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Writer's pictureGuru Spakes

From Ayodhya to Eternity: The idea of Shri Ram. Satnam ep13

Updated: Aug 11, 2024

This article is a translated excerpt from my ebook. For a more comprehensive exploration into this topic, check out my full ebook.



 

Read Satnam ep13 to know the idea of SHRI RAM as described by Goswami Tulsidas & Kabir.


In the Indian spiritual literature of the medieval and pre-medieval periods, the name "Ram" is the most commonly used term for God. However, along with its widespread use, this term has also been controversial. The word "Ram" is used with such emotion, which is only appropriate for God, to remember Shri Ramchandra Ji, the king of Ayodhya, who lived in an extremely ancient period of history. Then, God is also called Ram because He dwells in every particle. Often, these two meanings of the word "Ram" become completely confused.



We have also learned that God has four forms. One form is Absolute. Second form is Absolute as well as relative. Third form of God is manifested in the form of the world, whereas the fourth form of God is immanent in this manifestation. These four forms of God are one and the same and are dwelling in every particle. So, in this context, the question is how we can reconcile the historical Ram with the divine Ram?


Both Goswami Tulsidas and Kabir have revealed the same mystery of God and Ram: God is one, and Ram is also one. The same Ram is in four forms. He is Nirgun, Nirgun as well as Saguna. He is manifested in the form of the world, and also the causal reality behind this manifestation. The same Ram assumes the human form and as a divine sport redeems the Jiva.


The idea of Shri Ram
The idea of Shri Ram

Key Highlights:

  • Conflation of "Ram": The text acknowledges the confusion regarding the term "Ram," which refers both to the historical figure of Ramachandra and the divine God who pervades everything.

  • Four Forms of God: It details the concept of God in four forms: Absolute, Relative and Absolute, Manifestation, and Immanent Presence. These forms are one and same, present in every particle.

  • Reconciling Historical and Divine Ram: The question posed is how to reconcile the human Rama with the divine Ram.

  • Oneness of God and Ram: Goswami Tulsidas and Kabir are cited as revealing the unity of God and Ram. They describe Ram as existing in all four forms, transcending both form and formlessness, embodying both creation and its source, and even incarnating in human form for spiritual redemption.


What the Text Tells Readers:

  • The text attempts to clarify the complex relationship between the historical and divine aspects of Ram. It encourages readers to look beyond the literal interpretations and recognize the underlying unity of God, who manifests in various forms while remaining essentially one.


How this Text Can Help Readers:

  • Reduces Confusion: By explaining the different conceptions of Ram, the text helps readers navigate the potential confusion within the traditions.

  • Deepens Understanding of God: It provides a richer perspective on God's nature, encompassing both immanence and transcendence, creation and its source.

  • Promotes Unity: The emphasis on the oneness of God and Ram can foster a sense of spiritual unity and connection with the divine, regardless of specific interpretations.


Overall, the text aims to clarify and guide readers in their understanding of Ram and God, ultimately leading to a deeper spiritual connection and appreciation of the divine essence.

 


 

The Idea of Shri Ram
The Idea of Shri Ram

 

