Guru Nanak Dev Ji writes, "No place of rest is found and no place in the world hereafter to them who are enslaved by the Maya. No one invites him to come in and sit down. He is like a crow in a deserted home. Trapped by birth and death, he is separated from the Lord for such a long time. Greed, worldly entanglements and Maya deceive the world."
The subject of Maya can be studied from two different directions, namely philosophical and scientific. Read Karta Purush 13 for a detailed study of the Maya from the philosophical and classical viewpoint.
गुरु नानक देव ने कहा है, "जो मनुष्य माया के लालच में फंस जाता है वह परमात्मा की दरगाह में स्वीकार नहीं होता, उसको प्रभु की हजूरी में जगह नहीं मिलती। जैसे सूने घर में गए कौए को (किसी ने रोटी की गिराही आदि नहीं डालनी, वैसे ही माया के मोह में फंसे जीव को प्रभु की हजूरी में) किसी ने ये नहीं कहना - ‘आओ जी, अंदर आ जाओ बैठ जाओ। उस मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र भुगतने पड़ जाते हैं, उसको (इस चक्कर के कारण प्रभु-चरणों से) लंबा विछोड़ा हो जाता है। माया के मोह में फंस कर सारा जगत् अपने आत्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में असफल होकर नष्ट हो जाता है।" माया का अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया जाना चाहिये। पहला दृष्टिकोण दार्शनिक व शास्त्रीय है जबकि दूसरा दृष्टिकोण वैज्ञानिक व आधुनिक है। माया के दार्शनिक एवं शास्त्रीय अध्ययन के लिये पढ़ें कर्ता पुरुष 13.
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हमने देखा कि जगत् वस्तुतः नाम/कादर/शिव व शब्द/कुदरत/शक्ति के मेल से उत्पन्न होता है किन्तु इसकी उत्पत्ति की विधि ही ऐसी है कि उत्पत्ति की प्रक्रिया में यह जीवों व उन्हें भरमाने वाली माया का खेल बन जाता है। इनमें जीवात्मा ज्ञाता व विषयी है जबकि माया ज्ञेय व विषय है। इन दोनों में माया समस्त वस्तुपरक अस्तित्व का आधार है। सारा जगत् बीज रूप में इसमें निहित है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति, प्रधान, अव्यक्त, अनुमान, जड़ व शक्ति इत्यादि कहा गया है। इसे 'प्रकृति' इसलिए कहा गया है क्योंकि सांख्य दर्शन के अनुसार यह कृति (creation) से पूर्व (pre) है। सांख्य के अनुसार यह जगत् का मूल कारण है और स्वयं अकृत है। हम देख आये हैं कि आदिग्रंथ के अनुसार यह वक्तव्य भ्रामक है, यह उस 'सच' से उत्पन्न हुई है जो स्वयं सभी कारणों को उत्पन्न करने वाला है। साथ ही यह भी कहा गया है कि प्रकृति सत्व, रजस् और तमस् –इन तीन गुणों का समुच्चय है जिनसे क्रमशः प्रकाश, क्रिया व तिरोभाव होते हैं और इन तीन शब्दों के पहले तीन वर्णों - प्र+कृ+ति - को मिलाकर ही प्रकृति शब्द बना है। जो भी हो, आदिग्रंथ के महात्माओं ने त्रैगुणी माया के लिए प्रकृति शब्द का प्रयोग प्रायः नहीं किया है, केवल भक्त जयदेव जी के लिखे एक पद