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Kartapurush ep11 - कर्तापुरुष ep11

Updated: May 11, 2023

There is a famous statement to describe the relationship between the Lord and the Jiva. It is said that the Jiva is an Ansh (part) of the Lord. But what can be the exact meaning of this statement because the Lord is indivisible. We feel that the Jiva is called a part of the Lord because he is His partial manifestation. Read Karta Purush 11 to read more on this subject.


जीव और परमात्मा के आपसी संबंधों के बारे में एक प्रसिद्ध टिप्पणी यह है कि ‘जीव परमात्मा का अंश है।’ आदिग्रंथ में भी यही कहा गया है : कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥ ‘अंश’ का अर्थ ‘काटकर अलग किया हुआ टुकड़ा’ या ‘अनार के अनेक दानों में से एक दाना’ नहीं हो सकता है। प्रभु अखंड है, उसे भागों में नहीं बांटा जा सकता। ‘अंश’ का एक अर्थ पुत्र भी होता है किन्तु यह अर्थ भी जीवात्मा और परमात्मा के संबंध को बोधगम्य रीति से पारिभाषित नहीं करता जिससे हमारी समस्या जस की तस बनी रहती है। हमारे विचार में ‘अंश’ का अर्थ ‘आंशिक अभिव्यक्ति’ होना चाहिये। परमात्मा पूर्ण है, जगत अपूर्ण, आंशिक है। परमात्मा को जगत के रूप में प्रकट होने के लिये आंशिक होना ही होगा। परमात्मा पूर्ण है, वह अनाभिव्यक्त चेतन है। जीव आंशिक है, वह अभिव्यक्त चेतन है। अभी पीछे हमने जाना है कि परमात्मा ही जीव बना है, इसका अर्थ है कि पूर्ण ही आंशिक हुआ है। ‘जीव राम का अंश है’ इसका अर्थ है कि ‘जीव राम की आंशिक अभिव्यक्ति है’। इस संबंध में अधिक विस्तृत चर्चा के लिए पढ़ें कर्ता पुरुष 11.



 

Read the previous article▶️Kartapurush ep10

 

(हम सत्य स्वरूप परमात्मा सति, उसकी सत्ता नाम, उसकी आध्यात्मिक व त्रिगुणात्मिक -दो प्रकार की शक्तियों व जीवों के बीच संबंधों के सांगोपांग विवेचन के क्रम में आदिग्रंथ में संकलित भक्त कबीर जी के 'अवलि अलह नूरु उपाइआ' शब्द का अध्ययन कर रहे हैं। उस क्रम में अब आगे)

आप लिखते हैं :

माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥

ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥2॥


‘विधाता ने एक ही मिट्टी से अनेक किस्मों के जीव-जन्तु पैदा कर दिए हैं। ना इन मिट्टी के बर्तनों (भाव, जीवों) में कोई त्रुटि है, और ना (इन बर्तनों के बनाने वाले) कुम्हार में।’ इस पंक्ति में हमारी इस विविध सृष्टि के संबंध में तीन तत्त्व दृष्टव्य हैं। पहला परमात्मा है जिसे सृजनहार व कुम्हार कहा गया है; दूसरा मिट्टी है, यह एक परमात्मा की एक चेतन शक्ति है जो हमारी सृष्टि का उपादान कारण बनती है, इसी को भक्त जी ने इस शब्द की शुरुआती पंक्ति में ‘कुदरत’ कहा है; तीसरा इस एक मिट्टी से बने हुए अनेक प्रकार के बर्तन हैं जिन्हें हमने जीव कहा है। ध्यान रहे कि बाणी में ‘भांडा’ (बर्तन) शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। राग सूही में गुरु अर्जुन देव जी ने इस शब्द का प्रयोग शरीर के अर्थ में किया है :

रखहि पोचारि माटी का भांडा ॥ अति कुचील मिलै जम डांडा ॥(5-741)


