Back then we learned that in the Adi Granth, the root substance has been called 'Wind', from which the great intelligence is born which is called 'Water'. In the third stage of development, due to ego, solid forms are created which has been called 'Tribhuvan'. Thus the evolution of root substance is wind, water and solid. These are not the three states of matter mentioned in physics. Guru Nanak has used these three words solid symbolically. Physics tells us that if the wind is kept under specific conditions, it will automatically transform into water and then gradually turn into ice. This is the nature of the wind. Similarly, when the 'wind' nature is born from the dynamic consciousness of God, then according to the lord's will, this original substance will be placed in such conditions that it automatically enters the next stages of development. In this way, the Lord creates and drives the physical nature, but then this physical nature is also functioning itself like an instrument. For more information on this topic, read Karta Purush 18.
पीछे हमने जाना कि आदिग्रंथ में जड़ प्रकृति को 'पवन' कहा गया है जिससे आगे महान बुद्धि की उत्पत्ति होती है जिसे 'जल' कहा गया है। विकास के तीसरे चरण में अहंकार के कारण ठोस रूपों की सृष्टि होती है जिसे 'त्रिभुवन' कहा गया है। इस प्रकार जड़ शक्ति का विकासक्रम पवन, जल व ठोस है। ये पवन, जल व ठोस भौतिक विज्ञान में बताई जातीं द्रव्य की तीन अवस्थाएं नहीं हैं। गुरु नानक ने पवन, जल व ठोस इन तीनों शब्दों को क्रमशः प्रकृति, महत् व अहंकार के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया है। भौतिक विज्ञान हमें बताता है कि पवन जड़ है लेकिन यदि पवन को विशिष्ट परिस्थितियों में रखा जाये तो वह अपने आप जल में रूपांतरित होगी और फिर धीरे-धीरे बर्फ में भी बदलेगी। यह तो पवन का स्वभाव है। ऐसे ही जब प्रभु की गतिशील चेतना से ‘पवन’ अर्थात् सांख्य वाली प्रकृति उत्पन्न होगी तो प्रभु के सत्संकल्प के अनुसार ही इस मूल पदार्थ को ऐसी परिस्थितियों मे रख दिया जायेगा कि वह स्वतः ही विकास की अगली अवस्थाओं मे प्रवेश करता चला जाये। इस प्रकार यह जड़ भौतिक प्रकृति को उत्पन्न करने और चलाने वाला तो परमात्मा है किन्तु फिर यह जड़ प्रकृति एक यंत्र के समान स्वतः भी छल रही है। इस विषय पर अधिक जानकारी के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 18.
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हमने देखा कि माया/प्रकृति मूलभूत पदार्थ है। यह पदार्थ (substance) तीन गुणों वाला है और इसके दो रूप हैं। माया के पहले रूप में इसके तीनों गुण सत्व, रजस् व तमस् पूर्ण संतुलन और अमिश्रित अवस्था में होते हैं। विकास के अगले चरण में रजोगुण में आई सक्रियता प्रकृति/माया के संतुलन को भंग कर देती है जिससे तीनों गुण मिश्रित हो जाते हैं। इस संतुलन भंग के परिणामस्वरूप प्रकृति के इस रूपांतरित रूप को महत् कहा गया है। माया/प्रकृति के इन दोनों रूपों में से पहले रूप को सांख्य में अव्यक्त कहा गया है जिसके अनुसरण में हम प्रकृति के दूसरे रूप को व्यक्त कहेंगे। प्रकृति के व्यक्त होते ही सर्ग या सृष्टि प्रारम्भ हो जाती है। सर्ग क्यों और कैसे होता है? सांख्य में इसके तीन उत्तर दिये गये हैं :