में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। माया के लिए दूसरा शब्द 'प्रधान' है क्योंकि यह ब्रह्मांड का मूल सिद्धांत (first principle) है। आदिग्रंथ की तत्त्वमीमांसा के अनुसार माया के लिए ‘प्रधान’ शब्द का प्रयोग भी भ्रामक है। इसलिए आदिग्रंथ में इस शब्द का प्रयोग भी माया के लिए नहीं हुआ। माया को 'अव्यक्त' इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह सभी अभिव्यक्तियों की मूल अनाभिव्यक्त अवस्था है, जबकि इसको 'अनुमान' संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि यह अति सूक्ष्म व अज्ञेय वस्तु है और इसका ज्ञान केवल इसके परिणामों से होता है। आदिग्रंथ में 'अव्यक्त' के पंजाबी रूप 'अविगत' का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है किंतु यह शब्द परमात्मा के लिए आया है न कि माया के लिए। इसी तरह माया के लिए 'अनुमान' शब्द का प्रयोग भी कहीं नहीं है। जहां तक 'जड़' व 'शक्ति' संज्ञाओं का संबंध है, माया के लिए सांख्य में ये अभिधान इसलिए आये हैं क्योंकि माया अचेतन (inconcious) लेकिन सदा सक्रिय रहने वाली व असीम ताकत है। माया के लिए आदिग्रंथ में ‘शक्ति’ संज्ञा का प्रयोग काफी हुआ है जबकि इसके जड़ अर्थात् अचेतन व बलबुद्धि हीन (unintelligent) स्वरूप का संकेत इस पंक्ति में है : इह स्रपनी ता की कीती होई ॥ बलु अबलु किआ इस ते होई ॥(कबीर -481) इस प्रकार सांख्य के अनुसार माया अकृत (uncaused), स्वतंत्र, निरपेक्ष व शाश्वत है किंतु आदिग्रंथ के अनुसार यह प्रभु द्वारा निर्मित व उसकी इच्छा के अधीन है। हां, दोनों इस विषय पर सहमत हैं कि यह 'एक' (one) है, सदा सक्रिय व असीम शक्ति है किंतु जड़ है।
माया का अध्ययन दो दृष्टिकोणों से किया जाना चाहिये। पहला दृष्टिकोण दार्शनिक व शास्त्रीय है जबकि दूसरा दृष्टिकोण वैज्ञानिक व आधुनिक है। माया के शास्त्रीय अध्ययन के लिये सदानंद प्रणीत ‘वेदांतसार’ एक आदर्श ग्रंथ है। सदानंद ने माया के पाँच लक्षण बताए हैं - (1) सद् असद् अनिर्वचनीयम्; (2) त्रिगुणात्मिकम्; (3) ज्ञान विरोधी; (4) भावरूपम्; (5) यत्किञ्चित। माया को समझने के लिये इन पांचों लक्षणों का अध्ययन जरूरी है।
1. सद् असद् अनिर्वचनीयम् - माया का वर्णन न तो ‘है’ कह कर किया जा सकता है और न ही ‘नहीं है’ कह कर किया जा सकता है। यदि हम यह कहते हैं कि ‘माया है’ (सद्, it is) तो हमारा वह वर्णन त्रुटिपूर्ण होगा क्योंकि यह बार-बार कहा गया है कि पूर्णत्व को प्राप्त सिद्ध पुरुष को चारों ओर उस प्रभुसत्ता के दर्शन होते हैं जो माया से सर्वथा निर्लेप है। पीछे हमने भक्त कबीर के एक शब्द का अध्ययन किया है जिसमें उन्होंने अपनी साक्षी देते हुए यह कहा है कि उनकी अज्ञानता सर्वथा नष्ट हो गई है और उन्हें सर्वत्र माया से निर्लेप प्रभु के दर्शन हो रहे हैं :
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥(कबीर-1350)
इसी तरह गुरु अर्जुन देव लिखते हैं :
जन नानक कउ गुरि किरपा धारी सभु अकुल निरंजनु डीठा ॥(5-611)
