Kartapurush ep45 discusses the five worlds of creation according to Guru Nanak Dev Ji: Sachkhand, Karamkhand, Saramkhand, Gyankhand and Dharamkhand.
It explains the nature and existence of each world: Sachkhand and Karamkhand are spiritual, Saramkhand is mental, Gyankhand is vital and Dharmakhand is material and subtle.
The article argues that Dharmakhand is not only the physical world but also includes the subtle world and provides a rationale for this view point in it.
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गुरू नानक देव जी के सृष्टि चित्रण में अंतिम खंड धर्मखंड है। आपने धर्मखंड का वर्णन 34वीं पउड़ी की 11 पंक्तियों व 35वीं पउड़ी की पहली एक पंक्ति में किया है। ये कुल 12 पंक्तियां इस प्रकार हैं :
पउड़ी 34
राती रुती थिती वार ॥ (1)
पवन पाणी अगनी पताल ॥ (2)
तिसु विचि धरती थापि रखी धरमसाल ॥ (3)
तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥ (4)
तिनके नाम अनेक अनंत ॥ (5)
करमी करमी होइ वीचारु ॥ (6)
सचा आपि सचा दरबारु ॥ (7)
तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥ (8)
नदरी करमि पवै नीसाणु ॥ (9)
कच पकाई ओथै पाइ ॥ (10)
नानक गइआ जापै जाइ ॥ (11)
पउड़ी 35
धरम खंड का एहो धरमु ॥ (12)
हमने जाना है कि सृष्टि रचना के क्रम से धर्मखंड अंतिम खंड है जबकि आत्मा के उत्थान के क्रम से यह प्रथम खंड है। यह स्थूल भौतिक सृष्टि है जिसमें हम निवास करते हैं और जहां से हमने अपने आध्यात्मिक विकास की यात्रा आरम्भ करनी है। हम देख चुके हैं कि पांचों खंडों का वास्तविक अस्तित्व है और प्रत्येक खंड की विशिष्ट प्रकृति है। सचखंड व करमखंड आध्यात्मिक लोक हैं, सरमखंड मानसिक सृष्टि है जबकि ज्ञानखंड प्राणिक सृष्टि है, इस लिहाज से धर्मखंड जड़, स्थूल सृष्टि है। लेकिन फिर भी हमारा मानना है कि धर्मखंड केवल जड़, भौतिक जगत् ही नहीं है इसमें सूक्ष्म जगत् भी सम्मिलित है। इस प्रकार धर्मखंड के प्रति हमारा दृष्टिकोण द्विविध होना चाहिए। हमारा यह दृष्टिकोण ठोस कारणों पर आधारित है।
सर्वप्रथम, पांचों खंडों को पढ़ते हुए जो बात खटकती है, वह गुरू साहिब द्वारा अपनाई गई वर्णन की विधि है। पांच खंड हैं, जिनका वर्णन पांच के स्थान पर चार पउड़ियों में किया गया है। हम इसे इस तर्क से युक्तियुक्त सिद्ध कर सकते हैं कि करमखंड व सचखंड अभिन्न है, दोनों आध्यात्मिक लोक हैं। सचखंड सत्यस्वरूप परमात्मा का निज धाम है जबकि करमखंड वह धाम है जिस पर प्रभू की कृपा या करम है। जिस पर उस अविनाशी प्रभू की कृपा होगी वह उसी के समान अविनाशी होगा। इसलिए इन दोनों लोकों का वर्णन एक ही पउड़ी में है। अब शेष तीन पउड़ियों का वर्णन तीन पउड़ियों 34, 35 व 36 में अलग-अलग किया जा सकता था। लेकिन गुरू साहिब ने इन तीनों के वर्णन को गड्डमड्ड किया है। धर्मखंड का वर्णन 12 पंक्तियों मे फैला है जिनमे से 