Purush and Prakriti are the two most discussed topics in the various systems of Indian Philosophy and the Sanatan Dharma. Bhagvadgeeta says that there are two Prakritis. Moreover the same religious book says that there are three Purushas. This shows how intricate this detail is! What are the shades of the Purush and the Prakriti? What is the relationship between them? Read Karta Purush 12 to know the answer.
सनातन धर्म और दर्शन में पुरुष व प्रकृति की चर्चा बार-बार की जाती रही है। सांख्य दर्शन में जीव को पुरुष और माया को प्रकृति कहा गया है। लेकिन कुछ अन्य धार्मिक व दार्शनिक प्रणालियों में पुरुष का अर्थ परमात्मा और प्रकृति का अर्थ परमात्मा की शक्ति भी किया गया है। इस तरह पुरुष शब्द के दो अर्थ हो जाते हैं, पहला परमात्मा और दूसरा जीवात्मा। इसी प्रकार प्रकृति शब्द के भी दो अर्थ हो जाते हैं, एक परमात्मा की शक्ति जो परमात्मा के समान चेतन है और अब दूसरी माया जड़ है। इससे पुरुष और प्रकृति -इन दोनों शब्दों के अर्थ में बड़ी जटिलता आ जाती है। इस विषय के सांगोपांग विवेचन के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 12.
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हमारे समक्ष प्रश्न यह था कि करमखंड की एकता व चैतन्यता और सरमखंड की विविधता व जड़त्व के बीच अनुपस्थित कड़ी कौन-सी है? इस विस्तृत चर्चा से सुस्पष्ट हो जाता है कि प्रभु की चेतन शक्ति ही वह कड़ी है। गुरु नानक ने करमखंड के अपने वर्णन में इसे प्रभु ‘राम’ की शक्ति ‘सीता’ कहकर इसे ‘सीतो’ अर्थात शीतल, शांत, कर्म से निवृत्त कहा है। प्रभु के सत्य संकल्प से यह शक्ति सृष्टि रचना रूपी कर्म के लिये प्रवृत्त होती है। सरमखंड तक आते-आते यह शक्ति एक तो चेतन आत्माओं की बहुलता को उत्पन्न करती है; दूसरे, जड़ शक्ति को उत्पन्न करती है; तीसरे, इस जड़ व चेतन के मिश्रण से अनंत रूपों की रचना करती और उनका ईशान करती है (rules)। बाणी इस शक्ति को ‘माई’ अर्थात माँ (Mother) कहती है। गुरु गोविन्द सिंह जी ने इसे ‘शिवा’ अर्थात शिव की सहचारी, शिव की शक्ति, ‘जगमाता’ अर्थात जगज्जननी (World Mother), ‘भवानी’, ‘भगउती’ अर्थात भगवती कहा है। बाणी में इसके लिये बहुप्रयुक्त संज्ञा शब्द है। आदिग्रंथ का शायद ही कोई पृष्ठ या पद हो जिसमें इस शक्ति की वंदना न की गई हो। गुरु नानक और उनकी गद्दी परंपरा में हुए गुरु साहिबानों की शिक्षा का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण, और साथ ही दुर्भाग्यवश सबसे उपेक्षित, पक्ष है।
इस चर्चा से निकलने वाला दूसरा निष्कर्ष यह है कि जगत के संदर्भ में हमारे समक्ष पाँच मूलभूत सत्ताएं हैं - सति, नाम, शब्द, माया और जीव। इनमें से तीन पुरुष और दो प्रकृतियाँ हैं। सति, नाम और जीव -ये तीनों पुरुष हैं जबकि शब्द और माया -ये दो प्रकृतियाँ हैं। संस्कृत शब्द ‘पुरुष’ के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ दो हैं। पहला, ‘पूर्णं अनेन सर्वं इति पुरुषः’ अर्थात ‘जिससे यह चराचर जगत परिपूर्ण है’ और