पीछे हमने आदिग्रंथ की बाणी व अन्य धर्मग्रंथों के विस्तारपूर्वक किए गये अध्ययन से यह जाना कि परमात्मा अपने समस्त ऐश्वर्य के साथ हमारे भीतर स्थित है। हम जीव उसी से अस्तित्व पाते हैं। हमारे कर्मों का दिव्य स्रोत वही है। लेकिन हम जीवों को इस रहस्य की कोई समझ नहीं है। पंक्ति के अंतिम चरण में श्री गुरु जी लिखते हैं, ऐसा गिआनु न पाइआ । जीव नहीं जानते कि उनका मूल दिव्य है; कि दिव्यता एक प्रचंडाग्नि के रूप में उनके भीतर है; कि देश व काल में जगत् का समस्त विस्तार माया के तीन गुणों की छलमयी क्रीड़ा है; कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध के समस्त प्रीतिकर लगने वाले विषय माया की विषबेल हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि 'इस संसार वृक्ष का जैसा रूप वास्तव में है वैसा यहाँ देखने को नहीं मिलता। इसका न तो कोई आदि है, न अंत है, न ही स्थिति है। इसलिए इस दृढ़ मूल वाले संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को अनासक्ति रूप दृढ़ शस्त्र के द्वारा काटकर'(15.3) 'उस आदिपुरुष परमात्मा की मैं शरण हूँ' ऐसा भाव रखकर उस परम पद को ढूँढना चाहिए जिससे अनादि काल से चली आ रही यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है और जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते।'(15.4) श्री बावरा जी लिखते हैं, "सत्कार्यवाद के सिद्धांतानुसार यदि आप किसी पदार्थ का अनुसंधान करें तो आपको वह पदार्थ वैसा नहीं मिलेगा जैसा वह दिखता है। एक व्यक्ति का शरीर बाहर से कितना सुंदर दिखता है लेकिन अंदर जाकर देखिए वह वैसा नहीं है। ………….जो आप अपनी आँखों से देख रहे हैं वह सत्य नहीं है, बिल्कुल भ्रांति है ………..आँखें तो केवल वस्तु का परिचय ही दे सकती हैं लेकिन वह वस्तु क्या है यह आँख नहीं बता सकती। ……..यह तुम्हारा स्वीकार किया हुआ संसार है लेकिन वैसा है नहीं। स्वीकार करने में कारण रही तुम्हारी बुद्धि। तुम्हारी अशुद्ध बुद्धि से अशुद्ध रूप स्वीकार किया गया है।"(धर्मविज्ञान भाष्य -15, पृ -31) आप आगे लिखते हैं, "जो भी वस्तु आप देखते हैं उसमें दो हेतु हैं – रंग और आकृति। ………….पदार्थ का जो रंग आप देखते हैं वह उसका अपना रंग नहीं है। रंग तो सूर्य की किरणों का है। जब सूर्य की किरणें पदार्थ पर पड़ती हैं तो जिन रंगों को पदार्थ आत्मसात कर लेता है वे तो दिखाई नहीं देते और जिनको आत्मसात नहीं करता वह रंग बाहर आ जाता है और वही रंग दिखाई देता है …………उस पदार्थ ने जो रंग अस्वीकार कर दिया आप उसे उस पदार्थ का रंग मान रहे हैं। यह ज्ञान है या अज्ञानता।"


"अब आप आकृति देखिए। …………कोई भी आकृति बिना रेखा के नहीं बनाई जा सकती और रेखा का मूल आधार है बिन्दु, बिना बिन्दु के रेखा नहीं बनाई जा सकती ………….जिस रेखा के आधार पर आकृति को स्वीकार किया गया है वह रेखा अपने आप में कुछ नहीं है वह केवल बिन्दु की गति है ……..एक ही आकृति को कई कोण से देखा जा सकता है ………एक ही वस्तु को आप कई कोण से कई आकृतियों में देख सकते हैं। इसलिए अपनी आँखों से देखे होने के नाते आकृति की सत्यता की घोषणा करना भ्रांति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ………..एक ही ऊर्जा, एक ही प्रकृति अनंत रूपों में प्रकट हो रही है। यहाँ जो विभिन्नता तुम्हें दिखाई दे रही है वह है नहीं।"(धर्म विज्ञान भाष्य -15, पृ -32) लेकिन हम जीव उस एकता के प्रति बेसुध हैं, हमें उस एकता का कोई ज्ञान नहीं है।


तीसरी पंक्ति में श्री गुरु जी ने पंडित से कोई प्रश्न नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि पंडित को अपनी अज्ञानता और गुरु जी की महानता का एहसास हो गया है और उसने परमतत्त्व का उपदेश देने के लिये विनय की है जिसके परिणामस्वरूप आपने तीसरी पंक्ति का उच्चारण किया। श्री गुरु जी लिखते हैं, 'चारों ओर राम ही रमण कर रहा है ऐसा ज्ञान तब होता है, राम रवंता जाणिए, जब जीव एक माँ को अनुभव कर लेता है, इक माई भोगु करेइ । ऐसे जीव का लक्षण यह है कि वह क्षमा आदि शुभ गुणों का संग्रहक हो जाता है।'