(1) सर्ग पुरुषार्थ सिद्धि के लिये होता है और इसका कारण गुणों में उत्पन्न विषमावस्था है। सांख्य स्पष्ट कहता है कि प्रकृति ओर पुरुष के संयोग से सर्ग होता है। प्रकृति अचेतन और अन्ध है, किन्तु सक्रिय है; पुरुष चेतन और दृष्टा है किंतु पंगु और निष्क्रिय है। अन्धा व्यक्ति देख नहीं सकता लेकिन चल सकता है; पंगु चल नहीं सकता किंतु देख सकता है। दोनों अकेले अपने गन्तव्य स्थल तक नहीं पहुंच सकते किंतु यदि पंगु अंधे व्यक्ति के कंधों पर बैठकर उसे मार्ग बताये और अंधा चलता रहे तो दोनों पारस्परिक सहयोग से गन्तव्य स्थल तक पहुंच सकते हैं। इसी प्रकार पुरुष का लक्ष्य है कि वह प्रकृति को देखे, उसका भोग अर्थात अनुभव करे और उससे अपनी नितान्त भिन्नता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करे। दूसरी ओर प्रकृति की अपेक्षा है कि पुरुष उसे देखे, उसका भोग करे और उसके स्वरूप को जानकर मोक्ष प्राप्त करे। इस प्रकार पंगु-अंध न्याय से पुरुष व प्रकृति मिलकर सृष्टि करते हैं। किंतु दूसरे विरोधी पक्ष के विद्वानों को यह तर्क मान्य नहीं हुआ। उनका तर्क था कि पंगु और अन्ध व्यक्ति दोनों चेतन होते हैं जो एक साझे लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सहयोग कर सकते हैं किंतु प्रकृति व पुरुष में प्रकृति अचेतन है जिसका कोई प्रयोजन नहीं, जबकि पुरुष शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, और उसका भी कोई प्रयोजन नहीं। अतः दोनों का संयोग असम्भव है।
(2) इस कठिनाई के समाधान के लिये सांख्य में यह कहा गया कि प्रकृति-पुरुष का संयोग तो नहीं हो सकता, किन्तु पुरुष के सामीप्य से ही प्रकृति में गुणक्षोभ हो जाता है जिससे सर्ग आरम्भ होता है। लेकिन यह तर्क भी अचूक नहीं है। पुरुष तो निष्क्रिय होने के कारण इधर उधर नहीं जा सकता, वह सदा प्रकृति के समीप है, अतः सदा ही गुणक्षोभ और सर्ग चलता रहेगा। पुरुष को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी और प्रलय भी नहीं होगा।
(3) इन कठिनाईयों के कारण सांख्य ने संयोगाभास का प्रतिपादन किया। सांख्य ने कहा कि प्रकृति-पुरुष में संयोग नहीं बल्कि संयोगाभास होता है। इस तर्क के अनुसार महत्तत्त्व या बुद्धि में पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है और पुरुष इस प्रतिबिम्ब को ही अपना स्वरूप मान लेता है तथा यह संयोगाभास गुणक्षोभ तथा सर्ग का कारण बन जाता है। डा0 बी.एन. पंडित लिखते हैं, "बुद्धि एक आईने की तरह है जो पुरुष को प्रतिभासित करता है। पुरुष अनादि अज्ञानता के कारण बुद्धि में प्रतिभासित रूप को अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है। मान लें एक गौरवर्णी चेहरा काले शीशे में प्रतिच्छायित हो तो परछाई भी काली होगी। तब व्यक्ति अपने चेहरे की प्रतिच्छाया को देखेगा न के अपने चेहरे को। यदि प्रतिभास श्याम वर्ण का है तो वह अपने चेहरे को श्यामवर्णी ही समझेगा।"(Aspects of Kashmir Saivism) किंतु महत् या बुद्धि तो सर्ग का परिणाम है न कि कारण। सर्ग से पूर्व महत् की स्थिति नहीं है तब पुरुष का प्रतिबिम्ब इसमें कैसे बनेगा? सांख्य ने इसके उत्तर में कहा कि पुरुष का प्रतिबिम्ब प्रकृति में ही पड़ता है। लेकिन यह तर्क भी युक्तियुक्त नहीं है। प्रकृति का स्वरूप तो वायवीय है, उसमें प्रतिबिम्ब कैसे बनता है? सांख्य से इसका कोई उत्तर नहीं मिलता। ऐसे में हम यही कहेंगे कि प्रकृति में बुद्धि का विकास प्रकृति के अपने ही अंतर में होने वाला विक्षोभ है। किंतु उसके विक्षोभ का कारण सांख्य के नास्तिक व द्वैतवादी चौखटे में नहीं मिल सकता। इसके लिए हमें आस्तिक व अद्वैतवादी धार्मिक परंपराओं को देखना होगा।