11 पंक्तियां पउड़ी संख्या 34 में हैं और 1 पंक्ति पउड़ी संख्या 35 में है। ज्ञानखंड का वर्णन पउड़ी संख्या 35 की दूसरी पंक्ति से आरम्भ होकर पउड़ी संख्या 36 की दूसरी पंक्ति तक जाता है जबकि सरमखंड का वर्णन इसी पउड़ी की शेष पंक्तियों में दे दिया गया है। अर्थात् किसी भी एक खंड का ब्यौरा अनन्य रूप से एक ही पउड़ी तक सीमित नहीं है। हमारी समझ के अनुसार सृष्टिवर्णन का यह अनुशासन इन तीन खंडों की इस मूलभूत विशेषता की ओर संकेत करता है कि ये खंड परस्पर अनन्य (exclusive) नहीं हैं। कारण, जो चेतन सत्ता करमखंड में भरपूर है उसी की चेतन शक्ति ने इस त्रैलोक्य की सृष्टि की है। यह चेतन शक्ति एक नदी के प्रवाह की तरह निरंतर है। कारण, सूक्ष्म व स्थूल -ये तीनों जगत् इसी शक्ति के विस्तार के परिणाम हैं। विस्तार की प्रत्येक अवस्था में उसमें निरंतर विभाजन व रूप परिवर्तन होता रहता है किंतु यह प्रक्रिया इतनी मंद गति से होती होगी कि यह लगभग अव्यक्त (imperceptible) होगी। इस विकास यात्रा में उन अवस्थाओं के बीच नदी की धारा के समान सुनिश्चित वर्गीकरण असंभव ही होगा। लेकिन फिर भी ऐसे चरण अवश्य होंगे जो पिछले चरणों की अपेक्षा पूर्णतः भिन्न होंगे और उनके बारे में यह कहा जा सकेगा कि यह नया लोक या खंड है। इसलिए गुरू साहिब द्वारा, या किसी के भी द्वारा, सृष्टि का किया गया कोई भी वर्गीकरण मूलभूत, आत्यंतिक व अंतिम नहीं हो सकता। वर्गीकरण की वैकल्पिक विधियां हो सकती हैं और मेहर बाबा जैसे रहस्यवादियों के चिंतन में हम इन्हें अनुप्रयुक्त होता हुआ भी देख सकते हैं। यदि हम उनके वर्गीकरण की तुलना गुरू नानक द्वारा किए गए वर्गीकरण से करें तो हमें सृष्टि के बारे में महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी।
मेहर बाबा ने अपनी पुस्तक God Speaks में सृष्टि का विभाजन सात तबकों में किया है। उनके अनुसार पहला तबक आधा स्थूल व आधा सूक्ष्म मंडल में है। हमारे विचार में यही जपुजी का धर्मखंड है अर्थात् धर्मखंड में केवल स्थूल जगत् ही नहीं, सूक्ष्म जगत् भी सम्मिलित है। इसी तरह मेहर बाबा के अनुसार दूसरा व तीसरा तबक पूरी तरह सूक्ष्म जगत् हैं जबकि चौथा तबक आधा सूक्ष्म व आधा मानसिक मंडल में है। इसी तरह पांचवां व छेवां तबक पूरी तरह मानसिक मंडल में है। इससे स्पष्ट हुआ कि बाबा जी द्वारा बताया गया दूसरा व तीसरा तबक पूर्ण रूप से और चौथे तबक का पहला भाग जपुजी में प्रतिपादित ज्ञानखंड है। दूसरी ओर चौथे तबक का उत्तरार्ध व पांचवां तथा छेवां तबक पूर्ण रूप से सरमखंड है। आपने यह भी लिखा है कि तीसरे व चौथे तबक में साधक को ऋद्धियों-सिद्धियों की अपार शक्ति प्राप्त हो जाती है जिनका हम अंदाज़ा भी स्थूल शरीर व जगत् में नहीं लगा सकते। यह कहना गलत न होगा कि यह शक्ति उस प्रचंड ज्ञान का परिणाम है जिसके अनुभव की पुष्टि गुरू नानक ने ज्ञानखंड के अपने वर्णन में की है। मेहर बाबा ने यह भी लिखा है कि चौथे तबक से निकल