‘अकुल’ शब्द ‘कुल’ से बना है और ‘कुल’ के अभाव को इंगित करता है। ‘कुल’ का अर्थ योनि या शरीर है। जगत् में 84 लाख कुलें अर्थात शरीरों के प्रकार हैं जैसे पक्षियों की कुल, नागों की कुल आदि-आदि। ‘कुल’ अर्थात शरीर माया है। परमात्मा (यहाँ इसका अभिप्राय नाम से है) ‘अकुल’ है अर्थात वह अयोनि, अशरीरी है। ध्यान रहे कि माया ‘कुल’ है तो इस माया का मूल शब्द भी ‘कुल’ है, जबकि नाम ‘अकुल’ है। ‘कुल’ पद के संदर्भ में हम शब्द को - माया जो ‘कुल’ है और नाम जो ‘अकुल’ है - दोनों से भिन्न दर्शाने के लिये ‘सकुल’ भी कह सकते हैं। नाम में ‘कुल’ अर्थात माया का अभाव है जबकि शब्द ‘कुल’ अर्थात माया सहित है, यह ‘सकुल’ है। सभु अकुल निरंजनु डीठा, कहकर गुरु अर्जुन देव सर्वत्र एक ऐसे सत्य के साक्षात्कार की साक्षी दे रहे हैं जहां शरीर और इससे निर्मित समस्त विविधता अनुपस्थित है। इससे पता चलता है कि ज्ञान की अवस्था में माया नहीं रहती। ऐसे में ‘माया है’ (सद्, it is) -ऐसा वक्तव्य त्रुटिपूर्ण है।
किन्तु ‘माया नहीं है’ (असद्, it is not) -ऐसा वक्तव्य भी त्रुटिपूर्ण है। माया अनेकता है। माया शरीर, प्राण, मन, बुद्धि है। यह सारा संसार माया है। श्री अरविन्द लिखते हैं, “माया कोई सिद्धांत नहीं है, बल्कि एक तथ्य है; किसी तर्क अथवा चिंतन का परिणाम मात्र नहीं है अपितु सचेतन निरीक्षण का परिणाम है, जो तर्क से अकाट्य है और चिंतन से अनतिक्राम्य।”(केन एवं अन्यान्य उपनिषद, पृ -65) हमारा सारा जीवन माया में जिया जाता है। श्री अरविन्द अनेक उदाहरणें देते हैं। जैसे, हम सभी कहते हैं कि ‘सूर्य पूर्व से पश्चिम में आ गया है’ लेकिन सत्य यह है कि सूर्य स्थिर है। हम सभी गगन के नीलेपन के साक्षी हैं लेकिन वैज्ञानिक सत्य यह है कि उसका कोई रंग नहीं है। हम वस्तुओं के ठोसपन को और उनकी स्थिरता को स्वीकार करते हैं जबकि सच यह है तथाकथित ठोस कही जाने वाली वस्तुओं को निर्मित करने वाले अणुओं में पर्याप्त रिक्त स्थान होता है और वे अणु अत्यधिक स्पंदनशील होते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि ठोसपन और स्थिरता एक आभास मात्र है। यहाँ तक कि परमतत्त्व को और सृष्टि की सनातन एकता को जानने वाला सिद्ध पुरुष भी संसार में पायी जाती अनेकता, भूल, भ्रांति, पाप (evil) से समायोजन करता और अपने भौतिक जीवन में इंद्रियजन्य प्रमाणों पर स्वीकृत तथ्यों के अनुसार काम करता है। ऐसे में ‘माया नहीं है’ -ऐसा हम नहीं कह सकते हैं। माया ‘है’ (सद्, is) और ‘नहीं है’ (असद्, is not) की दोनों कोटियों से परे ‘अनिर्वचनीय’ (indescribable) है।
2. त्रिगुणात्मिकम् - माया त्रैगुणी है जिससे यह त्रैगुणात्मक सृष्टि उत्पन्न होती है। ये तीन गुण हैं - सत्व, रजस और तमस। इनमें से सत्व व तमस परस्पर विपरीत गुण हैं। सत्व शब्द सत् से बना है जिसका अर्थ है - अस्तित्व। सत्व से सत्ता की स्थिति या अस्तित्व सुनिश्चित होता है, अतः सत्व के कारण सृष्टि का अस्तित्व बना रहता है। इसके विपरीत तमस से सत्ता का लय होता है, अतः तमोगुण के कारण सृष्टि निरंतर क्षरण व लय की ओर उन्मुख रहती है। सत्व के लक्षण हैं - सुख व ज्ञान। तमस के लक्षण हैं - उदासीनता व निर्ज्ञान (nescience)। रजोगुण ज्ञान से निर्ज्ञान तथा निर्ज्ञान से ज्ञान की ओर गतिशील रहने वाला गुण है, अतएव इसका प्रधान लक्षण संघर्ष व तद्जन्य दुख है।