दूसरा, ‘पुरि शयनात् वा पुरुषः’ अर्थात ‘जो पुरी में शयन करता है’। प्रकृति के प्रत्येक कार्य को पूर्ण करने के नाते परमेश्वर सति को पुरुष कहेंगे। दूसरी ओर ब्रह्मांड रूपी विराट पुरी में विश्राम करने के नाते सति की अक्षर सत्ता नाम को भी पुरुष कहेंगे। पुनः पिंड रूपी सीमित पुरी में विश्राम करने के नाते प्रभु सति के अंश जीव को भी पुरुष कहेंगे। इस तरह सति, नाम और जीव तीनों पुरुष हैं। दूसरी ओर शब्द व माया दो प्रकृतियाँ हैं। प्रकृति शब्द ‘प्र’ = प्रवृति, ‘कृ’ = क्रिया, ‘ति’ = तिरोभाव के संयोग से बना है। प्रकृति वह है जो जगत के निर्माण के लिये प्रवृत होती है, जो सतत क्रिया द्वारा इसे बनाये रखती है, और जिसके क्रिया से निवृत होने मात्र से जगत का तिरोभाव हो जाता है। लेकिन प्रकृति के दो रूप हैं - शब्द और माया। शब्द सत्, चित्, आनंद है; माया सांख्य में वर्णित तीन गुणों -तमस, रजस, सत्त्व वाली है। शब्द परा अर्थात अलौकिक कोटि की प्रकृति है; माया अपरा अर्थात लौकिक कोटि वाली है।
हम जानते हैं कि ਓੱ के विपरीत सति एक संकल्पवान व सकर्मक सत्ता है। जगत रचना का समस्त कर्म सति का है। यह सति है जिसे बाणी में जगत रूपी बगीचे का माली, जगत रूपी खेत का किसान, जगत रूपी हाट का बनिया या साहूकार, जगत रूपी सल्तनत का सुल्तान, जगत रूपी भूमि का ठाकुर आदि कहा गया है। अब हम जानते हैं कि किसी भी कर्म (action) से पहले उसका संकल्प या विचार (will) किया जाता है। संकल्प कर्म की कारणावस्था है, कर्म संकल्प की कार्यावस्था है। पीछे हमने जगत के दो स्वरूपों की बात कही है। जगत का एक स्वरूप पारमार्थिक है जबकि दूसरा व्यावहारिक है। पहला सत् है तो दूसरा मिथ्या है। जगत के इन दोनों रूपों को रचने वाला सत्पुरुष ही है। पारमार्थिक स्वरूप वाले जगत के निर्माण में प्रभु सति का संकल्प नाम है और उसका कर्म शब्द है। व्यावहारिक स्वरूप वाले जगत के निर्माण में प्रभु सति का संकल्प शब्द है और उसका कर्म माया है। नाम कर्म रहित संकल्पमात्र है; माया संकल्प अर्थात विचार, विवेक आदि से रहित कर्ममात्र है; शब्द विचार भी है और कर्म भी है, यह सविवेक कर्म है। यह इस चर्चा से निकलने वाला तीसरा निष्कर्ष है।
हमने कहा कि जगत के संदर्भ में हमारे समक्ष पाँच मूलभूत सत्ताएं हैं - सति, नाम, शब्द, माया और जीव। इनमें से सति परात्पर (transcendent) है। यदि हम उपर्युक्त कारण से सति को छोड़ दें तो हमारे पास चार सत्ताएं रहती हैं - नाम, शब्द, जीव और माया। इनमें से नाम और जीव -दो पुरुष हैं और शब्द व माया -ये दो प्रकृतियाँ हैं। ब्रह्मांड में शब्द प्रकृति है और नाम उसमें निवास कर रहा पुरुष है; पिंड में माया प्रकृति है और जीव उसमें निवास कर रहा पुरुष है। ब्रह्मांड व पिंड, नाम व जीवात्मा और शब्द व माया के बीच घनिष्ठ संबंधों के चलते हम पूरे निश्चय के साथ यह कह सकते हैं कि आदिग्रंथ में प्रस्तुत दर्शन वही है जिसे भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में प्रकृति-पुरुष अथवा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ कहा गया है। हमारे विचार में आगे बड़ने से पहले हमें वहाँ प्रस्तुत दर्शन को समझ लेना चाहिए क्योंकि न केवल आदिग्रंथ के दर्शन के बारे में बल्कि भगवद्गीता के उक्त अध्याय में प्रस्तुत दर्शन के बारे में भी अनेक भ्रांतियाँ हैं। साथ ही इस अध्ययन से पुरुष और प्रकृति के दोनों रूपों की बेहतर समझ भी विकसित हो सकेगी।