भारत में रामकथा के व्यापक प्रचार-प्रसार के कारण मध्य व पूर्वमध्यकालीन आध्यात्मिक साहित्य में परमात्मा के लिये सबसे अधिक प्रयोग की गई संज्ञा 'राम' है। लेकिन सर्वाधिक प्रयोग के साथ-साथ यह संज्ञा विवादास्पद भी रही है। इसका कारण भक्ति आंदोलन की निर्गुण व सगुण धाराओं का विवाद है जिसको जानने के लिये इन दोनों धाराओं के प्रतिनिधि क्रमशः कबीर और गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य का अनुशीलन किया जा सकता है। यहाँ इस विवाद पर चर्चा की गुंजायश नहीं है। हम आदिग्रंथ में आए 'राम' पद के अर्थनिर्धारण के प्रयोजन से इन दोनों महान संतों के कथनों पर विचार करके संतोष करेंगे क्योंकि दोनों रामभक्त हैं और भक्ति की भिन्न-भिन्न समझी जातीं दो धाराओं के प्रतिनिधि हैं। राम शब्द के द्वारा ऐसे भावावेग के साथ, जो केवल परमात्मा के प्रति ही उपयुक्त है, इतिहास के किसी अत्यंत प्राचीन कालखंड में हुए रघुकुल-शिरोमणि अयोध्या नरेश श्रीरामचंद्र जी का स्मरण किया जाता है। फिर कण-कण में रमण करने के नाते परमात्मा को भी राम कहा जाता है। अकसर 'राम' शब्द के ये दो अर्थ आपस में पूरी तरह गड्डमड्ड हो जाते हैं। फिर हम यह भी जान चुके हैं कि परमात्मा के चार रूप हैं - ਓੱ, सति, नाम, व शब्द - और परमात्मा के ये चारों रूप एक ही हैं और कण-कण में रमण कर रहे हैं। यहाँ राम पद के द्वारा किस स्वरूप का संकेत है? ऐतिहासिक राम का या परमात्मा का। और यदि परमात्मा का तो उसके किस रूप का? भक्त कबीर लिखते हैं :

जग में चारों राम हैं, तीन राम व्यवहार।

चौथा राम निज सार है, ताका करो विचार।।

एक राम दशरथ घर डोले, एक राम घट-घट में बोले।

एक राम का सकल पसारा, एक राम तिरगुण ते न्यारा।। (राधास्वामी सत्संग ब्यास द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'रामचरितमानस का संदेश' में उद्धरत)