सर बी. एन. सील ने तीन गुणों की प्रकृति की व्याख्या करते हुए लिखा है : “Every phenomenon consists of a three-fold arche : intelligible essence, energy and mass. In intimate union, these enter into things as essential constitutive factors. The essence of a thing (Sattav) is that by which it manifests itself to intelligence and nothing exists without such manifestation in the universe of consciousness. But the essence (Sattav) is only one of three moments. It does not possess mass or gravity, it neither offers resistance or does work. Next, there is the element of mass, inertia, matter-stuff which offers resistance to motion as well as to conscious reflection. But the intelligence-stuff and the matter-stuff cannot do any work, and are devoid of productive activity in themselves. All work comes from rajas, the principle of energy, which overcomes the resistance of matter and supplies even intelligence with the energy which it requires for its own work of regulation and adaptation.”(Positive Sciences of the ancient Hindus, p. 4)
आपके वक्तव्य का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है। “प्रत्येक गोचर वस्तु तिहरे आदिम तत्त्व से निर्मित होती है - प्रज्ञाशील तत्त्व, ऊर्जा और द्रव्य। ये तीनों दृढ़ संसर्ग के साथ अनिवार्य विधायक उपादान के रूप में वस्तुओं में प्रवेश करते हैं। किसी वस्तु का तत्त्व (सत्व गुण) वह है जिसके द्वारा वह वस्तु चेतना के समक्ष स्वयं को अभिव्यक्त करती है। चेतना के जगत् में उस अभिव्यक्ति के सिवाय और कुछ भी विद्यमान नहीं होता है। किन्तु सत्व में न तो द्रव्य है और न ही गुरुत्व बल। फिर यह न तो क्रिया कर सकता है और न ही क्रिया में प्रतिरोध कर सकता है। वस्तु का दूसरा उपादान द्रव्यमान, जड़त्व और पदार्थ है जो गति और सचेतन परावर्तन का प्रतिरोध करता है। किन्तु न तो प्रज्ञा और न ही पदार्थ कोई कार्य कर सकते हैं। ये दोनों अपने-आप में उत्पादक क्रियाकलाप से शून्य हैं। समस्त क्रिया रजस से होती है। रजोगुण ऊर्जा का तत्त्व है जो पदार्थ के प्रतिरोध को वशीभूत करता है और प्रज्ञा को ऊर्जा प्रदान करता है जिससे वह समंजन और अनुकूलन का कार्य करती है।”
