We are taught by the learned people that the Rigvedic Aryans perform Yajna and worship the Nature in the form of Sun, Fire etc. But, what those learned people do not know is that the Fire which is worshipped in the Rigveda is actually symbol of the divine power. There are numerous evidences in this regard. Read Karta Purush 15 to know this information in detail.
ऋग्वैदिक आर्य यज्ञ करते थे और प्रकृति के तत्त्वों जैसे अग्नि, सूर्य आदि की पूजा करते थे, ऐसा हमें सभी विद्वान बताते हैं। किन्तु वे विद्वान यह नहीं जानते कि ऋग्वेद अथवा सनातनी सभ्यता में जिस अग्नि की महिमा की गई है वह भौतिक अग्नि नहीं है अपितु वह परमेश्वरी शक्ति है। इस संबंध में विस्तृत जानकारी के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 15.
Read the previous article▶️Kartapurush ep14
हमने लिखा कि ‘करम खंड’ की आध्यात्मिक शक्ति ही विकास के अगले चरण में चेतन आत्माओं की बहुलता व त्रैगुणात्मक शक्ति को उत्पन्न करती है। किंतु इन दोनों के जन्म की विधि क्या है, यह हमें नहीं बताया गया। निश्चित रूप से हम श्वेताश्वतर उपनिषद के शब्दों में कह सकते हैं कि यह रहस्य मन-बुद्धि से परे 'अनंत की गुप्तता में' छिपा है, लेकिन मन का स्वभाव ही जिज्ञासा करना है इसलिये इस जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए संत-महात्माओं ने उदाहरणों द्वारा उत्तर भी दिए हैं। इनमें से एक उदाहरण अग्नि और चिंगारियों का है। मुण्डकोपनिषद् (2.1.1) में कहा गया है कि ‘जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि में से उसी के जैसे रूप-रंग वाली हजारों चिंगारियां चारों ओर निकलती है, उसी प्रकार परमपुरुष अविनाशी ब्रह्म से सृष्टि काल में नाना प्रकार के मूर्त-अमूर्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं और प्रलय काल में पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं।‘ यदि इस उदाहरण को सांगोपांग देखा जाये तो बड़े दिलचस्प निष्कर्ष निकलते हैं। उसी उपनिषद के अगले एक मन्त्र (2.1.5) में कहा गया है कि इस अग्नि की समिधा अर्थात् ईंधन सूर्य है। पीछे ‘सतिनाम’ अध्याय में हमने श्री आर.एल. कश्यप के हवाले से जाना है कि ऋग्वेद के देवसमूह में सूर्य व अग्नि युग्मित रूप से आये हैं और इस युग्म में सूर्य परमदेव है। दूसरी ओर अग्नि वह शक्ति है जो साधक व प्रभु के बीच मध्यस्थ है। इसी प्रभु-शक्ति को आदिग्रंथ में शब्द कहा गया है। शब्द को ऋग्वेद में अग्नि इसलिये कहा गया है क्योंकि ‘अग्नि अग्रणी भवति’ जो सर्वप्रथम है वह अग्नि अर्थात प्रभु-शक्ति है। अग्नि को ‘पुरोहित’ कहा गया है। ‘पुरोहित’ अर्थात ‘जो सामने दिखाई दे रहा है’, सारा का सारा दृश्य जगत् अग्नि है। ऋग्वेद (1.31.13) में अग्नि को चतुरक्ष इध्यसे - चार आंखों वाला - कहा गया है। इसका भाव है कि अग्नि की चार आंखें हैं जो जड़, प्राण, मन व तुरीयावस्था में हैं। साधक की सम्पूर्ण आत्मिक यात्रा के दौरान अग्नि लगातार उस पर निगरानी रखता है। 'त्वमग्ने यज्यषे पायुरन्तरो अनिष्ङ्गाय'।(वही) इस प्रकार वैदिक साहित्य के अनुसार सूर्य व अग्नि कुछ और नहीं आदिग्रंथोक्त नाम व शब्द ही हैं। 'सूर्य अग्नि के लिए ईंधन है' का भाव है कि अग्नि सूर्य से उत्पन्न होती है और यह सूर्य की महिमा अथवा शक्ति है। यह अग्नि किसी समय ईंधन अर्थात् सूर्य में गुप्त थी। प्रभु द्वारा सृष्टि निर्माण के संकल्प से यह प्रकट होती है। अग्नि से निकलती चिंगारियां आत्माएं हैं जो उपनिषदकार के अनुसार अपने स्वरूप में अग्नि के समान ही हैं। लेकिन उपनिषद के लेखक ने जिस तथ्य को नहीं लिखा वह यह है कि अग्नि से चिंगारी ही नहीं, धुआँ भी निकलता है। धुआँ अग्नि पर ही आश्रित है लेकिन उसका स्वरूप अग्नि से भिन्न है। हम जानते हैं कि अग्नि ही रूप-परिवर्तन कर धुआँ बना है। यही संबंध प्रभु की शक्ति व त्रैगुणी माया के बीच है। प्रभु की शक्ति प्रभु स्वयं ही है। उसी की तरह अछल, अछेद, अभेद है :