आपके अनुसार जगत् में चार राम हैं जिनमें से तीन राम ऐसे हैं जिनसे साधक का व्यवहार है। एक राम दशरथ के सुपुत्र हैं, वे इतिहास प्रवाह में हुए महान व्यक्ति थे लेकिन एक साधक के लिये उनका व्यावहारिक महत्व शून्य है। साधक के लिये महत्वपूर्ण व व्यवहार्य तीन राम हैं – शब्द, नाम और सतिशब्द घट-घट में बोल रहा है, शब्द प्रभु-शक्ति है जिससे सशक्त होकर प्रत्येक जीव की ज्ञान व कर्म की इंद्रियाँ, उसके मन, बुद्धि आदि अपने-अपने विषयों की ओर प्रवृत होते हैं। चूंकि यह सब कुछ माया के तीन गुणों से निर्मित है अतः हम कह सकते हैं कि शब्द वह राम है जो माया के तीन गुणों में है। शब्द के विपरीत नाम वह राम है जो तीन गुणों से अतीत है। तीसरा राम सति है जो शब्द के रूप में तीन गुणों में वर्त रहा है और नाम के रूप में तीन गुणों से परे भी है, जगत् का सारा पसारा इसी का है। साधक के लिये व्यवहार्य समझे जाते राम के इन तीन रूपों के अतिरिक्त एक चौथा रूप ਓੱ भी है, यह सारवान सत्ता है। श्रुति में इसे ही अव्यवहार्य कहा गया है। राम के रहस्य को जानने के लिये कबीर के साथ-साथ गोस्वामी तुलसीदास भी बहुत उपयुक्त महात्मा हैं। निस्संदेह गोस्वामी जी ऐसे साधक थे जिनका व्यवहार अयोध्या नरेश श्रीरामचंद्र जी से है, वह उनके रोम-रोम में बसे हैं। किन्तु इतिहास पुरुष होते हुए भी उनके राम न तो मृत अतीत का भाग मात्र हैं और न ही राम-कथा राजा-रानी का एक किस्सा मात्र है। राम-कथा में जीवात्मा की सम्पूर्ण आत्मिक यात्रा को बहुमुखी व सशक्त प्रतीकों के द्वारा अत्यंत मार्मिक रीति से प्रस्तुत किया गया है। इन प्रतीकों के रहस्य को यथास्थान उजागर किया जाएगा। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि गोस्वामी तुलसीदास ने भी राम-कथा के द्वारा परमात्मा व राम का वही रहस्य बताया है जो कबीर ने बताया है। परमात्मा एक है, राम भी एक हैं। एक ही राम चार रूपों में हैं। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं : राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा।।(रामचरितमानस 2/93-7) इस पंक्ति में परमात्मा के उस रूप को राम कहा गया है जिसे आदिग्रंथ के मूलमंत्र में ਓੱ कहा गया है। फिर आप एक और जगह लिखते हैं : जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।(रामचरितमानस 1/7) 'मय' प्रत्यय परिपूर्णता का अर्थ देता है, जैसे प्रेममय अर्थात प्रेम से परिपूर्ण, प्रेम से भरा हुआ। जब जगत् को राममय कहा गया तो वहाँ राम शब्द द्वारा सत्यस्वरूप परमात्मा सति का संकेत किया गया है। सारा जगत् सति से परिपूर्ण, उससे ठसाठस भरा हुआ है। यह राम अनादि व सबके परम प्रकाशक हैं : सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई।।(रामचरितमानस 1/117-6) फिर आपने दूसरे स्थान पर समस्त जगत् को सीताराममय कह दिया है, सियाराममय सब जग जानी, अर्थात सारा जगत् श्रीराम और सीता जी से परिपूर्ण है। ऐसा कह कर आपने परमात्मा के उसी युग्म की ओर संकेत किया है जिसे आदिग्रंथ की बाणी में नामशब्द कहा गया है। जब राम को परम प्रकासक कहा गया तो उससे सति की ओर संकेत किया गया। सति में प्रकाशक और प्रकाश्य अभिन्न हैं, सीताराम के युग्म में राम प्रकाशक हैं जबकि सीता प्रकाश्य है, और ये दोनों भिन्न-अभिन्न हैं अर्थात यहाँ ये भिन्न कहे जाते हैं लेकिन वस्तुतः अभिन्न हैं, कहियत भिन्न न भिन्न । निखिल ब्रह्मांड के प्रभु श्रीराम एक हैं; यह एक राम ही सृष्टि रचना के प्रयोजन से राम व सीता के युग्म में स्वयं को प्रकट करते हैं, ऐसे ही एकंकार प्रभु सति सृष्टि रचना के प्रयोजन से स्वयं को नामशब्द के युग्म में विभाजित करते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि परात्पर कृष्ण ही राधा और कृष्ण दो रूपों में प्रकट होते हैं। कश्मीरी शैव दर्शन और शिव पुराण में बताया गया है कि परमशिव ही शिव और शक्ति दो रूपों में प्रकट होते हैं। इस मिथुन को राम और सीता कहें, शिव और शक्ति कहें, कृष्ण और राधा कहें, नाम और शब्द कहें कोई अंतर नहीं पड़ता। एक प्रभु की सत्ता है तो दूसरा प्रभु की शक्ति है, जो प्रभु की सत्ता में स्थिर हो जाता है वह बंधन-मुक्त हो जाता है लेकिन सत्ता की प्राप्ति शक्ति के माध्यम से होती है।