ओशो लिखते हैं, ''माया उसी धातु से बना है जिससे माप, और अंग्रेजी का मेज़र (measure) शब्द भी उसी से बना है जिससे माप। फ्रेंच का मीटर शब्द भी उसी से बना है जिससे माप। और अंग्रेजी का मैटर (matter) शब्द भी उसी से बना है जिससे माप। ……..माया का अर्थ है जो मापा जा सके, जिसको हम तोल सकें।''(इक ओंकार सतनाम, पृष्ठ 177) जब हम यह कहते हैं कि माया वह है जिसे मापा, तोला या गिना जा सकता है तो अर्थ निकलता है कि माया मात्रात्मक है क्योंकि केवल मात्रा को ही मापा, तोला जा सकता है। दूसरी ओर जब हम यह कहते हैं कि माया तीन गुणों से निर्मित है तो अर्थ निकलता है कि माया गुणात्मक है। ऐसा विरोधाभास क्यों है? इसका उत्तर देते हुए श्री अरविंद लिखते हैं, "प्रकृति के सभी गुण अपने साररूप में गुणात्मक (qualitative) हैं और इसी कारण उसके गुण कहलाते हैं। जगद् विषयक किसी भी आध्यात्मिक परिकल्पना में ऐसा होना आवश्यक ही है; कारण, आत्मा और जड़तत्त्व को जोड़ने वाला माध्यम चैत्य या आत्मशक्ति को ही होना चाहिए तथा प्रारंभिक क्रिया मानस-चित्रात्मक (psychological) एवं गुणात्मक होनी चाहिए न कि भौतिक और परिमाणात्मक; क्योंकि गुण विश्व-शक्ति के समस्त व्यापार में अभौतिक एवं अधिक आध्यात्मिक तत्त्व हैं, उसकी आद्य गतिशक्ति हैं। भौतिक विज्ञान की प्रधानता ने हमें प्रकृति संबंधी एक और ही दृष्टिकोण का अभ्यस्त बना दिया है, क्योंकि वहां जो सबसे पहली चीज हमें प्रभावित करती है वह है उसकी क्रियाओं के परिमाणात्मक रूप का महत्त्व तथा आकारों के निर्माण के लिये परिमाणात्मक संयोगों एवं विन्यासों पर उसकी निर्भरता। ......प्राचीन भारतीय मनीषियों के विश्लेषण में प्रकृति की परिमाणात्मक क्रिया, मात्रा के लिए स्थान अवश्य था; पर उसमें यह माना जाता था कि यह प्रकृति की स्थूल-नियमानुसार कार्य-निष्पादन करने वाली एक बाह्यतर क्रिया का विशेष धर्म है जब कि अभ्यंतरिक भावरूप (ideative) कार्य-निष्पादन-शक्ति, जो वस्तुओं की व्यवस्था उनकी सत्ता और शक्ति के धर्म, अर्थात् गुण और स्वभाव के अनुसार करती है, प्रथम निर्धारक शक्ति है और समस्त बाह्य परिमाणात्मक व्यवस्थाओं का आधार है।..... प्राणिक और मानसिक सत्ता में तो गुण तुरंत और स्पष्टतः ही एक प्रधान शक्ति के रूप में दिखाई देता है, वहां ऊर्जा की मात्रा केवल एक गौण तथ्य है। परंतु वास्तव में मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक सत्ताएं तीनों ही गुण की सीमाओं के अधीन हैं, तीनों ही उसके निर्धारणों के द्वारा नियंत्रित होती हैं, यद्यपि जैसे-जैसे हम सत्ता की श्रृंखला में नीचे उतरते हैं वैसे-वैसे यह सत्य उत्तरोत्तर धूमिल होता दिखता है।"(गीता प्रबंध, पृ -396) माया का त्रिगुणात्मिक होना एक महत्वपूर्ण तथ्य है जिस पर और अधिक विचार आगे किया जाएगा।
(3) ज्ञान विरोधी : माया का तीसरा लक्षण यह है कि इसका ज्ञान से वैर है। माया मूलतः अज्ञान है। मायाग्रस्त जीव यह नहीं जानते कि वे स्वरूपत: ब्रह्म हैं। जीव की यह अज्ञानता ही माया का आवेष्टन है। अतः हम कह सकते हैं कि ‘माया अज्ञान है’ या हम यह भी कह सकते हैं कि ‘अज्ञान माया है’। ‘अज्ञान’ और ‘माया’ पर्यायवाची शब्द हैं। माया अज्ञानता है और अज्ञानता बंधन है। सारा संसार माया है अतः सारा संसार बंधन में और बंधन रूप है :
सभु जगु आपि उपाइओन आवण जाणु संसारा ॥
माइआ मोह खुआइअनु मरि जंमै वारो वारा ॥(3-583)