तेरी कुदरति तू है जाणहि अउरू न दूजा जाणै ॥(5-1185)
तेरा सबदु सभु तूं है वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥(4-448)
त्रैगुणी माया इसी शक्ति, जो सशक्तिक प्रभु ही है, की छाया है :
महा माइआ ता की है छाइआ ॥ अछल अछेद अभेद दइआल ॥(5-868)
रज तम सत कल तेरी छाइआ ॥ जनम मरण हउमै दुखु पाइआ ॥(1-1038)
परमात्मा की शक्ति के ऐसे ही स्वरूप का वर्णन कश्मीरी शैव संप्रदाय की पुस्तक ‘शिवदृष्टि’ (3.57) में भी किया गया है। वहाँ परमात्मा की सत्ता को ‘शांतम्’ और ‘वस्तु’ (A Real Thing) है। परमात्मा की शक्ति के तीनों रूप नामतः ज्ञान, बल और क्रिया परमात्मा की शांत स्वरूप सत्ता में आश्रय लेते हैं। अब यदि परमात्मा की सत्ता ‘शांत स्वरूपी’ है तो तो उसकी शक्ति अपनी परावस्था में ‘शांतम्’ रहेगी जबकि जगत् रचना के प्रक्रम में ‘विक्षुब्ध’ भी होगी। शक्ति के विक्षुब्ध स्वरूप से ही जगत् की रचना होगी। पुनः ‘शिवदृष्टि’ का लेखक परमात्मा की ‘शांतस्वरूपी’ सत्ता को ‘अंगाररूप’ कहता है जबकि उसकी सक्रिय शक्ति को ‘ज्वालादिक’ कहता है। जो अग्नि अंगार में है वही ज्वाला में भी है, अग्नि में कोई भेद नहीं है, इसी प्रकार एक ही परमात्मा सक्रिय और निष्क्रिय -दो स्थितियों में विराजमान है।
इस प्रकार प्रभु की सचेतन शक्ति की सक्रियता से चेतन आत्माओं की बहुलता और त्रैगुणात्मक माया की उत्पत्ति उतनी ही स्वाभाविक व अनिवार्य है जितनी एक अग्नि से अनेक चिंगारियों व धुएं की उत्पत्ति है। ध्यान रहे कि यहाँ हमने प्रभु की पराशक्ति को अग्नि और उसके अपर रूप को धुआँ कहकर उनके बीच के अंतर को स्पष्ट किया है लेकिन इस संदर्भ में यह नियम भी स्मरणीय है कि धार्मिक साहित्य में प्रभु की पराशक्ति और उसके अपर रूप के लिये आम तौर पर एक ही संज्ञा का प्रयोग किया गया है यद्यपि दोनों के लिये उस संज्ञा के अर्थ भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। यह नियम प्रभु की पराशक्ति के लिये प्रयोग की गई संज्ञा ‘अग्नि’ पर भी लागू होता है। गुरु नानक प्रभु की पराशक्ति और उसके अपर रूप दोनों को अग्नि कहते हुए पराशक्ति को ‘अनील अग्नि’ जबकि अपराशक्ति को ‘नील अग्नि’ कहते हैं :
नील अनील अगनि इक ठाई ॥ जलि निवरी गुरि बूझ बुझाइ ॥(1-221)
‘अनील अग्नि और नील अग्नि –दोनों एक ही स्थान पर हैं। गुरु द्वारा दिये गये विवेक रूपी जल से नील अग्नि बुझ गई और अनील अग्नि प्रत्यक्ष हो गई।‘ यहाँ ‘नील’ का अर्थ श्यामल और ‘अनील’ का अर्थ प्रकाशमय है। पहला शक्ति के अपर रूप की ओर संकेत करता है जबकि दूसरा उसके पर रूप की ओर। भाई गुरदास ने भी ‘नील’ व ‘अनील’ पदों का इन्हीं अर्थों में प्रयोग किया है :
नउ अंगि सुन्न सुमार संगि निरालिआ ॥
नील अनील विचारि पिरम पिआलिआ ॥(वार :3, पौड़ी :5)
‘अभ्यासी शिष्य ने भ्रूमध्य में ध्यान को एकाग्र करके शरीर के नौ द्वारों को चेतना से शून्य कर लिया और माया से निराले प्रभु को अपने अंग-संग ही देख लिया। इस तरह उसने प्रभु-शक्ति के ‘नील’ व ‘अनील’ –दोनों रूपों में अंतर को विवेक से जान लिया और प्रभु-प्रेम के प्याले को पी लिया।’
(शेष आगे)
Continue reading▶️Kartapurush ep16
Comments