श्रीभगवान् बोले-
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतत् यः वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तत्व विदः ॥(13.1)
“हे कुन्तीपुत्र! इस (दृश्य) शरीर को क्षेत्र कहा जाता है। इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ कहते हैं।”
क्षेत्रज्ञम् चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ॥
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो: ज्ञानम् यत् तत् ज्ञानं मतं मम ॥(13.2)
“हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत में ज्ञान है।”
तत् क्षेत्रम् यत् च यादृक् च यद्विकारी यत: च यत् ॥
स च यो यत्प्रभाव: च तत्समासेन मे शृणु ॥(13.3)
“वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिससे पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मुझसे सुन।”
‘इदम्’ का अर्थ है - ‘यह’ अर्थात अपने से अलग दीखने वाला, दृश्य। ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ’ के दर्शन को हम ‘प्रकृति-पुरुष’ का दर्शन कहने के साथ-साथ ‘शरीर-शरीरी’ अथवा ‘दृश्य-दृष्टा’ का दर्शन भी कह सकते हैं। श्रीभगवान् ने इस दर्शन को ‘समासेन’ अर्थात संक्षेप में बताया है, उन्होंने केवल कुछ संकेत दिये हैं जिनके आधार पर पाठक ने विस्तृत निष्कर्ष स्वयं निकालने हैं।
‘क्षणं क्षीयते’ धातु से ‘क्षेत्र’ बना है। ‘क्षेत्र’ वह है जो प्रतिपल क्षीण या परिवर्तित होता है। पिंड में प्रभु की जड़ शक्ति माया से निर्मित स्थूल, सूक्ष्म व कारण -तीनों शरीर क्षेत्र हैं, इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है। दूसरी ओर तत्त्वदर्शी महात्मा पिंड में जीवात्मा को इस क्षेत्र का दृष्टा या ज्ञाता ‘क्षेत्रज्ञ’ कहते हैं। ध्यान रहे कि जीवात्मा केवल ज्ञानियों के लिये इस क्षेत्र से भिन्न व इसका दृष्टा है, अज्ञानी लोग इस भिन्नता को नहीं जानते। अब पिंड तो ब्रह्मांड की छवि मात्र है। ब्रह्मांड में प्रभु की चेतन शक्ति शब्द क्षेत्र है और प्रभु की अक्षर सत्ता नाम क्षेत्रज्ञ है। प्रभु की जड़ शक्ति के समान ही चेतन शक्ति भी परिवर्तनशील है, दोनों में अंतर यह है कि जड़ शक्ति प्रतिक्षण परिवर्तित होकर नष्ट हो रही है जबकि चेतन शक्ति प्रतिक्षण परिवर्तित होकर नवीन हो रही है। पिंड में जड़ शक्ति और जीव -दोनों प्रभु की चेतन शक्ति शब्द से हैं। शब्द सबका ईश्वर है। ब्रह्मांड में चेतन शक्ति शब्द और सत्ता नाम -दोनों सति से हैं। सति महेश्वर या परमेश्वर हैं। पुनः सति ही समष्टिगत आत्मा नाम है, सति ही व्यष्टिगत आत्मा जीव है। अतः सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ सति है। जिस तरह परमेश्वर सति और परब्रह्म ਓੱ एक हैं, उसी प्रकार परमेश्वर सति व ब्रह्म नाम भी एक हैं। सति ही एकमात्र