सारा संसार माया है और माया अज्ञानता है, इसीलिए बाणी में जगत् को ‘पावक का कूप’, ‘अंध कूप’, ‘अंध बिला’ (बिला = संस्कृत ‘बिल:’ = सांप आदि जीवों की बांबी) आदि कहा गया है। इससे पता चलता है कि माया, अज्ञानता, जगत्, बंधन आदि शब्द पर्यायवाची ही हैं। पीछे हमने देखा कि माया तीन गुणों वाली है। ‘गुण’ शब्द का एक अर्थ रस्सी है। जैसे एक रस्सी एक से अधिक छोटी रस्सियों को परस्पर गूँथ कर बनाई जाती है वैसे ही तीन गुण मानों तीन रस्सियाँ हैं जिनसे माया रूपी एक रस्सी निर्मित होती है जो जीवात्मा को बांध लेती है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्री भगवान् कहते हैं :
“प्रकृति से सत्व, रज, तम -तीनों गुण उत्पन्न हुए हैं। हे महाबाहो! ये तीनों गुण इस अविनाशी आत्मा को इस देह में बांधते हैं।”(14.5)
यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द परमात्मा की चेतन (intelligent) शक्ति के लिये प्रयुक्त किया गया है। यह चेतन शक्ति सच्चिदानंद है। इससे जड़ (unintelligent) शक्ति की उत्पत्ति होती है जो त्रैगुणात्मक है और जीव के लिये बंधन रूप है।
“सत्वगुण निर्मल होने से प्रकाशमय और निरोग बना देता है। हे अनघ! यह सुख की आसक्ति और ज्ञान की आसक्ति द्वारा बांधता है।”(14.6)
यहाँ ‘निरोग’ का अर्थ जीव का आलस्य, प्रमाद, कामना, राग आदि से मुक्त होना है। आरोग्यता के नाते सुख है और प्रकाश के नाते ज्ञान है। यह सुखासक्ति और ज्ञानासक्ति देही जीव के लिये बंधन का सबब बनती है। बंधन का रूप है व्यष्टि भाव की स्वीकृति अर्थात अपने को भगवान् से अलग स्वीकार करना, जिसे बाणी में हउमै कहा गया है। इस व्यष्टि भाव को प्रभु की चेतन (intelligent) शक्ति ही समाप्त कर सकती है, जड़ (unintelligent) शक्ति तो इस विकृति को उत्पन्न करती है। अतः जड़ शक्ति के सत्वगुण में निहित ज्ञान सच्चे ज्ञान का आभास ही है।
“हे अर्जुन! रजोगुण रागात्मक है। इसको कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान। वह इस देही जीव को कर्मों और उनके फलों की आसक्ति से बांधता है।”(14.7)
“रजोगुण आत्मा को प्रकृति के गुणों से रंजित कर देता है और प्रकृति को आत्मा के गुणों से भासित करता है।…….इससे चेतन का गुण-धर्म प्रकृति में अवतरित हो जाता है।…….यही आसक्तिवश तृष्णा का रूप धारण कर लेता है।”(श्रीमद्भागवद्गीता : धर्मविज्ञान भाष्य-14, पृ -187) “रजोगुण राग, तृष्णा और आसक्ति की वृद्धि करता है। जो अपने को प्रिय है उसका नाम है राग, उसे पाने की लालसा है तृष्णा और उसके लिए किया गया प्रयत्न है आसक्ति। ‘है’ में आसक्ति, ‘नहीं है’ की तृष्णा और ‘प्रिय’ में राग। जहां राग, तृष्णा और आसक्ति होगी वहाँ कर्म होगा क्योंकि ये तीनों कर्म में हेतु हैं।……..रजोगुण की वासना, कामना, लोभ और तृष्णा चार रूपों में परिणिती होती है।”(वही)
“हे अर्जुन! सभी प्राणियों को मोहित करने वाले तमोगुण को अज्ञान से उत्पन्न हुआ जानों। यह इस जीव को प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बांधता है।”(14.8)