अतः जब भी बाणी में राम पद का प्रयोग मिले इससे संदर्भनुसार सति, नाम अथवा शब्द का संकेत समझना चाहिए। यहाँ गुरु नानक देव जी राम रवंता जाणिए पद्यांश के जरिए प्रभु की तीन गुणों से अतीत सत्ता नाम की ओर संकेत कर रहे हैं। यह राम अथवा नाम चारों ओर रमण कर रहा है, इसका ज्ञान तब होता है जब जीव इक माई भोगु करेइ । माई अर्थात माँ दो हैं, एक परा प्रकृति अर्थात शब्द, और दूसरी अपरा प्रकृति अर्थात माया। पराप्रकृति ज्ञान की मूलभूता है, अपराप्रकृति अज्ञान की मूलभूता है। हम यह भी कह सकते हैं कि एक ही माँ दो रूपों में है। दुर्गासप्तशती में कहा गया है : या देवी सर्वभूतेषु कांतिरूपेण संस्थिता ।। और फिर, या देवी सर्वभूतेषु भ्रांतिरूपेण संस्थिता ।। यह माँ सभी जीवों में है लेकिन दो रूपों में है कांतिरूपेण और भ्रांतिरूपेण । पहला रूप ज्ञान का मूल है तो दूसरा रूप अज्ञान का मूल है। जब जीव को चारों ओर एक परमात्मा की सत्ता का अनुभव हो तो यह ज्ञान है, जब जीव को चारों ओर अनेकता का अनुभव हो तो यह अज्ञान है। माया नानात्व का मूल है, यह नानात्व भ्रांति, अज्ञान है। शब्द एकत्व का मूल है, यह एकत्व ज्ञान है। गुरु जी कह रहे हैं, इक माई । यहाँ इक संख्यावाचक विशेषण नहीं अपितु कल्याणस्वरूप प्रभु-शक्ति का स्वरूपबोधक पद है। शब्द अथवा पराप्रकृति एक है, इक, और जगत् की प्रत्यक्ष दीखती बहुलता का आध्यात्मिक मूल है, यह सारे जगत् की माँ जगदंबा है। श्रीअरविन्द लिखते हैं, ''यही वह मूलभूत शक्ति है ………जो ……….सबकी प्राकृत सत्ता का स्वांत:स्थित तत्त्व और ईश्वरी शक्ति है। …………अपरा प्रकृति का यह सारा नामरूपात्मक कर्म, यह अखिल मनोमय, इंद्रियगत और बौद्धिक व्यापार केवल एक बाह्य प्राकृत दृश्य है जो उसी आध्यात्मिक शक्ति के कारण संभव होता है, उसी से इसकी उत्पत्ति है, और उसी में इसका निवास है, उसी से यह है। यदि हम केवल इस बाह्य प्रकृति में ही रहें और हमारे ऊपर इसके जो संस्कार होते हैं उन्हीं से हम जगत् को समझना चाहें तो हम कदापि अपने कर्ममय अस्तित्व के मूल वास्तविक तत्त्व को नहीं पा सकते। वास्तविक तत्त्व यही आध्यात्मिक शक्ति …….है जो सब पदार्थों के अंदर है या यह कहिए कि जिसके अंदर सब पदार्थ हैं और जिससे सब पदार्थ अपनी शक्तियों और कर्मों के बीज ग्रहण करते हैं। उस सत्तत्व, शक्ति और भाव को प्राप्त होने से ही हम अपने भूतभाव का असली धर्म और अपने जीवन का भागवत तत्त्व पा सकेंगे, केवल अज्ञान में उसकी प्रक्रियामात्र ही नहीं, बल्कि ज्ञान के अंदर उसका मूल और विधान भी पा सकेंगे।'' (गीता-प्रबंध, पृ -248) परमदेव परब्रह्म पुरुषोत्तम की स्वरूपभूत अचिंत्य दिव्य शक्ति का भोगु अर्थात साक्षात्कार कैसे होता है? वेद का ऋषि लिखता है, ''उन्होंने ध्यानयोग में स्थित होकर ध्यानयोगनुगता: अपने गुणों से ढकी हुई स्वगुणै: निगूढ़ाम् उस देवात्मशक्ति को देखा जो अकेले ही एकः सम्पूर्ण कारणों पर शासन करती है।"(श्वेताश्वतर उपनिषद, 1.3) जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में हम परमात्मा की अदिव्य शक्ति का आनंद लेते हैं। परमात्मा की दिव्य शक्ति का आनंद ध्यान के माध्यम से तुरीय अवस्था में होता है।


(शेष आगे)

 

Continue reading▶️Satnam ep14

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Divyansh
Divyansh
22 gen 2024
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JAI SHREE RAM 🕉️🇮🇳

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RK25
RK25
21 gen 2024
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Beautiful ❤️

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