आप शरीर को ‘मिट्टी का बर्तन’ कह रहे हैं जो विकारों से अत्यंत गंदा हो रहा है। लेकिन कबीर जी ने जिस ‘मिट्टी के बर्तन’ का उल्लेख किया है वह, आपके कथन अनुसार, परमात्मा के समान लक्षणों वाला है। इसका अर्थ हुआ कि यहाँ जिस ‘मिट्टी के बर्तन’ का उल्लेख हुआ है उसका अर्थ जीव है लेकिन जीव का अर्थ शरीरी है न कि शरीर। इससे एक बार फिर पता चलता है कि परमात्मा की चेतन शक्ति के समान उसकी जड़ शक्ति भी जगत् का उपादान है और इन दोनों के लिये समान पदावली का प्रयोग सर्वथा उचित है, हमें केवल यह ध्यान रखना है कि इन दोनों के लिये पदावली तो समान होगी किन्तु उन समान पदों के अर्थ चेतन शक्ति और जड़ शक्ति के संदर्भ में भिन्न-भिन्न होंगें।


भक्त कबीर जी ‘बर्तन’ अर्थात जीवात्मा को त्रुटिहीन कह रहे हैं। परमात्मा पूर्ण है, उसकी शक्ति भी पूर्ण है, आत्मा भी पूर्ण है। भगवद्गीता (2.22) में देही आत्मा को अजः, नित्य:, शाश्वत: एवं पुराण: कहा गया है, अन्यत्र (2.24) इसे नित्य:, सर्वगत:, अचल:, स्थाणु: एवं सनातन कहा गया है। इसका अर्थ है कि आत्मा जन्म रहित, निरंतर रहने वाला, एकरस व एकरंग, अनादि, समस्त दिक् व काल में रहने वाला, स्थिर, कंपन आदि क्रिया से रहित व सनातन है। ये समस्त लक्षण परमात्मा पर आँख मूँद कर लागू किये जा सकते हैं। आत्मा व परमात्मा एक ही हैं। दोनों पूर्ण, दोषरहित सत्ता हैं। ऐसी ही दोषरहित परमात्मा की शक्ति है जो भक्त कबीर जी द्वारा दिये गये तर्क के अनुसार आत्मा व परमात्मा की मध्यस्थ है।


भक्त जी का कथन है कि परमात्मा ने अपनी एक शक्ति से अनेक जीवों की वैसे ही रचना की जैसे कुम्हार एक मिट्टी से अनेक बर्तनों को निर्मित करता है। परमात्मा रूपी कुम्हार के पास शक्ति रूप मिट्टी सदा-सदा से थी। भक्त नामदेव जी के शब्द की व्याख्या करते हुए हमने जान लिया है कि परमात्मा अपनी शक्ति की रचना नहीं करता। शक्ति उसका शरीर है जिसे वह तब उत्पन्न करता है जब वह ਓੱ से सति, निर्गुण से सगुण, निराकार से साकार बनता है। तदुपरांत, जगत रचना के निमित्त वह सर्वप्रथम जगत रचना का संकल्प करता है, ऐसा करके वह अपनी सत्ता नाम को जगत के निमित्त कारण के रूप में स्थापित करता है, फिर वह उस संकल्प के बल पर अपनी शब्द-शक्ति को निष्क्रिय अवस्था से सक्रिय अवस्था में लाता है जो जगत का उपादान कारण बनती है। इस प्रकार जगत के निमित्त और उपादान कारणों को परमात्मा ही उत्पन्न करता है। इसी को भक्त नामदेव जी ने ‘पहले पुरुष का आविर्भाव हुआ, फिर पुरुष से आमिरा अर्थात प्रकृति उत्पन्न हुई’, -ऐसा कहा है। यहाँ हमारे लिए नई सूचना यह है कि परमात्मा ने इस शक्ति से अनंत जीवों की रचना की। चूंकि हमने ‘जीव’ का अर्थ ‘आत्मा’ किया है तो इससे प्रश्न होता है कि क्या आत्मा (soul) परमात्मा से उत्पन्न (originate) होती है? शंकराचार्य ने परंपरा से इसके समर्थन में दिए जाते चार तर्कों का वर्णन करके उनका खंडन किया है। हम शंकराचार्य के खंडन और अपनी टिप्पणियों सहित ये चारों तर्क यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं :

  1. ब्रह्म से परे, बाहर व असंबद्ध कुछ नहीं है क्योंकि उसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है।(मुंडक 1.1.1)

  2. ब्रह्म असीम है, आत्मा सीमित है और सीमित होने के नाते ब्रह्म से उत्पन्न होती है।