तमोगुण और अज्ञान के बीच सहजीवी संबंध हैं। अज्ञान से तमोगुण बड़ता है और तमोगुण से अज्ञान बड़ता है। इस तरह माया के तीनों गुण जीव के लिये बंधन रूप हैं। सत्वगुण दो से बांधता है, रजोगुण चार से बांधता है, तमोगुण पाँच से बांधता है। इससे ‘गुण’ शब्द का ‘रस्सी’ अर्थ सार्थक होता है।
(4) भावरूपम् : ‘माया अज्ञानता है’, इस सत्य पर जितना ज्यादा बल दिया जाये जिज्ञासु के लिये उतना ही लाभकारी है, किन्तु माया ज्ञान का अभाव मात्र ही नहीं है। माया शब्द 'मा' धातु से उत्पन्न है जिसका अर्थ 'मापना' है। 'या' का अर्थ है 'जो'। जो अमापी को माप में प्रकट करे, वह माया है। ध्यान रहे कि कुछ विद्वान 'मा' का अर्थ 'नहीं' करके माया शब्द का अर्थ, 'जो नहीं है वह' करते हैं और कहते हैं कि मायारूप जगत् वस्तुतः नहीं है, यह तो आंख का धोखा मात्र है। लेकिन इस 'नहीं' अर्थ में 'मा' अव्यय है। अव्यय से नया शब्द नहीं बनाया जाता। नये शब्द धातु से बनते हैं। जब हम 'मा' को धातु रूप में लेंगे तो अर्थ होगा 'मापना', तब 'या' को उसमें जोड़ कर नया शब्द घड़ लेंगे। अतः माया अभावरूप नहीं भावरूप है। इसके दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहला, यह सद्वस्तु को आच्छादित करती है, अतः यह आवरण का कार्य करती है। दूसरा, यह सद्वस्तु को ऐसे रूप में प्रकट करती है जो वस्तुतः वह नहीं है, अतः यह विक्षेप का कार्य भी करती है। माया के इन दोनों कृत्यों के बारे में गुरु अमरदास जी लिखते हैं :
एह माइआ जितु हरि विसरै मोहु उपजै भाउ दूजा लाइआ ॥(3-921)
परमात्मा सच है, आत्मा भी सच है। यह सारा दृश्य ब्रह्मांड माया है, यह शरीर भी माया है। ब्रह्मांड रूपी आवरण परमात्मा को ढकता है, शरीर रूपी आवरण आत्मा को ढक लेता है। पुनः यह माया जगत् को ऐसे लुभावने रूपों में प्रस्तुत करती है कि ये जीव उन रूपों पर मोहित हो जाते हैं। इस तरह माया आवरण और विक्षेप की शक्ति है। यह अभावरूप नहीं अपितु जगत् के निर्माण में यह एक निश्चयात्मक बल है। त्रिगुणात्मिका माया शब्दब्रह्म/ईश्वर का अनुगमन करती है। शब्द इसका प्रयोग प्रभु की इच्छा के अनुरूप आभासों के इस जगत् का निर्माण करने और इसे चलाने के लिये करता है किन्तु शब्द स्वयं इससे अछूता रहता है। जैसे सांप का विष शत्रु का नाश करता है किन्तु सांप का नहीं, ऐसे ही शब्द द्वारा प्रयुक्त यह माया शक्ति संसारी जीवों को भ्रमित करती है किन्तु शब्द को नहीं। इसका बल उन्हीं के लिये बलवान है जो इससे तदाकार हो जाते और प्रभु को विस्मृत कर देते हैं :
माई माइआ छलु ॥
त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिद भजन बिनु हड़ का जलु ॥(5-717)
‘हे माँ! माया एक धोखा है। (लेकिन यह धोखा केवल उन्हीं के लिये है जो परमात्मा का भजन नहीं करते हैं) परमात्मा के भजन के बिना (इस माया की ताकत ऐसे है जैसे) जंगल की आग है, बादलों की छाया है, (नदी) की बाढ़ का पानी है।’ जिस तरह पंकिल जल में छवि नहीं दीखती उसी तरह माया से आक्रांत अशांत मन में निज-स्वरूप नहीं दिखता। जैसे सरोवर के जल की सतह पर बिखरे पत्तों के कारण सरोवर का जल ढक जाता है और उन पत्तों को पीछे हटाने पर नीचे से स्वच्छ जल सतह पर आ जाता है जिससे व्यक्ति की प्यास बुझती है वैसे ही अमृत-स्वरूप परमात्म-सत्ता जल से लबालब भरे सरोवर की तरह है और हमारे सन्निकट ही है किन्तु उसमें और हममें माया की रुकावट है, इस रुकावट को हटाने से प्रभुसत्ता प्रकट हो जाती है :
