In Adi Granth, three levels of intelligence are described - intuition, conscience and intelligence. Similarly, three types of human beings have been discussed, namely - Manmukh, Gurmukh and Purna Sant. Whenever a Manmukh is mentioned in Bani, it is said that he does clever things, and when Gurmukh practitioner is mentioned, it is said that he does due deliberation. Also, when the complete saint was described, it was said that he was in a state of ease. To find out what is the basis of this distinction, read Karta Purush 19.
आदिग्रंथ की बाणी में बुद्धि के तीन स्तर बताये गये हैं - सहजावस्था या अंतःप्रज्ञ, विवेकबुद्धि व प्रकृत बुद्धि। इसी तरह बाणी में तीन प्रकार के मनुष्यों की चर्चा हुई है - मनमुख, गुरमुख और पूर्ण संत। जब भी बाणी में मनमुख व्यक्ति का उल्लेख हुआ है तो कहा गया है कि वह चतुराईयां करता है, और जब गुरमुख अभ्यासी का उल्लेख हुआ है तो कहा गया है कि वह विचार करता है। साथ ही जब पूर्ण संत का वर्णन हुआ तो कहा गया कि वह सहजावस्था में है। इस भेद का क्या आधार है, यह जानने के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 19.
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हमने देखा कि शब्द दिव्य सत्ता है, भगवद्गीता में इसे ही परा अर्थात ज्ञानमयी प्रकृति कहा गया है। शब्द से अपरा प्रकृति उत्पन्न होती है, यह जड़ गुणमयी प्रकृति है। इसमें तीनों गुण संतुलन की अवस्था में हैं जिसके कारण यह पूरी तरह स्तब्ध दशा में होती है। इससे पता चलता है कि परा प्रकृति अर्थात् शब्द व अपरा प्रकृति अर्थात् त्रैगुणी माया दोनों में दृष्टिमान विविधता का अभाव है। दूसरी ओर हउमै या अहंकार विविधता का नियम है। यहां माया के तीनों गुण पुरी तरह असंतुलित हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक प्रकृति अर्थात् शब्द व भौतिक प्रकृति अर्थात् त्रैगुणी माया, दोनों एकता की अवस्थाएं हैं जबकि हउमै विविधता की अवस्था है, इस तर्क से इन दोनों की मध्यवर्ती अवस्था बुद्धि को एकता-सह-विविधता कहा जायेगा। शब्द समस्त दृष्ट व अदृष्ट जगत् के लिए एक ओर तो उर्वर भूमि प्रस्तुत करता है, दूसरी ओर त्रैगुणी माया में रूपांतरित होकर जगत् का बीज भी बनता है। महान् बुद्धि बीज के अंकुरण की अवस्था है। इस अवस्था में बीज भी है और अंकुर भी और दोनों एक अवियोज्य समुच्चय (inseparable whole) के रूप में होते हैं। विकास की अगली अवस्था में विविधता का प्राधान्य होगा और एकता पूरी तरह तिरोहित हो जाती है। इस प्रक्रिया में अंतिम दोनों अवस्थाएं अर्थात् प्रकृति में बुद्धि का उत्पन्न होना और हउमै द्वारा पृथक् होना वैसे ही है जैसे एक बर्तन से पारे का जमीन पर गिरना और उसकी अलग-अलग छोटी-छोटी गोलियां बन जाना। इससे स्पष्ट है कि बुद्धि की दो अवस्थाएं होंगी, एक, हउमै से मुक्त बुद्धि, व दूसरी, हउमै से ग्रस्त बुद्धि। बुद्धि का पहला रूप प्रभु-मिलाप, एकता व अनंतता की ओर ले जाता है जबकि दूसरा रूप अनेकता, वियोग व सांतता की ओर। आदिग्रंथ में बुद्धि के इन दोनों रूपों को क्रमशः विवेकबुद्धि व अहंबुद्धि कहा गया है। गुरू नानक देव जी लिखते हैं :
अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥
अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ॥
अकली पढ़ि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ॥
नानकु आखै राहु एहु होरि गलां सैतानु ॥(1-1245)
'(नाम-स्मरण से रहित बुद्धि को) बुद्धि नहीं कहा जाता, इस बुद्धि से (तो जीवन) व्यर्थ चला जाता है। बुद्धि वह है जिससे परमात्मा का स्मरण करें और (उसके दर पर) इज्ज़त कमाएं। बुद्धि वह है (जिससे धर्मग्रंथों को) पढ़े, उन्हें समझें और दूसरों को समझाएं। नानक कहता है कि जीवन का उत्तम रास्ता यही है, इससे इतर बातें शैतान की हैं।' यह शुद्ध बुद्धि है जो प्रभु की पराशक्ति से उत्पन्न होती है और उसकी अपनी क्रिया है। 'आसा दी वार' में गुरू नानक लिखते हैं :
कुदरति वेद पुराण कतेबा कुदरति सरब वीचारु ॥(1-464)
'वह बुद्धि जिससे हिंदूओं की पवित्र पुस्तकें वेद व पुराण और सामी धर्मों की धार्मिक पुस्तकें लिखी गयी हैं तथा जिससे सब उत्तम विचार संभव होते हैं, प्रभु की कुदरत ही है।' ध्यान रहे कि श्रेष्ठ विचारों का मूल प्रभु की शक्ति है किंतु मलीन विचारों का मूल प्रभु की शक्ति नहीं है। यह उत्तम बुद्धि प्रभु की कृपा से प्राप्त होती है :
सा बुद्धि दीजै जितु विसरहि नाही ॥
सा मति दीजै जितु तुधु धिआई ॥(5-100)
बाणी में प्रयुक्त कुछ पद यथा सिआणप, चुंच ज्ञान, चतुराई, हिकमत, अहंबुद्धि, अलूणी मति, चंचल मति, कुबुद्धि, कुमति, दुरमति आदि बुद्धि के उस रूप की ओर संकेत करते हैं जो हउमैग्रस्त हैं। इस संबंध में नीचे उद्धरण देखें :
अहंबुद्धि सुचि करम करि इह बंधन बंधानी ॥(5-242)
करमि मिलै ता पाईऐ होर हिकमत हुकमु खुआरु ॥(1-464)
ए मन चंचला चतुराई किनै न पाइआ ॥(3-917)
जगु कऊआ मुखि चुंच गिआनु ॥(3-832)
कची कंध कचा विचि राजु ॥ मति अलूणी फिका सादु ॥(1-25)
गुर साखी अंतरि जागी ॥ ता चंचल मति तिआगी ॥(1-599)
यह वह बुद्धि (intellect) है जिसके द्वारा ग्रहण किया गया ज्ञान 'दर्शन' (philosophy) कहलाता है। यह ज्ञान संकल्पनाओं (ideas) का ज्ञान होता है। यह बुद्धि तीन प्रकार की होती है - रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी। समग्र रूप से इसे 'मनमुखता' कहा गया है। इसके विपरीत हउमै से मुक्त बुद्धि है जिसे आदिग्रंथ में सुमति, पूरी मति, निर्मल मति, उत्तम मति, बिबेक बुद्धि आदि कहा गया है। इस संबंध में उद्धरण नीचे दिए गए हैं :
एक सुमति रति जानि मानि प्रभ दूसर मनहि न आनाना ॥
चंदन बासु भए मन बासन तिआगि घटिउ अभिमानाना ॥ (कबीर -339)