  3. आत्मा विभक्त (divided) और बहु (manifold) है अतएव यह मूलभूत (original) नहीं अपितु मूलभूत तत्त्व से प्रसूत (derivative) है।

  4. भोक्ता जीव और भोग्य प्रकृति ब्रह्म से उत्पन्न हैं जैसे अग्नि से चिंगारियाँ उत्पन्न होती हैं।

शंकराचार्य ने इन चारों तर्कों का क्रमवार खंडन किया है। खंडन के उपक्रम में आप चौथे तर्क से आरंभ करके पहले की ओर आते हैं। यदि हम चौथे तर्क से शुरू करें तो देखते हैं कि अग्नि और चिंगारियों का उदाहरण मुण्डकोपनिषद्‌ (2.1.1) में दिया गया है। वहाँ कहा गया है कि ‘जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि में से उसी के जैसे रूप-रंग वाली हजारों चिंगारियां चारों ओर निकलती है, उसी प्रकार परमपुरुष अविनाशी ब्रह्म से सृष्टि काल में नाना प्रकार के मूर्त-अमूर्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं और प्रलय काल में पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं।‘ इस उदाहरण के संबंध में शंकर का कहना है कि यहाँ जीवों के उत्पन्न होने की सूचना अवश्य है किन्तु यहाँ अभिप्राय शरीर से है न कि आत्मा से। आत्मा शाश्वत है, इसकी उत्पत्ति नहीं होती। जिसकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी अवश्य होता है। उत्पत्ति और विनाश शरीर के धर्म हैं न कि आत्मा के।


तीसरे तर्क के संबंध में शंकर का उत्तर है कि आत्मा विभक्त व बहु नहीं है। विभक्तता व बहुलता उपाधि के कारण है जैसे आकाश (space) की बहुलता घड़ों के कारण है। कठोपनिषद की श्रुति कहती है, “जैसे एक ही अग्नि समस्त ब्रह्मांड में प्रविष्ट होकर नाना रूपों में उनके समान रूप वाली ही हो रही है वैसे ही समस्त प्राणियों का अंतरात्मा एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्हीं के जैसे रूप वाला हो रहा है और उनके बाहर भी है।”(2.2.9) “जिस प्रकार समस्त ब्रह्मांड में प्रविष्ट एक ही वायु नाना रूपों में उनके समान रूप वाला ही हो रहा है वैसे ही समस्त प्राणियों का अंतरात्मा एक होते हुए भी नाना रूपों में उन्हीं के जैसे रूप वाला हो रहा है और उनके बाहर भी है।”(2.2.10) इन दो उदाहरणों से हमारे समक्ष आत्मा की अखंडता व एकता और प्रकृति के कारण उसमें उत्पन्न होने वाली विभक्तता व बहुलता का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। ‘समस्त प्राणियों का अंतरात्मा’ उक्ति परमात्मा की चेतन शक्ति की ओर संकेत करती है। यह चेतन शक्ति आकाश में वायु या समुद्र में जल के समान सब ओर अविच्छिन्न रूप से पसरी हुई और घनीभूत है। फिर यह निरवयव व एक है, इसे टुकड़ों में विभक्त नहीं किया जा सकता। लेकिन जड़ शक्ति, जिसमें यह आभासित होती है, सावयव है जिससे आभासों की प्रचुरता उत्पन्न होती है। जैसे एक वस्तु की एक दर्पण में एक ही छवि बनती है जबकि अनेक दर्पणों में उस एक वस्तु की छवियाँ भी अनेक हो जाती हैं। ऐसे ही सदवस्तु एक ही है, सारी बहुलता प्रकृति में है, उसी के कारण सदवस्तु अनेक हुई प्रतीत होती है। जब यह चेतन शक्ति महान बुद्धि में आभासित होती है तो उससे बनने वाले एक महान आकार को वैशवानर (universal man) कहा गया है। दूसरी ओर जब यही शक्ति अहंकार के कारण खंड-खंड हुई और महान से अल्प हुई अनेक बुद्धियों में आभासित होती है तो उससे बनने वाले अनेक और लघु (restricted) आकारों को जीव कहा गया है। इस तरह प्रभु की पराशक्ति ही जीवों की विविधता के रूप में उत्पन्न होती है। पुनः जैसे कुछ वायु गुब्बारे में आ जाती है लेकिन गुब्बारे से बाहर वायु से वह भिन्न नहीं होती ऐसे ही शक्ति एक व अविच्छिन्न ही रहती है।