नितप्रति नावणु राम सरि कीजै ॥
झोलि महा रसु हरि अम्रितु पीजै ॥(5-198)
माया इस जीव को ‘निघरा’ (घर से बहिष्कृत) करती है :
माइआ मोहणी नीघरीआ जीउ कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥(1-243)
जीव का वास्तविक घर नाम का धाम करमखंड है। वहाँ से हम प्रभु की चेतन शक्ति शब्द के कारण बाहर आते हैं किन्तु इससे भी सृष्टि का खेल एक दिव्य लीला ही रहता है। हमारा दूसरा घर भ्रू-मध्य है जहां से हम प्रभु की इस जड़ शक्ति माया के कारण बाहर आते हैं। गुरु नानक देव जी लिखते हैं :
कूड़ि लबि जां थाइ न पासी अगै लहै न ठाओ ॥
अंतरि आउ न बैसहु कहीऐ जिउ सुंञै घरि काओ ॥
जमणु मरणु वडा वेछोड़ा बिनसै जगु सबाए ॥
लबि धंधै माइआ जगतु भुलाइआ कालु खड़ा रूआए ॥(1-581)
‘जो मनुष्य माया के लालच में फंस जाता है वह परमात्मा की दरगाह में स्वीकार नहीं होता, उसको प्रभु की हजूरी में जगह नहीं मिलती। जैसे सूने घर में गए कौए को (किसी ने रोटी की गिराही आदि नहीं डालनी, वैसे ही माया के मोह में फंसे जीव को प्रभु की हजूरी में) किसी ने ये नहीं कहना - ‘आओ जी, अंदर आ जाओ बैठ जाओ। उस मनुष्य को जन्म-मरण के चक्र भुगतने पड़ जाते हैं, उसको (इस चक्कर के कारण प्रभु-चरणों से) लंबा विछोड़ा हो जाता है। माया के मोह में फंस कर सारा जगत् अपने आत्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में असफल होकर नष्ट हो जाता है। लालच के कारण माया के ही उद्यम में पड़ा हुआ जगत सही जीवन-राह से टूटा रहता है। इसके सिर पर खड़ा काल इसे दुखी करता रहता है।’
(5) यत्किञ्चित : माया क्या है? हम इसके बारे में कुछ नहीं कह सकते। यह कुछ तो है, लेकिन यह क्या है, इसकी स्पष्ट व्याख्या असंभव है। हम सभी अनंत जीवन, अनंत सुख, अनंत बल, अनंत ज्ञान चाहते हैं। यह सब कुछ प्रभु की चेतन शक्ति शब्द में है। जड़ शक्ति माया में तो इन सबका आभास मात्र है। न केवल इस जड़ शक्ति में ज्ञान और बल की अनंतता नहीं है बल्कि इसमें ज्ञान और बल है ही नहीं। हम ज्यों-ज्यों ज्ञान प्राप्त करते हैं त्यों-त्यों उसकी निस्सारता और अपनी निर्बलता प्रत्यक्ष होती जाती है। बीसवीं सदी में हुई महान खोजें जैसे आइन्सटाइन का सापेक्षता सिद्धांत, हाइजनबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत, कुर्त गोडेल का अपूर्णत्व सिद्धांत इस महान सत्य की पुष्टि करती हैं कि यह सारा संसार माया है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘‘माया एक विरोधाभास है। हमारा सारा अस्तित्व विरोधाभासों की एक श्रंखला मात्र है। माया जगत् की व्याख्या के लिये कोई व्याख्याकारी सिद्धांत मात्र नहीं है। माया एक तथ्य का विवरण है, यह जीवन की नितांत मिथ्याभासी प्रकृति का निरूपण है।’’
(शेष आगे)
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