एक काया का निर्माण करते हैं। इस परियोजना में प्रत्येक पूर्ववर्ती वृत्त पश्चवर्ती से अधिक सूक्ष्म व शक्तिशाली है। हमारा कहने का यह अर्थ नहीं कि ये पांच खंड पांच कोष ही हैं, हमारा आशय यह है कि कोषों की तरह खंडों का भी वस्तुपरक अस्तित्व है लेकिन हर खंड का देशकालगत संदर्भ निजी, अनन्य व एकान्तिक है। इतना ही नहीं, प्रत्येक खंड के अंदर भी देश व काल का बोध एक समान नहीं है। यह तथ्य हमारे इस भौतिक जगत् धर्मखंड को देखने से भली-भांति सिद्ध हो जाता है जहां काल का हिसाब अलग-अलग होता है। उदाहरणार्थ, दुनिया की तमाम मक्खियों के लिए समय बहुत तेज चलता है, उन्हें इंसानों की गतिविधियां ऐसी लगती हैं, जैसे वे कोई स्लो मोशन फिल्म देख रही हों। यह कहा गया है कि इंसानों के विपरीत कुत्ते इसी वजह से टेलीविज़न के दृश्यों को समझ नहीं पाते क्योंकि टेलीविज़न पर जिस गति से दृश्य चलते हैं, उसमें उन्हें अलग-अलग फ्रेम दिखाई देते हैं। “वर्तमान में समय को एक निर्देशांक (dimension) माना जाता है। आइन्सटाइन के अनुसार भिन्न-भिन्न निर्देश तंत्र (reference frame) में समय का मान भिन्न-भिन्न होता है। आकाश में समय का कहीं धीरे और कहीं तेज होना भी वर्तमान विज्ञान स्वीकार करता है।
🔺t1 = 🔺t ⁄ √1−V2∕ C2
🔺 = Delta
t1 = Denotion
यहाँ 🔺t1 गतिशील निर्देश तंत्र में दो घटनाओं के मध्य का समय है; जबकि 🔺t समान घटनाओं का स्थिर निर्देश तंत्र में समय है; C निर्वात में प्रकाश की गति है और V वस्तु की गति है।” वस्तुतः काल प्रत्येक प्रजाति, यहाँ तक कि प्रत्येक जीव के लिये भिन्न है। हमारे लिए काल वही है जो हमारी ज्ञानेन्द्रियां बताती हैं। हमारे लिए समय के आकलन और संज्ञान का निर्धारण हमारा मस्तिष्क करता है। काल की सत्ता सापेक्ष है, न कि निरपेक्ष। श्री अरविंद लिखते हैं, ''काल सत्ता के अलग अलग स्तरों पर अलग अलग होता है, यहां तक कि एक ही लोक में अलग अलग सत्ताओं के लिए बदलता है, मतलब यह कि यह निरपेक्ष नहीं है।''(दिव्य जीवन, पृ -372) इसलिए काल व देश के संदर्भ प्रत्येक खंड में भिन्न-भिन्न होंगे। ज्यों-ज्यों खंड सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते जायेंगे, त्यों-त्यों भौतिक नियम, जो इस भौतिक सृष्टि में इतने दुर्निवार हैं, सूक्ष्म व परिवर्तित होते जायेंगे। इस प्रकार इन खंडों को पौराणिक भाषा का इस्तेमाल करके 'लोक' कहना गलत नहीं होगा। वैसे भी पंडित हरि सिंह नरोत्तम ने इन खंडों की तुलना पुराणों के सात लोकों भू, भवः, स्वः आदि से की है। यद्यपि पुराणों में कहीं तीन लोक, तो कहीं सात, आठ, चौदह भी बताए गए हैं, पर जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे, लोकों की गिनती में इस भेद का कारण दृष्टिकोण का भेद ही है, इसलिए हम इसे अनदेखा कर सकते हैं।