दूसरे तर्क के उत्तर में यह कहा जाएगा कि ब्रह्म असीम है तो आत्मा भी असीम है। आत्मा असीम से ससीम जीवत्व के कारण होती है। ब्रह्म (आदिग्रंथ के अनुसार नाम), ईश्वर (आदिग्रंथ के अनुसार शब्द) और जीव -ये तीनों चैतन्य हैं और तत्त्व रूप से अभिन्न हैं। भिन्नता उपाधि के कारण है। नाम/ब्रह्म माया से निर्लेप चैतन्य है; शब्द/ईश्वर महान बुद्धि से सीमित चैतन्य है; जीव अल्प बुद्धि से सीमित चैतन्य है। अतएव जीव नाम/ब्रह्म से अभिन्न है जबकि शब्द/ईश्वर से भिन्न है। जब गुरु नानक कहते हैं :

सो प्रभु दूरि नाही प्रभु तूं हैं ॥(1-354)


तो वह जीव का ब्रह्म से रिश्ता बताते हैं कि ‘तुम ब्रह्म ही हो।’ दूसरी ओर जब वह कहते हैं :

तू पूरा हम ऊरे होछे तू गउरा हम हउरे ॥(1-596)


“(हे प्रभु!) तुम पूर्ण हो हम अपूर्ण हैं, तुम महान हो हम तुच्छ हैं।” तब वह जीव का ईश्वर से रिश्ता बता रहे होते हैं। इसका कारण यह है कि जीव और ईश्वर, दोनों उपाधिगत चैतन्य हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं : जीव की ईस समान ॥ ‘जीव ईश्वर के समान नहीं है’ क्योंकि ईश्वर महान बुद्धि में आभासित होता है, जीव अल्प बुद्धि में आभासित होता है। जीव का अर्थ ही ‘लघु’ होता है। यह लघुत्व बुद्धि का है आत्मा का नहीं है। यदि जीव और ईश्वर निरुपाधिक हो जाएँ तों वे भी शुद्ध चैतन्य व ब्रह्म ही है। अतः वेदान्त का यह कथन कि ‘जीव ब्रह्म ही है’ सत्य है।

जहां तक पहले तर्क का प्रश्न है उससे यही सिद्ध होता है कि जीव व ब्रह्म एक ही हैं।


जीव और परमात्मा के आपसी संबंधों के बारे में एक प्रसिद्ध टिप्पणी यह है कि ‘जीव परमात्मा का अंश है।’ भारत में वेदान्त की सभी परंपराओं अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशष्टाद्वैत में जीव को परमात्मा का अंश कहा गया है। मुंडकोपनिषद (2/1/1), गीता (15/7), ब्रह्मसूत्र (2/3/43) में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है। आदिग्रंथ में भी यही कहा गया है : कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥(कबीर-871) कबीर जी के इस कथन के सही-सही निहितार्थ जानने के लिये हमें इस वक्तव्य में आये दो पदों ‘राम’ और ‘अंश’ के अर्थ जानने होंगे। ‘अंश’ का अर्थ ‘काटकर अलग किया हुआ टुकड़ा’ या ‘अनार के अनेक दानों में से एक दाना’ नहीं हो सकता है। प्रभु अखंड है, उसे भागों में नहीं बांटा जा सकता। ‘अंश’ का एक अर्थ पुत्र भी होता है किन्तु यह अर्थ भी जीवात्मा और परमात्मा के संबंध को बोधगम्य रीति से पारिभाषित नहीं करता जिससे हमारी समस्या जस की तस बनी रहती है। हमारे विचार में ‘अंश’ का अर्थ ‘आंशिक अभिव्यक्ति’ होना चाहिये। परमात्मा पूर्ण है, जगत अपूर्ण, आंशिक है। परमात्मा को जगत के रूप में प्रकट होने के लिये आंशिक होना ही होगा। परमात्मा पूर्ण है, वह अनाभिव्यक्त चेतन है। जीव आंशिक है, वह अभिव्यक्त चेतन है। अभी पीछे हमने जाना है कि परमात्मा ही जीव बना है, इसका अर्थ है कि पूर्ण ही आंशिक हुआ है। ‘जीव राम का अंश है’ इसका अर्थ है कि ‘जीव राम की आंशिक अभिव्यक्ति है’। एक स्थान पर इस अंशांशी संबंध की व्याख्या समुद्र और बूंद की उदाहरण से की गई है। बूंद सागर की अंश है, सागर बूंद का अंशी अर्थात्‌ मूल व पूर्ण स्रोत है। बूंद में सागर के सभी गुण हैं, इस तरह सागर बूंद में व्याप्क है :