ज्ञाता, एकमात्र दृष्टा है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। जिसने पिंड में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ की भिन्नता का यह ज्ञान प्राप्त किया, वह प्रभु के ‘दर’ का दरवेश, उसकी ‘लीला’ का सहभागी है। जिसने ब्रह्मांड में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को प्राप्त किया, वह प्रभु के ‘धाम’ में प्रवेश करता है और उसके ‘घर’ का लाड़ला लाल बन जाता है।
अब आगे क्षेत्र के स्वरूप का वर्णन विकारों सहित किया गया है :
महाभूतानि अहंकारः बुद्धिः अव्यक्तम् एव च ।
इंद्रियाणि दशैकं च पञ्च च इंद्रियगोचरा: ॥(13.5)
इच्छा द्वेष: सुखं दुखं संघात: चेतना धृति: ।
एतत् क्षेत्रम् समासेन स्वीकारमुदाहरतम् ॥(13.6)
“अव्यक्त (मूल चेतन प्रकृति) और यह (जड़ प्रकृति), महत्तत्त्व, अहंकार, पाँच महाभूत और ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियाँ, एक मन तथा पाँच इंद्रियों के पाँच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, चेतना और धृति -विकारों सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया है।” इस सूची में इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, चेतना और धृति के अलावा शेष पच्चीस तत्त्व गिनाए गये हैं जिनमें चौबीस तत्त्व सांख्योक्त जड़ प्रकृति से संबंधित हैं जबकि ‘अव्यक्त’ संज्ञक तत्त्व चेतन प्रकृति है। ‘अव्यक्त’ के साथ ‘एव’ शब्द सांख्य वाली प्रकृति को विशेष रूप से बतलाने के लिए है और ‘च’ शब्द प्रकृति के इन दोनों रूपों के बीच भेद दर्शाने के लिए है। ‘अव्यक्त’ संज्ञा प्रभु की चेतन शक्ति शब्द के लिए आया है। बाणी इसे ‘माइआ का मूल’ कहती है, अतः इसी को मूल प्रकृति या प्रकृति कहा जाना चाहिये। सांख्य वाली प्रकृति, जिसे यहाँ ‘एव’ (यह) कहा गया है, इस मूल प्रकृति की विकृति है और साथ ही महत्तत्त्व को पैदा करती है, अतः यह ‘प्रकृति-विकृति’ है। आगे महत्तत्त्व, अहंकार और पाँच महाभूत भी ‘प्रकृति-विकृति’ हैं। फिर ज्ञान व कर्म की दस इंद्रियाँ, एक मन तथा पाँच इंद्रियों के पाँच विषय केवल विकृति हैं क्योंकि ये स्वयं किसी का भी कारण नहीं हैं। इच्छा, सुख, दुख, संघात, चेतना और धृति भी क्षेत्र के विकार हैं। सांख्योक्त जड़ प्रकृति, बुद्धि, अहंकार और पाँच महाभूत जो यहाँ पाँच तन्मात्राओं के लिए हैं -ये आठ अंगों वाली प्रकृति क्षेत्र का स्वरूप है; दस इंद्रियाँ, मन और पाँच उनके विषय -ये क्षेत्र का प्रभाव या कार्य हैं; इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, चेतना और धृति -ये क्षेत्र के विकार हैं। इनमें इच्छा, द्वेष, सुख, दुख मन के धर्म हैं। चेतना और धृति बुद्धि के धर्म हैं। यहाँ पर ‘चेतना’ का अर्थ ‘अभिज्ञता’ (awareness) है जो ‘लय’ की स्थिति के विपरीत है और इच्छा का मूल है।