बुद्धि प्रगास भई मति पूरी ॥ ता ते बिनसी दुरमति दूरी ॥(5-3)
सा मति निरमल कहीअत धीर ॥ राम रसाइणु पीवत बीर ॥(5-198)
सतिगुर मिलिऐ मति उतम होइ ॥ मन निरमल हउमै कढै धोइ ॥(1-1188)
बुद्धि के इस रूप के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द ‘विचार’ है जो गुरमुख का प्रधान गुण है। बुद्धि के इन दोनों रूपों को हम प्रकृत बुद्धि (instinct) व विवेक बुद्धि (Reason) कह सकते हैं। प्रकृत बुद्धि सभी जीवों में प्राकृतिक अवस्था में ही पाई जाती है। यह जन्मजात होती है। प्रकृत बुद्धि से प्रेरित व्यवहार वह है जिसे हम बिना सोचे समझे करते हैं। एक पशु जन्म लेते ही सहज प्रवृत्ति से उठ कर मां के पास चला जाता है और दूध पीता है। पशुओं की प्रत्येक प्रजाति, बैक्टीरिया से लेकर व्हेल तक सब आत्मरक्षा, प्रजनन, भोजन, आवास आदि के संबध में अचूक कौशल व बुद्धि का प्रदर्शन करते हैं। यहां तक कि एककोशिकीय जीव भी अपने जीवनचक्र की सीमाओं के भीतर बुद्धि कौशल व स्वतंत्र संकल्प का प्रदर्शन करते हैं। मनुष्य, पशु व पेड़-पौधों में प्रत्येक अंग व कोशिका न केवल अपने व्यक्तिगत व्यवहार बल्कि सामूहिक समन्वित कर्म में भी रहस्यमय बुद्धि-कौशल व चतुराई का परिचय देते हैं। यही बुद्धि विकसित मन के कारण अधिक परिष्कृत रूप में मनुष्य में दिखाई पड़ती है। मनुष्य विद्यार्जन, जीवन साथी की तलाश, संतान की परवरिश, घर का निर्माण आदि गतिविधियां इसलिए सहज रूप से करता है क्योंकि यह उसके लिए स्वाभाविक है। हम प्रत्येक जन्म में यही सब कुछ करते आए हैं। लेकिन सद्गुरु की शरण में आकर मनुष्य का जीवन स्वतः प्रवृत्त नहीं रहता बल्कि अब वह गुरू के हुक्म के अनुसार विचार करते हुए समस्त कार्य करता है। इसलिए विवेक बुद्धि या 'विचार' प्रकृत बुद्धि की तुलना में एक उन्नत अवस्था है। प्रकृत बुद्धि में सदैव कामना की रंगत मौजूद रहती है। जीवन के प्रयोजन के संबंध में यह बुद्धि या तो लौकिक जगत् तक ही सीमित रहती है या अपने पारलौकिक लक्ष्यों के बारे में उहापोह से घिरी रहती है। भगवद्गीता में कहा गया है कि 'ऐसी बुद्धि अव्यवसायी अर्थात् दृढ़ निश्चय से रिक्त होती है। यह अनेक शाखाओं वाली होती है। यह बुद्धि मनुष्य को भोगों में तन्मय रखती है। इस बुद्धि के अनुसार स्वर्ग ही परमप्राप्य वस्तु है।'(2-41.42.43) दूसरी ओर शब्द का अभ्यासी जीव विवेकशील होता है। बाणी में अनेक स्थानों पर शब्द पद का प्रयोग विचार के साथ ही हुआ है। शब्द प्रभु की शक्ति है, शब्द के अभ्यासी के भीतर यह शक्ति ही विचार, विवेक का रूप धारण करती है जिससे साधक में सत् और असत् के बीच विवेक, तथ्य और सत्य के बीच विवेचन, कारण और परिणाम के बारे में पर्यालोचन और इन सभी कारकों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि होती है। शब्द का अभ्यासी जीव ‘दूसरों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण नहीं रखता, वह जानता है कि असल पारखी वह है जो दूसरों की नहीं बल्कि अपने आप की परख करे। वह ऐसे समझदार वैद्य के समान है जो मनुष्य के आत्मिक रोग को भी जानता है और इस रोग के इलाज को भी। ऐसा मनुष्य जीवन पथ पर दूसरों से झगड़े नहीं करता, वह अपने आप को जगत् में यात्री समझता है और अपने मूल प्रभु की पहचान करने का प्रयत्न करता है। उसका उठन-बैठन अपने जैसे सत्य के अन्वेषकों के साथ होता है। ऐसा मनुष्य लोभ की तरंग गतियों के आसरे नहीं रहता बल्कि सच में अडोल टिका रहता है और इस तरह आप तो भवसागर को पार करता ही है, दूसरों के लिए भी परमात्मा के रास्ते पर प्रामाणिक मध्यस्थ बन जाता है' :
नानक परखे आप कउ ता पारखु जाणु ॥
रोग दारू दोवे बुझै ता वैदु सुजाणु ॥
वाद न करई मामला जाणै मिहमाणु ॥
लबि न चलई सचि रहै सो विसटु परवाणु ॥(2-148)
गुरू की संगत में आकर जीव जान लेता है कि 'परमात्मा सच्चा साहूकार है, जीव उस साहूकार के भेजे हुए वणजारे हैं और वही जीव-वणजारे सच का व्यापार करते हैं जो गुरू के अपार प्रेम में टिके रहते हैं' :
सचा साहु सचे वणजारे ॥ सचु वणंजहि गुर हेति अपारै ॥(3-117)
जब यह जीव गुरु के पास जाता है तो गुरू यह समझाता कि 'हे जीव वणजारिओ ! जब व्यापार करने लगो तो सोच समझ कर, सावधान होकर कीमती वस्तु का सौदा करना' :
वणजु करहु वणजारिउ वखरु लेहो समालि ॥(1-22)
परदेस गये एक व्यापारी के लिए कीमती वस्तु वह है जो उसके अपने देश में महंगे भाव बिकती है। हम जीवों के लिए यह मृत्यु लोक परदेस है और हम यहां उस कीमती वस्तु का व्यवसाय करने के लिए आये हैं जो हमारे देश में अनमोल समझी जाती है। यह परमसद्वस्तु शब्द है। यह ठीक है कि हमने यहां कुछ अवधि के लिए रहना है। हमें रोटी, कपड़ा, मकान आदि चाहिए। इसके लिए हमने इस लोक में मूल्यवान समझी जाने वाली वस्तुएं जैसे धन आदि का संग्रहण भी करना है किंतु एक विवेकशील व्यापारी की तरह याद रखना है कि एक दिन हमारा वर्क परमिट खत्म होगा और हमें अपने देश वापस लौटना होगा। इसलिए हमें अपना ज्यादा से ज्यादा समय कीमती वस्तु शब्द को इकट्ठा करने में लगाना है। फिर गुरू ने यह भी समझाया कि 'हे जीव वणजारिओ! उसी वस्तु का व्यवसाय करना जो साथ निभ जाए' :
तैसी वसतु बिसाहिए जैसी निबहे नालि॥(वही)
मन के कहे लगकर या देखा-देखी किए गए दान-पुण्य आदि कर्मकांड का फल धर्मराज के दूत रास्ते में ही छीन लेते हैं जैसे किसी मुसाफिर की रेजगारी चाय-पानी में ही व्यय हो जाये :
करम धरम पाखंड जो दीसहि तिन जमु जागाती लूटै ॥(5-747)
फिर गुरू की संगत में जिज्ञासु जीव यह भी जान लेते हैं कि 'आगे बैठा साहूकार बड़ा गुणी, ज्ञानी है, वह हमसे वस्तु को अच्छी तरह जांच परख कर लेगा' :
आगै साहु सुजाण है लैसी वसतु समालि ॥(1-22)