सागर महि बूंद बूंद महि सागरु । कवणु बूझै बिधि जाणै ॥(1-878)

'बूंद सागर में है और सागर बूंद में है। कौन इस रहस्य को समझता है और उस विधि को जानता है जिससे यह कौतुक हुआ है?'


पीछे ‘सतिनाम’ अध्याय में हमने देखा है कि आदिग्रंथ में ‘राम’ संज्ञा का प्रयोग परमात्मा के चारों रूपों - ਓੱ, सति, नाम व शब्द - के लिये हुआ है। कबीर जी ने यहाँ ‘राम’ संज्ञा का प्रयोग किस प्रभुसत्ता के लिये किया है, यह स्पष्ट नहीं है। बाणी में अन्यत्र की गई टिप्पणियाँ भी सहायता नहीं करती हैं। गुरु नानक ने दो स्थानों पर ‘अंश’ शब्द का प्रयोग नाम पद के साथ किया है :

निरमल काइआ ऊजल हंसा । तिस विच नामु निरंजन अंसा ॥(1-1034)

कंचन काइआ निरमल हंसु । जिस महि नामु निरंजन अंसु ॥(1-1256)


किन्तु इन दोनों उद्धरणों में आये दो पद्यांशों यथा ‘नामु निरंजन अंसा’ और ‘नामु निरंजन अंसु’ का अर्थ ‘निरंजन नाम की अंश’ नहीं है, ऐसा होने पर हम आसानी से यह कह सकते थे कि ‘नाम अंशी है’ और ‘जीव उसका अंश है’। किन्तु, दोनों पंक्तियों में पूर्णत्व को प्राप्त सिद्धपुरुष की दशा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि ‘उसकी काया निर्मल व कंचन जैसी है और उसका हंस अर्थात जीवात्मा उज्ज्वल है क्योंकि उसमें माया से निर्लेप प्रभु के नाम और प्रभु के अंश का निवास हो गया है।’ सत्यस्वरूप परमात्मा सति पूर्ण हैं, बाणी में उन्हें ‘पूर्ण परमेश्वर’ कहा गया है। जगत रचना के निमित्त प्रभु सति स्वयं को दो में विभाजित करते हैं - नाम और शब्द नाम उनका पूर्णत्व है और यह जगत का निमित्त कारण है; शब्द उनकी आंशिक होने की क्षमता है और यह जगत का उपादान कारण है। ध्यान रहे कि नाम पूर्ण है और सदा-सदा पूर्ण है; शब्द भी पूर्ण है किन्तु यह आंशिक भी हो सकता है, और प्रभु का शब्द ही आंशिक रूप होकर जगत के रूप में प्रकट हुआ है। जिस प्रकार प्रभु सति में पूर्णत्व और आंशिकत्व समस्वर ढंग से साथ-साथ रहते हैं वैसे ही सिद्धपुरुष में भी ये दोनों एकसाथ रहते हैं। इससे पता चलता है कि इन पंक्तियों में गुरु नानक ने ‘अंश’ पद का प्रयोग जीवात्मा और परमात्मा के संबंधों के लिये नहीं किया है।


किन्तु इसके बावजूद प्रस्तुत संदर्भ में ये उद्धरण हमारे बड़े काम के हैं। शब्द प्रभु में निहित उनकी आंशिक होने की क्षमता है और यही जीव बनती है, ऐसा हम जानते हैं। ऐसे में यदि गुरु नानक शब्द को ‘प्रभु सति का अंश’ कह सकते हैं तो हम भी उनके अनुकरण में जीव को ‘प्रभु सति का अंश’ कह सकते हैं। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