पांचवें श्लोक में भगवान् ने क्षेत्र के समष्टि और व्यष्टि दोनों रूपों का वर्णन किया है और छठे श्लोक में अनन्य रूप से क्षेत्र के व्यष्टि रूप का ही वर्णन है। क्षेत्र में इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, चेतना और धृति -इन विकारों की उत्पत्ति तब होती है जब क्षेत्रज्ञ जीव अविवेक के कारण क्षेत्र के साथ अपना संबंध मान लेता है। “इच्छा-द्वेषादि सभी विकार तादात्म्य (जड़-चेतन की ग्रन्थि) में हैं। तादात्म्य में भी ये विकार जड़-अंश में रहते हैं।”(श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी, पृ-868)
तत्पश्चात सातवें श्लोक से लेकर दसवें श्लोक तक ज्ञान का स्वरूप बताया गया है। यहाँ एक बार फिर यह ध्यान दिलाया जाना जरूरी है कि ज्ञान के स्वरूप का वर्णन ‘सविकारम्’ है अर्थात प्रभु की चेतन शक्ति शब्द ही ज्ञान है, इन चार श्लोकों में बताये गये गुण तो प्रभु की चेतन शक्ति शब्द के अंतर्मुख अभ्यास के कारण जड़ शक्ति में उत्पन्न उसके परिणाम मात्र हैं। ग्यारहवें श्लोक में सचेत किया गया है कि शब्द-अभ्यास का यह साधन केवल तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के उद्देश्य से करना चाहिये। फिर बारहवें श्लोक से अठारहवें श्लोक तक ज्ञेय तत्त्व अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा सति का वर्णन है जिसके पश्चात उन्नीसवें श्लोक से एक बार फिर ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ’ के विषय का आरंभ ‘प्रकृति-पुरुष’ संज्ञा से करते हैं। इससे पता चलता है कि ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ’ और ‘प्रकृति-पुरुष’ पर्यायवाची पद हैं।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धि अनादि उभावपि ।
विकारान् च गुणान् चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥(13.19)
“प्रकृति और पुरुष दोनों को ही अनादि समझो।” ब्रह्मांड में प्रकृति (शब्द) और पुरुष (नाम) अनादि है और यह अनादित्व एक के बाद एक ब्रह्मांडों के निर्माण व ध्वंस में समरूप से बना रहता है। पिंड में प्रकृति (माया) व पुरुष (जीव) अनादि हैं और यह अनादित्व एक के बाद एक पिंडों के निर्माण व ध्वंस में समरूप से बना रहता है। प्रकृति और पुरुष के इन दो-दो जोड़ों में से चेतन प्रकृति शब्द, समष्टिगत पुरुष नाम और व्यष्टिगत पुरुष जीवात्मा का अनादित्व आसानी से समझ में आ जाता है लेकिन माया का अनादित्व एक जटिल विषय है। माया केवल व्यष्टिगत प्रकृति ही नहीं है, ब्रह्मांड के निर्माण के लिए समस्त आवश्यक तत्त्व जैसे चारों मूलभूत बल, लघु कण, तत्त्व (element) आदि प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। यह माया हमारे ब्रह्मांड का वैसे ही उपादान कारण (material cause) है जैसे लकड़ी कुर्सी का उपादान कारण है। यह ब्रह्मांड सदैव इसी स्थिति में नहीं रहता है। ब्रह्मांड के निर्माण की प्रक्रिया में यह जड़ प्रकृति अपनी सरल, सामान्य और अविशेषीकृत अवस्था से विकसित होकर जटिल, विशिष्ट और विशेषीकृत रूप को ग्रहण करती है और ब्रह्मांड के लय की प्रक्रिया में जटिल, विशिष्ट और विशेषीकृत रूप सरल, सामान्य और अविशेषीकृत रूप में विलीन हो जाते हैं और फिर यह सरल, सामान्य और अविशेषीकृत रूप भी चेतन प्रकृति शब्द - जिसे यहाँ भगवान् ने ‘अव्यक्त’ कहा है - में लीन हो जाता है। हम जान चुके हैं कि सांख्योक्त जड़ प्रकृति मूल प्रकृति