इस प्रकार ये खंड वास्तविक हैं। हां, मनुष्य की सापेक्ष चेतना के दायरे से बाहर हैं। ज्यों-ज्यों चेतना का दायरा बढ़ेगा, यह निरपेक्ष सत् के साथ एक होगी, त्यों-त्यों ये खंड मनुष्य की चेतना के दायरे में आते जायेंगे। मनुष्य की चेतना जितनी अधिक सूक्ष्म, विशाल व विस्तृत होगी, ये खंड उतने ही वास्तविक व मूर्त्त होंगे। इस प्रकार इन खंडों का एक विकासवाचक अर्थ भी है। जब डा0 वजीर सिंह लिखते हैं कि 'इन पउड़ियों में आत्मिक विकास की पांच मंज़िलें बताई गई हैं जोकि गुरू साहिब द्वारा रहस्मयी अनुभव के माध्यम से ग्रहण किए गये परमसत् के दरजे भी हैं।'(नानक बाणी चिंतन; राम सिंह द्वारा उद्धरत) तो वह सत्य के बहुत नज़दीक होते हैं। ये खंड परमसत् के दरजे या मंज़िलें हैं, जिनका अनुभव रहस्यवादी अनुभव की तरह निजी व आंतरिक किंतु मूर्त्त व प्रामाणिक होता है। ज्यों-ज्यों यह अनुभव विशाल, व्यापक व गहन होता है, त्यों-त्यों मनुष्य का आत्मिक क्षितिज भी विशाल होता है। फिर यह आत्मिक विकास मानसिक अवस्था को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहता क्योंकि मन ही नहीं, प्राण व जड़ पांच तत्व भी आत्मा की शक्ति से ही कार्यरत हैं। यह समस्त शरीर आत्मा की शक्तियों का ही प्रकटन है, अतः आत्मिक उन्नति से साधक का संपूर्ण अस्तित्व कांतिमय हो जाता है। इसलिए जब डा0 शेर सिंह इन खंडों द्वारा मानसिक विकास का कथन देखते हैं, तो हम उन्हें पूरी तरह गलत नहीं कह सकते। इसी तरह डा0 मोहन सिंह दीवाना ने खंडों की व्याख्या वाहेगुरू के विभिन्न गुणों जैसे धर्म, न्याय, दया के आधार पर की है और अपनी व्याख्या में देखेंगे कि ये खंड वाहेगुरू के स्वरूप की तीन विशेषताओं सत्, चित्, आनंद का ही प्रकटन हैं। पुनः वेदांत के प्रभाव में जिन टीकाकारों ने इन खंडों को आध्यात्मिक जीवन की साधना की विधियों से संबंधित करके धर्मखंड को कर्मकांड, ज्ञान खंड को ज्ञानकांड व सरमखंड को भक्तिकांड से जोड़ कर इनके कांडवाचक अर्थ किए हैं, वे भी पूरी तरह गलत नहीं। हमें सिर्फ यह सुनिश्चित करना होगा कि इन कांडवाचक अर्थों पर सांप्रदायिक सिद्धांतों जैसे वेदान्त, मीमांसा, सांख्य आदि की जो भारी धूल पड़ी है, उसे झाड़ पोंछकर इन शब्दों को उस सांचे में ढालें जिसे सर्वप्रथम औपनिषदिक वेदान्त ने प्रस्तुत किया और जिसे हमारे युग में श्रीअरविंद जैसे महर्षियों ने आधुनिक मुहावरे में ढाला। सार रूप में कहें तो ये खंड यथार्थ किंतु सूक्ष्म भौतिक, प्राणिक, मानसिक, चेतन व महाचेतन जगत् हैं और इसी कारण भौतिक इन्द्रियों के लिए अप्राप्य व मानव मन की उस सीमित समझ के लिए अतीत की वस्तु हैं, जो या तो आगमनात्मक तर्क (inductive logic) के कारण विक्लांग हो जाती है या फिर निगमनात्मक तर्क (deductive logic) के कारण ठोस साक्ष्य के अभाव में लुंजपुंज निष्कर्ष ही प्रस्तुत कर पाती है। इस विषय में हमें बुद्धिजीवियों के प्रति संदेह का भाव रखना होगा क्योंकि उनकी आजीविका अर्थात् ज्ञान का साधन बुद्धि है। साथ ही उन लेखकों का आश्रय अधिक मात्रा में लेना होगा जो स्वयं आत्मिक पथ के पथिक हैं। दूसरे, चूंकि पांच खंडों का यह वर्णन अपने गर्भ में एक विशालतर सत्य को समेटे हुए है जिसके कारण यह वर्णन मर्मस्पर्शी व बहुआयामी बन गया है और हमारा प्रयोजन इस सत्य को बौद्धिक चौखटे में प्रस्तुत करना है, अतः हमारे लिए इस सत्य के सभी आयामों को अपने दायरे में लाना एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है। स्वाभाविक रूप से हमें अपने उद्यम व अपेक्षाओं को सीमित करना होगा और अपनी जिज्ञासा को आदिग्रंथ में प्रस्तुत सृष्टि-रचना की प्रक्रिया की स्थूल समझ तक ही सीमित करना होगा।
(शेष आगे)
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Bhut Sundar