निरंकार आकार आपि निरगुन सरगुन एक ॥

एकहि एक बखाननो नानक एक अनेक ॥(5-250)


गुरु जी पहली पंक्ति में परमात्मा को एक (१) कहते हैं और फिर उस ‘एक’ के वर्णन हेतु चार पदों का प्रयोग करते हैं _ निरंकार, आकार, निर्गुण और सगुण। इसका अर्थ है, “एक (१) परमात्मा आप ही निरंकार (ਓੱ) है; आप ही आकार (सति) है; आप ही निर्गुण (नाम) है; और आप ही सगुण (शब्द) है।” दूसरी पंक्ति का शाब्दिक अर्थ है, “उस एक का एक ही कहकर वर्णन किया जाता है, हे नानक! वह एक ही अनेक हो रहा है।” इसमें तीन बार ‘एक’ पद का प्रयोग किया गया है, इनसे निरंकार (ਓੱ), आकार (सति) और निर्गुण (नाम) की ओर संकेत है जबकि चौथी बार ‘अनेक’ पद का प्रयोग है जिससे सगुण (शब्द) की ओर संकेत किया गया है। इससे पता चलता है कि शब्द ही परमात्मा का वह रूप है जिससे जगत की विविधता का स्वरूप प्रकाश होता है। सति ही ਓੱ है, सति ही नाम है :

तू आपे आपि निरंकारु है निरंजन हरि राइआ ।।(4-301)


‘हे प्रकाश स्वरूप हरि! (अर्थात सति) तूँ आप ही निरंकार (ਓੱ ) हैं, आप ही माया से निर्लेप (नाम) हैं।’ ਓੱ, सतिनाम -तीनों समान, दिव्य, पूर्ण व अमृत हैं। इन तीनों में ਓੱ व नाम ब्रह्म (Absolute) हैं, दोनों में अंतर यह है कि ਓੱ परब्रह्म, परात्पर (transcendent) है जबकि नाम ब्रह्म, अंतःस्थ (immanent) है। सति को बाणी में ‘परमेसरू’ अर्थात ‘परमेश्वर (The Great Lord) कहा गया है। शब्द सति की शक्ति है जो जगत के रूप में अवतरित होती है, इसी को कबीर जी ने कुदरत कहा है। कुदरत या शब्द भी सति के समान दिव्य व अमृत है, यह शब्द समस्त जगत का ईश्वर (Lord) है, किन्तु यह पूर्ण नहीं आंशिक है। अतः शब्द प्रभु सति का अपरिवर्तित (unmodified) किन्तु आंशिक (circumscribed) रूप है। यही शक्ति अपरिवर्तित रहते हुए आगे और भी आंशिक होती व जीव बनती है, अतः जीव भी सति का अपरिवर्तित किन्तु आंशिक रूप है। अतः जीव सति का अंश है। सति ही हमारे पिता (The Father) हैं, आराध्य हैं, वही हमारा लक्ष्य हैं, उनके सिवाए और कौन हमारी पूजा-भक्ति के काबिल हो सकता है!, कस्मै देवाय हविषा विधेम्


अंत में, जीव की उत्पत्ति के बारे में Sris Chandra Sen ने अपनी पुस्तक Mystic Philosophy of Upanishads में जो निष्कर्ष प्रस्तुत किया है, वही निष्कर्ष आदिग्रंथ के संदर्भ में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। आप लिखते हैं, “उपनिषदों के अनुसार एक ज्ञाता, एक साक्षी, एक स्वयं (self) है। वह जो ब्रह्मांड की आत्मा है, वह जो मनुष्य की आत्मा है, और वह जो परात्पर (beyond) है, तीनों एक हैं। यह एक स्वयं सच्चिदानंद ब्रह्म है। जब वह ब्रह्मांड के आवरण के माध्यम से प्रकाशित होता है तो उसे हिरण्यगर्भ (या वैशवानर) कहते हैं। जब वह पिंड के आवरण के माध्यम से प्रकाशित होता है तो उसे जीव कहते हैं। किन्तु ब्रह्मांड अथवा पिंड के आवरण उसके तत्त्व में परिवर्तन नहीं कर पाते, न ही उसमें वास्तविक विभाजन अथवा परिवर्तन कर सकते हैं क्योंकि ब्रह्म अद्वय, अव्यय और अक्षर है।”(पृ -232) गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं : पेखन सुनन सुनावनो मन महि द्रिड़ीऐ साचु ॥(5-706) ‘सत्य स्वरूप परमात्मा सति स्वयं ही अपनी व्यथा को सुनाने वाला जीव है; स्वयं ही उस व्यथा को सुनने वाला और सुनकर उसके कष्टों का निवारण करने का विधान बनाने वाला शब्द है; स्वयं ही इस सारे खेल का साक्षी नाम है।’