नहीं है, मूल प्रकृति चेतन है जिसे बाणी में शब्द व भगवद्गीता में पराप्रकृति कहा गया है, इसी से सांख्य वाली प्रकृति उत्पन्न होती है। माया शब्द से अभिव्यक्त होती है। सांख्य में ‘अभिव्यक्ति’ का अर्थ ‘अव्यक्त कारण से कार्य की उत्पत्ति’ है जबकि ‘नाश’ का अर्थ ‘कार्य का कारण में लय’ है। ‘नश अदर्शने अदर्शने लोपः’ से ‘नाश’ बना है। ‘नाश’ का अर्थ ‘समाप्ति’ (destruction) नहीं अपितु ‘अलोप’, ‘अदर्शन’ है। इसका अर्थ हुआ कि शब्द अव्यक्त कारण है जिसका कार्य माया है। माया रूप यह ‘कार्य’ प्रलय काल में शब्द में लय हो जाता है और सृष्टि की उत्पत्ति के समय पुनः शब्द से उत्पन्न हो जाता है। यह सृष्टि अनेक बार बनी और फिर नष्ट हुई है : कई बार पसरिउ पासार ॥(5-276) कुछ भी ‘नए सिरे से’ (de novo) नहीं रचा जाता है। जो कुछ भी विद्यमान है, चाहे जड़ हो या चेतन, बीजभूत (primordial) अव्यक्त में अपने बीजों से प्रकट होता है और ये अनेक बीज एक ही बीज से हुए हैं। सभी जीवों का यह ‘एक बीज’ प्रभु का अपना ही स्वरूप है अतः प्रभु ही सभी जीवों का बीज हुए और यही बात अन्यत्र कही गई है : अहम् बीजम् सर्वभूतानाम् ॥(10.39) माया की समस्त विविधता इस ‘एक बीज’ में लुप्त रहती है और प्रभु इच्छा का संकेत पाते ही यह जगत् रूप फ़सल फिर से लहलहाने लगती है। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष के चारों रूप अनादि हैं।
आगे भगवान् कहते हैं, “विकारों को तथा गुणों को प्रकृति से ही उत्पन्न समझो।” सत्त्व, रज और तम -ये तीन गुण सांख्योक्त प्रकृति, जिसे आदिग्रंथ में माया कहा गया है, का स्वरूप हैं। सांख्य वाली प्रकृति/माया इन तीन गुणों को उत्पन्न नहीं करती अपितु तीन गुण ही माया हैं। यह त्रिगुणात्मिका माया जिस प्रकृति से उत्पन्न होती है उसे ही आदिग्रंथ में शब्द कहा गया है। इसके साथ ही इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, चेतना और धृति -ये सात विकार भी इसी चेतन शक्ति से उत्पन्न होते हैं। यह पूछा जा सकता है कि पीछे हमने लिखा है कि इन विकारों की उत्पत्ति तब होती है जब क्षेत्रज्ञ जीव अविवेक के कारण क्षेत्र के साथ अपना संबंध मान लेता है जबकि अब हम लिख रहे हैं कि इनकी उत्पत्ति में चेतन शक्ति शब्द ही हेतु है। ऐसा क्यों? इसका कारण यह है कि शब्द इस जगत् का ईश है, यहाँ वही होता है जो शब्द चाहता है : सभु इको सबदु वरतदा जो करे सु होई ॥(3-654) किन्तु शब्द कुछ भी मनमानी से नहीं करता है। जीव की अपनी इच्छा भी गौण रूप से इस जागतिक क्रीडा को सुनिश्चित करती है। यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है और इसका सविस्तार अध्ययन आगे किया जाएगा।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृति: उच्यते ।
पुरुषः सुखदुखानाम् भोक्तृत्वे हेतु: उच्यते ॥(13.20)