एक अनजान व्यक्ति के सामने दो मोती रखे जाएं जिनमें एक असली हो और एक नकली तो वह व्यक्ति दोनों को एक ही भाव पर खरीद लेगा और ठगा जायेगा। किंतु जो सुजान है वह केवल असली मोती ही उठायेगा। इसलिये हमने यह समझना है कि परमात्मा की सच्ची भक्ति, अंतर्मुख दिव्य शब्द का अभ्यास है, और इसके स्थान पर बाहरी भेषों, पहरावों, धर्मग्रंथों के पठन-पाठन, तीर्थाटन आदि से केवल दुनिया ही रीझेगी क्योंकि दुनिया अनजान है पर परमात्मा सुजान है। उसके दर पर इन वस्तुओं की कोई कद्र नहीं। बाबा फरीद ने कहा है :
दिलहु मुहबति जिन सेइ सचिआ ॥
जिन मनि होरु मुखि होरु से कांढे कचिआ ॥(फ़रीद -488)
इस प्रकार बाहरी भेषों, पहरावों, धर्मग्रंथों के पठन-पाठन, तीर्थाटन या फिर पूर्ण रूप से असंयमी जीवन की तुलना में सद्गुरु द्वारा उपदिष्ट शब्द-मंत्र का जप व आंतरिक शब्द की भक्ति को वरीयता देना ही विचार या विवेक है :
सतिगुर बचन कमावणे सचा एहु वीचारु ॥(5-52)
जो इस प्रकार विचार द्वारा अपने अहं को मार लेता है वह स्वयं तो भवसागर तर जाता है और दोबारा जन्म नहीं लेता, साथ ही वह दूसरों के भवसागर तरने में भी सहायक हो जाता है :
वीचार मारै तरे तारै उलटि जोनी न आवई ॥(1-687)
इतना ही नहीं, शब्द के अंतर्मुख अभ्यास में भी विचार की जरूरत पड़ती है। साधक सिमरन में बैठता है लेकिन बैठे-बैठे ही मन सिमरन को छोड़कर दुनियावी विचारों में खो जाता है, इस भटके हुए मन को विचार की शक्ति से हमने बार बार सिमरन में लगाना है। इसी तरह मन पल पल अनेक दिशाओं में भटकता, दौड़ता है लेकिन भ्रूमध्य में एकाग्र नहीं होता :
मनु खिनु खिनु भरमि भरमि बहु धावै तिलु धरि नही वासा पाईऐ ॥(4-1179)
ऐसे मन को विवेक की शक्ति से भ्रूमध्य, जिसे आप यहां तिलु घरि कह रहे हैं, में टिका कर रखना है। इस प्रकार अभ्यासी के जीवन में विवेक अर्थात् अहंकार रहित शुद्ध बुद्धि का महत्त्व स्पष्ट है। जब भी बाणी में मनमुख व्यक्ति का उल्लेख हुआ है तो कहा गया है कि वह चतुराईयां करता है, और जब गुरमुख अभ्यासी का उल्लेख हुआ है तो कहा गया है कि वह विचार करता है। साथ ही जब पूर्ण संत का वर्णन हुआ तो कहा गया कि वह सहजावस्था में है। कारण स्पष्ट है। नाम विचार में नहीं है। नाम विचार से, बुद्धि से परे है। विचार स्वयं त्रैगुणी माया का ही उपकरण है। हमने विचार से परे जाना है लेकिन जाना विचार के माध्यम से है। विचार या विवेकबुद्धि एक पुल है जिसके एक ओर प्रकृत बुद्धि में स्थित हम जीव हैं जबकि दूसरी ओर सहज में प्रतिष्ठित पूर्ण संत हैं। इस प्रकार चेतना के तीन स्तर स्पष्ट हैं - सहजावस्था या अंतःप्रज्ञ, विवेकबुद्धि व प्रकृत बुद्धि। जगत् की प्रतीयमान अवस्था प्रकृत बुद्धि ही है। आदिग्रंथ के अनुसार यह अहंबुद्धि अर्थात् अहंकार द्वारा ग्रसी जा चुकी बुद्धि है जो माया का शक्तिशाली हथियार और जीवात्मा के लिए मानों अति भयानक रोग है :
अहंबुद्धि बहु सघन माइआ महा दीरघ रोगु ॥(5-502)
(शेष आगे)
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