भक्त कबीर ने लिखा है कि ‘विधाता ने एक ही मिट्टी से अनेक किस्मों के जीव-जन्तु पैदा कर दिए हैं।’ हमने यहाँ ‘मिट्टी’ की पहचान प्रभु की चेतन शक्ति के रूप में की है। यह चेतन शक्ति हम जीवों की रचना में उपादान कारण है। अब यह एक सुस्थापित नियम है कि जिस भी संज्ञा या वर्णनात्मक विशेषण का प्रयोग प्रभु की चेतन शक्ति के लिये होगा उसका प्रयोग प्रभु की जड़ शक्ति के लिये भी किया जा सकेगा, यद्यपि उसके अर्थ भिन्न हो जाएंगे। हम जीवों की रचना में प्रभु निमित्त कारण हैं तो उनकी चेतन शक्ति और जड़ शक्ति दोनों उपादान कारण हैं। गुरु अर्जुन देव जी लिखते हैं :

खाक नूर करदं आलम दुनीआइ ॥

असमान जिमी दरखत आब पैदाइसि खुदाइ ॥1॥(5-723)


यहाँ गुरु जी प्रभु की चेतन शक्ति को ‘नूर’ और जड़ शक्ति को ‘खाक’ कह रहे हैं। यहाँ जो कुछ भी है, वह सब कुछ इन दोनों के मिश्रण से है। प्रभु की चेतन शक्ति हम सबका दिव्य मूल है जबकि जड़ शक्ति बुद्धि, मन, प्राण और जड़ का स्रोत है। प्रत्येक रूप के निर्माण में निर्णायक भूमिका प्रभु की चेतन शक्ति की होती है। जड़ शक्ति चेतन शक्ति का अनुगमन करती है।


अंतिम दो पंक्तियों में कबीर जी ने जीव की मुक्ति की विधि और उस मुक्ति के परिणाम का वर्णन किया है जिसकी विस्तृत व्याख्या यहाँ असंगत है किन्तु इन पंक्तियों में आये कुछ पहलुओं पर टिप्पणी आवश्यक है। आप लिखते हैं :

सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥

हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥3॥


‘वह सदा कायम रहने वाला प्रभु सब जीवों में बसता है। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसी का किया हुआ हो रहा है। वही मनुष्य रब का (प्यारा) बँदा कहा जा सकता है, जो उसकी रज़ा को पहचानता है।’ परमात्मा ने अपनी इच्छा से जगत को उत्पन्न किया है और उसी की इच्छा से चल रहा है। जगत की प्रगति की दिशा और दशा वही निश्चित करता है और जो वह निश्चित करता है वही होता है। प्रभु कल्याणरूप है, उसका हुक्म भी कल्याणरूप है; प्रभु को अपना हुक्म अच्छा लगता है और जिन जीवों को उसका हुक्म अच्छा लगता है वे जीव भी उस प्रभु को अच्छे लगने लगते हैं : तेरा हुकमु भला तुधु भावै ।।(1-359) प्रभु की भक्ति का सर्वोतम रूप उसकी इच्छा के अधीन रहना है : बंदी अन्दरि सिफति कराए ता कउ कहीऐ बंदा ।।(1-359) हम जानते हैं कि जगत् में जब कोई व्यक्ति अपनी इच्छा को हमें बताना चाहता है तो वह पहले संकल्प (will) करता है और फिर उस संकल्प को वाणी (speech) के माध्यम से व्यक्त करता है। इस तरह उस व्यक्ति की इच्छा के दो रूप हुए, एक संकल्प के स्तर पर और दूसरा वाणी के स्तर पर। संकल्प के स्तर पर वह इच्छा उस व्यक्ति के अंदर है, वाणी के स्तर पर वही इच्छा उस व्यक्ति के बाहर है। व्यक्ति की इच्छा का पूर्ण ज्ञान संकल्प के स्तर पर ही हो सकता है लेकिन संकल्प के स्तर पर ही दूसरे की मनोदशा को जान लेना इस मायामय जगत् में असंभव है। हम मनुष्यों में परस्पर व्यवहार वाणी के माध्यम से ही होता है। किसी मनुष्य की इच्छा को बिना वाणी की सहायता के जानना असंभव है लेकिन वाणी की सहायता से प्राप्त ज्ञान सदा आंशिक ही होगा। ठीक इसी तरह प्राथमिक रूप से हमें परमात्मा के हुक्म का ज्ञान उसकी वाणी अर्थात उसके संकल्प के रहस्योद्घाटक (revelatory) शब्द के माध्यम से होता है लेकिन हम मनुष्यों के शब्द के समान ही प्रभु के शब्द के अभ्यास से प्राप्त ज्ञान भी प्रतीयमान (phenomenal) व आंशिक होता है। अपने पूर्ण व तात्त्विक (noumenal) रूप में प्रभु के हुक्म का ज्ञान तभी हो सकता है जब हम स्वयं को प्रभु के संकल्प अर्थात नाम से एकमेल कर लें।