कर पांचवें तबक में प्रवेश दैवी द्वार में प्रवेश है। यहां साधक को यकीन होता है कि परमात्मा है, लेकिन परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन, एक दृश्य के रूप में उसे छठे तबक में होते हैं जोकि मानसिक मंडल का दूसरा भाग या सरमखंड है। लेकिन यह पूर्ण एकता नहीं है। यहां वह अपने आपको दृष्टा व परमात्मा को दृश्य के रूप में देखता है। इस द्वैत का निवारण सातवें तबक में होता है जोकि जपुजी के अनुसार करमखंड है। स्पष्ट है कि मेहर बाबा ने सचखंड को करमखंड से भिन्न न मान कर किसी आठवें तबक की परिकल्पना नहीं की और यह जपुजी की इस योजना के अनुसार है जिसमें गुरू साहिब ने इन दोनों खंडों को एक ही पउड़ी में रखा है हालांकि गुरू साहिब के दर्शन में पांच की संख्या महत्त्वपूर्ण है। पांचों खंडों के भेद को जानने वाले को ही 'पंच' कहा गया, तिथै सोहनि पंच परवाणु । इस तरह हम कह सकते हैं कि मेहर बाबा द्वारा बताए गए सातवें तबक में वस्तुतः दो खंड अंतर्वलित हैं - करमखंड व सचखंड। इन दोनों की मूलभूत एकता को हम पहले ही बता चुके हैं।
प्रसंगवश यहां यह जानना भी महत्त्वपूर्ण होगा कि वैदिक साहित्य में ये दोनों दृष्टिकोण मिल जाते हैं। ऋग्वेद में सात की संख्या के अनेक संदर्भ मिलते हैं यथा सात विचार-सरणियां (thoughts), सात गाय, सात ऊर्जाएं, सात नदियां, सात ऋषि, सात जल आदि। ये वस्तुतः सात मंडल (realms) हैं जो समष्टि जगत् की व्यवस्था में ही मूलभूत हैं। दूसरी ओर ऋग्वेद (1.62.6) में कहा गया है : उसने उच्चतर जगत् की मधुस्वरूप धाराओं वाली चार नदियों के जल को वक्र क्षेत्र में प्रवाहित किया (He set flow in the crooked place the four rivers of the upper world whose streams are honey.) जगत् की योजना में पांच मंडल हैं जिनमें से चार में रसरूप शब्द का प्रवाह है लेकिन पांचवां मंडल यह स्थूल जगत् है जहां शब्द का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। इन्द्र की कृपा से इस स्थूल जगत् में रहते हुए भी साधक में शब्द प्रकट होता है।
इससे पता चलता है कि सृष्टि का पांच खंडों में विभाजन अनन्य नहीं है। एक तो प्रत्येक खंड के भीतर पर्याप्त विविधता है; दूसरे, एक खंड की विशेषताएं अक्सर दूसरे खंड में प्रवेश कर जाती हैं जिससे उनमें अतिव्याप्ति (overlapping) पैदा होती है। यही कारण है कि गुरू नानक त्रिलोकी के तीनों खंडों के वर्णन को गड्ड-मड्ड करते हैं। इसी कारण से हमने धर्मखंड को स्थूल जगत् मानते हुए उसे सूक्ष्म जगत् के प्रतिनिधि के रूप में भी मानने का आग्रह किया है। धर्मखंड के दो भाग हैं, एक जड़, भौतिक जगत् जहां हम सभी जीवनपर्यंत निवास करते हैं, दूसरा वह सूक्ष्म जगत् जहां मौत के बाद हम सभी अनिवार्य रूप से प्रस्थान करते हैं।
(धर्मखंड के दुहरे स्वरूप का एकमात्र यही कारण नहीं है, इसका एक अन्य कारण भी है। उसके संबंध में शेष आगे)
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