हमने देखा कि सांख्य की प्रकृति वस्तुतः अकृत (uncreated) नहीं है। वह उस चेतन शक्ति से उत्पन्न हुई है जो प्रभु के हुक्म से जगत् रचना में प्रवृत्त हुई है। आदिग्रंथ में जड़ प्रकृति को 'पवन' कहा गया है जिससे आगे महान बुद्धि की उत्पत्ति होती है जिसे 'जल' कहा गया है। विकास के तीसरे चरण में अहंकार के कारण ठोस रूपों की सृष्टि होती है जिसे त्रिभुवन कहा गया है। इस प्रकार जड़ शक्ति का विकासक्रम पवन, जल व ठोस है। यहाँ फिर से सावधान किए जाने की जरूरत है कि ये पवन, जल व ठोस भौतिक विज्ञान में बताई जातीं द्रव्य की तीन अवस्थाएं नहीं हैं। गुरु नानक ने पवन, जल व ठोस इन तीनों शब्दों को क्रमशः प्रकृति, महत् व अहंकार के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया है। ये तीनों त्रैगुणी माया की तीन अवस्थाएं हैं। कश्मीरी शैवदर्शन में इन तीनों अवस्थाओं को क्रमशः शक्ति, विद्या व माया कहा गया है। डा0 बी.एन. पंडित लिखते हैं, "हम विद्या को शक्ति के द्रवीकरण की अवस्था कह सकते हैं और बाद के मायामय विकास को विद्या का घनीकरण कह सकते हैं।"(वही, पृ -161)
डाक्टर साहिब द्वारा दिए गये संकेत व आदिग्रंथ में प्रकृति के विकासक्रम के लिए प्रयुक्त संज्ञाओं से हमारी समस्या पूरी तरह सुलझ जाती है। भौतिक विज्ञान हमें बताता है कि पवन जड़ है लेकिन यदि पवन को विशिष्ट परिस्थितियों में रखा जाये तो वह अपने आप जल में रूपांतरित होगी और फिर धीरे-धीरे बर्फ में भी बदलेगी। यह तो पवन का स्वभाव है। ऐसे ही जब कुदरत अर्थात् सत्यस्वरूप प्रभु की गतिशील चेतना से ‘पवन’ अर्थात् सांख्य वाली प्रकृति उत्पन्न होगी तो प्रभु के सत्संकल्प के अनुसार ही इस मूल पदार्थ को ऐसी परिस्थितियों मे रख दिया जायेगा कि वह स्वतः ही विकास की अगली अवस्थाओं मे प्रवेश करता चला जाये। इसलिए हम बेझिझक कह सकते हैं कि त्रैगुणी माया व इसका समस्त जंजाल, बुद्धि और इसका चंचल चपल खेल, हउमै व इससे उत्पन्न सब रोग प्रभु के हुक्म से उत्पन्न हुए हैं। यही चिंतन आदिग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है :
आपे माइआ आपे छाइआ ॥ आपे मोहु सभु जगतु उपाइआ ॥(3-125)
माइआ का रूपु सभु तिस ते होइ ॥ जिस नो मेले सु निरमलु होइ ॥(3-797)
यहाँ पर सांख्य दर्शन द्वारा संयोगाभास के तर्क का प्रतिपादन विचार करने योग्य है। इस तर्क में सार वस्तु यह है कि पुरुष/जीव और प्रकृति/माया में संयोग का केवल आभास होता है, यथार्थ रूप से वे दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इस तर्क का एक पहलु यह है कि समस्त बंधन एक प्रतीति मात्र है। गुरु नानक देव जी लिखते हैं :
मिलिआ का किआ मेलीऐ सबदि मिले पतीआइ ॥
मनमुखि सोझी ना पवै वीछुड़ि चोटा खाइ ॥(1-60)
‘जीवात्मा और परमात्मा नैसर्गिक रूप से संयुक्त ही हैं। कारण, दोनों चैतन्य तत्त्व हैं जो सदा-सदा एक और अखंड है। किन्तु अपने मन का अनुसरण करने वाले जीव को परमात्मा से अपने अपृथकत्व का ज्ञान नहीं है जिससे वह दुखी रहता है। यह ज्ञान प्रभु की शक्ति शब्द के अभ्यास से होता है।’
संयोगाभास के तर्क का दूसरा पहलु यह है कि तीन गुणों वाली प्रकृति मौलिक रूप से जड़ है। इसमें चैतन्यता की केवल प्रतीति होती है। हम जानते हैं कि प्रभु की चेतन शक्ति शब्द और उसका चिदाँश जीव -दोनों के लक्षण समान हैं। दोनों चेतन हैं और वहाँ चेतनता आधारभूत है। दूसरी ओर माया और उसकी विकृतियाँ जैसे बुद्धि, मन, आदि जड़ हैं। शब्द/चेतन शक्ति की समीपता के कारण माया और उसके परिणामों में चेतना प्रवर्तित (induced) हो जाती है। अब चूँकि ‘जानना’ चित् सत्ता का गुण है और चैतन्यता अपने आधारभूत रूप में केवल शब्द/ईश्वर में है, इसलिए सच्चा ज्ञान और शक्ति केवल शब्द/ईश्वर में ही है। माया में ज्ञान और उससे मिलने वाली शक्ति वास्तविक नहीं अपितु एक आभास मात्र है। उदाहरणार्थ, भौतिकी में प्लांक दूरी (10-35मीटर) और प्लांक समय (10-43सेकंड) देश-काल के सूक्ष्मतम बिन्दु हैं। यहाँ दिक्-काल स्पंज या फ़ोम की तरह हो जाता है और उसमें अत्यंत उग्र उतार-चढ़ाव होता है। प्लांक दूरी से भी लघु शून्य मीटर (zero metre) है जहां ज्यामिति नष्ट हो जाती है, और इसी के साथ पदार्थ के परम रूप की हमारी तलाश भी विफल हो जाती है।
(शेष आगे)
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