अंतिम पंक्ति में कबीर जी लिखते हैं :

अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥

कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥4॥


‘वह प्रभु अलक्ष्य है, इन ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से उसे लक्षित नहीं किया जा सकता’, अलहु अलखु न जाई लखिआ ।’ इससे जीवों के मन में अनेक शंकाएं उत्पन्न होती हैं, जैसे, क्या यह जगत और हम जीव कृत (caused) हैं या अकृत (self caused)? क्या अपनी नियति के संबंध में हम जीव स्वतंत्र हैं या परतंत्र? मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य (summum bonum) क्या है? आदि-आदि। इन प्रश्नों के उत्तरों से हमारे जीवन की दिशा और दशा का निर्धारण हो जाता है। यह अत्यावश्यक है कि इन प्रश्नों को तत्त्वज्ञानी, पूर्ण गुरु से पूछा जाये। पूर्ण गुरु द्वारा इन प्रश्नों का समाधान शब्दों और तर्कों से नहीं किया जाता क्योंकि तर्क द्वारा प्रतिष्ठित जीवन-दर्शन को तर्क द्वारा ध्वस्त भी किया जा सकता है। गुरु द्वारा इन प्रश्नों के दिए गये उत्तर अतीन्द्रिय ज्ञान के रूप में होते हैं। कबीर जी लिखते हैं, ‘मेरे गुरु ने मीठा गुड़ मुझे दिया है’। गुड़ मीठा ही होता है लेकिन कबीर जी फिर भी ‘गुड़’ पद के साथ ‘मीठा’ विशेषण लगा रहे हैं। ‘मीठा गुड़’ पद्यांश प्रभु की परा शक्ति और उसकी अपरा शक्ति में अंतर के भेद को खोलता है। हमने बार-बार लिखा है कि प्रभु की पराशक्ति और अपराशक्ति के लिये एक ही संज्ञा का प्रयोग किया जा सकता है यद्यपि दोनों के संदर्भ में उसके अर्थ भिन्न-भिन्न होंगे। प्रभु की पराशक्ति ‘गुड़’ अर्थात मिठासरूप है तो प्रभु की अपराशक्ति भी ‘गुड़’ अर्थात मिठासरूप है, दोनों में अंतर यह है कि प्रभु की पराशक्ति का स्वरूप मिठास, रस, आनंद है जबकि प्रभु की अपराशक्ति में मिठास का केवल आभास है। हमें ऐसा प्रतीत होता है कि माया के विषयों में रस है किन्तु यथार्थतः ये विषय विष रूप हैं। इस प्रकार गुरु की शरण में आये जीव को गुरु की कृपा से प्रभु की पराशक्ति की प्राप्ति होती है। इससे उसकी समस्त शंकाओं की निवृत्ति होती है, संका नासी, और अंततः उसे प्रभु के उस स्वरूप की प्राप्ति होती है जो माया से सर्वथा निर्लेप है, सरब निरंजनु डीठा


(शेष आगे)

 

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