“कार्य और करण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है।” “आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध -इन दस (पाँच महाभूतों और पाँच विषयों) का नाम ‘कार्य’ है। श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण, वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा तथा मन, बुद्धि और अहंकार -इन तेरह (दस बहि:करण और तीन अंतःकरण) का नाम ‘करण’ है। इन सबके द्वारा जो कुछ क्रियाएं होती हैं, उनको उत्पन्न करने में प्रकृति ही हेतु है।”(श्रीमद्भगवद्गीता, साधक-संजीवनी, पृ -893) पिंड में कर्म और ज्ञान की दसों इंद्रियाँ तथा अंतःकरण अपरा प्रकृति से उत्पन्न होते हैं किन्तु प्रत्येक पिंड में इनके रूप व शक्ति-सामर्थ्य का निर्धारण पराप्रकृति से होता है। इसी प्रकार इन दसों इंद्रियों तथा अंतःकरण द्वारा होने वाली समस्त क्रियाएं स्वाभाविक रूप से अपरा प्रकृति से ही होती हैं किन्तु इन इंद्रियों तथा अंतःकरण का झुकाव किस प्रकार की क्रिया में होगा, इसका निर्धारण पराप्रकृति द्वारा होता है और ‘कर्म विधाता’ होने के कारण पराप्रकृति हमारे लिए उसी प्रकार के कर्म का चयन करती है जो प्रकट अथवा प्रछन्न रूप से हम चाहते हैं :
इहु जग भूला तै आपि भुलाइआ ॥
xx xx xx xx
इकि रंगि राते जो तुधु आपि लिव लाए ॥(3-111)
“सुख-दुखों के भोक्तापन में पुरुष हेतु कहा जाता है।” आपके इस वक्तव्य का अध्ययन अगले श्लोक के साथ करना उचित होगा।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान् गुणान् ॥
कारणम् गुणसङ्ग: अस्य सद् असद् योनि जन्मसु ॥(13.21)
“प्रकृति में स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग ही इसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।” पुरुष दो हैं - नाम और जीव। ब्रह्मांड में प्रभु की अक्षर सत्ता नाम पुरुष है और प्रभु की क्षर शक्ति शब्द प्रकृति है। नाम भोक्ता है, भोगणहार, और शब्द, प्रभु का दिव्य ऐश्वर्य, भोग्य है। इसी प्रकार प्रकृतियाँ भी दो हैं - शब्द/पराप्रकृति और माया/अपराप्रकृति। पिंड में जीव भोक्ता है और माया भोग्य है। नाम शब्द/पराप्रकृति के जिन गुणों का भोक्ता है वे सत्, चित् और आनंद हैं; जीव माया/अपराप्रकृति के जिन गुणों का भोक्ता है वे सत्त्व, रज और तम हैं। पुनः नाम शब्द का केवल भोगणहार ही नहीं, वह इसका दृष्टा भी है। इस तरह नाम शब्द के संग भी है और उससे असंग भी है। दूसरी ओर जीव माया से असंग रह सकता है किन्तु अज्ञानता के कारण ऐसा कर नहीं पाता जिससे बंधन पैदा होता है जो इसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्मांडीय पुरुष नाम हमसे भिन्न है और कहीं दूर है। “परमात्मा -इस नाम से कहा जाने वाला यह पुरुष उपदृष्टा, अनुमंता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और इस देह में रहता हुआ भी इस देह से सर्वथा संबंधरहित है।”(13.22) वैदिक चिंतन में प्रस्तुत एक सांगरूपक के अनुसार यह देह मानों एक रथ है जिसमें इंद्रियाँ अश्व, मन लगाम, बुद्धि सारथी और जीव रथवान है, लेकिन इस सांगरूपक में दो तथ्य अनकहे रह गये हैं या कहें कि वे दो तथ्य उपलक्षित हैं, हमने उन्हें अपनी ओर से समझना है। पहला, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपराप्रकृति है और यह अपराप्रकृति पराप्रकृति/ईश्वर/शब्द के बिना रह ही नहीं सकती है। अतः पराप्रकृति/ईश्वर/शब्द भी इसी रथ पर सवार है किन्तु जीव उसकी उपस्थिति से परिचित नहीं है। इस प्रकार जीव व ईश्वर एक ही सेज पर हैं किन्तु जीव इस सत्य को नहीं जानता : सेज एक प्रिउ संगि दरसु न पाईऐ राम ॥(5-543) अनकहा रह जाने वाला दूसरा तथ्य यह है कि इसी रथ पर ब्रह्मांडीय पुरुष नाम भी विराजमान है। हाँ, शब्द/ईश्वर के विपरीत वह छिप कर यात्रा कर रहा (stowaway) है। “जो मनुष्य (इस) पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति, गुणैः सह प्रकृतिम्, को जानता है वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।”(13.23) मनुष्य का लक्ष्य पुरुष/नाम को जानना है, लेकिन वह केवल गुणों को अर्थात गुणमयी प्रकृति को जानता है। उसे यह भी नहीं पता है कि इसी गुणमयी प्रकृति में ज्ञानमयी प्रकृति भी विद्यमान है जो इसे उत्पन्न करती और नियंत्रण में रखती है। यह अज्ञानता जीव के लिये भारी विपत्ति का कारण बनती है। गुरु तेग बहादुर जी लिखते हैं :
भूलिओ मनु माइआ उरझाइओ ॥
जो जो करम कीओ लालच लगि तिह तिह आपु बंधाइओ ॥1॥ रहाउ॥
समझ न परी बिखै रस रचिओ जसु हरि को बिसराइओ ॥
संगि सुआमी सो जानिओ नाहिन बनु खोजन कउ धाइओ ॥1॥
रतनु रामु घट ही के भीतरि ता को गिआनु न पाइओ ॥
जन नानक भगवंत भजन बिनु बिरथा जनमु गवाइओ ॥2॥(9-702)
“हे भाई! (प्रभु को) भूला हुआ मन माया (के मोह में) फंसा रहता है। (फिर, ये) लालच में फंस के जो-जो काम करता है, उनसे अपने आप को (माया के मोह में और) फंसा लेता है। (हे भाई! प्रभु के शब्द से टूटे हुए मनुष्य को) आत्मि्क जीवन की समझ नहीं होती। विषयों के स्वाद में मस्त रहता है, परमात्मा की महिमा भुलाए रहता है। परमात्मा (तो इसके) अंग-संग (बसता है) उसके साथ गहरी सांझ नहीं डालता, जंगल में ढूँढने के लिए दौड़ पड़ता है। हे भाई! रत्न (जैसा कीमती) हरि-नाम हृदय के अंदर ही बसता है (पर भूला हुआ मनुष्य) उससे सांझ नहीं बनाता। हे दास नानक! (कह) परमात्मा के भजन के बिना मनुष्य अपना जीवन व्यर्थ गवा लेता है।” यहाँ गुरु जी ऐसे मनुष्य के जीवन का वर्णन कर रहे हैं जो जो केवल गुणमयी प्रकृति को ही जानता है जिससे वह गुणों का दास बन कर अपने जीव को नष्ट कर लेता है। पुरुष/नाम त्रिगुणातीत है। वहाँ न तो असद् वस्तु माया है और न ही उसकी कामना है। नाम को जान कर हम भी गुणों से संबंधरहित हो सकते हैं। त्रिगुणात्मिका माया और त्रिगुणातीत नाम के बीच प्रभु की दिव्य माया/शब्द है। हम इस शब्द के माध्यम से दिव्य पुरुष/नाम को प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए त्रिगुणातीत पुरुष से मिलाप के अभिलाषी साधक के लिये यह जरूरी है कि पहले वह इस गुणमयी प्रकृति में निवास कर रही व इसका नियंत्रण कर रही ज्ञानमयी प्रकृति को जाने, गुणैः सह प्रकृतिम् वेत्ति । तत्पश्चात वह इस ज्ञानमयी प्रकृति के माध्यम से पुरुष/नाम को जान सकता है जिससे उसे ज्ञान हो जाता है कि स्वरूप में वस्तुतः कोई भी क्रिया नहीं है, तब उसमें कर्तापन का अभिमान और क्रिया की फलासक्ति -दोनों छूट जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है।
(शेष आगे)
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